अध्याय
13
ऐसा लगता था कि गर्म, दमघोंटू गर्मियाँ ख़त्म
ही नहीं होंगी. वो सिर्फ तालाब में तैरने वाले लड़कों को और कीड़े-मकोड़ों को ही अच्छी
लग रही थीं. हर तरह की मक्खियाँ, घुड़मक्खियाँ चैन नहीं लेने दे रही थीं. बारिश
लगभग हुई ही नहीं, आलू को भी सींचना पड़ रहा था, और पानी की बेहद कमी थी. गर्मियों
वाला हैण्ड-पम्प तो काफ़ी सालों से काम नहीं कर रहा था – पाईप्स टूट गए थे,
टोंटियों में ज़ंग लग गई थी; लोग होज़-पाईप को हैण्ड-पम्प के पाईप तक लाते, उसे हैण्ड-पम्प
के मुँह पे रखते, हैण्डल पर वज़न लटकाते. किसी तरह से पतली सी धार से पानी डालते...
जो तालाब के पास रहते थे, उन्हें काफ़ी आराम था. उनके पाईप्स ज़मीन के भीतर थे,
पुलों से बिजली के तार जाते थे. पुलों पर “कामू” या “एगिदेल” मोटर लगा देते थे –
मज़े से सिंचाई के लिए, बाथ-हाऊस के लिए पानी निकालते थे. वो, जिनके पास होज़-पाईप
नहीं थे, या फिर बोर-वेल घर से दूर थे, बाल्टियों से पानी भर-भरके ले जाते थे. कुछ
लोग, अपनी बुवाई को नज़रअंदाज़ कर देते और मौसम पर ही निर्भर रहते थे: “ख़ुदा ने चाहा
तो कुछ न कुछ निकाल लेंगे.”
ख़ाली वक़्त, जो काफ़ी था, आर्तेम तालाब पर
गुज़ारता था. वहाँ सुबह से रात तक कोई न बैठा रहता, लेटा रहता, पीता रहता, ऊँघता
रहता. क्लब में क़रीब-क़रीब कोई नहीं जाता था – फ़िल्म के लिए पैसे नहीं थे, और डान्स
होते नहीं थे – टेप-रेकॉर्डर ख़राब हो गया था. इसलिए तालाब ही एक ऐसी जगह थी जहाँ
कुछ अच्छी तरह से दिन बिता सकते थे. मगर वहाँ भी, बिना वोद्का के और बिना लड़कियों
के बोरियत के मारे मर जाते थे.
“आर्तेम्का, फ़ैमिली-लाईफ़ कैसी चल रही है?” छोकरे
पूछते.
“हाँ,
ठीक है, कोई ख़ास नहीं.”
“और,
तेरा भाई कब उछलेगा?”
“ये
‘उछलेगा’ क्या है?” हमेशा की तरह स्थानीय छोकरों से बातचीत में आर्तेम को किसी
व्यंग्य की आशंका रहती थी.
“ओह,
छूटेगा?”
“दो
साल बाद.”
“ल-म्बा इंतज़ार है...”
पूछने लगे कि उसे जेल क्यों भेजा गया, कैसा है
वह? आर्तेम ने भाई को निडर, ठण्डे दिमाग के इन्सान के रूप में चित्रित किया. इससे
उसके ही मन में कुछ हल्कापन महसूस हुआ.
छोकरे सब पहले वाले ही थे – ग्लेबिच, वेला,
त्सोय, वीत्सा. क़रीब पन्द्रह लोग; शायद गाँव के सारे लड़के यहीं थे.
“क्या
करने की सोच रहा है?” काफ़ी देर के अंतराल के बाद, जिसमें सब लोग मुग्ध होकर तालाब
पर काफ़ी नीचे चक्कर लगाती चील को देख रहे थे, ग्लेबिच ने खिलखिलाते हुए नया सवाल
पूछा.
“किस
लिहाज़ से?” आर्तेम ने फिर से सवाल पूछने के अंदाज़ में सुनिश्चित करना चाहा; ऐसा
लगा कि छोकरों को उसके मिलिशिया में नौकरी करने के बारे में जानकारी है.
“किस
लिहाज़ से – सीधे लिहाज़ से. तेरा परिवार भी जल्दी ही पूरा हो जाएगा. वाल्का कलहंस
की तरह घूम रही है...”
वेला, दुबला-पतला, बेरंग की हद तक बदरंग हो
चुका जैकेट पहने, ठहाका मारने लगा. सब लोग दिलचस्पी से उसकी ओर देखने लगे.
“क्यों हिनहिना रहा है?”
“लड़कियों
को याद कर रहा था.”
“क्या?”
“ये
ही कि पहले वो – फूल होती हैं, फिर, वो, ये, पंछी, फिर कलहंस, मुर्गियाँ, भेड़ें,
और बाद में – सुअर.”
छोकरे इस घिसेपिटे मज़ाक पर ज़बर्दस्ती हँसे,
बहस करने लगे कि क्या वाक़ई में गायिका वालेरिया, इतने सारे बच्चे होने के बाद भी,
उतनी ही आकर्षक है, या फिर उसकी फोटो इस तरह निकालते हैं, उसकी उम्र के बारे में
हरेक अपनी-अपनी राय दे रहा था – कुछ लोग कह रहे थे कि वह तीस साल की है, बाकी के
कह रहे थे कि वह कब की चालीस से ऊपर हो चुकी है. आर्तेम को इस बहस से ख़ुशी हो रही
थी – वे लोग अपना सवाल भूल गए थे कि वह क्या करने की सोच रहा है. फिर आर्तेम ख़ुद
भी इस बारे में कुछ नहीं सोच रहा था, सोचने से डरता था...
फिर वे “बेवकूफ़” वाला खेल खेलने लगे, मगर
जल्दी ही ख़त्म कर दिया – रोज़-रोज़ वही तो खेलते थे; एक दूसरे को पानी में धकेलने
लगे – “डुबकी लगा”, “ख़ुद ही डुबकी लगा”, और फिर वीत्सा के दिमाग़ में एक आयडिया
आया:
“चलो, ‘घास’ ट्राय करते हैं? अब तक तो आ गई
होगी. गर्मी, मौसम बेहद सूखा...”.
छोकरे, दिन भर डोलते रहने के इरादे से नहीं,
बल्कि बोरियत के कारण, तैयार हो गए. कुछ लोग, जिनमें आर्तेम भी था, पहाड़ी के ऊपर
गए, घास-फूस की तलाश में, बाकी के पहाड़ी की चोटी पर छोटे-छोटे सूखे-से हशीश के
पौधे तोडने लगे.
इस काम के लिए एक छोटा सा अलाव जलाया गया. एक
टीन का डिब्बा ढूँढ़ा और उसे गुलेल में फंसा कर एक बांस से बांध दिया. बांस का
दूसरा सिरा अपने हाथ में रखा. वेत्सा ने
ऊपर-ऊपर के पत्ते तोड़े और उन्हें आग के ऊपर टंगे डिब्बे में सुखाने लगा.
“बीड़ी के पत्ते हैं किसी के पास?” ग्लेबिच ने
पूछा.
“ना...”
”तो फिर भरेंगे किसमें?”
“ऊँ...”
“डैम
इट!...”
“चलो,
कोई बात नहीं, सिगरेटों में भर लेंगे.”
“बकवास चीज़ बनेगी...”
“सूख
गया,” वीत्सा ने चटखारे लेते हुए कहा, जैसे वह किसी असाधारण पकवान के बारे में कह
रहा हो. “तै-या-र है क़रीब-क़रीब.”
वाक़ई में बहुत स्वादिष्ट
और बढ़िया ख़ुशबू आ रही थी.
“फ़ायदा क्या है,” ग्लेबिच
भुनभुना ही रहा था, “बीड़ियाँ तो हैं ही नहीं... ओय, तोम, तेरा ससुर तो ‘बेलोमूर’
पीता है. जा, उसके पास से दो-तीन ले आ. पिएंगे.”
आर्तेम उठने ही वाला था, मगर फिर से घास पर बैठ गया:
“नहीं, नहीं जा सकता. मुझे फिर
से काम से जोत देंगे. मैंने कहा था कि माँ-बाप के पास जा रहा हूँ. जीना दूभर कर
दिया है सबने मिलकर.”
“हूँ...पता है,” ग्लेबिच हँसा.
“ज़ापार ले आएगा.” उसने अपने ग्रुप के सबसे छोटे लड़के की ओर देखा: “क्या, बोल्त,
दुकान तक जाएगा?”
सबने मिलकर पाँच रूबल्स इकट्ठे किए, बोल्त को दिए. वो भागा. बाकी के
चुपचाप देखते रहे कि वह कैसे तालाब का चक्कर लगाकर जा रहा है. गहरी सांसें लेते
रहे, उबासियाँ लेते रहे, हाथ-पैर सीधे करते रहे. त्सोय ने पुराने, मरियल पत्ते
फेंटना शुरू किया और उन्हें फेंक दिया...शाम होने में अभी काफ़ी देर थी.
हाँ, माँ-बाप के घर, और बीबी के घर जाने का आर्तेम का बहुत कम मन करता
था.
मकान बनाने का काम नींव भरने पर ही रुक गया था. और नींव भी पूरी तरह नहीं
भरी गई थी – हमेशा सिमेंट कम पड़ जाती थी, या मिट्टी जिसे दस किलोमीटर दूर से लाना
पड़ता था, या फिर गिट्टी; माँ-बाप बेरीज़ और मशरूम्स इकट्ठा करने में लगे हुए थे.
आर्तेम भी दो बार उनके साथ गया था, मगर कुछ फ़ायदा नहीं हुआ. बेरीज़ ढूँढ़ना उससे हुआ
नहीं – वह उन्हें देख ही नहीं पाया और बेकार ही पेड़ों के बीच में भटकता रहा और,
सिर्फ जब जूतों के नीचे नर्म सी सरसराहट हुई, तो समझ में आया कि उसका पैर काई के
नीचे छुपे हुए दूधिया मशरूम्स पर पड़ा है. मधुमालती, ब्ल्यूबेरीज़, किशमिश को तोड़ते
हुए मितली आती थी – कुछ ही मिनिट बाद वह छींकने लगा: मच्छर और मकड़ियाँ नाक और
आँखों में घुस गए. आर्तेम पालथी मार कर बैठ गया, अपना चेहरा पोंछा, जल्दी से
आऊट-हाऊस में जाने के, पलंग पर लेटने के सपने देखने लगा.
“मैं नहीं कर सकता,” शिकायत के
सुर में उसने माँ-बाप के सामने स्वीकार कर लिया, “कुछ हो ही नहीं रहा...”
“तो कौन कर सकता है?! क्या, मैं
कर सकती हूँ?!” हिचकियाँ लेते हुए माँ ने जवाब दिया. “मैं बस, जल्दी ही गिरने वाली
हूँ.”
आर्तेम बुदबुदाते हुए सफ़ाई देने लगा:
“बचपन से ये सब सिखाना पड़ता है.
वर्ना, ऐसे तो...इसे चुनते कैसे हैं?”
इस तर्क को, न जाने क्यों, माँ-बाप ने स्वीकार कर लिया – हो सकता है कि
उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया हो – नहीं सिखाया. पहले वे शहर से बाहर कम ही
जाया करते थे, बेरीज़, मशरूम्स, सब्ज़ियाँ मार्केट से ही ख़रीदते थे. ये बात नहीं थी कि
समय की कमी के कारण समर-कॉटेज या जंगल के बदले मार्केट जाना पसन्द करते थे, बल्कि
वे यह जानते थे कि मार्केट में ख़रीदना उनके लिए संभव है – बस, जाओ और ख़रीद लो. मगर
अब सब कुछ उलट-पलट हो गया है...
आर्तेम को साथ में लाना बन्द कर दिया, या तो दोनों ही चले जाते थे, या
वाल्या के माँ-बाप के साथ निकल पड़ते. आर्तेम या तो ऊँघता रहता, या फिर तालाब पे
चला जाता. पत्नी के साथ संबंध सतही थे. इतने सतही, जैसे अल्प-परिचित हों. पिछले
कुछ हफ़्तों से सोते भी अलग-अलग थे – वह आऊट-हाऊस में, और वाल्या बरामदे में.
वाल्या गर्भावस्था को इसकी वजह बताती थी: दोनों के लिए एक ही पलंग पर जगह नहीं थी,
पेट दबता था.
त्यापोवों के यहाँ काफ़ी लोग थे, शोर भी ख़ूब था. वाल्या की बहनें, दस से
बारह साल की उनकी बेटियाँ; कभी-कभी उनके पति भी आ जाते – हट्टेकट्टे, भावरहित, कम
बोलने वाले, एक ही तरह से आर्तेम की पीठ थपथपाने वाले: “तो, कैसे हो, साढ़ू साहब?” सब
लोग गार्डन में और घर में बतियाते रहते, खाली बैठे-बैठे थक जाते. वोद्का पीते,
गार्डन में या बीच पे धूप सेंकते, क्यारियाँ बनाने की कोशिश करते, मगर फ़ौरन छोड़
देते, बूढ़े त्रेज़र से खेलते जो कुछ ही मिनट बाद अपने डिब्बे में चला
जाता...कभी-कभी ज़ोर-ज़ोर से लड़ाई-झगड़ा करने
लगते. फिर वोद्का और नमक लगे तरबूज़ों के साथ समझौता कर लेते. सोते और चले जाते.
कुछ दिनों बाद फिर आ जाते.
वाल्या अपनी भालुओं जैसी बहनों जैसी होती जा रही थी – मोटी हो रही थी,
हट्टी-कट्टी हो रही थी, बदतमीज़ हो रही थी. उसने बालों को रंगना बन्द कर दिया, और
धीरे-धीरे वे सुनहरे से भूरे बन गए. चेहरे पर लाल-लाल चकत्ते निकल आए (“ये धब्बे,”
उसने समझाया, “गर्भावस्था में सभी को हो जाते हैं”.) आर्तेम का मन उसके पास जाने
को न करता...
वह कैसेट-प्लेयर पर पुराने गाने सुनता और सोचता: “आगे क्या? आगे – बच्चे
पैदा होंगे, पतझड़, ठण्ड. रोना-चिल्लाना, लंगोट...”
वह कभी भी नवजात बालकों के पास
नहीं गया था, उसे मालूम ही नहीं था कि दुनिया में उनका भी अस्तित्व होता है. नहीं,
एक बार – एक बार गया था. बस में घुसा था. तब उसकी उम्र थी क़रीब बीस साल, हाल ही
में फ़ौज से लौटा था और लाम से लौटे अधिकांश सैनिकों की तरह जल्दी से लड़की ढूँढ़कर,
शायद, शादी करना चाहता था, घर बसाना चाहता था...आर्तेम ने विशेष प्रयत्न
तो नहीं किया, मगर ये ख़याल उसके दिल में थे, ख़्वाहिश थी.... बस में घुसा; उसे कुछ
स्टेजेस दूर जाना था. कण्डक्टर को पैसे दिए, बैठ गया. बस में बच्चा रो रहा था.
बिल्कुल छोटा, कम्बल में कस के लिपटा हुआ. और वह ऐसे रो रहा था, कि आर्तेम अपनी
मंज़िल आने से पहले ही उछल पड़ा, और पैदल चल पड़ा. कानों में बड़ी देर तक गूंजता रहा :
“आयआआआआ!...”
अब इस घटना की याद बार-बार आती थी. उसका बच्चा
भी जल्दी ही उसी तरह चीख़ेगा – सभी बच्चे चीख़ते हैं – मगर इस बार कहीं भाग नहीं
सकते. उछलकर बाहर नहीं जा सकते. ये कोई बस नहीं है, जहाँ तुम सिर्फ एक मुसाफ़िर हो.
अगस्त के अंत में सायान की ओर से हवा चलने
लगी. पहले बड़ी सुहावनी, ताज़गी देने वाली, मगर दो-एक दिन बाद वह क्रमशः ज़्यादा
ठण्डी होने लगी, चुभने लगी. आसमान का वो किनारा, जहाँ से हवा आ रही थी, काला हो
गया. लोग दौड़-धूप करने लगे, वे बड़े-बड़े टमाटर तोड़ने लगे, प्याज़, लहसुन खींचकर
निकालने लगे, कुछ लोग आलू खोदने लगे, इस उम्मीद में कि बारिश तक उन्हें सुखा लेंगे
और तहख़ाने में रख देंगे.
गाँव पर बर्फीले पानी की धाराओं की बौछर करने
की सिर्फ धमकी ही देकर काले बादलों के पहले झुण्ड आगे निकल गए, मगर हवा ठण्डी,
चुभनभरी नमी से सराबोर हो गई. और जैसे ही हवा कमज़ोर पड़ी, बारिश शुरू हो गई.
संक्षिप्त सी – तेज़, क़रीब-क़रीब आंधी-तूफ़ान जैसी, और इसके बाद कई दिनों तक, हल्की,
विरल बारिश होती रही, ऐसा लगता था, जैसे अभी रुक जाएगी, मगर वह रुकने का नाम नहीं
ले रही थी.
आर्तेम आऊट-हाऊस में इधर से उधर घूम रहा था,
जैसे जेल की कोठरी में बन्द हो. खड़खड़ाते हुए हीटर को चलाया, इंतज़ार करता रहा कि वह
कब हल्के से हवा को गरमाएगा, और बन्द कर दिया. देर तक उसकी खड़खड़ाहट और चीं-चीं
सुनना बर्दाश्त से बाहर था. भारी कम्बल में अपने आप को लपेट कर पेड़ पर, लोहे पर,
काँच पर बूंदों की अलसाई टप-टप सुनते हुए ऊँघने लगा...शहर में बारिश दूसरी तरह की
होती थी – उससे छुपना, उसके बारे में भूल जाना आसान था. और यहाँ, अगर कान में रूई
भी खोंस लो, आँखें कस के बन्द कर लो, फिर भी उससे बचना संभव नहीं था – गरमाहट भरी
कॉटेज के भीतर की हवा भी बारिश से सराबोर थी, चाहो - ना चाहो, ये सोचना ही पड़ रहा
था कि कैसे नमी बोर्ड्स को, लट्ठों को तेज़ कर रही है, लोहे को, एस्बेस्टॉस को,
कॉंक्रीट को खा रही है... शायद माँ-बाप के तहख़ाने में पानी चू रहा है. बना लिया
गर्मियों में घर – तहख़ाना और नींव का कुछ हिस्सा ही बन पाया. अगर इसी स्पीड से काम
चलता रहा तो पाँच साल बाद छत तक पहुँचेंगे. मगर तहख़ाना गिर जाएगा...
उदासीभरे विचारों और थकाऊ निकम्मेपन के
साथ-साथ शायद आर्तेम ठण्ड भी खा गया – उसका दांत दुखने लगा. पहले तो सिर्फ महसूस
हो रहा था कि वह है, फिर वह सुन्न पड़ गया, फिर सचमुच में दर्द करने लगा, एक सेकण्ड
के लिए भी चैन नहीं लेने दे रहा था. दर्द बगल वाले दाँतों पर भी फैल गया.
आर्तेम से बर्दाश्त नहीं हुआ, वह घर में गया,
एनाल्जिन की गोली पूछी. अनाल्जिन थी नहीं, सास ने गुनगुने पानी में सोड़ा डाला और
गरारे करने को कहा. गरारों से फ़ायदा नहीं हुआ, उल्टे, दर्द टीस मारने लगा, मसूड़े
में जैसे कोई चीज़ चटक रही थी, टूट रही थी...
“ओह,
करूं तो क्या करूँ?!” बिस्किटों वाले डिब्बे में दवा ढूँढ़ते हुए अफ़सोस से सास ने
कहा. “कहते हैं कि आयडीन लगाना चाहिए. रूई पर – और वहाँ रख लो...”
वाल्या घर की इकलौती कुर्सी पर पेट बाहर को
निकाले बैठी थी, और वह आर्तेम की ओर इस तरह देख रही थी, जैसे वो छोटी-छोटी बातों
से सबके दिमाग़ ख़राब कर देता है.
“ठीक
है, वो,” कड़वी लार से परेशान होते हुए आर्तेम ने कहा, “आयडीन.”
आधे घण्टे बाद दर्द रोकने के असफ़ल प्रयासों के
बाद वह माँ-बाप के यहाँ पहुँचा. फ़ैसला किया कि उनसे बस के लिए पैसे लेकर डेंटिस्ट
के पास जाएगा.
भीतर घुसने से पहले ही, दरवाज़े को थोड़ा सा
खोला ही था कि वोद्का की गंध महसूस हुई. पिछले कुछ समय से, जब भी वह यहाँ आता, बाप
को बोतल के साथ बैठे देखता था.
आज बाप के साथ यूर्का भी बैठा था. तात्याना
दादी अपने कोने से उन्हें देख रही थी. माँ कमरे में टी.वी. देख रही थी.
“आSSSS-,” बाप ने होंठ टेढ़े किए, “ख़ुश रहो. क्या, फिर पैसे के लिए?”
तालाब के किनारे हुई उस बातचीत के बाद, जिसमें
बाप ने मिलिशिया में काम करने का प्रस्ताव रखा था, और जिसे आर्तेम ने स्वीकार नहीं
किया था; उसके बाद, जब आर्तेम ने कहा था कि वह बेरीज़ नहीं चुन सकता, बाप उसके साथ
खुल्लम-खुल्ला अपमानास्पद ढंग से पेश आता था. पहले की तरह गुस्सा नहीं करता, मगर
मदद करने की कोशिश भी नहीं करता, अपने प्लान्स के बारे में उससे बात नहीं करता, घर
बनाने का प्रस्ताव नहीं रखता. शायद, अब उसे आर्तेम एक ऐसे बोझ की तरह लगने लगा था
जिसका कोई फ़ायदा नहीं है, जिसे फेंका नहीं जा सकता, मगर अपने साथ घसीटकर ले जाने
में भी कोई तुक नज़र नहीं आता था, बेहतर है कि रुक जाए, बोझ के साथ किसी चीज़ सहारा ले
ले... शायद, अब वोद्का में (सच कहा जए तो स्प्रिट में) उसे वह सहारा मिल गया था.
यह आर्तेम के मन को खाता था, उसे डराता था. जैसे उन्होंने उसे पूरी तरह से अपनी
ज़िन्दगी से बाहर फेंक दिया हो.
“दांत
में बेहद दर्द है,” उसने शिकायत के सुर में कहा, जूते उतारकर मेज़ के पास न जाते
हुए दरवाज़े से ही बोला: “हर चीज़ आज़मा कर देख ली...”
माँ कमरे से बाहर आई:
“क्या
हुआ?”
“दाँत
दर्द कर रहा है,” आर्तेम ने और भी दयनीय होकर कहा और अपने जबड़े को सहलाया,
“डेंटिस्ट के पास जाना पड़ेगा.”
“सोड़े
से गरारे किए?”
“हूँ...”
”वोद्का से गरारे करना चाहिए,” यूर्का ने सलाह
दी, पता नहीं चला कि वह मज़ाक कर रहा था या संजीदा था, “वोद्का हर चीज़ की...”
“दर्द
तो चर्बी से दूर होता है,” तात्याना दादी चिरचिराई.
“आँ?”
“चर्बी को दाँत पर रखना चाहिए. वो, आर्तेम, वहाँ
स्टोअर-रूम से थैला ला.”
... सैनिकों वाला प्राचीन झोला छत के नीचे एक
हुक पर लटक रहा था. उसमें, किसी बहुमूल्य चीज़ की तरह दादी का चर्बी का टुकड़ा रखा
था. सिर्फ त्यौहारों पर या बीमारी में तात्याना दादी एक टुकड़ा निकालती थी.
अब सब लोग गरिमामय ख़ामोशी से देखते रहे कि
कैसे वह सफ़ेद कपड़े में लिपटे कुछ टुकड़े निकालती है, उसे खोलती है, देखती है. चर्बी
का टुकड़ा कोई लुभाने वाली चीज़ नहीं थी – सूखा, लाल, जैसे ज़ंग लगा हो, पतला, नमक के
ढेलों में...
“इसमें से काटकर निकाल,” – उसने आर्तेम को एक
टुकड़ा दिया, “गरम पानी में भिगा ले और दाँत पर रख ले.”
आर्तेम ने वैसा ही किया, हालाँकि उसे चर्बी के
चमत्कार पर भरोसा नहीं था. स्टूल पर बैठ गया. इंतज़ार करने लगा.
“तात्याना आण्टी, क्या हमें एक-एक छोटा टुकड़ा
दोगी?” यूर्का ने पूछा. “स्प्रिट को चर्बी बहुत पसन्द है. ब्रेड के साथ पी-पीकर
उकता गए हैं.”
“ले
लो,” उसने मेज़ पर सबसे छोटा टुकड़ा रखा, “अच्छी फ़सल के लिए पियो. ये साल अच्छा है. दूधिया
मशरूम्स, बेरीज़, आलू, की उम्मीद है...”
दर्द बढ़ गया. “ओफ़, मुसीबत,” दर्द के मारे
आर्तेम टेढ़ा हुआ जा रहा था, डोल रहा था, - “पागलपन है नमक से इलाज करना. नमक के
कारण और बिगड़ गया. वह जला रहा है...” वह बेसब्री से चर्बी के टुकड़े को जीभ से दांत
पर, मसूड़े पर फेर रहा था, उसे काट रहा था, चूस रहा था. दिल चाह रहा था कि उसे थूक
दे और फिर से शहर जाने के बारे में बात करे, डेंटिस्ट के पास. “मगर वहाँ कैसे?”
सवालों ने उसे रोक दिया. “ कौनसे क्लिनिक में? गाँव वालों का इलाज कहाँ करते हैं?”
“हाँ-आ, फ़सल,” कटुतापूर्वक बाप ने गहरी साँस ली.
“दो महीने इकट्ठा करने में बरबाद हो गए, और कमाया कितना? ये फ़ायदे का सौदा नहीं
है.”
“क्यों नहीं है?” यूर्का को अचरज हुआ. “पैसे तो
आए ना.”
“कितने पैसे – सौ रूबल्स. दुकान में गया और न
जाने किस पे खर्च कर दिए.”
“हूँ,
ये बात समझ में आती है...चलो, निकोलाय पियो, जाम टकराओ, कि पैसे इतने आएँ कि गिनना
मुश्किल हो जाए.”
“ऐह... “
“कैसा
है, तेमा,” माँ पास में आई, “कुछ आराम मिला?”
उसने
त्यौरियाँ चढ़ा लीं.
“टी.वी. देखेगा? बहुत डिस्टर्बेन्स आ रहा है, बारिश
के कारण तो नहीं...”
“नहीं
देखना...”
“ठीक
है, वलेंतीना कैसी है?”
“ठीक
है...ज़्यादातर लेटी ही रहती है.”
“उसका
आठवाँ महीना शुरू हो गया है...आठवाँ है न?”
“ऊहू...” बोलना अच्छा नहीं लग रहा था, और तकलीफ़
भी हो रही थी, ख़ासकर इस बारे में. “पेट बड़ा है...म्-म्” मसूड़े पर घिसा, “कम ही
नहीं हो रहा है.”
“रुको, रुको,” दादी चहकी. “ये एकदम नहीं जाएगा,
मगर फिर लम्बे समय तक आराम रहेगा. मेरे देखो, सब टेढ़े-मेढ़े हो गए हैं, मगर दर्द
नहीं होता. क्योंकि, ज़रा सा कुछ होता है – और मैं चर्बी रगड़ लेती हूँ.”
...सचमुच में, धीरे-धीरे दर्द कम होता गया. और
एक घण्टे बाद तो आर्तेम दांत के बारे में भूल भी गया. बाप के साथ और यूर्का के साथ
बैठकर पीने लगा, खाने लगा. कोई ख़ास बातचीत नहीं हो रही थी, ख़ास तौर से – आहें, कराहें,
बुदबुदाहट, जो इस सज़ा की याद दिला रही थीं: “काश, बारिश रुक जाती. सारे प्लान्स चौपट
कर दिये.”
अचानक यूर्का आर्तेम के कान के पास मुँह लाया,
बोला : “जब शहर जाओ, तो कण्डोम्स खरीदना.”
“क्या?”
“मैं नहीं
चाहता कि बीबी फिर से प्रेग्नेंट हो जाए. उन सबको बड़ा करने की हिम्मत नहीं है...ख़रीदेगा?”
“अच्छा,
ख़रीदूंगा.”
“मगर तू,
करते रहना,” यूर्का ने उसकी पीठ थपथपाई, “बच्चे पैदा करते रहना. अभी तू जवान है, तेरे
लिए संभव है.”बचा हुआ स्प्रिट गिलासों में डालने लगा. “चल, बच्चों के नाम पे पिएँ!
बाकी हर चीज़ इतनी ज़रूरी नहीं है, मगर वे – सबसे महत्वपूर्ण हैं.”
“म्-म्,
हाँ, ” बाप की आह, “इस में दो राय नहीं हैं.”
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