अध्याय – 4
बचपन से ही, मतलब क़रीब पाँच साल की उम्र
से ही, आर्तेम समझ गया था कि वह औरों जैसा नहीं है. बेशक, हर बच्चा किसी न किसी
बात से अलग प्रतीत होता है, मगर ज़्यादा नहीं, मगर वह ज़्यादा ही अलग-थलग था. उसे
इससे तकलीफ़ होती थी. किंडर-गार्टन में भी तकलीफ़ होती थी, स्कूल में भी, ख़ास कर
पाँचवी से सातवीं क्लास में, जब फुर्तीला, चंचल होने की आवश्यकता होती है, झगड़ा
करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है, अपने ‘आप’ की हिफ़ाज़त करनी पड़ती है. मगर आर्तेम को
ख़ामोश किस्म की गतिविधियाँ पसन्द थीं – किंडर-गार्टन में, जहाँ वह रोते-रोते जाया
करता था, अक्सर सिर्फ प्लास्टिसीन के खिलौने बनाया करता, एक कोने में कार चलाता,
स्कूल में, इंटरवल के दौरान अपने सहपाठियों से अलग-थलग रहता; एक समय किताबों के
प्रति आकर्षण महसूस हुआ, ख़ास कर ऐसी किताबों का जिनमें यात्राओं का, दूर-दूर के
देशों की खोजों का वर्णन होता, मगर एक भी किताब पूरी पढ़ने की उसने कोशिश नहीं की –
पन्ने पलटता, कुछेक पंक्तियों पर, तारीखों पर, नामों पर नज़र दौड़ाता, चित्र देखता.
उसका ठण्डापन देखकर कभी-कभी माँ-बाप मज़ाक
में कहते: “दार्शनिक बड़ा हो रहा है. हर समय सोचता ही रहता है.” मगर आर्तेम ख़ासतौर
से किसी भी चीज़ के बारे में नहीं सोचता था, आसपास की चीज़ों पर कम ही ध्यान जाता था
उसका, याद भी कम ही रखता. हर नए दिन की शुरूआत बिना प्रसन्नता के होती, बिस्तर में
लेटे-लेटे ही वह कल्पना करता कि आज दिन भर में क्या-क्या होगा, न जाने किस भँवर
में, उठते ही, फँसना होगा, और उसका जी ही नहीं चाहता बिस्तर से उठने को. सिर से
पैर तक अपने आप को कंबल से ढांक लेता, साँस लेने के लिए सिर्फ एक पतली सी झिरी
छोड़कर, और पड़ा रहता, ऊँघते हुए पड़ा रहता, शांति से...मम्मा भागती हुई आती और जल्दी
मचाती: “तू अब तक सोया क्यों है?! अलार्म-घड़ी कब की बज चुकी!” बगल में भाई उछलता
हुआ पुश्ती जोड़ता: “उठ, आर्त्या! स्कूल भागें!”
अगर आर्तेम बीमार होता, या उसमें कोई कमी
रह जाती, तो शायद बेहतर होता. उसे ख़ुद को भी समझ में आता कि वह ऐसा क्यों है. मगर
वह एकदम तन्दुरुस्त, हट्टाकट्टा था, जैसे फ़िज़िकल-एक्सरसाईज़ करता हो (मगर बाक़ी सारे
विषयों के मुक़ाबले में फ़िज़िकल-एक्सरसाईज़ से उसे ख़ास नफ़रत थी), या कोई और ट्रेनिंग.
एक बार उसने एक शब्द सुना, जिसने उसे बहुत चौंका दिया – ये शब्द उसके लिए नहीं कहा
गया था, मगर तभी से आर्तेम अपने ख़यालों में अपने संदर्भ में उसे दुहराता:
“अपरिपूर्ण”. अपमानजनक, मगर बिल्कुल सही शब्द है...
चौदह साल की उम्र में उसे वाक़ई में डर
लगने लगा था कि उसे किसी भी चीज़ में दिलचस्पी नहीं है, उसकी कोई हॉबी नहीं है. उसने
किन्हीं ‘सर्कल्स’ में जाने की कोशिश की – हवाई-मॉडेल्स बनाने का, बॉक्सिंग का
(लीडर ने कहा कि उसके पास वांछित योग्यताएँ हैं, मगर, उसकी प्रतिक्रिया बहुत धीमी
होती है), शतरंज का, स्टाम्प कलेक्शन का, मगर हर चीज़ जल्दी छोड़ दी. दिल ही नहीं
लगता. सोलह साल की उम्र में उसे गिटार और सेल्फ-इंस्ट्रक्शन बुक भेंट दी गई.
आर्तेम में जोश भर गया, वह सुरों की पहचान करने लगा, जानी-पहचानी धुनों की नकल
करने लगा. प्रगति धीरे-धीरे हो रही थी, और जल्दी ही आर्तेम ने गिटार भी फेंक दिया.
आर्तेम ने तो गिटार फेंक दिया, मगर भाई ने इत्तेफ़ाक से उसे उठा लिया, और आसानी से
उस समय के मशहूर ग्रुप ‘सिनेमा’ का गीत “सूरज नाम का सितारा” बजाने भी लगा.
डेनिस आर्तेम से था तो दो बरस छोटा, मगर
हमेशा उसे पीछे छोड़ देता. क़रीब-क़रीब हर चीज़ में. उसने दो पहियों की साईकल चलाना
पहले सीखा, सिगरेट पीना पहले सीखा, पहले ही, जब आर्तेम को सिर्फ इसकी ज़रूरत महसूस
हुई ही थी, उसने लड़की को ‘किस’ किया था.
फ़ौज के दो साल भी उसे बदल न सके. नौकरी के
मामले में (जिसके प्रति माँ-बाप का अजीब ठण्डेपन का रवैया था, जैसे वे इससे ख़ुश
हों) वह ‘लकी’ रहा – अपने ही प्रदेश में रहने दिया और थोड़ी सी ट्रेनिंग के बाद
रडार-स्टेशन भेज दिया, जहाँ से आर्तेम अपना शहर देखता था. अक्सर जबरी-छुट्टियाँ दे
देते, और महीने में दो बार उससे मिलने या तो माँ-बाप आते या डेनिस अपने दोस्तों के
साथ आता.
उसी साल शरत् ऋतु में, जब आर्तेम लौटकर
आया था, भाई को बुलाया गया. ‘लैंडिंग’ में ले लिया गया, बहुत दूर काम करता था,
छुट्टियों में नहीं आता. माँ-बाप परेशान हो गए, हर रोज़ चिट्ठियों का इंतज़ार करते,
ख़बरें देखते – उसी समय चेचेन्या की दूसरी लड़ाई शुरू हुई थी...लड़ाई पर तो डेनिस को
नहीं भेजा गया, मगर अब वह किसी मंजे हुए छोकरे जैसा दिखाई देता था – झूमते हुए
चलता, सेवा-मुक्ति के बाद भी काफ़ी दिनों तक युनिफॉर्म पहनता रहा, टूटी हुई नाक से
खर्राटे लेता, हमेशा लड़ने के मूड में रहता, विदेशी-सैनिकों की टुकड़ी में या
स्पेशल-फोर्स में जाने वाला था. माँ-बाप उसकी चिंता करते रहते, सलीके से रहने की
सलाह देते, मगर, ज़ाहिर था कि उन्हें उस पर गर्व था – ये था असली मर्द. मगर आधा साल
बीतते-बीतते, लड़ाई-झगड़े के दौरान, उसने एक लड़के के माथे पर मुक्का जमा दिया और
पाँच साल के लिए जेल चला गया.
कैद करने और फ़ैसला आने तक का समय बहुत
भयानक था, जब आर्तेम को ऐसा महसूस हो रहा था कि वह भी उस लड़के जैसा ही पागल हो
जाएगा, जिसके माथे की हड्डी भाई ने तोड़ दी थी. मगर दिल में कहीं गहरे, आर्तेम को
इस बात से ख़ुशी हुई थी, जैसे उसने भाई को नहीं, बल्कि उस महान, अकलमन्द ‘किसी को’
पछाड़ दिया है, जो डेनिस को सबसे अलग समझता था, उसे ताक़त और बहादुरी देता था, और
जिसने अचानक देखा कि वह ग़लत था, वह समझ गया कि ज़िन्दगी में आगे जाएगा आर्तेम,
डेनिस रास्ते से छिटक गया था, डेनिस का हाथ छूट गया था, वह गिर गया था और मुश्किल
से ही उठ पाएगा.
आर्तेम अब अक्सर बाहर सड़क पर निकलता,
लड़कों से बराबरी की तर्ज़ पर बात करता, जो भाई के साथ हुई घटना के कारण उसकी इज़्ज़त
करने लगे थे; वह उनके साथ नाईट-क्लब जाता, वोद्का पीता, कभी-कभी लड़ाई-झगड़े में
हिस्सा लेता, और माँ उसके चेहरे पर नीला निशान या होंठ पर लाल निशान देखकर बिसूरते
हुए पूछने लगती: “अरे, तू कहाँ जा रहा है?! तू भी?!”
ये “तू भी” सबसे ज़्यादा अपमानजनक लगता था –
आर्तेम को उसमें वह घृणित शब्द “अपरिपूर्ण” सुनाई देता.
वह हमेशा नौकरी बदलता रहता – बीस साल की
उम्र से उसका एक महत्वपूर्ण काम था इश्तेहार देखकर नौकरी के लिए जाना. कभी रास्ते
पर पड़े मलबे के बीच बुक-सेलर, किसी निर्माण-कार्य में हर तरह का काम करने वाला
मज़दूर, केन्द्रवर्ती–मार्केट में कुली, कल्चर–हाऊस में स्टेज पर काम करने
वाला... ऐसा होता, कि उसे नौकरी पर ले
लेते, वर्क-बुक में एंट्री भी करते, मगर दो-तीन हफ़्ते, महीने भर के बाद, उससे कह
देते कि उसके काम से ख़ुश नहीं हैं, और एक हफ़्ते बाद एक दरख़्वास्त लिखने के लिए
कहते “स्वेच्छा से”. और आर्तेम, जो अब तक तंग आ चुका होता, ख़ुशी-ख़ुशी लिखकर दे
देता, और चैन की सांस लेता, कैश-सेक्शन से अपना पैसा ले लेता; घर के पास आकर.
चेहरे पर परेशानी के भाव ले आता, माफ़ी मांगने जैसे अंदाज़ में कहता कि उसे निकाल
दिया है और वह नहीं जानता कि क्यों, अपने कमरे में छुप जाता. दीवार की तरफ़ मुँह
करके बिस्तर पर लुढ़क जाता. और उसे हल्कापन और ख़ुशी महसूस होती, जैसा कि अक्सर तब
होता है, जब महसूस करते हो कि अच्छे हो गए हो...
हफ़्ते-दो हफ़्ते तक तो माँ-बाप उससे कुछ
नहीं कहते, बल्कि उन्हें सहानुभूति ही होती कि उसकी नौकरी फिर से छूट गई (उनके
लिए, जो दसियों सालों से एक ही जगह पर बैठे थे, ये दुर्भाग्यपूर्ण ही था), मगर फिर
बाप के माथे पर बल पड़ने लगते, माँ कुछ तंज़ के साथ उसके सामने खाने की प्लेट रख
देती, जैसे यह कहना चाह रही हो : “ये तेरे लिए है, मुफ़्तख़ोर.” आर्तेम इश्तेहारों
के पीछे भागता रहता, अलसाए हुए ढंग से पी.आर. डिपार्टमेंट्स में समझाता कि वह
क्या-क्या कर सकता है, क्यों पुरानी जगहों पर वह ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया,
अनुशासनपूर्वक रहने का, मटरगश्ती न करने का, काम से जी न चुराने का वादा करता. मगर
एक-डेढ़-दो महीने बाद फिर से आज़ाद पंछी की तरह भटकने लगता.
शहर को वह ठीक-ठाक ही जानता था, हाँलाकि
जानने के लिए वहाँ था ही क्या? उसका जन्म हुआ शहर के सेंटर में, वहीं पर बड़ा हुआ,
उसके लिए शहर, बस, केन्द्र तक ही सीमित था – चार और पाँच मंज़िला उकताऊ इमारतें,
शानदार, पचास के दशक का बना हुआ सिनेमा-हॉल “विक्टरी”, लेनिन के स्मारक के चारों
ओर बना हुआ चौक, बाज़ार, बस-स्टेशन...और चारों ओर प्राइवेट सेक्टर के अनगिनत
ब्लॉक्स – झुकी हुई (ज़मीन दलदली थी) कॉटेजेस, एक दूसरे से सटे हुए आँगनों वाली;
प्राइवेट सेक्टर में आर्तेम कभी-कभार ही गया था, जहाँ तक उसे याद है, “सेंटर
वालों” और “गाँव वालों” के बीच दुश्मनी थी. कभी, सत्तर के दशक में घमासान झगड़े हुआ
करते थे, जिसमें न सिर्फ नौजवान, बल्कि बड़े भी शामिल होते, और अनेक लोग अस्पताल
में भर्ती किए जाते थे.
शहर के उत्तर में, तथाकथित पहाड़ के ऊपर,
हाँलाकि ये एक छोटा सा टीला ही था, अस्सी के दशक में हल्के भूरे रंग के नौ मंज़िला
मकानों की एक नई कॉलोनी बनाई गई. कॉलोनी का अपना मार्केट था, सिनेमा-हॉल था, स्कूल
था, डिपार्टमेंटल स्टोर था. पहाड़ पर रहने वाले कभी-कभार ही नीचे आते थे, ख़ास तौर
से छुट्टियों वाले दिन (उनमें से ज़्यादातर लोग रेल्वे-कोच कारख़ाने में काम करते
थे, जो पहाड़ के पूर्व में था), और ‘सेंटर’ के कुछ लोग तो नई कॉलोनी कभी गए ही
नहीं. उनमें से एक आर्तेम भी था. दोस्त वहाँ रहते नहीं थे, दिलचस्पी की जगहें थीं
नहीं, और ऊँची ऊँची इमारतों का ये हुजूम डराता था, ऐसा लगता था कि वह वहाँ खो
जाएगा, ग़ायब हो जाएगा.
शहर को चारों ओर से टीलों वाली, हमेशा
पीली स्तेपी घेरती थी. एक पहाड़ी पर देखे जा सकते खिलौने के डिब्बे जैसे मकान,
दियासलाई जैसे अंटेना और एक ‘बाऊल’ जैसा रडार-स्टेशन था – वहाँ आर्तेम ने डेढ़ साल
काम किया था. शहर की दक्षिणी सीमा पर बहती थी एक नदी – उथली, तेज़ और ठण्डी. उसमें
तैरने के लिए या तो वे लोग जाते जिन्हें अपनी तन्दुरुस्ती पर भरोसा था, या फिर
शराबी जो अक्सर डूब जाते. नदी सायान्स्की पहाड़ों से निकलती थी, जो शहर से भिन्न
नहीं जान पड़ते थे; ऊपरी बहाव में तो किसी तरह मोटर-बोट्स चलती थीं, एक तरफ़ से
देखने पर ऐसा लगता जैसे वे बिल्कुल हिल-डुल नहीं रही हैं, और यक़ीन नहीं होता था कि
एक शताब्दी पहले पुराने श्रद्धावान लोग वहाँ, ऊपरी बहाव की ओर जाते थे, ज़रूरत का
सामान नौकाओं में भरकर, जिससे इस दुनिया से दूर जाकर, अलग-थलग कहीं रह सकें. वे
घने जंगलों में चले जाते जिससे फिर कभी वापस न आ सकें...
अपने पैतृक शहर के अलावा आर्तेम कहीं और
नहीं गया था. कभी-कभी जब उदासी बरदाश्त से बाहर हो जाती, तो रेल्वे-स्टेशन चला
जाता और रेलगाड़ियों को देखता रहता. वह जानता था: वो, जो बाईं ओर जाती हैं, दो-तीन
दिन बाद इर्कूत्स्क, चीता, ख़बारोव्स्क, व्लादीवोस्तोक पहुँचेंगी, और वो, जो दाईं
ओर जाती हैं – देर-सबेर नोवोसिबिर्स्क, त्यूमेन, स्वेर्द्लोव्स्क, मॉस्को
पहुँचेंगी. मगर इतना जानते हुए भी, आर्तेम अपनी कल्पना में कोई तस्वीर नहीं खींच
सकता था – मॉस्को और पीटर की बात अलग थी, टी.वी. के कुछ कार्यक्रमों की बदौलत कुछ
महलों या स्क्वेयर्स से वह परिचित हो गया था, मगर बाकी के शहर बस
पिक्चर-पोस्टकार्ड्स पर ही देखे थे.
उसे ऐसे महसूस होता कि अपने क्वार्टर्स
में वह घुला जा रहा है, कुछ ऐसा बन रहा है जैसे कोई बेंच, या कोई लैम्प पोस्ट, जैसे
चौराहे पर लगे अनेक पेड़ों में से एक पेड़ – बगल से लोग गुज़रते जाते हैं, गुज़रते जाते
हैं, मगर कोई भी उसकी तरफ़ ध्यान नहीं देता, और वह भी किसी व्यक्ति या किसी चीज़ की
ओर कोई ध्यान नहीं देता, किसी भी चीज़ से उसे आश्चर्य नहीं होता. एक कड़ी खोल, जो
धूल और धुँए से एकदम असंवेदनशील हो गई हो...अगर वो इसी तरह जीता रहा, जैसे अभी जी
रहा है, अगर रोज़-रोज़ एक ही नज़ारा देखता रहेगा, तो उसका कभी भी कोई सच्चा दोस्त
बनेगा, न ही उसके पास कोई लड़की होगी जिससे वह सच्चा प्यार कर सके, जो उसके भीतर
कोई परिवर्तन ला दें, किसी बेहद ज़रूरी चीज़ में परिवर्तन ला दें. उसे बहाव के
विपरीत या उस पार खींच लें.
इसलिए, शायद, जब माँ-बाप ने गाँव में जाने
का फ़ैसला कर लिया तो आर्तेम ने विरोध नहीं किया. बेशक, थोड़ा डर तो था; ये कहने का
मन था कि वह अपने कमरे को छोड़कर कहीं भी नहीं जाएगा, अपनी चीज़ें नहीं समेटेगा – ये
अपनी क़बर ख़ुद खोदने जैसी बात थी; मगर उसकी अंतरात्मा का कोई अंश, चाहे छोटा सा,
मगर महत्वपूर्ण, ये साबित कर रहा था कि ये प्रस्थान, ये दुर्भाग्य – उसके भले के
लिए ही है.
उस गाँव की, जो उनका घर बनने जा रहा था,
आर्तेम को धुंधली-सी याद थी. बचपन में माँ-बाप के साथ वहाँ गया था. कोई तफ़सील बाक़ी
नहीं बची थी, सिवाय एक एहसास के – बहुत सारी जगह है खेलने के लिए, बहुत सारा आसमान
है, चटख़ हरी गुनगुनी घास, जिसमें लोट-पोट होना अच्छा लगता था. ऐसा लगता था कि गाँव
में हमेशा गर्मियाँ ही होती हैं; पच्चीस साल की उम्र में ऐसी बात पर भरोसा करना,
बेशक, बेवकूफ़ी होती, मगर, इच्छा के विपरीत, आत्मा मे कोई चीज़ सुलग रही थी. गर्माहट
महसूस हो रही थी, जब वह खटारा कार में जा रहा था. पिछली क़तार में बैठा था, फर्श की
तरफ़ देखते हुए – किसी को देखने का, किसी को अपनी ओर देखने का बहाना देने का मन
नहीं था. ये समझने का ही मन नहीं था कि हो क्या रहा है. मगर हर किलोमीटर के साथ वह
अपने पैतृक शहर से अधिकाधिक दूर होता गया, जैसे वह ढलान पर लुढ़क रहा था और डर रहा
था कि किसी पराए गढ़े में गिर पड़ेगा. इस डरावने एहसास के साथ ही याददाश्त में नहीं,
बल्कि उससे भी परे, अवचेतन में, तैर रही
थी सूरज की चमक, चटख़-हरे, नर्म, खूब चौड़े... एक नन्ही-सी, मगर अजीब सी दृढ़ आशा, या
यूँ कहिए कि विश्वास था, कि गड्ढ़े के तल में, जिसमें इस ऊबड़-खाबड़ रास्ते के बाद
गिरना है, उसे नई ज़िन्दगी मिलेगी – चाहे वह उलझी हुई, मुसीबत भरी ही क्यों न हो,
मगर होगी उसकी असली ज़िन्दगी. गदह-पचीसी का कठिन वक़्त ख़त्म हो जाएगा और वयस्क जीवन
आरंभ होगा. माँ-बाप भी, जो अब तक की ज़िन्दगी का ज़रूरी, अपरिहार्य हिस्सा थे, आगे
नज़र नहीं आ रहे थे. वहाँ दिखाई दे रही कई सारी खिड़कियों वाली एक कॉटेज, जिनमें
सीधे सूरज की रोशनी पाड़ती है, खुला-खुला आँगन, स्वादिष्ट हवा, छोटी सी नदी, जिसमें
शाम को अच्छी तरह मछलियाँ पकड़ सकते हो, और – ख़ास बात – अब तक अनजान, मगर नई
ज़िन्दगी के लिए आवश्यक लोगों की धुंधली-धुंधली आकृतियाँ...
यहाँ पहुँचने के बाद कुछ ही मिनटों में
आर्तेम समझ गया कि घर की मरम्मत करने के लिए, चीज़ों के लिए जगह बनाने के लिए बाप
उसे अपने साथ क्यों नहीं लाया था. हाँ, ये गड्ढ़ा ही था, उसका काला, प्रकाश-रहित
काला पेंदा. काला, जैसे उनके घर का ठूँठ.
‘हाऊस-वार्मिंग’ के बाद बोझिल नशे से
जागने के बाद, हाँलाकि उसने सिर्फ 150 ग्राम्स ही पी थी, आर्तेम ने फ़ौरन
बस-स्टैण्ड पर जाने का फ़ैसला कर लिया. बस में बैठकर शहर लौट जाने का निश्चय कर
लिया. वहाँ कहीं तो जगह मिल जाएगी. किसी दोस्त के यहाँ कुछ दिनों के लिए टिक जाएगा
और इस दौरान कुछ इंतज़ाम कर लेगा...हॉस्टेल... या – गैरेज तो है, हीटर के साथ!...
यहाँ कैसे रह सकता है?
रात उसने फोल्डिंग कॉट पर बिताई – उसका
पलंग कमरे में नहीं समाया, - माँ-बाप बिल्कुल बगल में दीवान पर सोए. आने-जाने की
जगह भी नहीं बची... हवा ठण्डी, निश्चल थी. मगर कंबल फेंकने पर आर्तेम फ़ौरन ठण्ड खा
गया, कंपकंपाने लगा और फ़ौरन फिर से कंबल में दुबक गया. वह कमोबेश आराम से इस तरह
लेटा कि कॉट का लोहे का डंडा पसलियों के बीच में रहे और ज़्यादा नहीं गड़े. माँ-बाप
के खर्राटे सुनते हुए वह कुछ अपमान से, कुछ हताशा से, कुछ बचपने से सोच रहा था:
“मैं क्यों?... उन्हें ही फ़ैसला करने दो. इंतज़ाम किया है...”
सर्दियों से पहले के अंधेरे दिन थे. दिन
भर वे चीज़ों को एक जगह से दूसरी जगह घसीटते रहते, किसी ज़रूरी चीज़ को सारे बक्सों
में, थैलियों में, पोटलियों में ढूँढ़ते. तात्याना दादी भट्टी के पास बैठी रहती और
इन अल्प-परिचित रिश्तेदारों को संदेहास्पद विनम्रता से देखती रहती, जैसे वे उसकी
चीज़ों को ही खंगाल रहे हैं.
हर घड़ी मुसीबतें आती रहीं – क्वार्टर की
ज़िन्दगी में जिन बातों पर ध्यान नहीं जाता था, वे ही अब बड़ी होकर ख़तरनाक समस्या जैसी
प्रतीत होतीं, जिनका कोई हल नहीं था...प्रमुख समस्या थी पानी की.
पानी हैण्ड-पम्प से लाना पड़ता था.
हैण्ड-पम्प क़रीब ही था – सड़क के दूसरी ओर, मगर ‘प्रेशर’ बहुत कम था, पानी की बेहद
पतली धार निकलती थी, और एक बाल्टी भरने में सात मिनट लग जाते. ठण्ड में – बड़ी
नाख़ुशगवार समय की बरबादी थी... बाल्टियाँ भरकर घर के भीतर लाते और बीस लिटर्स वाले
ड्रम में डाल देते. वहीं से नहाने के लिए, बर्तन धोने के लिए पानी लिया जाता.
गन्दे पानी को बारह लिटर्स वाली, वाश-बेसिन के नीचे रखी बाल्टी में इकट्ठा कर
लेते, और आँगन के पीछे फैली बिच्छू-बूटी की झाड़ियों में डाल देते... शुरू में, जब
बचाने की आदत नहीं पड़ी थी, गन्दे पानी की बाल्टी को तीन-चार बार पीछे ले जाना
पड़ता.
बर्तन धोना एक बड़ा काम था. पहले उन्हें एक
तसले में गरम पानी में धोया जाता, फिर ये तसला धोया जाता, जिसकी दीवारों पर चिकनाई
जम जाती थी, फिर उसमें दूसरा गर्म पानी डाला जाता (इलेक्ट्रिक केतली की सहायता से
भी पानी की पर्याप्त मात्रा गरम करना संभव नहीं हो पा रहा था). इस दूसरे पानी को
भी दो बार बदलना पड़ता, क्योंकि वह फ़ौरन चिकना हो जाता, और “फेरी” का भी कोई फ़ायदा
नहीं होता था. ख़ास तौर से ‘बीफ़’ के बाद धोना तो बहुत मुश्किल हो जाता था....
नई जगह पर आर्तेम कुछ दिनों तक तो टॉयलेट
ही नहीं जा सका. जब वह फ़ौज में गया था, तब भी उसके साथ ऐसा ही हुआ था... जब रोक
पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता, तो छोटी ज़रूरत के लिए वह डॉग-हाऊस जैसे शौचालय में
चला जाता.
फर्श में बने छेद की ओर देखता रहता. वो
क़रीब-क़रीब पूरा भर चुका था, और बाप दूसरा, नया बनाना चाहता था, मगर ज़मीन बर्फ के
मारे जम चुकी थी. बसंत तक टाल देने का फ़ैसला करना पड़ा, व्यंग्य से बोला: “इस चट्टान
को तो लोहे की जंज़ीर से हटाना पड़ेगा”. फिर वह उदास हो गया: “स्नानघर का क्या
करें...”
स्नानघर गर्मियों वाले किचन और मुर्गियों
के दड़बे के बीच बना था – छोटा सा कमरा बिना प्रवेश-कक्ष के, फर्श सड़ चुका था,
शेल्फ़ टूट चुकी थी, लोहे की भट्टी जल चुकी थी. इसमें स्नान करना असंभव था; मोटे
तौर पर इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल था कि ऐसे हालात में तात्याना दादी कैसे
टिक सकीं, और इन्सान बनी रही. शक्तिहीन, मुश्किल से हाथ-पैर चलाती दादी पर गन्दगी
की पर्तें नहीं चढ़ी थीं, उसकी अलमारी में साफ़, धुले हुए कपड़े थे, ब्रेडबॉक्स में
नरम ब्रेड थी, तहख़ाने में - सर्दियों के लिए स्टॉक था.
शुरू के कुछ दिन आर्तेम आँगन से बाहर नहीं
निकला, सिर्फ पानी भरने के लिए जाता था. फ़ेन्सिंग के उस पार वाला इलाका
शत्रुतापूर्ण था, हालाँकि वहाँ के लोगों को उसने क़रीब-क़रीब देखा ही नहीं था – कभी-कभार
बूढ़े लोग कपड़े की थैलियाँ लिए दुकान की ओर घिसटते हुए नज़र आते, मर्द लोग
जल्दी-जल्दी भागते, घंटी बजाती साईकल पर कोई बच्चा चक्कर लगाता. चलती हुई कारें
दिखाई ही नहीं देतीं - ‘शटल-बस’ की
भिनभिनाहट तकलीफ़देह थी – अचानक बीते दिनों की याद आ गई, अभी-अभी गुज़रे हुए और शायद
हमेशा के लिए खो गए... ड्राईवर चक्कर पूरा करेगा, बस को गैरेज में रख देगा, अपने -
घर, पाँचवीं मंज़िल के क्वार्टर में जाएगा, नहाएगा, कुछ खाएगा, टी.वी. के सामने
वाली कुर्सी पर लुढ़क जाएगा...उनके पास दो टी.वी. हैं – दादी का ब्लैक एण्ड व्हाईट
‘रेकॉर्ड’ और ‘सैमसुंग’ जो वे अपने साथ लाए थे, मगर क्या फ़ायदा...टी.वी. देखने का
भी मन नहीं होता, और ये संभव भी नहीं है. हर चीज़ बस, एक के ऊपर एक पड़ी है, जगह
सिकुड़ गई है, बैठने के लिए भी कोई जगह नहीं है.
अकेला रहने को जी चाहता था, और आर्तेम
घंटों तक गर्मियों वाले ठण्डे किचन में कुर्सी पर बैठा रहता, ऐसा दिखाते हुए कि
अपनी चीज़ें संभाल रहा है. कैसेट्स, रेकॉर्ड्स, कुछ कागज़, किताबें, काफ़ी पहले टूट
चुके कैमेरे के, प्लेयर के डिब्बे. इस सब की अब कोई ज़रूरत नहीं थी, सब फ़ालतू हो
गया था. जब क्वार्टर की सफ़ाई कर रहे थे तो यह सब फेंक देना चाहिए था.
फिर, वो ‘चीज़’ नहीं थी जो वर्तमान ज़िन्दगी
को थोड़ा हल्का बनाती – आरामदेह जूते नहीं थे, जिन्हें पहन कर बाहर आँगन में भाग
सकता था, बाहर पहनने के ऐसे कपड़े भी नहीं थे, जिनके गन्दा होने का अफ़सोस न हो, एक
अच्छा फ़ावड़ा नहीं था, कीलें, पुराने चीथड़े नहीं थे, लालटेन नहीं थी...
जैसे ही चीज़ें थोड़ी बहुत संभलीं, माँ शहर
गई. आर्तेम को भी अपने साथ जाने के लिए बुलाया, मगर उसने इनकार कर दिया – शिद्दत
से जी चाह रहा था यहाँ से भाग जाने को, उसकी अपनी, मगर अब पराई हो चुकी शहर की
सड़कों को देखना कितना डरावना था...उस ट्रिप में माँ अपने काम से आख़िर रिटायर हो
गई, उसने मीट, सॉसेज, वोद्का वगैरह खरीदे; कुछ अनमनी-ख़ुशी के साथ लौटी, जैसे किसी
चीज़ से पिंड छुड़ाकर आई हो, कोई अप्रिय गाँठ खोलकर आई हो. और उस शाम इतनी पी ली कि
मुश्किल से दीवान तक पहुँच पाई.
दिन में गाँव खाली, लगभग निर्मनुष्य, शांत
रहता था, मगर शाम होते होते क्लब के पास हलचल शुरू हो जाती थी. ठहाके, लड़कियों की
चीख़ें सुनाई देतें, मोटरसाईकल्स फट्-फट् करतीं.
“शोर, शोर, शोर...बस, शोर मचाते हैं,” परदे के
पार देखते हुए दादी शिकायत के सुर में बुदबुदाती. आजकल तो काफ़ी कम है, मगर
गर्मियों में...सुबह तक सो नहीं सकते – लगातार जंगलीपन...काश, जल्दी से बर्फ पड़ना
शुरू हो जाए...
आर्तेम को भी बाहरी ज़िन्दगी की आवाज़ों से
चिड़चिड़ाहट होती, मगर दूसरी तरह से – उसका जी चाहता था कि वहाँ जाए...बेहतर होता कि
उसे इस छेद के भीतर ले जाते, आसपास कुछ भी न होता. मगर फिर भी चारों ओर थी
ज़िन्दगी, जवान लोग थे.
मगर एक बार वह अपने आप को रोक नहीं पाया,
उसने दाढ़ी बनाई, सूटकेस में से छुट्टियों वाली जीन्स और स्वेटर निकाला.
“तू कहाँ चला?” उत्तेजना से बाप ने पूछा.
“जाऊँगा...थोड़ा घूमूँगा.”
“हुम्...”
आर्तेम ने कंधों में सिर झुका लिया, ये
अपेक्षा करते हुए कि अब बाप के मुँह से फूटॆगा: “कोई ज़रूरत नहीं है घूमने-फिरने
की! वहाँ सिर्फ शराबी होते हैं.” मगर माँ ने बाप के इन उद्गारों को रोकते हुए कहा,
“हुम्”:
“बस, होशियार रहना. रात को देर मत करना.”
आर्तेम ने सिर हिलाया, ‘हुँ’ कहा. वह
पोर्च में आया, वहाँ से – आँगन में. गेट के पास कुछ देर रुका, जेब में पैसे टटोले,
ये याद करने की कोशिश करते हुए कि कितने हैं. क़रीब डेढ़ सौ रूबल्स थे. कम से कम
टिकट के लिए तो काफ़ी हो जाएँगे. थोड़ी देर खड़ा रहेगा, म्यूज़िक सुनेगा, लोगों को
देखेगा...
क्लब का ऊँचा और लम्बा-चौड़ा पोर्च
नौजवानों से भरा था. वे सिगरेट पी रहे थे, प्लास्टिक गिलासों से, स्नैक्स वाली पॉलिथिन
की थैलियों से सरसराहट कर रहे थे, एक दूसरे से कुछ कह रहे थे, और कहते हुए ठहाके
लगा रहे थे, औरों को भी अपने ठहाकों से हँसा रहे थे. जैसे ही उन्होंने पास आते हुए
आर्तेम को देखा – एकदम ख़ामोश हो गए. बुत बनकर उसकी ओर देखने लगे. आर्तेम को काऊबॉय
वाली फिल्मों की याद आई – उनमें भी ऐसा ही होता था, जब कोई अपरिचित हॉल में प्रवेश
करता, सब लोग इसी तरह बुत बन जाते थे... और वह नज़दीक गया, किसी घूँसे या गोली को
झेलने के लिए तैयार.
“हा—य,” एक हट्टेकट्टे लड़के ने हाथ आगे बढ़ाया,
जिसका चेहरा चेचकरू या मुँहासे वाला था.
“गुड ईवनिंग.” आर्तेम थोड़ा सा मुस्कुराया. “क्या
आज डिस्को है?”
“वेल,” वह सिर हिलाकर बोला, “डांस है.”
और एक लड़के ने, जो छोटा-सा, दुबला-पतला
मगर चुलबुला था, समझाते हुए कहा:
”अंकल वास्या फिर से धुत पड़ा है, फिल्म
नहीं दिखाएँगे. इसलिए डांस.”
“ओह,” आर्तेम ने सहानुभूति से कहा और दो सीढ़ियाँ
ऊपर चढ़ा; उसके सामने फ़ौरन “प्राईम” का पैकेट पेश किया गया, जिसमें सिगरेट के सिरे
बाहर झाँक रहे थे:
“पिओगे?”
उसने सिगरेट निकाली, धन्यवाद दिया, पेश
किए गए लाईटर से जलाई... आम तौर से वह सिगरेट नहीं पीता था, बस, कभी-कभी पीने के
बाद, मगर अभी, लड़कों को अपनी तरफ़ करने के इरादे से, वह समझ गया कि सिगरेट पीना
ज़रूरी है.
“सुन, क्या तेरा नाम आर्तेम है?” हट्टेकट्टे
लड़के ने पूछा.
“हाँ, मैं वहाँ, तान्या दादी के यहाँ रहता
हूँ...”
“हमें मालूम है...वो, बाई चांस, तेरे पास तीस का
नोट है? पीने का मन हो रहा है, मगर ख़तम हो गई है.”
आर्तेम को इस सवाल का इंतज़ार था, और सुनकर
उसे ख़ुशी हुई. इन्ट्रोडक्शन ठीक-ठाक हो रहा था. उसने जेब से एक नोट निकाला – देखा,
पचास का था.
लड़के ख़ुश हो गए; हट्टेकट्टे लड़के ने
आर्तेम के पैसे एक लम्बे, धारियों वाली टोपी पहने लड़के को दिए:
“बाल्तोन, भाग.”
फिर एक दूसरे को अपना परिचय देने लगे.
हट्टेकट्टे लड़के का नाम था ग्लेबिच, दुबला-पतला लड़का था न्यामा, और एक, छोटी-छोटी
आँखों वाला – त्सोय था.
“वेला...रेदिस...वीत्सा...” छोटे-नाम बिखरते गए;
आर्तेम को छोटे-नाम से अपना परिचय देना असहज लग रहा था. याद आया कि शहर में भाई और
उसके दोस्त उसे त्यामा कहते थे. और आर्तेम भी छोटे नाम पर उतर आया.
“व्वा, न्याम,” ग्लेबिच खिखियाया, “बिल्कुल तेरा
हमनाम है.”
लड़के फ़ौरन हिनहिनाए...
लाई गई स्प्रिट स्वाद में बिल्कुल वैसी ही
थी, जैसी आर्तेम ने यहाँ पर पहले दिन पी थी, - किसी केमिकल की और जले हुए रबड़ की गंध
दम घोंट रही थी. उसने एक घूँट गिलास पीकर न्याम को दे दिया. बची हुई उसने गटक ली. होंठ
चाट रहा था, मानो ये कोई चॉकलेट हो.
बर्फ पड़ने लगी. हल्के स्वेटर और जैकेट्स पहने
लड़के ठिठुर नहीं रहे थे, ऐसा लग रहा था कि वे सारी रात वैसे ही पोर्च में खड़े होकर
हँसी-ठिठोली कर सकते हैं. दरवाज़े के पीछे म्यूज़िक सुनाई दिया, ख़ूबसूरत और मंद-मंद,
जिसकी धुन पे लड़की को बाँहों में लेना कितना अच्छा लगता, उसके साथ खाली जगह पर
डांस करना, उसके बालों के पास सिर लाना...आर्तेम से रहा न गया:
“लड़कों,
चलो, अन्दर चलें?”
ग्लेबिच ने त्यौरियाँ चढ़ा लीं:
“क्या
करना है वहाँ जाकर? सिर्फ लड़कियाँ हैं.”
“यही,
थोड़ा डांस कर लेते...”
“आ-आ.”
– त्सोय ने भाँप लिया, “ तुझे एक जिस्म की ज़रूरत है. चल, दिखाता हूँ कि वहाँ कौन है...
लड़कियाँ तो पहले ही चुन ली गई हैं...मगर फिर भी कुछ बाकी बची हैं.”
“इसे
वाल्का दिखा दे,” ग्लेबिच ने कहा.
लड़के फिर हिनहिनाए:
“वाल्का
– वही तो! नर्म-नाज़ुक...”
और वह प्यार से धकेलते हुए आर्तेम को क्लब
के भीतर ले गया.
दरवाज़ा खुलते ही काफ़ी बड़ा हॉल दिखाई दिया.
दीवारों पर रंगबिरंगे बल्ब्स की मालाएँ लटक रही थीं, बाईं ओर कैसेट प्लेयर रखा था,
जिसमें से सुनाई दे रहा था:
हथेली पे गिराता है रात आसमा-आ-न,
पकड़ न पाएँगे हमें,
पकड़ न पाएँ-एँ-गे!...!...
हॉल के बीच में कुछ लड़कियाँ डांस कर रही थीं,
एक दूसरे के सामने अपने जिस्म को हिलाते हुए, क़रीब दस लड़कियाँ बेंचों पर बैठी थीं.
“वो
रही, वो” म्यूज़िक के कारण ज़ोर से बोलते हुए ग्लेबिच समझाने लगा, “पीले बालों वाले,
सफ़ॆद ब्लाऊज़ में. देख रहे हो? वाल्का त्यापोवा. फ़िलहाल किसी और की ज़रूरत नहीं है. हम
तो यहाँ खो गए...”
आर्तेम की आँखों ने उसे पकड़ लिया जिसके बारे
में हट्टाकट्टा लड़का बता रहा था. वह लम्बी नहीं थी, मगर ‘फ़िगर’ अच्छा था, बल्बों की
रोशनी में बाल सुनहरे लग रहे थे, चमक रहे थे. डान्स करते हुए वह मुस्कुराकर दीवार की
ओर देख रही थी, जैसे वहाँ कोई अचरजभरी बात हो...आर्तेम को वह अच्छी लगी.
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