गुरुवार, 5 मार्च 2015

Eltyshevi - 23

अध्याय – 23


ज़िन्दगी जैसे तेज़ी से, बिना रुके नीचे-नीचे फिसलती जा रही थी. सिर्फ आत्मा की खुरदुराहट, उसका कमज़ोर-सा आवरण ही उन्हें पूरी तरह बदहवास होने से, गिरने से, मरने से बचा रहा था. शायद प्राचीन ग्रीक योद्धाओं या रूसी लोककथाओं के भीमकाय पुरुषों के समान मरना अच्छा ही है, मगर वैसा हो नहीं रहा था. निरंतर दुख उठाये जा रहे थे, ये भी पता नहीं था कि किसलिए.

वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को डाइबिटीस हो गया था, जो काफ़ी विकसित अवस्था में था. जैसे ही उसकी तबियत थोड़ी संभली, डॉक्टर ने लेक्चर देना शुरू किया:
  “अपना ख़याल रखना चाहिए, आदरणीया, नियमित रूप से चेक-अप करवाना चाहिए. जब कभी शरीर में कोई ख़राबी आ जाती है, तो वह ‘सिग्नल’ देने लगता है, और तब फ़ौरन उस दिशा में क़दम उठाना चाहिए. आप, शायद, बहुत दिनों से ‘डिसकम्फ़र्ट’ महसूस कर रही थीं? सही है या नहीं?”
 “ये कौन से चाँद से टपका है?” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना मन ही मन अचरज कर रही थी. डिसकम्फ़र्ट’...” उसका दिल हुआ कि साफ़-सुथरे सफ़ेद एप्रन वाले इस प्यारे-से नौजवान को सब कुछ तफ़सील से बताए. हर बात के बारे में, जो पिछले कुछ सालों में उनके परिवार के साथ हुई थी. आम तौर से क्या-क्या हुआ था. ये ‘डिसकम्फ़र्ट’ कैसे आ धमका था. बताना चाहिए, उसने अच्छा शब्द इस्तेमाल किया है...”

वह चुपचाप रोने लगी, बिना हिचकियाँ लिए, बिना कराहे. डॉक्टर की और वार्ड की पड़ोसनों की तरफ़ से मुँह फेर लिया. आँसू त्वचा में झुनझुनी पैदा कर रहे थे, चेहरे पर फिसलते जा रहे थे, तकिये के गिलाफ़ पर गिर रहे थे. उसने सुना कि कैसे डॉक्टर परेशान होकर ज़ुबान से ‘चुक्-चुक्’ कर रहा था, शायद, वह कुछ कहना चाहता था, मगर उसे शब्द ही नहीं मिले, वह चला गया.

क़रीब एक हफ़्ते तक उसे दवाईयों के इन्जेक्शन देते रहे, सलाईन की बोतल चढ़ाई गई. वार्ड में नर्सेस क़रीब-क़रीब थी ही नहीं, इसलिए सलाईन का ख़याल खुद ही रखना पड़ता था, और, अपनी ऊँघ पर क़ाबू पाते हुए, जो लगातार उसे बेज़ार किए जा रही थी, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना अपने सिर के ऊपर टंगी बोतल को देखती रहती. वार्ड में उसकी पड़ोसनें – अधेड़ उम्र की थीं, जो काफ़ी समय से सख़्त बीमार थीं. किसी को डाइबिटीज़ था, किसी को अस्थ्मा. उन्हें अलग अलग गाँवों से यहाँ लाया  गया था. वे ज़्यादातर पलंग पे पड़ी रहतीं, मरियल आवाज़ में  - जैसे कोई ज़बर्दस्ती कर रहा हो  - बातें करतीं. बातचीत बदनसीबी के बारे में ही होती थी – कौन कहाँ मर गया, कहाँ किसके घर में फिर से चोरी हुई, कहाँ माँ ने बच्चों को छोड़ दिया, कहाँ ओलों से आँगन की फ़ेन्सिंग गिर गई, कहाँ मवेशी मर गए, किससे विशेषाधिकार छीन लिए गए...
 “क्या कहीं कुछ अच्छा है ही नहीं?” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना मन ही मन उद्विग्न हो गई, पिछले कुछ सालों की घटनाओं पर ग़ौर किया और उसे कुछ भी अच्छा नहीं मिला. सिर्फ बहुत-बहुत पहले, कोई चीज़ टिमटिमा रही थी, मगर ये घटनाएँ नहीं थीं, बल्कि किसी चीज़ का एहसास था, जिसे याद करना संभव नहीं हो पाया.

पति हर रोज़ आता था. अलग-अलग तरह के फल, चॉकलेट्स लाता, मगर एक बार डॉक्टर ने देख लिया और वापस लौटा दिया:
 “आप कर क्या रहे हैं?! उसे शक्कर की डाइबिटीज़ है!” और वह सारी चीज़ें स्टूल से वापस पैकेट में फेंकने लगा. “नहीं! ये सब मना है!”

डाइबिटीज़... गाँव में शिफ्ट होने के लगभग फ़ौरन बाद से ही वलेन्तीना विक्तोरोव्ना महसूस कर रही थी कि उसकी तबियत कुछ गड़बड़ है. हो सकता है कि उससे पहले भी उसे ऐसा लगता था. मगर पॉलिक्लिनिक में जाकर जाँच करवाने से डरती थी. पचास साल – वह सोचती रही कि ये सिर्फ थकावट है जो जिस्म में जमा हो गई है; समस्याओं और दुर्भाग्य के कारण हुआ मानसिक तनाव है. मगर, अब पता चल गया है. डाइबिटीज़. और, अब ये ज़िन्दगी भर चलेगा. इन्जेक्शन्स, डाएट, इसके तीव्र होने का डर, और मुख्य बात ये कि – इस बात का पता चलना, कि तुम बीमार हो और अच्छे नहीं हो सकते. पति के निरंतर पूछे जा रहे सवाल: “कैसी है तू?”- उसका दिल बिसूरने को चाहता, बिना अपने आप पर काबू किए, जी भर के. बस, बिसूरने को, और कुछ नहीं.

वह सब्र करती रही. पति की ओर देखती, उम्मीद करती की वह हौसला बढ़ाएगा. मगर वह ख़ामोश रहता. बगल वाली बेंच पर बैठा रहता, उसकी आँखों से परे देखता, गहरी साँस लेता. फिर विशेष रूप से गहरी साँस लेकर पूछता:
 “क्या, जाऊँ? घर की रखवाली के लिए कोई नहीं है.”
 “जाओ.”
 “तू अपने आपको संभाल. बहुत राह देख रहा हूँ तेरी.”
 “अच्छा...” मगर इस बात पर कि वह वाक़ई में उसकी राह देख रहा है, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को  विश्वास नहीं था: पति की आवाज़ में, जिस तरह से वह आँखें चुराता था, उसमें कुछ भयभीत करने वाली, बदहवास करने वाली बात थी.

डिस्चार्ज मिलने पर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को इन्सुलिन की तीन बोतलें, डिस्पोज़ेबल सिरींज का एक बॉक्स दिया गया; डॉक्टर ने एक लेक्चर दिया इस बारे में कि डाएट कैसी होनी चाहिए, अपने आप को इंजेक्शन कैसे लगाना चाहिए, दवाएँ कहाँ से लेना चाहिए, उन्हें कैसे संभालकर रखना चाहिए.
   “...दिल तो आपका अभी तक ठीक ठाक है, मगर यदि दैनंदिन कार्यक्रम में लापरवाही बरतेंगी, तो फिर से बीमार पड़ जाएँगी. ऊपर से बदन पे छाले भी आ जाएँगे...”
कुछ बातें वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने लिख लीं, कुछ छोड़ दीं. अभी, पाँच अधमरी औरतों के साथ अस्पताल के एक ही वार्ड में हफ़्ता भर रहने के बाद, उसे जल्दी से जल्दी अपनी कॉटेज में, अपने दीवान पर पहुँचने की ख़्वाहिश थी. ऊपर से, सलाईन के बाद वह ख़ुद को तन्दुरुस्त और मज़बूत महसूस कर रही थी. अगर यह एहसास न होता कि उसकी हालत लाइलाज है...

दो बजे के क़रीब पति आया. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने जल्दी से अपना सामान इकट्ठा किया और गाड़ी में बैठ गई. वे चल पड़े.

निकोलाय ख़ामोश था, तनाव से रास्ते की तरफ़ देख रहा था. चारों ओर की हर चीज़ ख़ुशी से झूम रही थी – रास्ते के किनारों पर कई तरह के लाल, नीले, पीले फूल दमक रहे थे, घास लगभग आदमी के बराबर ऊँची हो रही थी; आगे चीड़ों के लाल-चटख़ तने चमक रहे थे, और उनके नीचे बेतहाशा मशरूम्स झूम रहे थे. बड़े-बड़े, मोटे, बिना कीड़े लगे...
 “गाड़ी रोको, प्लीज़,” थरथराती आवाज़ में वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने कहा.
निकोलाय ने तेज़ी से ब्रेक लगाया, ‘मस्क्विच’ पिछला हिस्सा भी चरमरा गया. घबराकर पूछा:
 “क्या, तबियत बिगड़ गई?”
 “नहीं, कोई बात नहीं है. कुछ देर जंगल में बिताना चाहती हूँ...ताज़ी हवा में साँस लेना चाहती हूँ.”
वह दरवाज़ा खोलने ही वाली थी, पति ने रोक दिया:
 “ओह...चल, बेहतर है कि घर ही चलें. जल्दी से जल्दी पहुँचना चाहिए. हमारे घर में घुस गए थे...दो बार चोरी हो चुकी है.”
 “क्या?”
 “क्या – लूट लिया हमें.” निकोलाय ने गाड़ी स्टार्ट की. “पहली बार स्प्रिट का कनस्तर घसीट कर ले गए, थोड़ी बहुत चीज़ें भी. फिर दुबारा...परसों.”
 “तुम क्या कह रहे हो?! कौन हो सकता है?”
 “हुम्, अगर पता चल जाता. शक तो है, मगर कैसे...सबको तो एक साथ नहीं खड़ा कर सकते. कोई भी हो सकता है. किसी को कभी डाँटा होगा, समझ नहीं पा रहा...”

चोरी की ख़बर से अस्पताल में संचित शरीर की ताक़त जाती रही – जैसे ये ताक़त भीतर से कूदकर बाहर निकल गई हो; और जब वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने आँगन में शुरू ही किए गए (दो साल पहले शुरू किए गए) घर के फ्रेम-वर्क की पसलियों जैसी शहतीर देखी; अभी तक ड्योढ़ी के पास पड़ी, पूरी तरह ज़ंग लगी भट्टी को, धीरे-धीरे जर्जर होते हुए लकड़ी के फट्टों के ढेर को देखा तो बची-खुची ताक़त भी उसका साथ छोड़ गई...किसी तरह किचन में पड़े पलंग तक पहुँची. बैठ गई, फिर करवट के बल लेट गई. “तो, बस, सब हो गया,” दिमाग़ में ख़याल आया, “अंतिम आरामगाह.”
 “नहीं, सब नहीं! सब नहीं!” झटके से उठ गई और ज़ोर से बोली:
 “सब नही!” पर्स से दवाईयाँ निकालीं, दो बोतलें, जैसे कि डॉक्टर ने बताया था, फ्रिज में रखीं, और तीसरी की सील खोल दी, सिरींज ली, उसमें इन्सुलिन भरी. अपने ब्लाऊज़ को कमर से ऊपर उठाया...जब सिरींज चुभा रही थी तो देहलीज़ पे खड़े पति की आँखों से आँखें टकरा गईं. वह अविश्वास से, और जैसे वितृष्णा से देख रहा था.
 “तो, ऐसा है,” कठोरता से उसे समझाने लगी, “अब ये ऐसा ही रहेगा. दिन में तीन बार.”

जुलै का महीना ख़तम हो गया, अगस्त शुरू हुआ. ख़ुदा का शुक्र है कि आँगन में बुआई करने के लिए मौसम अच्छा था – दो-तीन दिन बेहद गर्मी पड़ी, और फिर आया तूफ़ान, कुछ देर के लिए खूब बारिश हुई, मगर वह धरती को गर्माहट भरी नमी दे गई. मगर मौसम में ऐसी तबदीली का असर लोगों की मनोदशा में दिखाई देता था. सब कुछ भारी-भारी सा था, हर चीज़ हाथों से छूट-छूट जा रही थी. खिड़कियों के पल्ले बन्द करके लोग अपनी कॉटेजेस में बैठे रहते, और सिर्फ शाम को ही ज़िन्दगी की आहट सुनाई देती: कहीं कुछ छीला जाता, एक दूसरे को गालियाँ देते या फिर मवेशियों को, मुर्गियों को  गालियाँ देते, कैसेट-प्लेयर शुरू करते, कभी-कभी ख़ुद भी गाने लगते.

निकोलाय अधिकाधिक उदास और ख़ामोश रहने लगा. भट्टी के पास बैठा रहता, भट्टी के पेट में धुआँ छोड़ता रहता. वैसे ही, जैसे सर्दियों में करता था, हर आधे घण्टे बाद अलमारी के पास आता, स्प्रिट का एक जाम पी लेता...कभी-कभी वलेन्तीना विक्तोरोव्ना अपने आपको रोक नहीं पाती:
 “तुम कुछ करो ना! बिल्कुल ऐसे ही नहीं बैठना...”
तब वह उठकर आँगन में या गार्डन में चला जाता. चुपचाप, बाहर से उदासीन. और कई-कई घण्टों तक वापस नहीं आता. आख़िरकार वलेन्तीना विक्तोरोव्ना उसे बुलाने के लिए जाती.

पति या तो आँगन में बैठा मिलता या गार्डन में. आहत दृष्टि से बीबी की ओर देखता, और उसका दिल दया से भर आता.
 “चलो, घर चलें,” वह कहती, “चलो, देर हो गई है.”

बिना देखभाल के, बिना निगरानी के हर चीज़ बड़ी तेज़ी से टूटने लगी, नष्ट होने लगी. गार्डन की पीछे वाली फ़ेन्स गिर गई, और वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को कई बार निकोलाय से कहना पड़ा कि उसे ठीक कर दे.
 “मवेशी भीतर आ जाएँगे, हर चीज़ कुचल देंगे. हम सर्दियों में क्या खायेंगे?!”
आख़िरकार उसने कुछ खम्भे लिए और चला गया. आधा घण्टा खटखट करता रहा, वापस आया, दीवान पे लेट गया.
 “ठीक कर दिया?” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा.
 “हूँ,” और पीठ फेर कर अगली सुबह तक के लिए सो गया, खाने के लिए भी नहीं उठा.

एक बार की बारिश के बाद गर्मियों वाले किचन की छत से पानी चूने लगा. पता चला कि टाईल्स टूट गई है. उसे सुधारने के लिए वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को फिर से बड़ी देर तक पति की मिन्नत करनी पड़ी.
‘मस्क्विच’ के निचले हिस्से में ज़ंग के फफोले जैसे बन गए, और एक दिन उसने स्टार्ट होने से इनकार कर दिया. निकोलाय ने बैटरी को चार्ज किया, बड़ी देर तक हुड के नीचे कुछ करता रहा, और फिर उसने घोषणा कर दी:
 “बस, अब कुछ भी नहीं कर सकता. इस कचरे को शैतान की ख़ाला के पास भेज देना चाहिए. अब कभी उसके पास नहीं जाऊँगा.”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने बाद में चाहे कितनी ही मिन्नत की, मांग की, प्रार्थना की, उसने फिर ‘मस्क्विच’ की तरफ़ नहीं देखा. मगर बाहर आना-जाना तो ज़रूरी था. सिर्फ ये ख़याल कि अब उनके पास गाड़ी नहीं है – डरा रहा था. जैसे कि सामान्य मानव जीवन से उन्हें जोड़ने वाली एक और कड़ी टूट गई हो.

जब इन्सुलिन ख़तम होने को आई, तो वह प्रेस्क्रिप्शन लिखवाने कम्पाऊण्डर के पास गई. उसने निराश ही किया:
 “मैं प्रेस्क्रिप्शन नहीं लिखती. आप क्या कह रही हैं...मैं प्राथमिक-चिकित्सा प्रदान करती हूँ, मरीज़ को डॉक्टर के पास ‘रेफ़र’ करती हूँ...”
 “मुझे प्रेस्क्रिप्शन कहाँ मिलेगा?”
 “हर महीने के दूसरे सोमवार को तिग्रित्स्कोए से डॉक्टरनी आती है, वो ही लिखती है. दो बजे से पाँच बजे तक यहाँ बैठती है.”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने दिन गिने और वह समझ गई कि दूसरे सोमवार तक दवाईयाँ नहीं चलेंगी.
“तो फिर मैं क्या करूँ? मुझे इन्सुलिन की फ़ौरन ज़रूरत है.”
“तो, आप उसके पास जाईये,” पैंतीस साल की कम्पाऊण्डर ने अपनी उदासीन शांति को बरक़रार रखते हुए कहा, जो सेहतमन्द लोगों की ख़ासियत होती है, और जो ये नहीं समझते कि बीमार होना कैसा होता है.
“तिग्रित्स्कोए जाना पड़ेगा?”
 “हाँ.”
 “हुम्... सलाह के लिए धन्यवाद. आपके यहाँ हर चीज़ इतनी चालाकी से बनाई गई है – इन्सान चाहे मर भी रहा हो, मगर उसे बस में बैठकर जाना ही पड़ेगा.”

तिग्रित्स्कोए में प्रेस्क्रिप्शन मुँह बनाकर ही लिखा गया (“अपनों ही के लिए टाईम नहीं है”), मगर बड़ी जल्दी मिल गया. डॉक्टरनी ने पूछा भी:
  “डिसएबलमेन्ट वाला फॉर्म भर दिया?”
 “अभी नहीं. भरने वाली हूँ.”
 “ज़रूरी है.”
 “हाँ, हाँ...”

इन्सुलिन सिर्फ शहर की एक ख़ास फ़ार्मेसी में मिलता था, जो उस जिले के निवासियों के लिए थी. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना बस में आई, क़तार में खड़ी हो गई, जिसमें क़रीब तीस आदमी थे. आख़िरकार प्रेस्क्रिप्शन को खिड़की में घुसाया.
ऐसा लगा कि उसकी ओर बिना देखे ही फ़ार्मेसिस्ट ने वह कागज़ वापस फेंक दिया. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को बड़ा अचरज हुआ:
 “क्या हुआ?”
 “आज इसका दिन नहीं है.”
  “आँ?”
 “आज सरकारी सुविधाप्राप्त लोगों को दवाएँ दी जाती हैं,” फ़ार्मेसिस्ट अपनी चिड़चिड़ाहट छुपा नहीं पा रही थी.
 “वो क्या चीज़ है?”
 “डिसएबल्ड लोग. हरे रंग के प्रेस्क्रिप्शन. आपका – भूरे रंग का है. आपको, क्या कुछ भी मालूम नहीं है?”
 “तो...ज़रा रुको!” पीछे से वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को हल्के से धकेला जा रहा था. “तो फिर, मेरा नंबर कब आएगा?”
 “ओह, कल आईये. पता नहीं. ये किसी को पता नहीं है.”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने मुँह खोला, मगर शब्द ही नहीं निकले, गुस्सा बढ़ रहा था.
 “आपको क्या बहुत टाईम लगने वाला है?” उसकी पीठ को ज़ोर से धकेला गया. यहाँ और लोग भी हैं.”
 “ओह, थोड़ा रुकिए!” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना का गुस्सा फूट पड़ा. “मैं गाँव से आई हूँ, पचास किलोमीटर्स दूर से! और मैं क्या, हर रोज़ ‘पता नहीं’ किसलिए आती रहूँ...”
 “मुझे भी हर रोज़ ऐसी ही बातें सुननी पड़ती हैं!” उतने ही गुस्से से फ़ार्मेसिस्ट ने जवाब दिया. “क्या, ये मुझ पर निर्भर करता है?! अगर आपके लिए दवाएँ होंगी – तो आपको देंगे; अगर नहीं होंगी  - तो नहीं देंगे.”

वलेन्तीना विक्तोरोव्ना शिकायत करने जाना चाहती थी. मगर कहाँ जाए? क्या स्वास्थ्य-विभाग में? और, इस बात की क्या ग्यारंटी है कि उससे कुछ हासिल होगा? उसने सर्दियों में टी.वी. पर देखा था कि पूरे देश में दवाओं की गड़बड़ चल रही है, इसकी वजह से मीटिंग्स भी की जाती हैं. मगर तब उसने इस बात को कोई महत्व नहीं दिया था – अपने आपको तन्दुरुस्त समझती थी.

घर में और दो-तीन दिनों के लिए इन्सुलिन थी. फिर क्या, आयेगी कल. हो सकता है, काम हो जाए.


हाँ, काम हो गया. उसे तीन बोतलें मिलीं, सिरींज के बॉक्सेस मिले. ख़ुशी-ख़ुशी ये सब पर्स में रखा. और तभी अपने आप पर ताना कसा: “जल्दी ही ब्रेड का एक टुकड़ा पाकर भी ऐसी ही ख़ुशी होगी.”

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