अध्याय – 8
आधा अप्रैल बीत
चुका था. माँ-बाप आलू की बुआई करने में, गार्डन को ठीक-ठाक करने में व्यस्त थे,
मगर तात्याना दादी ने कहा कि अभी ये बहुत जल्दी होगा, अभी और ठण्ड पड़ेगी, बर्फ़ भी
पड़ेगी. माँ को विश्वास नहीं हुआ, उसने पड़ोसनों से बात की, उन्होंने भी इस बात की
पुष्टि की: “ दस मई के आसपास बुआई करेंगे. खीरे, टमाटर तो और भी देर से – जून
में...तू क्या, भूल गई?” माँ ने अनमनेपन से कंधे उचका दिए: “शहर में, शायद, कुछ
जल्दी ही करते हैं...” “ऐह, शहर में! शहर
में सब दूसरी तरह से होता है.”
पिछले कुछ समय से
आर्तेम माँ-बाप की नज़रों में कम ही पड़ने की कोशिश करता था. जब आर्तेम ने जल्दी
शादी करने के बारे में बताया, तो दूसरे ही दिन माँ-बाप त्यापोवों से मिलने पहुँच
गए. ऐसा लगता है कि माँ वलेंतीना के माँ-बाप को जानती थी – वे उससे कुछ ही बड़े थे,
- मगर उनकी जान-पहचान, जो दसियों साल पहले छूट गई थी, दोस्ती की वजह न बन सकी. गेट
के पास ही बातें करते रहे, ये निश्चित कर लिया कि वलेंतीना गर्भवती है, क़रीब तीसरा
महीना चल रहा है. उन्होंने अपने सिर हिलाए, भारीपन से आर्तेम और उसकी दुल्हन की ओर
देखा...
अंकल गोशा जो,
बेशक, पीने का शौकीन था, चहका कि बैठना चाहिए, जान-पहचान के नाम पे पीना चाहिए,
मगर उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. मतलब, ऐसा दिखाया, कि नहीं सुना.
“रजिस्ट्रेशन कौन सी तारीख को है?” निकोलाय
मिखाइलोविच ने पूछा.
आर्तेम ने वाल्या
पर नज़र डाली, ख़ुद जवाब देने का ख़तरा नहीं मोल लेना चाहता था.
“बारह मई को,” उसने कहा.
“क्या तुम लोगों की अकल घास चरने गई है, जो मई
में शादी करने चले?!” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने हाथ नचाए.
“बात क्या है?” भावी समधन भड़क गई.
“मई में शादी - ज़िन्दगी की बरबादी.”
“चलो, सब ठीक है...”
“क्या – ठीक है? क्या सब्र से नहीं शादी करवा
सकते?...” वलेंतीना चीखी. “और जाँच भी करवानी पड़ेगी, किससे है ये...”
किसी चमत्कारवश ही
झगड़ा होते-होते बचा.
आर्तेम माँ-बाप के
पीछे-पीछे घिसट रहा था और सोच रहा था. उसके दिमाग़ में ठीक वैसे ही ख़याल आ रहे थे,
जैसे गाँव में आने की पहली सुबह को आये थे, कि भाग जाए. कहीं भी, कैसे भी. इन
दिनों कुछ ख़ौफ़नाक सा हो रहा है. मगर जाए कहाँ और इसके लिए पैसा कहाँ से लाए? शहर
तक जाने के लिए बस के किराए के भी पैसे नहीं हैं...मगर, बेइन्तहा दिल चाह रहा था
अपने कमरे में जाने के लिए, अकेले, अपने पलंग पर, जिसके पुर्जे अभी गर्मियों वाले
किचन में बन्द पड़े हैं, धूल खा रहे हैं...
अकेले....नहीं, अब
अकेला जाना संभव नहीं होगा. फँस गया. ख़ुद ही चाहता था, हालाँकि डरता भी था, और अब –
फँस गया.
वाल्या के साथ वो
पहली मुलाक़ातें, वो पहला डान्स... उसे एक एक बात याद है. क्रिसमस-ट्री पर लगाए गए
रंगीन बल्बों की रोशनी में, जो संगीत के साथ अपना रंग बदल रहे थे, वह बड़ी प्यारी
और जवान लग रही थी. आर्तेम ने उसे डान्स के लिए पूछा, उसे थोड़ा अचरज हुआ, और इस
अचरज में सहमति भी थी और थी तत्परता, किसी बड़ी चीज़ के लिए...तब आर्तेम को इससे
ख़ुशी हुई थी. और फिर, जब ठण्ड में, किसी गली में, एक दूसरे की बाँहों में उन्होंने
एक दूसरे को चूमा तो वह अपने आप को भाग्यवान समझने लगा.
वलेंतीना गाँव की
सीमा पर रहती थी, दो क्वार्टर्स वाले एक घर में, जो कुछ साल पहले जल गई
सिलाई-कारख़ाने के मलबे से कुछ ही दूरी पर था. केन्द्र से काफ़ी दूर - जहाँ एल्तिशेव
रहते थे. मगर उन नृत्यों और चुम्बनों के बाद आर्तेम क़रीब-क़रीब हर रोज़ वाल्या के घर
के पास जाता, खिड़कियों के नीचे घूमता. ठिठुरन से ऐंठता, अपने पैरों की बर्फ बन
चुकी उँगलियों को दबाता-खोलता. वाल्या को पुकारने की हिम्मत न करता, मगर कभी-कभी
वह उसे देख लेती और निकलकर बाहर आती. गार्डन की फेन्सिंग के टूटे हुए फट्टों के
पास खड़े रहते, किसी तनाव में बातें करते, एक दूसरे की आदत डालते, और आर्तेम की
सर्दी भाग जाती. उल्टे, वह गर्मी से परेशान हो जाता.
वे क्लब में भी
मिलते. (गाँव में कोई और जगह ही नहीं थी जाने के लिए.) लोगों के सामने वाल्या
आर्तेम के साथ ऐसे पेश आती जैसे वह उसका प्रशंसक हो – उसका हाथ अपने हाथ में लेती,
गर्माहट भरी मुस्कुराहट से उसकी ओर देखती, हमेशा उसके साथ डान्स करने के लिए तत्पर
रहती. लड़के – बोल्त, वीत्सा, ग्लेबिच – आर्तेम को आँख मारते, अर्थपूर्ण ढंग से
मुस्कुराते.
जब वाल्या के बगैर
एक बार पोर्च में मिले तो ग्लेबिच ने पूछा:
“तो, लड़की पटाई या नहीं?”
आर्तेम को वाल्या
की आदत हो गई थी, हो सकता है, वह उससे प्यार भी करता था. इसलिए ऐसे शब्दों से उसे
अपमान लगा.
“किस लिहाज़ से?”
“अरे, उसने अपने आप को दिया या नहीं?” और ये
देखकर कि आर्तेम का चेहरा कैसे विकृत हो गया है, ग्लेबिच ने अपना लहजा बदल दिया:
“नहीं, वो लड़की नॉर्मल ही है. कमज़ोर है उस बात...ठीक है, त्यामा, चल, चलते हैं.”
मुड़े-तुड़े
प्लैस्टिक के गिलासों में स्प्रिट डाला गया, लड़के इस बारे बहस कर रहे थे कि डान्स
के बाद क्या किया जाए: “तालाब के पास अलाव जलाएँ, कुछ देर बैठेंगे”. – “चलो, बस
आलुओं की ज़रूरत है.” “हाँ, आलू
भूने-एंगे!” और आर्तेम थोड़ा शांत हुआ. कुछ देर उनके साथ खड़ा रहा, थोड़ा सा स्प्रिट
पिया और चुपचाप वापस क्लब में लौट आया.
आधे अँधेरे में
वाल्या को निहारता रहा. वह बेंच पर बैठी हुई लड़कियों से बातें कर रही थी; उन्होंने
उससे कुछ पूछा, वह हँस पड़ी और सिर हिलाया; सुनहरी घुंघराली लटें हिल रही थीं, उसने
कुछ देर सोचा और जवाब देने लगी. चेहरे के
भाव बता रहे थे कि वह किसी बात का समर्थन कर रही है. “कहीं मेरे बारे में तो नहीं?”
आर्तेम ने सोचा, और उसका दिल डूबने लगा; जैसे उसने सुना कि वह उनके भेद खोल रही
है. “खोलने जैसा है ही क्या?” उसने आप पर काबू किया. “कुछ नहीं.”
ख़ूबसूरत म्यूज़िक
गूंज उठा, किसी औरत की भर्राई हुई आवाज़ अंग्रेज़ी में गा रही थी. कोई भी डान्स नहीं
कर रहा था – गाँव में धीमे म्यूज़िक को कोई पसन्द नहीं करता, और वैसे भी आम तौर से
डान्स करते समय लड़के लड़कियों से बातें क़रीब-क़रीब नहीं करते हैं, जैसे कि वे एक
दूसरे को देख ही न रहे हों. मगर इसके बाद, जब क्लब बंद हो जाता है, तो वे जोड़ियाँ
बना-बनाकर कहीं कहीं चले जाते हैं.
ऐसा ही इस शनिवार
को भी हुआ. वाल्या और आर्तेम साथ-साथ चल पड़े. उसके घर की ओर. मौसम ठण्ड़ा था, सूरज
की रोशनी में पिघल चुकी बर्फ, जो अब फिर से जम गई थी, पैरों के नीचे कर्-कर् कर
रही थी; गेट के पीछे कुत्ते भौंकते, मगर फ़ौरन ही ये इत्मीनान करके कि लोग बगल से
जा रहे हैं, फिर से ख़ामोश हो जाते.
“वाल्,” आर्तेम से रहा न गया, उसने उसे रोक
लिया, उसका मुँह अपनी ओर घुमाकर बोला, “मैं तुम्हारे साथ...तुम्हें हासिल करना
चाहता हूँ.”
वह संजीदगी से
मुस्कुराई.
“थोड़ा रुको.”
“रुको, मतलब?”
“चलो, चलते हैं.”
आर्तेम फिर से उसे
रोकना चाहता था, बाँहों में लेकर चूमना चाहता था, मगर उसने कुछ और का वादा किया
था. और वह वाल्या के पीछे-पीछे चल पड़ा.
गेट के पास उसने कहा:
“कुछ देर यहाँ रुको, मैं पता करती हूँ...”
“क्या पता करना
है?” आर्तेम चिढ़कर पूछने ही वाला था. मगर नहीं पूछा, फेन्सिंग से टिककर ख़ामोशी से
खड़ा हो गया, तालाब के सफ़ेद धब्बे के पीछे घरों के काले धब्बे, बीच-बीच में झलकती
खिड़कियों की पीली और नीली चौखटें देखता रहा. चारों ओर ख़ामोशी और मुर्दनी छाई थी,
और, ऐसा लग रहा था कि पूरी धरती पर ऐसा ही है – ठण्डा, ख़ामोश, निर्जन. कैसी
पीड़ा...अगर लड़की से शीघ्र निकटता की संभावना की उम्मीद न होती, तो आर्तेम नीचे
बैठकर बिसूरने लगता. फिर करवट के बल गिर जाता, आँखें बन्द कर लेता और हौले से,
ख़यालों में गर्मियों की, शहर के किसी चौराहे की कल्पना करते हुए, जम जाता.
आँगन के भीतर कोई
दरवाज़ा हौले से चरमराया, फिर सख़्त बन गई बर्फ करकराई, और वाल्या की फुसफुसाहट
सुनाई दी:
“जा, बूथ में जा! जा-जा जल्दी! अरे, त्रेज़र...”
और उसी तरह फुसफुसाते हुए बोली, “आर्तेम, आ जाओ.”
वह भीतर गया, यह
देखने की कोशिश करते हुए कि वाल्या कहाँ है, कुत्ते का बूथ कहाँ है...
“ बाथ-हाऊस की तरफ़ जाओ,” उसने फुसफुसाहट भरी
आज्ञा दी. “सीधे, वहीं दरवाज़ा है.”
आँगन में बर्फ की
करकराहट हुई. पीछे-पीछे वाल्या के क़दम, जंजीर की खनखनाहट और कुत्ते की कूँ-कूँ.
“खामोश, कहा न मैंने!...”
बाथ-हाऊस के
ड्रेसिंग-रूम में काफ़ी गर्माहट थी, शैम्पू की, जली हुई बर्च की पत्तियों की, गीली
लकड़ी की गंध आ रही थी...आर्तेम ने तीव्र उत्तेजना का अनुभव किया. खड़ा होना भी
मुश्किल लग रहा था; उसने अंधेरे में टटोलकर बेंच ढूँढ़ी और बैठ गया...
वाल्या उछली,
दरवाज़े की जंज़ीर लगा दी.
“लाईट नहीं जलाएँगे,” उसने हौले से कहा, जैसे घर
वाले उसकी बातें सुन लेंगे.
“यहाँ कहीं मोमबत्ती है...अभी...तब तक कपड़े उतार
दो...”
तब से यह
ड्रेसिंग-रूम ही एक ऐसी जगह बन गई, जहाँ वे निकट आते. अक्सर तो उसमें ठण्डक रहती
(बाथ-हाऊस को सप्ताह में एक बार गरम किया जाता था), इसलिए कपड़े नहीं उतारते थे.
आर्तेम जीन्स उतार देता, और वाल्या स्कर्ट को सीने के पास इकट्ठा कर लेती...
मगर तब भी, जब
ड्रेसिंग-रूम में गर्माहट होती और काफ़ी आरामदेह लगता, आर्तेम लड़की को निर्वस्त्र
अवस्था में कभी न देख पाया – वह लाईट नहीं जलाती थी, सब कुछ छोटी सी मोमबत्ती की
पीली लौ में होता.
दोनों के माँ-बाप
की मुलाक़ात भी, जिसने उनकी दूल्हा-दुल्हन की भूमिका पर लगभग कानूनी मुहर लगा दी
थी, उनकी मुलाक़ातों के तरीके को बदल नहीं पाई थी. ड्रेसिंग-रूम के अलावा और कोई
ऐसी जगह नहीं थी, जहाँ सिर्फ ‘सेक्स’ के लिए मिलना संभव था: वाल्या के बिना
दरवाज़ों वाले तीन कमरों में चार लोग रहते थे – उसके अलावा माँ, बाप और अस्सी साल
की दादी. गर्मियों में वाल्या की बहनें अपनी लड़कियों को लेकर आ जाती थीं, और वैसे
वे ख़ुद भी अक्सर आती जाती रहती थीं; उस समय वाल्या को बरामदे में सोना पड़ता था. आर्तेम
ने कभी उसे अपने घर ले जाने के बारे में कहा ही नहीं. वह, बेशक, गर्मियों वाले
किचन को एक कमरे में बदलना चाहता था, उसे अपना कमरा बनाना चाहता था; मगर समझता था कि
ये सिर्फ ख़्वाब है: वह ख़ुद न तो मरम्मत कर सकता था, न कुछ निर्माण कर सकता था और न
ही किसी तरह के परिवर्तन कर सकता था, बाप तो, उसकी जल्दी ही होने वाली शादी के
बारे में जानकर उदासीन हो गया था, आर्तेम की तरफ़ ज़रा भी ध्यान नहीं देता था. जैसे
आर्तेम ने उसके साथ विश्वासघात किया है...
एक बार जल्दबाज़ी और
सावधानीपूर्ण निकटता के बाद, जब वे बेंच पर एक दूसरे की बगल में बैठे थे, आर्तेम
ने पूछ लिया...ये उसके माँ-बाप के त्यापोवों के घर आने के क़रीब पाँच दिन बाद की
बात है...
“वाल्या, क्या तेरे बहुत सारे दोस्त थे?”
उसे न जाने क्यों विश्वास था कि वह इस सवाल का
बुरा मान जाएगी, मगर उसे पूछे बिना वह रह नहीं पाया – छोकरों की व्यंग्यात्मक
हिनहिनाहट और तात्याना दादी के चुभते हुए कमेन्ट्स उसे चैन नहीं लेने दे रहे थे.
“हाँ, बहुत सारे,” शांत आवाज़ में उसने कहा.
“क्या तेरे कान भर दिए?”
“हाँ...क़रीब-क़रीब...और, जानती हो...” शब्दों का
चुनाव करते हुए आर्तेम की ज़ुबान लड़खड़ा गई, “जानना चाहता हूँ...जल्दी ही शादी है,
और...हो सकता है, क्या शादी के बाद भी तेरा किसी और के साथ होगा ? या फिर, कैसे? तुझसे मुलाक़ात होने तक मेरा तो किसी
लड़की से लफ़ड़ा नहीं था...तो, होने को तो इत्तेफ़ाकन कुछ भी हो सकता है. और फिर
वो...”
“समझ सकते हो कि मेरे साथ भी इत्तेफ़ाक़न ही हुआ,”
वाल्या ने उसकी बात काटी. “कई सारे इत्तेफ़ाक. शहर में उनकी ओर कोई ध्यान नहीं
देता, मगर यहाँ तो सब एकदम...चारों ओर बात फैल जाती है. लोग ‘बोर’ हो गए हैं, बस, नमक-मिर्च
लगाकर दूसरों की बातें सुनाते हैं.” उसने वाशिंग मशीन से कोई चीथड़ा उठाया, अपने
अंग को साफ़ किया; आर्तेम के माथे पर बल पड़ गए, उसने नज़रें दूसरी तरफ़ फेर लीं.
“इसके बगैर कैसे? मुझे ‘सेक्स’ अच्छा लगता है, मैं अपना परिवार चाहती हूँ, बच्चा
चाहती हूँ. और ये इत्तेफ़ाक...नहीं,” उसकी आवाज़ कठोर हो गई, “ये इत्तेफ़ाक नहीं हैं –
मैंने झूठ बोला था. सब के साथ, जिनसे निकटता बढ़ाई, ज़िन्दगी भर के लिए जाने को
तैयार थी. मगर...संक्षेप में, या तो उन्होंने मुझे छोड़ दिया, या वे जेल चले गए, या
उन्हें मार डाला गया. हमारे यहाँ बहुत सारे लोगों को मार डालते हैं. ख़ास तौर से
गर्मियों में. मेरे दो दोस्तों को मार डाला गया...कई चले भी जाते हैं. लड़कियाँ भी
चली जाती हैं, कईयों की शादी हो जाती है. और यहाँ भी शादियाँ करते हैं, बल्कि, सब
ठीक-ठाक ही हो जाता है. मगर मेरे साथ कुछ न हो सका. मैं कहीं गई भी नहीं, कोशिश तो
की थी... बहनें शहर में बस गई हैं, मगर मेरी मदद... ख़ैर, उनके पति हैं,
बच्चे,क्वार्टर्स छोटे-छोटे हैं...”
“आ-आ...” वाल्या ने
चीथड़ा वापस फेंक दिया, मुस्कुराकर आर्तेम से बोली. “क्या, कपड़े पहन लें या और?”
किसी अतृप्त वासना
से, ख़ामोशी से, आर्तेम उस पर चढ़ गया. दुल्हन पीठ के बल संकरी बेंच पर लेटी थी,
उसने पैर समेट लिए.
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