अध्याय – 6
सर्दियाँ बीत गईं.
कभी-कभी बड़ा मुश्किल लगता था, ऐसा लगता मानो बर्दाश्त न कर पाएँगे, इस मुर्दाघर
जैसी कॉटेज में दम तोड़ देंगे, एक दूसरे को चबा जाएँगे – जगह की तंगी से झगड़े होने
लगते, चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती. मगर – फिर भी किसी तरह सर्दियाँ निकल ही गईं. आण्टी
तात्याना ने मदद की.
वह सुबह क़रीब सात
बजे उठ जाती और हलचल करने लगती. धीरे-धीरे कपड़े पहनती, बड़ी देर तक, वाश-बेसिन को
सावधानी से टिनटिनाते हुए इत्मीनान से हाथ-मुँह धोती. भट्टी गर्माती, पानी उबालती
(इलेक्ट्रिक केतली का उपयोग नहीं करती थी), चाय पीती, वो भी बड़ी देर तक ब्रेड के
साथ, इत्मीनान से, जैसे इस समय पूरे दिन के लिए ताक़त इकट्ठा कर रही हो; और वाक़ई
में, पूरे दिन वह न कुछ खाती, न पीती...फिर मुर्गियों को देखने निकल पड़ती, दीवार
पर टंगे कैलेंडर का पन्ना फ़ाड़ती और चश्मा चढ़ाकर पढ़ती कि उस पन्ने के पीछे क्या
लिखा है. नाश्ता बनाती.
हर सुबह का उसका ये
धीमा, मगर ज़िद्दी, निरंतर अस्तित्व एल्तिशेवों को उठने पर, हाथ-मुँह धोने को, कुछ
करने को मजबूर कर देता. बसंत तक, आज़ादी की ओर ले जाते हर दिन का सामना करने पर
मजबूर कर देता.
नए साल के बाद,
जिसे खाने-पीने की चीज़ों से भरी मेज़ के साथ मनाने की कोशिश की, आसमान में सूरज
दिखाई देने लगा था, और बर्फ उतनी बेजान नहीं प्रतीत होती थी...आर्तेम ज़्यादा से
ज़्यादा समय घर से बाहर बिताता, घूमता-फिरता, रात को देर से लौटता, मुख्यतः अपने
होशो-हवास में, और माँ-बाप ये देखकर कि वह ठीक-ठाक है, उससे नहीं पूछते थे कि वह
कहाँ था, किसके साथ था. होश में है, बगैर नीले निशानों के है, काफ़ी ख़ुश है – बस,
इतना ही काफ़ी है. मतलब, उसने दोस्त बना लिए हैं, ऐसे लोगों को ढूँढ़ लिया है, जिनके
साथ वक़्त बिताना बुरा नहीं है. चाहे कैसा भी हो, मगर उसे एक रास्ता तो मिल गया था.
फ़रवरी से निकोलाय
को पेंशन मिलनी शुरू हो गई थी – सात सौ तीस रूबल्स. बिल्कुल ही चिल्लर थी ये
पेंशन, बेशक, अपमानजनक भी थी, मगर फिर भी कुछ तो थी. खाने-पीने की चीज़ों, जैसे -
दालें, नूडल्स, मीट, चाय, शक्कर, डिब्बा–बन्द सब्ज़ियों – के लिए पर्याप्त थी. आलू
और अचार वगैरह का तात्याना आण्टी के पास पर्याप्त स्टॉक था – बल्कि, यक़ीन ही नहीं
होता था कि उसने, जो मुश्किल से चल-फिर पाती है, एक पूरा टब भर के कैबेज काट कर रखी
थी, क़रीब पचास डिब्बों में खीरों का, टमाटरों का अचार बनाया था, नीचे, तहख़ाने में
आलू, ले गई थी, गाजर, मूली, बीटरूट, शलजम, लाल बिलबेरीज़ का मुरब्बा बनाया था. और,
वह कहती थी कि किसीने उसकी मदद नहीं की थी, सिर्फ एक सहायता ये मिली थी कि बसंत
में आँगन को ट्रैक्टर से जोता गया था.
जैसे ही मार्च के
आरंभ में बर्फ पिघलनी शुरू हुई, एल्तिशेव कार के बारे में फ़ैसला करने गया. बीबी ने
मजबूर किया – पूरी सर्दियाँ याद दिलाती रही, कि कुछ तो फैसला करना होगा; या तो
उसकी मरम्मत करवाई जाए या फिर उसे बेच दिया जाए; कभी-कभी उसकी बातों से निकोलाय मिखाइलोविच
भड़क जाता, चुभता हुआ जवाब देता, मगर वह समझता था कि बीबी, वाक़ई में, सही है.
शहर में आया,
बस-स्टेशन के चौराहे पर कुछ देर तक सिगरेट के कश लेते हुए भीड़-भाड़ का अभ्यस्त होने
की कोशिश करने लगा. सर्दियों में दो बार यहाँ आया था – पेन्शन के कागज़ात ठीक-ठाक किए,
दिल को कड़ा करके पुराने साथियों से मिला, रसीदें इकट्ठा कीं.
इस बार भी काम
अप्रिय ही था, फिर से मिन्नत करनी थी, कोई वादा करना था, किसी पर निर्भर करना
था....
छोटी-मोटी ख़ामियाँ
तो एल्तिशेव ख़ुद ही सुधार लेता था. पहली कार, मॉडेल 3 को दुरुस्त करना आसान था, सब
कुछ आसान, समझ में आने वाला था. मगर इस ‘मस्क्विच-21’ से वह बेज़ार हो गया. बेवकूफ़
की तरह ख़रीद लिया था उसे, इस कार का फ़ैशन देखकर, सिर्फ बाहरी सुविधाओं, मॉडर्न
डिज़ाइन की तरफ़ ध्यान दिया. मगर जल्दी ही वह उन लोगों की भीड़ में शामिल हो गया जो
इस मॉडेल को गालियाँ देते थे. कभी एक चीज़ बिगड़ जाती, कभी दूसरी, अनुभवी मेकैनिक भी
अचरज करते कि उसमें हर चीज़ असुविधाजनक, चालाकी से बनाई हुई है – मेकैनिज़्म को समझ
ही नहीं पाते, इसलिए दुरुस्त नहीं कर पाते...उन तीन सालों में जब तक एल्तिशेव के
पास ये ‘मस्क्विच’ थी, ऐसा लगता था कि उसका हर पुर्ज़ा टूट चुका है. सबसे आख़िर में
बिगड़ा इंजिन...
किओस्क में ‘पे-फोन’
के लिए कूपन ख़रीदा और आंतरिक मामलों के विभाग के अपने परिचित मेकैनिक को फोन किया.
वह कभी-कभी कारों की मरम्मत में उसकी मदद कर देता, या उचित सलाह दिया करता था.
मेकैनिक घर पर ही
था, अपनी ड्यूटी और घर के कामों से फ्री हो गया था और वह देखने के लिए तैयार हो
गया कि इस ‘इन्फेक्श्न’ को क्या हो गया है, वह सारी कारों को ‘इन्फेक्शन’ ही कहता
था, और वह ठीक ही था – उसकी ज़िन्दगी का अधिकांश भाग उन्हें ठीक करने में गुज़रा था.
ये सारी “झिगूली”, “UAZ”, “गज़ेल”...
अपने पैतृक शहर की
पसन्दीदा जगहों के किनारे-किनारे चलते हुए – वहाँ पर किसी मेहमान की तरह आना बहुत
बुरा लग रहा था, - निकोलाय मिखाइलोविच अपने गैरेज की ओर गया.
उनके शहर में गैरेजों
का एक अपना ही एरिया था – उनकी अलग सीमा थी, को-ऑपेरेटिव्स की सीमाओं पर उनके लिए
प्लॉट्स थे; धीरे-धीरे चारों ओर घर बने, और वहाँ के निवासियों को, जिन्हें बगल में
ही तैयार गैरेज ख़रीदना नसीब नहीं हुआ, नए सीमावर्ती भाग में ज़मीन मिली.
वो को-ऑपेरटिव, जिसमें
निकोलाय मिखाइलोविच का गैरेज था, सेंटर से ज़्यादा दूर नहीं था – पुराना था. किश्तें भी कुछ कम नहीं थीं, मगर प्रेसिडेंट
संजीदगी से काम करता था: उसने बाऊण्डरी पर धातु की फेन्सिंग लगवाई, इकलौते गेट पर चौकीदार
के लिए ऊँचा टॉवर बनवाया. उन दस सालों में, जब तक एल्तिशेव का गैरेज यहाँ पर था,
उसने सिर्फ दो-तीन बार ही चोरी के बारे में सुना, और वह भी कार की नहीं, बल्कि
छुटपुट चोरियाँ: बैटरी ले गए, छोटे-छोटे कलपुर्ज़े ले गए, जो गैरेजों में काफ़ी
मात्रा में पड़े रहते हैं. मगर रास्ते में निकोलाय मिखाइलोविच को ऐसा महसूस हो रहा
था, मानो वहाँ पहुँचकर वह देखेगा कि गेट टूटा हुआ है, और “मस्क्विच”... मगर बड़ी
अजीब बात थी कि उसके मन में डर का नामोनिशान नहीं था, बल्कि वह ख़ुद भी चाहता था कि
कार को वाक़ई में कोई चुराकर ले जाए, गैरेज में तोड़-फोड कर दे. चाहे बुरा ही सही,
मगर ये – एक रास्ता था. इस बात पर मगजमारी नहीं करनी पड़ेगी कि रिपेयर्स के लिए
पैसा कहाँ से लाए (वे एक हज़ार जो जेब में पड़े थे, शायद काफ़ी हो जाएंगे, मगर
ये कोई आख़िरी मरम्मत तो नहीं है, और ये एक
हज़ार – आख़िरी हैं)...कार को गाँव ले जाएगा, फ़ौरन गैरेज बनाना पड़ेगा (फिर से –
कैसे?), गैरेज के बगैर तो दो-एक साल में उसे ज़ंग खा जाएगी – वैसे भी बॉडी के नीचे
ज़ंग लग ही चुकी है...गैरेज को छोड़ने में, बेशक, दुख हो रहा था – वो शहर से जुड़े
रहने की आख़िरी कड़ी है – मगर छोड़ना पड़ेगा. दूसरा कोई चारा ही नहीं है. कम से कम
पैसों के लिए ही बेचा जाए. चोरों द्वारा भगाये जाने से बेहतर है उसे बेच देना.
पीछा छुड़ाना.
भारी-भरकम बैरियर के पास
चौकीदारी कर रहे सुरक्षा कर्मी ने पहले तो निकोलाय मिखाइलोविच की ओर संदेह से देखा,
मगर फिर पहचान लिया और मुस्कुराया. अन्दर आने का इशारा किया. उसकी इस हरकत ने निकोलाय
मिखायलोविच की उस अजीब सी भावना को भगा दिया: नहीं, यहाँ सब कुछ भरोसे लायक है.
दाएँ-बाएँ सिमेंट के सटे
हुए डिब्बों की क़तारें शुरू हो गईं. ये भी भरोसेमन्द, मज़बूत थे, जैसे बन्कर्स हों...
निकोलाय मिखाइलोविच ने ख़ुद कभी गैरेज नहीं बनाया था, मगर उसकी तकनीक से अच्छी तरह वाक़िफ़
था (कई सालों तक उसके पास कार तो थी, मगर गैरेज नहीं था, बनाने के लिए जगह भी नहीं
थी, इसलिए वह गैरेज बनाने के बारे में सोच रहा था).
पहले एक गहरा गड्ढा खोदा
जाता है, जो चौड़ा न हो. ज़्यादातर लोग उसमें सिमेंट लगा देते हैं, मगर कुछ लोग लकड़ी
के फट्टों से, घास-फूस-पत्तों से बन्द कर देते हैं. एक तहख़ाना जैसा बन जाता है. कोई-कोई
इस तहख़ाने के साथ निरीक्षण करने वाला गढ़ा भी बना लेता है. इसके बाद लकड़ी का फ्रेमवर्क खड़ा करके कॉन्क्रीट डाल
कर दीवारें बनाई जाती हैं. कॉन्क्रीट बनाने के लिए सिमेंट खरीदनी पड़ती है, रेत, मिट्टी,
गिट्टी लानी पड़ती है, ये सब अच्छी तरह मिलाकर बाल्टियों में भर-भरके फ्रेमवर्क में
डाला जाता है. थोड़े थोड़े सेंटीमीटर, ऊपर-ऊपर...असरदार
लोग, बेशक, सोवियत काल में भी कॉन्क्रीट-मिक्सर ले आते थे, निर्माण-कार्य के लिए लोगों
को किराये पर रखते थे, मगर आम जनता में मर्द ख़ुद ही ये काम कर लेते थे, अकेले, कई-कई
महीनों तक.
सबसे महत्त्वपूर्ण होती
थी – छत. कुछ लोग लकड़ी के प्लैन्क्स खड़े करते, कुछ – स्टील की बीम्स, उसे डामर-कागज़ से ढाँक कर उस पर मिट्टी या फिर कॉन्क्रीट
डाल देते. जिसे जितना संभव होता – टार गरम करता; ऐसे लोग भी थे जो स्लेट के कबेलू डालते.
आम तौर से हर कोई छत को ज़्यादा से ज़्यादा
वायुरोधी बनाने की कोशिश करता. टपकती
हुई छत मालिक के लिए सबसे बड़ी समस्या बन जाती. कभी कभी पानी दरारों से टपकता, सबसे
ख़तरनाक बात तब होती जब नमी पहले छत को भिगोती है, फिर दीवारों को, शेल्फों में पड़े
हुए सामान पर, स्पेयर पार्ट्स पर, कार को, ज़ंग लगा देती है, नीचे तहख़ाने में उतर
जाती है...
निर्माण पूरा होने पर फर्श पर कॉन्क्रीट
बिछाई गई, दरवाज़े लगाए गए, तहख़ाने से हवा का पाईप बाहर निकाला गया, भट्टी लगाई गई,
बिजली का तार खींचा गया. इलेक्ट्रिशियन को बुलाया गया, जिसने गैरेज को इलेक्ट्रिक
पोल से जोड़ दिया.
हाँ, एल्तिशेव ने ये गैरेज नहीं बनाया था,
इसके साथ किसी तरह की घटनाएँ, कोई ख़ास समस्याएँ नहीं जुड़ी थीं, सिवाय इसके कि कुछ
साल पहले उसने कच्चे-लोहे के दरवाज़े को फुल-मेटल वाले दरवाज़े से बदल दिया था
(हालाँकि सर्दियों में वे गर्म नहीं रहते, मगर खुलते आसानी से हैं, टिकाऊ हैं),
गैरेज की देखभाल पर ज़्यादा मेहनत भी नहीं की थी, मगर अब, जम चुकी “मस्क्विच” के
चारों ओर गैरेज में घूमते हुए, अनावश्यक चीज़ों से, रद्दी सामान से भरी शेल्फों को
देखते हुए, ठण्डी धूल की, सिमेंट की गंध महसूस करते हुए, उसे महसूस हुआ कि वह
क़रीब-क़रीब अपने घर पहुँच गया है. मगर, क़रीब-क़रीब, अपने ख़ुद के घर भी नहीं, जिसे
जल्दी ही हमेशा के लिए छोड़ देना होगा...तो क्या, वाक़ई?...कहीं जाने की ज़रूरत नहीं
है, गैरेज को बेचकर गाँव में ही बस जाना होगा. इमारती लकड़ी, ईंटें, सिमेंट ख़रीदना
होगा. सर्दियों का एक और मौसम वे कॉटेज में नहीं बिता सकते.
निकोलाय मिखाइलोविच
ने कार खोली, स्टीयरिंग पे बैठ गया. सिकुड़ गया. अन्दर बर्फ़ जैसी ठण्डक थी. हाँ, बर्फ
में जम गई है...थोड़ी सी गर्मी लाने के लिए सिगरेट पीने लगा. मगर, बेटों के लिए क्या
छोड़ जाएगा? आर्तेम, उसके साथ थोड़ा-बहुत, शायद उनकी ज़िन्दगी में वह ऐसा ही रहेगा. शायद
ही कभी बड़ा होगा. और डेनिस...वापस आएगा डेनिस, मगर कहाँ? अगर, कम से कम, यहाँ गैरेज
रहेगा तो उससे कहूँगा: ये रही तेरी दौलत, माफ़ करना, कि ऐसा हो गया. मगर कुछ तो...
इन डरावने, पागल कर
देने वाले विचारों के कारण एल्तिशेव का मन हुआ कि ज़ोर से चिल्लाए और पूरी ताक़त स्टीयरिंग
पर निकाल दे. उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि वह जाल में फँसे हुए किसी बड़े, शक्तिशाली
जानवर के समान है, जो जाल से निकल नहीं सकता. और, चाहे चिल्लाओ, या न चिल्लाओ, जो जी
में आए, करो – कुछ फ़ायदा नहीं होने वाला.
“ओय, वहाँ कौन है?” गेट से आवाज़ आई.
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