अध्याय 3
गाँव कहलाता था मुरानोवो, बगल में बहती छोटी
सी नदी मुरान्का के नाम से. कभी ये एकदम देहात था – छोटे से टीले पर एक चर्च था,
जिसे सन् साठ के दशक में गिरा दिया गया और उसकी जगह पर स्टोरहाऊस जैसा एक क्लब बना
दिया गया.
मुरानोवो का प्रमुख मार्ग था वो रास्ता जो
काफ़ी दूर स्थित तिग्रित्स्कोए गाँव को जाता था. रास्ता डामर का था, मगर सोवियत
फ़ार्म की मशीनों ने डामर को कब का तोड़-फोड़ दिया था, फिर कभी उसकी मरम्मत नहीं की
गई. जब ड्राईवर अपनी “ज़ीलोक” को घर की ओर ले जा रहा था तो, छोटे-बड़े गड्ढ़ों को
बचाते हुए, लगातार माँ-बहन की गालियाँ दिए जा रहा था, और वलेंतीना पीड़ा से माथे पर
बल डाले जा रही थी ये कल्पना करते हुए कि कंटेनर में बर्तन, उपकरण कैसे टूट रहे
हैं.
तात्याना आण्टी की कॉटेज गाँव के बिल्कुल
बीच में थी: बाईं ओर तीन आँगन छोड़कर - पोस्ट-ऑफ़िस था, और एक आँगन छोड़कर – तीन दुकानें
थीं, जिनमें से सिर्फ एक ही चलती थी, बाकी की दो कब से बन्द पड़ी थीं, उन पर ताले
पड़े थे. आण्टी की कॉटेज के दाईं ओर दुमंज़िला स्कूल था, जो इस गाँव की सबसे पुरानी
इमारत थी, और इसके क़रीब-क़रीब सामने – क्लब और पानी की टंकी वाला टॉवर था.
पिछले महीने निकोलाय मिखाइलोविच कई बार
यहाँ आया था – थोड़ी बहुत चीज़ें लाया, रजिस्ट्रेशन के लिए काग़ज़ात लाया, हौले से उस
कमरे की मरम्मत करके गया, जिसमें उन्हें रहना था – शायद, इस ख़याल से उसे कहीं राहत
मिली कि अब ये उनका घर है, मगर हर बार आण्टी की कॉटेज उसमें एक दहशत की भावना भर
देती थी. दहशत इस बात की, कि उसमें सर्दियाँ कैसे बिताएगा, गर्मियों में क्या-क्या
इंतज़ाम करने पड़ेंगे, जिससे अगली सर्दियाँ इन्सानों की तरह बिता सके.
निकोलाय मिखाइलोविच यहाँ बस से आता था –
कार, कमीनेपन के नियमानुसार, बुरी तरह टूट-टाट गई थी – वह किसी भी स्थानीय व्यक्ति
से बात न करने की कोशिश करता, मालकिन से भी कम से कम अल्फ़ाज़ में बात करता. वो,
छोटी-सी, सूखी-सट् बुढ़िया, आमतौर से इस छोटे से घर के लिए बड़ी, धुँए की धारियाँ
पड़ी भट्टी के पास तिपाई पर बैठी रहती, धुंधली, झुर्रियों से खिंची आँखों से फर्श की
ओर देखती रहती...शुरू में, आँगन में एक सड़े हुए मगर काम-चलाऊ लकड़ी के तख़्ते को
देखकर एल्तिशेव ने आण्टी से पूछा था कि क्या वह उसका इस्तेमाल कर सकता है. उसने
मुश्किल से अपना गंठीला हाथ हिलाते हुए आह भरी: “ले-ले. मुझे अब उसकी क्या
ज़रूरत...” जल्दी ही उसने बुढ़िया से पूछना बन्द कर दिया, उसे क़रीब-क़रीब अनदेखा ही
कर दिया.
फर्श और छत को सर्दियों के लिए ताप-रोधक
बनाते हुए, कमरे से टूटी हुई मेज़ को बाहर ले जाते हुए (उसकी जगह पर क्वार्टर से
लाई गई बर्तनों की अलमारी का एक हिस्सा आने वाला था), निकोलाय मिखाइलोविच यह
विश्वास नहीं कर रहा था, और विश्वास करना भी नहीं चाहता था, कि अब ये घर उसके
परिवार के लिए है. अब उन्हें इस टेढ़े-मेढ़े, लकड़ी के घर में रहना है, और हो सकता
है, कि यहीं से बीबी के साथ कभी न कभी कब्रिस्तान की राह पकड़नी है.
मगर, एक “ज़ील” किराए पर ली गई, दो कमरों
की दुनिया की हर चीज़ को कंटेनर में भर दिया गया, अनावश्यक चीज़ें कचरे में चली गईं,
और ड्राईवर जाने की जल्दी मचाने लगा.
जब आख़िरी बार खाली, ज़्यादा रोशन कमरों का
चक्कर लगा रहे थे तो बीबी विलाप करने लगी, जैसे अंतिम यात्रा के समय करते हैं,
बेहोश हो गई; निकोलाय ने उसे पकड़ा और तेज़ी से, ज़बर्दस्ती बाहर ले गया. चौराहे पर
चाभी आंतरिक मामलों के डिपार्टमेंट के केयर टेकर को दे दी. वलेंतीना को कबिन में
बिठाया, बेटे से कहा कि वे गाँव में उसका इंतज़ार करेंगे, आर्तेम को बस से पहुँचना
था, प्रवेश द्वार की ओर एक नज़र डाली, और अपने आप को “ज़ील” के भीतर झोंक दिया.
दरवाज़ा बन्द हो गया, जल्दी से, अपने आप से, न कि ड्राईवर से, कहा:
“हो गया, चलो!”
जैसे ही बीबी के साथ कंटेनर से सामान
उतारने लगा, हल्की-हल्की बारिश होने लगी. हल्की ही सही, मगर अक्तूबर की बारिश काफ़ी
देर चलने वाली थी.
“जान बूझ कर आई है,” निकोलाय मिखाइलोविच
ने गाली दी और जल्दी से, सावधानीपूर्वक, जैसे मिट्टी के ढेर पर चल रहा हो, कॉटेज
में कांच की कैबिनेट ले गया जो उन्होंने हाल ही में ख़रीदी थी.
ड्राईवर ने मदद की पेशकश नहीं की, वह सिगरेट
के कश लेता रहा, म्यूज़िक सुनता रहा ( “मगर कहाँ हैं हाथ”- कैबिन में गाना बज रहा
था, “कहाँ हैं हमारे हाथ?...), कभी-कभार कंटेनर में झाँक लेता और गुस्से से तिरछा
होने लगता – बहुत धीरे धीरे ख़ाली हो रहा था.
आण्टी नीचे वाले पोर्च में खड़ी थी, अफसोस
के साथ देख रही थी कि चीज़ों को कैसे ला रहे हैं; वह मदद करना चाहती थी, मगर मेन
गेट तक नहीं जा पाई.
कामकाजी दिन की दोपहर होने के बावजूद सड़क
ख़ाली थी, मगर निकोलाय मिखाइलोविच को ऐसा लग रहा था कि सभी खिड़कियों से, सभी फ़ेंसिंग्स
के पीछे से लोग उन्हें देख रहे हैं, उत्सुक लोग उन पर नज़र रख रहे हैं. एक से तो
रहा नहीं गया – वह बाहर निकला, नज़दीक आया.
“बहुत अच्छे.” लम्बा, दुबला-पतला, चेहरे के बढ़े
हुए बाल जो अब दाढ़ी बन चुके थे; सिर पे सर्दियों वाली काली-भूरी टोपी. “स्वागत
है.”
“धन्यवाद.” एल्तिशेव के पास बातचीत करने की
फ़ुर्सत ही नहीं थी. कंटेनर में से कपड़ों की थैली निकाली, अन्दर ले गया.
कमरा फ़ौरन चीज़ों से भर गया; निकोलाय
मिखाइलोविच ने गर्मियों वाले किचन में झांका. “यहाँ लाना पड़ेगा”.
“क्या.” स्थानीय आदमी लॉरी के पास इंतज़ार कर रहा
था, “क्या मैं कुछ मदद करूँ? नहीं तो, मैं देख रहा हूँ...”
“ठीक है, कीजिए.” एल्तिशेव को फ्रिज अन्दर लाना
था.
आदमी
मरियल ही निकला, वो खींच कम रहा था, कराहने की और हाँफ़ने की आवाज़ें ज़्यादा निकाल
रह था. और लगातार कमेंट्स किए जा रहा था:
”व्वा, क्या स्टूल्स हैं! मेरे पास भी
बिल्कुल ऐसी ही हैं....शेल्फ़ अच्छी है...सात लैम्प्स वाला झुंबर...
निकोलाय मिखाइलोविच को ऐसा लगा, मानो वह
किसी नीलामी की दुकान में खड़े होकर अपना सामान बेच रहा है.
मगर फिर भी काम ज़रा ज़्यादा जल्दी ही हो
गया, और जब डेढ़ बजे आर्तेम पहुँचा तो कंटेनर क़रीब-क़रीब ख़ाली हो चुका था. उसने
इक्का-दुक्का सामान उठाया – और, सब हो गया.
“लो, हो गया,” राहत की साँस लेते हुए ड्राईवर
बोला, जैसे उसीने सबसे ज़्यादा काम किया हो; उसने स्टील के शटर्स बन्द किए, बोल्ट्स
चढ़ा दिए. कुछ उम्मीद से निकोलाय मिखाइलोविच की ओर देखा.
“आँ, हाँ,” वह समझ गया, उसने अपने वैलेट से दो
सौ निकाले. “सामान लाने के लिए वह पहले ही एजेंसी में पैसे भर चुका था, मगर
व्यक्तिगत रूप से भी ड्राईवर का आभार तो प्रकट करना ही था – उसने किचकिच नहीं की, तंग
नहीं किया और सही-सलामत पहुँचा दिया.
“धन्यवाद,” ड्राईवर ने और एक गहरी साँस
छोड़ी, वह उछल कर स्टीयरिंग पर बैठ गया और दरवाज़ा बन्द करने से पहले कहा, “शुभ
कामनाएँ!”
एतिशेव ने सिर हिलाया. इग्निशन क्लिक किया
गया, टाइमर टिक-टिक करने लगा, और इंजिन चालू हो गया; एक्ज़ास्ट पाईप से नीला-नीला
धुंआ निकला. और जब, हौले से, मगर हमेशा के लिए, पिछली ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ आख़िरी
धागा तोड़ती हुई “ज़ील” अपनी जगह से सरकी, तो बीबी फिर से ऐसे विलाप करने लगी जैसे
किसी मौत में गई हो.
“बस, अब चुप भी कर!” निकोलाय मिखाइलोविच भड़क
गया. “तेरे बिना भी!...” और उसके दिल में इच्छा हुई उसे झकझोरने की....ख़ुद भी रोने
की.
उसने स्वयँ पर काबू रखा, नज़रें कंटेनर के
भूरे चौकोर पर टिका दीं, जो क्रमशः छोटा होता जा रहा था; रास्ता पहाड़ के नीचे से
जाता था, और अब कंटेनर ओझल हो गया. मगर तीनों एल्तिशेव – पति, पत्नी और उनका बेटा –
खुले हुए काले गेट के पास खड़े होकर उस ओर देखे जा रहे थे, जिधर “ज़ील” गई थी. शहर
की दिशा में.
“तो, “ स्थानीय निवासी की आवाज़ सुनाई दी, “क्या,
वो, हाऊस-वार्मिंग के लिए?....मुझे यूर्का कहते हैं. वलेंतीना, मुझे तेरी याद तो
है. याद है, जब यहाँ आया करती थी.”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने उसकी ओर देखा,
ग़ौर से देखा, मगर पहचान न पाई. वह, शायद, बुरा मान गया:
“अरे, मैं यूर्का हूँ, कार्पोव. मेरे एक अंकल
थे, सान्या, वो भी कार्पोव थी. आप और वो एक ही क्लास में...”
“हाँ, हाँ,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने उसका
अभिवादन किया, मगर बिना किसी गर्मजोशी के, वह किसी और चीज़ के बारे में सोच रही थी.
“तो, फिर क्या, मनाएँ?”
“”ज़रूरी है,” एल्तिशेव ने अपने आप को झकझोरा,
रास्ते से दूर हटा, पचास रूबल्स का नोट निकाला – “इतना बस है? स्नैक्स हमारे पास
हैं.”
यूर्का ने नोट ले लिया, उसे मोड़ा, मानो ये यक़ीन
करना चाहता हो कि वो असली है या नहीं. उसने सिर हिलाया, और रास्ते पे भागा.
“दुकान, शायद, दूसरी ओर है”, निकोलाय मिखाइलोविच
को आश्चर्य हुआ मगर उसने फ़ौरन अपना ध्यान दूसरी ओर मोड़ दिया – बेटे से कहा:
“गेट बन्द कर दे.”
ये देखकर कि आर्तेम कैसे दरवाज़े के लटकते
हुए, ख़स्ताहाल पल्लों को खींच रहा है, उसने कडुवाहट से मज़ाक करते हुए कहा:
“चल, सीख ले ये भी.”
किचन में बड़े, लकड़ी के फट्टों वाली मेज़ पर
बैठकर यूर्का का इंतज़ार करने लगे. बीबी ने सुबह क्वार्टर में बनाए हुए आलू-मीट के
सालन को हॉट प्लेट पर गरम किया. आण्टी तात्याना स्टूल पर झूल रही थी, धीरे-धीरे
कुछ बुदबुदा रही थी, जैसे अपने आप पर गुस्सा हो रही हो, कि अनजान लोगों को घर में
आने दिया, और अब ख़ुद को एक कोने में सिमटना पड़ेगा.
सड़ी हुई धूल की, बुढ़ापे की, दवाओं की गंध
फैली थी. ऐसा लग रहा था कि पोपड़े पड़ी दीवारों का पलस्तर अभी टुकड़े-टुकड़े बनकर
गिरने लगेगा, छत की ‘बीम’ और बर्दाश्त नहीं कर पाएगी और टूट जाएगी और पूरा घर सूखे
चूने, सड़ी हुई रस्सियों, और काली, जैसे जल गई हों, लकड़ियों का ढेर बन जाएगा.
निकोलाय मिखाइलोविच का दिल बेतहाशा चाह रहा था कि फ़ौरन छलांग मार कर बाहर भाग जाए,
किसी महफ़ूज़ जगह पे छुप जाए और साथ ही दिल ये भी चाह रहा था कि आस्तीनें चढ़ाकर उठे, और एक नया, बड़ा घर बनाए, जिसमें दूसरी मंज़िल पे
उसके लिए एक अलग कमरा हो. आराम करने के लिए...
कंबल से मढ़ा हुआ दरवाज़ा खड़खड़ा कर चरमराते
हुए खुला, सिर झुकाए हुए यूर्का अन्दर आया. चेहरे पर मुस्कुराहट, हाथों में बोतल.
न जाने क्यों, बिना किसी लेबल की.
“बहुत देर इंतज़ार करना पड़ा?” भट्टी की स्लैब के
किनारे पर बोतल रखी, टोपी उतारी, उसे घुटने पर झटका, जिससे किचन में पानी की बूंदे
बरस गईं. “ अब्भी, नए घर में आने के लिए...”
“और तू किसलिए...” आण्टी ने हौले से ये ज़ाहिर
किया कि उसे आश्चर्य हुआ है, मगर उसने अपनी बात पूरी नहीं की, फिर से झूलने
लगी.
निकोलाय मिखाइलोविच ने एक छोटी सी, जोश
भरी साँस छोड़ी, जैसे अक्सर ड्यूटी पूरी होने के बाद अपने घर में करता था, बीबी से
कहा:
“चल, माँ, मेज़ सजा.” और ख़ुद ने एक क़तार में
मोटे-मोटे, जूते के आकार के जाम रख दिए.
मेज़ पे बैठकर यूर्का ने बिना किसी संकोच
के दाँतों से बोतल का प्लैस्टिक का कॉर्क उखाड़ लिया (ऐसे कॉर्क्स निकोलाय
मिखाइलोविच ने कई सालों से नहीं देखे थे) और जाम भरने लगा.
“चलो भाई, काम कर लिया” उसने कहा, “अब थोड़ा
सुस्ताना भी चाहिए... प्लीज़...”
जामों से वोद्का की तेज़ गन्ध आ रही थी;
एल्तिशेव सन्देह से यूर्का की हरकतें देख रहा था – बिना लेबल की बोतल, ये अजीब सी
तेज़ गंध उसे अच्छी नहीं लगी. मगर वह चुप रहा, इंतज़ार करता रहा...आर्तेम मेज़ के
कोने पर बैठा था, वह उबासियाँ ले रहा था, नफ़रत से सब कुछ देख रहा था.
वलेंतीना
विक्तोरोव्ना ने मेज़ के बीच में आलुओं वाली गहरी प्लेट रखी.
“वॉव!” यूर्का ख़ुश हो गया. “ गरम, गरम. चलो, जाम
टकराएँ.” उसने जाम उठा लिया.
“आण्टी,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने पुकारा,
“खाएगी?”
उसने असमंजस में हाथ हिलाया.
“खाएगी,” एल्तिशेव अपने आप मुस्कुराया. “बड़ी
जल्दी गाँव की बोली अपना रहे हैं.”
यूर्का जल्दी मचा रहा था;
“चलो, पियेंगे, ना?”
बिना
किसी ख़ुशी के, मरियलपन से, जाम टकराए गए. निकोलाय मिखाइलोविच सावधानी से पी रहा था.
मुँह जल रहा था: स्वाद ज़हर जैसा था, वोद्का से केरोसिन की या किसी घोलक की गंध आ रही
थी.
“क्या
है...ये आप क्या उठा लाए? पिया नहीं जा रहा है.”
बीबी और बेटे ने घबरा के जाम रख दिए. मगर यूर्का,
चटख़ारे ले लेकर खा रहा था और पिए जा रहा था, उसने ऐसे सिर हिलाया, जैसे सिर पे किसीने
झापड़ मारा हो, और इसके बाद अचरज से कंधे उचका दिए:
“क्या
हुआ? साधारण स्प्रिट है. बस रबड़ की पाईप से दिया है, इसीलिए उसमें से ऐसी...पिओ, पिओ,
घबराओ नहीं.” और वह दुबारा अपना जाम भरने लगा.
एल्तिशेव तैश में आ गया, आज पूरे दिन का तनाव
और गुस्सा इस मेहमान पर उतरना चाहता था. गिरेबान पकड़कर बाहर फेंक देने का मन हुआ.
“क्या
दुकान से नहीं ख़रीद सकते थे?” अपने आप पर क़ाबू रखते हुए, बाहर से एकदम शांत रहकर पूछा.
“शायद मैंने पर्याप्त पैसे दिए थे...”
“दुकान
में? हे-हे, हाँ, हमारी दुकान में साल भर से वोद्का नहीं है. सिर्फ बियर
है.”
“क्यों
नहीं है?”
“कोई
सर्टिफिकेट दिया गया उन्हें...कोई ऐसी ही बात है.” यूर्का ने अपना जाम उठाया. “
अच्छा, अच्छा, ठीक है, पी लीजिए, नॉर्मल स्प्रिट ही है, कह तो रहा हूँ.”
अप्रत्याशित रूप से आर्तेम ने पी ली. ऐसे खिखियाया
जैसे दम घुट रहा हो, मुँह में भाप निकलता हुआ आलू ठूंस दिया. माँ-बाप की ओर देखा, और
चुनौती के लहज़े में बोला:
“शायद,
नहीं मरेंगे.”
“शायद...”
निकोलाय मिखाइलोविच ने जाम को मुट्ठी में भींच लिया. “शायद...भाड़ में जाएँ.”
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