अध्याय 20
मई के अंत में, आलू की बुवाई होने के बाद,
निकोलाय मिखाइलोविच घर बनाने में जुट गया. नींव पूरी भर दी, पाँच क्यूबिक मीटर्स
बीम ख़रीदी और घरेलू क्रेन से पाँच फ्रेम्स लगाईं. भविष्य के बड़े घर का ख़ाका नज़र
आने लगा.
पैसों के अभाव में आगे का काम रुक गया.
घर को बगैर देख-रेख के छोड़कर फिर से बीबी
के साथ मधुमालती चुनने जाने लगा. हर बार, वापस आते हुए ये आशंका सताती थी कि घर का
दरवाज़ा टूटा हुआ मिलेगा, कॉटेज की सारी चीज़ें इधर-उधर फ़िंकी होंगी, स्प्रिट का
स्टॉक ख़त्म हो चुका होगा...मगर, ज़ाहिर था कि लोग एल्तिशेव से डरते थे – किसी ने घर
में घुसने की हिम्मत नहीं की.
बेटा शहर में रहता था, काम कर रहा था.
कभी-कभार आता था – नहाने के लिए, सूप पीने के लिए...शहर में वह एक ब्रिगेड़ में काम
कर रहा था जो रिहाइशी मकानों की पहली मंज़िलों को दुकानों में बदलने का काम करती
थी. म्यूज़िक कॉलेज के हॉस्टेल में रहता था – ब्रिगेड ने वहाँ कमरा लिया था: तीन
बन्क-बेड्स रखवाए थे.
“तो, वहाँ तुम छह लोग हो?” अचरज और परेशानी से
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा, जब आर्तेम ने अपने बारे में बताया.
“आँ-हाँ.” और माँ-बाप की ओर इस तरह से देखा कि
उन्होंने आगे कोई सवाल पूछे ही नहीं – ऐसा लगा, कि वह ख़ुद ही अभी सवाल पूछने
लगेगा. और फिर से सब कुछ झगड़े के साथ ख़तम होगा.
निकोलाय मिखाइलोविच अक्सर उससे बात करने
से बचता था. बहस करने की इच्छा ही नहीं होती थी, और अगर बहस करने लगो तो सब कुछ
सिर्फ बहस से ही ख़त्म नहीं होगा – इन दो महीनों में आर्तेम काफ़ी बदल गया था. ये
बात नहीं कि वह ताक़तवर हो गया था, मगर उसकी नज़रों में, उसके हाव-भाव में, उन गिने-चुने वाक्यों में जो वह कहता था, एक आह्वान, एक ललकार महसूस होती थी.
अपनी वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति का तमाशा बना रहा था (उनके ब्रिगेड में,
उसके अलावा बाकी सब भूतपूर्व कैदी ही थे, बेघर, अट्टल पियक्कड़) और अपनी वेष-भूषा
से यह दिखाने की कोशिश कर रहा था: “देखो, क्या बन गया हूँ मैं. और ये सिर्फ तुम
लोगों की वजह से. उसके अन्दर कुछ ऐसी चीज़ आ गई जैसी डेनिस में दिखाई देती थी, जब
वह फ़ौज से लौटा था – मग़रूरियत आ गई थी.
माँ-बाप के यहाँ आने पर अब वह पैसे नहीं
मांगता था, ऐसा दिखाता था कि उसके पास पर्याप्त पैसे हैं. मगर खाता खूब था, लालची
की तरह, पीता भी खूब था, बिना किसी लिहाज़ के. अगर घर के काम में मदद करने को नहीं
कहते, तो वह किचन में पडे पलंग पर लेट जाता और शाम की बस का समय होने तक सोता
रहता.
उसके पारिवारिक जीवन के बारे में बात नहीं
करते थे. मगर एक बार माँ से रहा न गया:
“वहाँ क्या हाल है? अब रोद्या का क्या?”
आर्तेम खिंच गया:
“मालूम नहीं. तलाक ले लूँगा – और बस. भाड़ में
जाएँ वे...”
ये तो अच्छा हुआ कि इन गर्मियों में वह
गाँव में बहुत कम बार आया, और आने के बाद भी, क्लब या तालाब की ओर नहीं गया. जून
के पहले सप्ताह में कई नौजवान गाँव में आए थे – टीन-एजर्स; लड़कियाँ भी आई थीं, अपने
दादा-दादियों के पास (पिछली गर्मियों में इतने सारे नहीं आए थे); हर रात क्लब के
पास ज़िन्दगी मचलती थी, वे चिल्लाते, चीख़ते, मोटरसाइकल्स खड़खड़ाते. हमेशा एल्तिशेवों
के यहाँ स्प्रिट के लिए आते रहते, अक्सर उधार मांगते, निकोलाय मिखाइलोविच मना कर
देता. आवाज़ चढ़ाकर बात करना पड़ता, गेट से ही भगाना पड़ता, ज़्यादा ज़िद्दी छोकरों को
ब्लैक-लिस्ट में डाल देने की धमकी भी देनी पड़ती.
गाँव में एक बुरी घटना हुई, और पतझड़ के
आते-आते उसमें कुछ और घटनाएँ भी जुड़ गईं.
पहले तो इस ओलेगजान ने, जिससे आर्तेम को
डर था, शराब पीते हुए अपने हमप्याला शराबी को मार डाला. पूरा हफ़्ता उसे ढूँढ़ते रहे
– घर-घर गए, जंगल छान मारा, मगर मरियलपन से, बिना किसी जोश के.
“एक कुत्ता होना चाहिए,” एक बार निकोलाय
मिखाइलोविच ने रास्ते पर भटकते हुए खोजकर्ताओं को सलाह दी.
वे मुँह टेढ़ा करके मुस्कुराए – मतलब,
कुत्ता कहाँ से...
ओलेगजान सितम्बर में शहर में पकड़ा गया –
वह फिर से दिन-रात चलने वाली दुकान को लूटने की कोशिश कर रहा था; इत्तेफ़ाकन
पुलिस-फोर्स पास ही में थी, पकड़ लिया.
दूसरी घटना भी हत्या की ही थी. सीधे क्लब
में, डान्स करते समय स्थानीय छोकरे ने ज़ाखोल्मोवो से आये लड़के को कुल्हाड़ी से मार
डाला. लड़की के कारण – अठारह साल की पोती बूढ़े दाद-दादी के यहाँ आई और लगी नख़रे
दिखाने. ये दोनों उसे बाँटना नहीं चाहते थे. लड़की को घर भेज दिया गया – क़ातिल को –
शहर की जेल में, और गाँव में सबको ज़ाखोल्मोवो के छोकरों के हमले का डर सताने लगा.
बूढ़ी औरतें थरथराकर कहतीं: “जला देंगे हम सबको, ज-ला दें-गे,”- और वे याद करने
लगीं कि कैसे कभी गाँव-गाँव में लड़ाई हुई थी, हत्याओं का बदला आग लगाकर लिया गया.
“बीस घर जल गए थे!”
आग का डर सही साबित हुआ. ख़ुदा का शुक्र है
कि कॉटेजेस को नहीं जलाया, बल्कि क्लब में आग लगा दी. हो सकता है, ज़ाखोल्मोवो के
छोकरों ने ना भी जलाया हो – हो सकता है, वे स्थानीय छोकरे हों; हो सकता है यूँ ही
आग लग गई हो, मगर क्लब फ़ौरन पूरी तरह जल गया, पूरे सामान समेत, लाईब्रेरी भी जल
गई.
आग लगने के समय निकोलाय मिखाइलोविच अपने
गेट के पास पहरा दे रहा था, उड़कर आती हुई लाल-लाल चिंगारियों को कॉटेज से दूर भगा
रहा था. और उसी समय, अगस्त के अंत में, एक और घटना हुई...इस आदमी को वह लगभग नहीं
जानता था, तीन-चार बार सड़क पर आमना-सामना हुआ था. कम ऊँचा, दुबला-पतला,
जल्दी-जल्दी, फ़िकर में डूबा चलता था, जैसे उसे कहीं पहुँचने में देर हो रही हो.
लोग उसे वालेर्का कहते थे (मगर इस
‘वालेर्का’ में नफ़रत का भाव नहीं था, बल्कि सहानुभूति का पुट था), वह दूसरे गाँव
का था – लुगाव्स्कोए का, जो बड़ा गाँव था और कहते थे कि काफ़ी समृद्ध भी था.
लुगाव्स्कोए में वालेर्का का परिवार था – बीबी और बेटा, मगर वह यहाँ रहता था -
मनचली, पियक्कड़, कई बच्चों वाली लेन्का के साथ. तात्याना आण्टी अक्सर इस बारे में
बात करती थी (समझ में नहीं आता कि उसे कहाँ से ख़बरें मिलती थीं – बाहर तो वह सिर्फ
अंतिम कुछ हफ़्तों से ही जाने लगी थी), उसे वालेर्का पर दया आती थी: “अच्छा आदमी
है, बेहद मेहनती है, और देखो तो किससे जुड़ गया. ढूँढ़ी भी तो कौन...”
मगर जब एल्तिशेव ने इस लेन्का को देखा तो
समझ गया कि क्यों “अच्छा” वालेर्का उससे जुड़ गया था. वह मज़बूत, लेकिन छरहरे बदन की
थी, बाल काले, घने, चेहरा हालाँकि सूजा हुआ था, मगर उसकी सुन्दरता नज़र आती थी और
शराब के कारण उसकी चमक फीकी नहीं हुई थी. उसके अन्दर कुछ ऐसी बात थी जो किसी भी
सामान्य आदमी को अपनी ओर खींचती थी – ऐसा महसूस होता था कि यह वास्तविक मादी है, सेक्सी,
जिसे प्रकृति ने इसलिए बनाया है कि आदमियों को ख़ुशी दे. कितनी भी वोद्का, कितने भी
बच्चे उसके भीतर की इस बात को ख़त्म नहीं कर सकते.
कहते थे, कि वालेर्का उसके साथ क़रीब तीन
साल रहा. मगर कैसे रहा – बस, तड़पता रहा. वह मवेशी पालन का काम करता था. जब तक उसकी
फर्म पूरी तरह से बन्द नहीं हो गई, वह सुबह घर से निकल जाता, और लेन्का के पास
फ़ौरन शराब पीने वाले आ जाते. शाम को वापस लौटता, उन्हें बाहर निकालता, कभी-कभी तो
मार-पीट तक की नौबत आ जाती थी, उसकी कई बार जमकर पिटाई हुई थी. उसने एक बार एक
बछिया ख़रीदी, उसके लिए घास ख़रीदी, सानी तैयार की, मगर एक महीने बाद बीबी और उसके
हमप्याला साथियों ने कौड़ियों के दाम इस बछिया को बेच दिया – पीने के लिए पैसों की
ज़रूरत थी; वालेर्का पता ही नहीं लगा पाया कि किसको बेची थी.
सिर्फ वालेर्का की बदौलत ही लेन्का के
बच्चे स्कूल जाते थे, भूखे नहीं रहते थे. और लेन्का का पीना दिन-ब-दिन बढ़ता ही
जाता था, ज़रा ज़रा सी बात पर वह वालेर्का को घर से निकाल देती थी, अपने दोस्तों को
उसके पीछे लगा देती थी. वह उसे बेहद प्यार करता था – उसे छोड़कर नहीं गया, कभी कभी
बाथ-हाऊस में बेंच पर सोता; मगर अब उसके सामने कोई चारा ही नहीं था...और इस पतझड़
में उससे बर्दाश्त नहीं हुआ – अपनी पुरानी कार के पेट्रोल-टैंक से बचा-खुचा पेट्रोल
निकाला, आँगन में अपने ऊपर छिड़क लिया और आग लगा ली. किसी की भी नज़र नहीं गई –
सिर्फ लेन्का के बच्चों ने दूसरे दिन देखा, कम्पाऊण्डर के पास भागे, उसने
“एम्बुलेंस” बुलाई, मगर देर हो चुकी थी – वह बुरी तरह जल चुका था, ख़ून भी संक्रमित
हो चुका था. कुछ दिनों के बाद मर गया.
एल्तिशेव ने लगभग उदासीनता से हत्याओं और
आत्महत्याओं के किस्से सुने, सड़क के उस पार क्लब को जलते हुए देखा भी था. बेशक, उस
अग्निकांड के समय अपने घर के लिए डरा भी था, मगर नौजवान लोगों की मौत का उसे कोई
अफ़सोस नहीं हुआ. उनकी ज़िन्दगी बिना किसी मक़सद के और बेकार ही में बर्बाद हो रही
थी, उनके शौक और उनके प्यार के किस्से बेवकूफ़ी भरे थे, उनकी मौत भी बेवकूफ़ी भरी ही
थी. हाँ, और अपनी तथा अपने परिवार की ज़िन्दगी में भी इस अर्थहीनता और बेकारी का
एहसास निरंतर बढ़ता जाता था. बेशक, कुछ तो था, कुछ सफ़लताएँ भी मिली थीं, कुछ आशा
नज़र आती थी, मगर अंधेरा धीरे-धीरे और निरंतर गहरा होता जा रहा था. आशा का स्थान
दुख और कड़वाहट ने ले लिया था. इनसे कोई राहत नहीं थी.
इन गर्मियों में भी घर नहीं बन पाया, बेटे
की ज़िन्दगी, ज़ाहिर है, पूरी तरह ‘सेटल’ नहीं हो पाई, उसकी बीबी, चाहे जैसी भी हो,
मगर वयस्क है – बच्चा है – अब न जाने किन परिस्थितियों में वह काम कर रहा है; वह
और वलेन्तीना – स्प्रिट के मशहूर व्यापारी बन गए हैं, और न जाने स्थानीय शराबियों
की कितनी अभागी बीबियाँ उन्हें कोसती होंगी. शराबी या फिर वो लोग, जो अभी-अभी
शराबी बने हैं, चौबीसों घंटे आते रहते: ऐसा लगता है कि मुरानोवो के सभी वयस्क लोग
उनके पास बार-बार आते रहते थे. एल्तिशेवों के गेट के पास. ये बात समझ में आती थी
कि कोई सिर्फ त्यौहार के अवसर पर स्प्रिट ख़रीदता था, क्योंकि दुकान से वोद्का लाना
संभव नहीं था; किसी बुढ़िया को आधा लिटर की ज़रूरत थी, जिससे लकड़ियों का, बुआई का
हिसाब चुका सके. मगर फिर भी लोग आते रहते-आते रहते, पीते रहते-पीते रहते; दिन में
भी और रात में भी गेट पर टकटक करते. कुछ लोग उदासीनता से और बदतमीज़ी से पैसे आगे करते, जैसे कोई अमीर ग्राहक घृणित
दुकानदार को देता है, कुछ लोग फ़ौरन, चोरी से, इधर-उधर देखते हुए – कि कहीं अचानक
दौड़कर बीबी न आ जाए, कुछ और लोग पैसों के बदले अपने औज़ार, कपड़े थमा देते, या फिर
मीट, जल्दी-जल्दी में पकड़े गए कलहंस का, थरथराते हुए कहते: “एक घूँट दे दे इसके
बदले, मिखाइलिच. मर जाऊँगा.” चीज़ें लेने से तो एल्तिशेव साफ़ इनकार कर देता था, मगर
मीट के सामने, ख़ासकर ताज़ा मटन या मुर्गियों के लिए खाने के सामने वह टिक नहीं पाता
था. ईमानदारी से अदला-बदली करता था, उन्हें चूसता नहीं था. मगर ऐसी अदला-बदली के
बाद दूसरे शराबी चैन नहीं लेने देते: “ये ले, मटन ताज़ा है...बीज बढ़िया हैं, अंकल
कोल्. ले-ले!”
गेट के पास हर रोज़ हो रहे युद्ध के दो दिन
बाद (मारपीट तक तो नौबत नहीं पहुँची थी, मगर धक्कामुक्की ज़रूर हो रही थी) दीन्गा
बीमार हो गई. डेढ़ साल में वह काफ़ी मज़बूत हो गई थी...मज़बूत गर्दन, सामने वाले
तीक्ष्ण पंजे जो एस्किमो कुत्ते की ख़ासियत है. बेकार में नहीं भौंकती थी, मगर, जब
ये महसूस करती थी कि मालिक ख़तरे में है, तो वह दुश्मन पे हमला कर देती थी. दो बार
उसने चीख़ने-चिल्लाने वालों को पकड़ लिया था, जो बाद में निपटने की बात कह रहे थे.
एल्तिशेव ने दीन्गा को आँगन में पड़ी हड्डियों और सड़क पर पड़े ब्रेड के टुकड़ों को न
उठाने की ट्रेनिंग दी थी, जिन्हें वह ख़ुद ही चुपके से फेंक देता था – डरता था कि
कोई उसे ज़हर न दे दे. और वह भी एल्तिशेव की बात मानती थी. खाने की चीज़ पड़ी देखती
तो मालिक को बुलाती, जैसे कोई शिकारी कुत्ता करता है; निकोलाय मिखाइलोविच उसे उठा
लेता और बदले में दीन्गा को कोई ज़्यादा स्वादिष्ट चीज़ खिलाता – सॉसेज या बिस्कुट.
और अचानक वह निढ़ाल रहने लगी. ड्योढ़ी के
पास पड़ी रहती, धीरे-धीरे सिर घुमाकर चारों ओर आँसू भरी आँखों से देखती, मानो बिदा
ले रही हो. काले लट्ठे, अधबने घर की पीली शहतीर, पिछले आँगन में बागड़ के पीछे
घूमती मुर्गियाँ. ये उसकी छोटी सी दुनिया थी जिसे वह प्यार करती थी...निकोलाय
मिखाइलोविच ने उसे दूध पिलाया – एक डंडी से उसके दाँत खोलकर ज़बर्दस्ती उसके जबड़े
में डाला, मगर कुछ फ़ायदा नहीं हुआ – तीन दिन वह उदास रही और फिर गायब हो गई. बाद
में आँगन के दूर वाले कोने में पड़ी मिली. बागड़ में घुस गई थी, सिकुड़ गई थी, लकड़ी
जैसी सख़्त हो चुकी थी...
एल्तिशेव हर ग्राहक को स्प्रिट के बदले
मुँह पे झापड़ देना चाहता था – किसी ने भी उसे ज़हर दे दिया होगा. इस डर से कि वह
गिर पड़ेगा, अक्सर बीबी को गेट के पास भेजता था. एक बार भूतपूर्व वेटर्नरी डॉक्टर
आया. उसे पता चला कि दीन्गा मर चुकी है, उसने सहानुभूति से सिर हिलाया:
“हाँ, इन गर्मियों में प्लेग तो खूब फैल रहा है –
गली के कुत्तों को भी अपनी चपेट में ले रहा है.”
“प्लेग?!” वाक़ई में एल्तिशेव कुत्तों की
बीमारियों के बारे में बिल्कुल भूल गया था, ये भूल गया था कि उन्हें टीका लगवाना
पड़ता है. मगर, अपने आप को दोष देते हुए, पछताते हुए भी उसे सौ प्रतिशत यक़ीन था कि
दीन्गा की मौत प्लेग से नहीं हुई. संभव है कि उसे ज़हर भी दे दिया गया हो. बिल्कुल
संभव है...उसके बहुत सारे दुश्मन थे – छुपे हुए, सामने आने से डरते हुए, मगर नीच
काम करने वाले...वे, शायद, निकोलाय मिखाइलोविच की कमज़ोरी का, उसके बुढ़ापे का या
बीमारी का इंतज़ार ही कर रहे थे, जिससे उस पर हमला कर सकें. बड़ा बेटा भी, अगर हर
लिहाज़ से सोचा जाए तो, उनमें से ही एक था.
सितम्बर के आरंभ में बारिश हो गई. पिछले
साल की ही तरह हल्की, रुक-रुककर, कभी-कभी पनीली धूल में बदल जाती, मगर देर तक,
बिना रुके चलती, शरीर की पूरी ऊर्जा बहा ले जाती. फिर कुछ दिन आसमान खुला रहा,
जिनमें लोगों को आलू खोदकर निकालना था, मूली, चुकन्दर, गाजर, प्याज़, लहसुन उखाड़ना
था, उन्हें सुखाकर तहख़ाने में ले जाना था या बक्सों में बन्द करके भट्टी के पीछे रखना
था. इन साफ़ दिनों और ठण्डी रातों के बाद पाला पड़ने लगा. हर चीज़ जो अब तक हरी थी,
काली हो गई, पीप की तरह, मरी हुई घास के रस की तरह बह गई.
लोग अपने आँगनों में इन सब डंठलों से और
पत्तों से, सूरजमुखी की टहनियों से, टमाटर के गूदे से, हर तरह के कचरे से
छोटे-छोटे अलाव जलाते; स्वादिष्ट और उदासी भरी ख़ुशबू आती. और तो और, कौए भी, जो
गर्मियों भर एस्पेन के पेड़ों में ख़ामोशी से रहे, अब हर शाम को छतों के ऊपर चक्कर
लगाने लगे, दर्द भरी कर्कश आवाज़ में परेशानी से चीखने लगे. उनकी चीख़ें आँखों में
आँसू भर देतीं. लोग ठहरकर उनकी ओर देखते; कुछ लोग तो हौले से और भयानक दुख से भी
उन्हें गालियाँ देने लगते...
जैसे ही रास्ते सूखे, निकोलाय मिखाइलोविच
लकड़ियों के लिए जंगल में जाने लगा. पिछले साल की कुछ लकड़ियाँ बची थीं, और फिर
गर्मियों में भी थोड़ी बहुत बच गई थीं, मगर ये सब सिर्फ दिसम्बर तक के लिए ही
पर्याप्त था. लकड़ियाँ लाते ही रहना होगा. इसलिए भी कि कोयला, जो तात्याना आण्टी को
युद्धकालीन कर्मचारी होने के कारण भेजा जाता था, ज़ाहिर है, उसकी मृत्यु के बाद आना
बन्द हो गया. ये सच है कि कोयला काफ़ी पड़ा था, इसलिए उसे ख़रीदने की ज़रूरत नहीं पड़ी.
ऊपर से महंगा भी बहुत था – सात सौ रूबल्स प्रति टन.
“बेहतर है, बसंत में लट्ठों पर खर्च करेंगे.”
गाँव के पास वाला जंगल पूरी तरह साफ़ हो चुका
था, इसलिए एल्तिशेव को दूर जाना पड़ता था. वह सूखे पेड़ों को काटता, गिरे हुए तने को
आरी से छीलकर ज़रूरत के मुताबिक लट्ठे बनाता, उन्हें गाड़ी में भर देता, छत के ऊपर
वाले लगेज-रैक पर लाद देता. गाड़ी के बॉटम का पहियों के बीच वाला हिस्सा रास्ते के
ऊबड़-खाबड़ टीलों से घिसता जाता, और एल्तिशेव गाँव की ओर निकल पड़ता.
एक-दो बार फॉरेस्ट-गार्ड ने चेकिंग की –
कहीं हरे पेड़ काटकर तो नहीं ले जा रहा है. पिछले कुछ महीनों से इस बारे में काफ़ी
कड़ाई बरती जा रही थी: काटे हुए एक तने के लिए जुर्माना लगा सकते थे. अगर पैसे नहीं
होते तो शहर में ले जाते, बड़ी देर तक वहाँ पूछताछ होती रहती. फॉरेस्ट-गार्ड
स्थानीय नौजवान था, मगर गंभीर और कम बोलने वाला था; निकोलाय मिखाइलोविच उससे
लट्ठों के बारे में बात करना चाहता था – “फ़ेन्सिंग को दुबारा बनाना है, बाथ-हाऊस
भी,” मगर उसने पूरी बात सुने बिना जवाब दिया, “मुझे इसका अधिकार नहीं है.”
हो सकता है कि फॉरेस्ट-गार्ड वाक़ई में
इतना ईमानदार और सही था, मगर इससे जंगल की सुरक्षा में कोई मदद नहीं मिलती थी.
अकेले इन्हीं गर्मियों में दो जगहों पर जंगल की कटाई की गई, चीड़ के पेड़ थोक में
काटे गए, नीचे वाली हरियाली कुचल दी गई.
निकोलाय मिखाइलोविच को पता चला कि जंगल
कटाई का ये काम किसी नीलामी करने वाली सोसाइटी द्वारा किया गया है, लाइसेन्स लेकर.
कटाई वाली साईट पर वह सस्ते में पहिए वाली मशीन खरीदना चाहता था, मगर वहाँ का
अनुशासन कठोर था, उसे डाईरेक्टर के पास भेजा गया जो रीजनल-सेन्टर में तैनात था.
यह जंगल जिसका कुछ हिस्सा प्राकृतिक था,
और कुछ मानव निर्मित, गाँव को तीन ओर से घेरता था. चौथी, दक्षिण-पश्चिम दिशा में
टीलों वाली स्तेपी थी, ये सच है कि पिछले कुछ दशकों में वह ख़ूब हरी-भरी हो गई थी –
वहाँ समर कॉटेजेस के लिए प्लॉट्स दिए जा रहे थे, इनके मालिक काली मिट्टी लाते,
फलों के पेड़ लगाते, जिनसे आश्चर्यजनक रूप से खूब पैदावार होती थी. और अब एल्तिशेव
अक्सर पछताता था कि उसने इन छह सौ प्लॉट्स में से कोई प्लॉट हासिल क्यों नहीं
किया, यहाँ घर नहीं बनाया (यह संभव तो था). आराम से शहर से कुछ ही किलोमीटर्स की
दूरी पर रहते होते; अब समर-कॉटेज के लिए इजाज़त देते हैं. समर कॉटेज से ही काम पर
जाया करते, शाम को – वापस. मगर यहाँ – एक तरफ़ से देखा जाए तो सैंकड़ों झंझट हैं:
किराए में ही आधी तनख़्वाह निकल जाएगी, और फिर रोज़-रोज़ जाने आने की ताक़त कहाँ से
आयेगी...
एक बार, जब वह हाथों में कुल्हाडी और छोटी
सी आरी लिए जंगल में ख़ूबसूरत चटख़-लाल चीड़ के पेड़ों के बीच में मरे हुए या हवा से
गिर गए पेड़ों की तलाश में भटक रहा था तो निकोलाय मिखाइलोविच खारिन से टकरा गया. वह
दो साल पहले, ज़ाहिर है, जब कटाई हो रही थी, काटे गए घास फूस के ढेर को खंगाल रहा
था, कुछ एक जैसी और मज़बूत डंडियों को मोटर साइकल से निकाले गए झूले के प्लेटफॉर्म पर
रख रहा था.
“क्या, पड़ोसी, लट्ठों की ज़रूरत पड़ गई?” बिना
विशेष अप्रसन्नता के, मगर मुस्कुराते हुए निकोलाय मिखाइलोविच ने पूछा; मन ही मन
उसने वापस न लौटाए गए उधार से समझौता कर लिया था.
खारिन ने ढेर से अगली डंडी निकालते हुए ‘हुम्’
कहा.
उसके पास से जाते-जाते निकोलाय मिखाइलोविच
ने इन अलग निकाली हुई लकड़ियों में कुछ ताज़ा लकड़ियों को देखा, उनके सिरों के कांटे
भी साबुत थे.
“क्या
तुझे डर नहीं लगता कि फ़ाईन लगायेंगे? या फिर तू, हमेशा की तरह, सारा इंतज़ाम करके
आया है?”
“क्या?”
खारिन ने अकस्मात् नफ़रत से, तिरस्कार से उसकी ओर देखा और एल्तिशेव का गुस्सा एकदम
भड़क उठा.
“और
क्या? तू तो हमारे गाँव में सिमेंट का, और लकड़ियों का स्पेशलिस्ट है. और पेट्रोल-आरी
के तो तेरे पास कंटेनर के कंटेनर हैं. है ना?”
“सुनिये...”
खारिन ने ज़मीन से कुल्हाड़ी उठा ली, पता नहीं, टहनियाँ काटने के लिए या अपने संभावित
बचाव के लिए. “सुनिये, मुझे चैन से रहने दीजिए. मुझे और मेरे परिवार को. और...और
आप जाईये.”
“हुम्,
तुझे चैन से कैसे रहने दूँ, जब तुझे मेरे पैसे देना हैं. और इन दो सालों में उनकी
कीमत कितनी बढ़ गई है. इसलिए, ज़्यादा ही चुकाना होगा.”
एल्तिशेव लड़खड़ाया, आगे जाने लगा – डरा दिया,
और इतना ही काफ़ी है, - मगर खारिन चिंघाड़ा, कुछ औरतों जैसी पतली और उन्मादयुक्त आवाज़
में, बड़बड़ाया:
“मैं कुछ भी नहीं दूंगा! मुझ पर आपका कोई
उधार नहीं है! समझ में आया?! चाहो, तो अदालत में ले जाओ, मगर मैं कुछ भी वापस नहीं
लौटाऊँगा! बस!”
“ऐसे
कैसे नहीं देगा?” निकोलाय मिखाइलोविच पर वहशीपन सवार हो गया था; ऐसा वहशीपन उस पर
पहले भी सवार होता था, जब वह मिलिशिया में था और उससे दादागिरी की जाती थी. “कैसे नहीं
देगा? आँ?” वह धीरे-धीरे खारिन की ओर बढ़ने लगा.
“पास
मत आना!” खारिन ने कुल्हाड़ी तान ली. “मैं!...आ गए, हरामी!”
“कौन
हरामी? तेरे होश तो ठिकाने हैं? तू मोटरसाईकल बेचकर मेरे पैसे लौटा दे. परसों लाकर
दे दे.”
बिना कुछ कहे, यंत्रवत्, जैसा कभी सिखाया
गया था, एल्तिशेव ने, अपनी कुल्हाड़ी और आरी फेंककर, बाएँ हाथ से हमला करने वाले
खारिन का हाथ पकड़ लिया, और दाएँ हाथ से उसकी गर्दन पकड़ ली. दबाई, उसकी पसलियों पर हल्के
से मार पड़ी (खारिन ने बाएँ हाथ से वार किया था); और ज़ोर से दबाई, अचानक ज़ोर का
झटका दिया. खारिन की रीढ़ की हड्डियाँ टूट गईं, और वह, सूखी डकार लेकर, लूला पड़
गया. काफ़ी भारी हो गया...एल्तिशेव ने हाथ सीधा किया, खारिन ज़मीन पर गिर पड़ा. हाथ
में अभी भी कुल्हाड़ी पकड़े था...
निकोलाय मिखाइलोविच कुछ देर खड़ा रहा, ये
उम्मीद करते हुए कि उसका विरोधी कुछ हलचल करेगा, उठने लगेगा और तब उसके बाल पकड़कर
ऐसा घूँसा लगाना पड़ेगा कि फिर से हाथ न उठाए; मगर वह चुपचाप पड़ा रहा, पड़ा ही रहा.
पेट के बल, चेहरा एक ओर को मुड़ा था, आँखें नहीं दिखाई दे रही थीं. क्या वे खुली
हैं, या बन्द हैं?...कोई ज़रूरत नहीं है देखने की...
एल्तिशेव ने अपने औज़ार उठाए, कार की ओर
चला. कुछ क़दम जाने के बाद रुका, इधर-उधर देखा. याद करने की कोशिश करने लगा कि कहीं
उसने किसी चीज़ को ऊँगलियों से छू तो नहीं लिया. शायद, नहीं छुआ. सिर्फ खारिन की
आस्तीन को ही ...ठीक है, थूक देंगे.
कुछ दूर गया, लकड़ियाँ इकट्ठी कीं. लगभग उतने
ही समय में, जितना उसने सोचा था, घर वापस आ गया. ‘मस्क्विच’ को आँगन में घुसाया, सामान
उतारा. बड़ी देर तक, पानी का ख़याल न करते हुए नहाता रहा. बीबी के साथ एक बोतल
स्प्रिट पिया. इस बार ज़्यादा ही पतला बनाया, पचपन डिग्री तक. टॉयलेट में जाते हुए,
ग़ौर किया कि हल्की-हल्की बारिश होने लगी है. हल्की है, मगर बिना रुके हो रही है.
ठण्डी...कोई और समय होता तो वह परेशान हो जाता – काम तो इतने सारे पड़े हैं – मगर अभी
कुछ देर खड़ा रहा, बूंदों को मुँह से पकड़ा. गहरी साँस ली:
“ठी-क
है...”
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