मंगलवार, 3 मार्च 2015

Eltyshevi - 22

अध्याय - 22


कभी निकोलाय मिखाइलोविच को अपने बेटों पर बहुत गर्व था. उन्हें बढ़ते देखकर वह बहुत ख़ुश होता था, झूलते घोड़े की नकल करते हुए उन्हें घुटनों पर झुलाता, उनके मनोरंजक, तोतले बोलों पर हँसता, उन्हें मर्द बनना सिखाता...जब बड़ा बेटा बारह साल का हुआ, तो रिश्तों में ठण्डापन आने लगा– बेटे दूर होने लगे, अब उनकी अपनी ज़िन्दगी थी, अपने काम थे, और बाप के प्रति आदर और प्यार कम होने लगा, ज़्यादा मनमानी करने पर मार पड़ने का ख़तरा बढ़ने लगा.

जब तक शहर में सुविधाजनक क्वार्टर में रहे, जब तक एल्तिशेव काम पर जाता रहा, दीवान पर बैठे-बैठे टेलिविजन में नज़रें गड़ाए, वह अपने आप को उनसे अलग कर सकता था, बेटों से बढ़ती दूरी का अनुभव नहीं होता था. हाँ, बड़ा, आर्तेम, मन्दबुद्धि, हमेशा थका हुआ, आलसी था, मगर किसी भी बात में टांग नहीं अड़ाता था, उसके होने का पता ही नहीं चलता था. किसी किताब के पन्ने पलटते हुए या म्यूज़िक सुनते हुए वह चौबीसों घंटे अपने पलंग पर पड़ा रह सकता था, और निकोलाय मिखाइलोविच कभी-कभी उसके बारे में भूल भी जाता था, बल्कि यूँ कहिए कि इस बात की तरफ़ ध्यान न देने की कोशिश करता था, कि वह काम नहीं करता है, कुछ भी नहीं करता है... छोटा, डेनिस, जो निकोलाय मिखाइलोविच को ज़्यादा प्यारा था, ज़िन्दादिल, बहादुर, हमेशा लड़ने-भिड़ने को तैयार रहता था, अंत में अपने स्वभाव की उसे बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी – एक लड़के को अपाहिज बना दिया और जाकर जेल में बैठ गया.

बेशक, अपाहिज बना दिया; मगर, एल्तिशेव, जिसने बहुत सारे ऐसे लोगों को देखा था जो जेल जा चुके थे, यह भी जानता था कि डेनिस मुश्किल से ही सामान्य ज़िन्दगी की ओर लौटेगा. ऐसे लोग छह महीने, साल, दो साल बाद फिर से कुछ न कुछ करके जेल चले जाते हैं. इसलिए वह बीबी के समान उम्मीद नहीं करता था कि डेनिस वापस आएगा और उनकी मदद करेगा, और वे सब फिर से एक साथ संयुक्त परिवार की तरह रहेंगे.

मगर, हुआ ये कि बुढ़ापे की देहलीज़ पर इस जंगली, धीरे-धीरे मरते हुए गाँव के एक झोंपड़े में आकर  निकोलाय मिखाइलोविच और उसकी बीबी अपने दो वयस्क बेटों से मदद की अपेक्षा नहीं कर सकते थे. एक बैठा है जेल में, बेवकूफ़ी भरी मारपीट की वजह से, और दूसरे ने सीधे-सीधे धोखा दे दिया -    सबसे मुश्किल घड़ी में धोखा दिया...

चूँकि दिल से वह आर्तेम से कब का दूर हो चुका था, इसलिए निकोलाय मिखाइलोविच उसकी मौत को बर्दाश्त कर गया. उसे ख़ुद भी आश्चर्य हो रहा था कि वह पागल कैसे नहीं हुआ, उसे दिल का दौरा क्यों नहीं पड़ा, बल्कि अपने भीतर उसे बड़ी शांति, एक तरह की राहत महसूस हो रही थी.
सैंकड़ों बार अपने ख़यालों में वह अपनी कृति को दुहराता, जब बेटे को ड्योढ़ी से बाहर फेंका था, बार-बार लोहे की भट्टी से आर्तेम का सिर टकराने की आवाज़ सुनता. और, जैसे, सचमुच में, कानों को बीबी की चीख़ चीरती चली जाती, जो बेसुध होकर बेटे के पास गिर गई थी...फिर भी, उस घटना की तमाम भयावहता के बावजूद एल्तिशेव को सचमुच के ख़ौफ़ का एहसास नहीं हो रहा था.
बेशक, पहली इच्छा तो यही थी कि पुलिस ऑफ़िसर के सामने हर चीज़ स्वीकार कर ले, हाथ आगे बढ़ा दे जिससे कि वो हाथों में हथकड़ियाँ पहना दे. मगर वलेन्तीना ने रोक दिया: “क्या, मेरे बारे में भी सोचा है?! क्या मैं ख़ुद को फाँसी लगा लूँ?”

जाँच-अधिकारी आए, पूछ-ताछ हुई, खोज से संबंधित प्रयोग भी किए गए. परिणामस्वरूप यह निष्कर्ष निकाला गया कि आर्तेम दुर्घटना के कारण मर गया है – नशे में ठोकर लगी, गिरते हुए उसके सिर का पिछला हिस्सा भट्टी के कोने से टकरा गया. तनावपूर्ण मानसिकता में दफ़नाने की तैयारियाँ की गईं – ताबूत ढूँढ़ा गया, ट्रक आया, कब्र खोदने के लिए किराए पर मज़दूर लाए गए... फिर, वह रात भी आई, जब ताबूत कमरे में रखा था, मोमबत्तियाँ जल रही थीं, कृत्रिम फूल बेबसी से चमक रहे थे; ताबूत के पास वाले स्टूल ख़ाली थे – आर्तेम को बिदा देने कोई भी नहीं आया. और सुबह, दफ़ना दिया, अगले कई दिनों और हफ़्तों तक काला खालीपन... इस दौरान एल्तिशेवों ने आर्तेम की विधवा और उसके सास-ससुर को एक भी बार नहीं देखा.

किसी तरह आँगन में आलू बोया, कुछ क्यारियों में गाजर, मूली, प्याज़, सरसों बोई, कैबेज के, टमाटर के पीले-हरे, मरियल पौधे लगाए. उन्हें क़रीब-क़रीब सींचा ही नहीं – पाईप्स के मुँह पे किसी ने बोल्ट जड़ दिए थे. पहले तो लोगों को आश्चर्य हुआ, वे बेकार ही में नलों में अपने-अपने पाईप फिट करने की कोशिश करने लगे. फिर मैनेजर के पास गए.
 “इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता,” उसने आपराधिक भाव से और विवशता से सफ़ाई देने की कोशिश की. “मैं ख़ुद भी इसके ख़िलाफ़ हूँ. “एनर्जीरिसोर्स” ने ये फ़ैसला किया है – ये उनके बोर-वेल्स हैं, पानी की सप्लाई वो ही करते हैं.”
लोग उत्तेजित हो गए; मैनेजर ने आवाज़ चढ़ाई:
 “अगर बोल्ट्स तोड़ोगे, तो, उन्होंने कहा है कि पानी ही बन्द कर देंगे.”
 “फिर हम बगीचों में पानी कैसे डालें? मवेशियों को पानी कहाँ से पिलाएँ? बाल्टियों से तो इतना पानी नहीं ले जा सकते...”
 “आप लोग “एनर्जीरिसोर्स” से ही बात करो. ये रहा उनका टेलिफोन और पता.” मैनेजर ने मेज़ से, शायद पहले से तैयार किया हुआ, कागज़ निकाला.
अगले दिन इस मसले को सुलझाने के लिए कई लोग शहर गए. शाम को दो पेज का एक दस्तावेज़ लाए. दुकान के पास उसे पढ़ा गया:
 “...नागरिकों को दी जाने वाली सेवाओं के नियम रूसी फ़ेडेरेशन की सरकार द्वारा तेईस मई सन् दो हज़ार तीन को स्थापित किए गए हैं. नंबर 307. पॉइन्ट 91’बी’ के अनुसार: “उपयोगकर्ता को पानी के नल के पास परिवहन के साधनों को, मवेशियों को धोने की, और कपड़े धोने की इजाज़त नहीं है. अपनी मर्ज़ी से, एनर्जी प्रदान करने वाली संस्था की अनुमति के बिना नलों से ट्यूब्स, होज़-पाईप्स, और अन्य उपकरणों को संबंधित करना मना है. प्राप्त परिस्थिति में नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं हुआ है...”

नल के पाईप के लफ़ड़े ने एल्तिशेवों को कोई ख़ास परेशान नहीं किया. उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. वैसे किसी भी बात में दिलचस्पी नहीं थी...स्प्रिट पी-पीकर ज़िन्दा रहते थे. बेसुध होने तक तो नहीं पीते थे, मगर अपने आप को होश में भी रहने नहीं देते थे. डरते थे.

मधुमालती और मशरूमों का मौसम शुरू होते ही ग्राहक टूट पड़े – फिर से रात-दिन गेट के पास धक्का-मुक्की शुरू हो गई. नये कनस्तर लाते हुए, वह ख़ूबसूरत आदमी, सेर्गेई अनातोल्येविच, ख़ुश हो रहा था:
 “बढ़िया चल रहा है. बढ़िया-आ...और मुझे याद आता है कि आपने इन्कार कर दिया था.”
मगर, पैसे दुबारा गिनते हुए वह थोड़ा निराश हो गया:
 “मगर बिक्री के हिसाब से पैसे मेल नहीं खा रहे हैं . आप, कहीं उधार तो नहीं देते? या ख़ुद ही?”
 “ख़ुद ही,” एल्तिशेव के माथे पे बल पड़ गए. “मौत हो गई थी...बेटे को दफ़नाया...”
 “ओह हाँ, ओह हाँ...ठीक है...” मगर जाने से पहले सेर्गेई अनातोल्येविच ने उन्हें सावधान किया: “सिर्फ उधार मत दीजिए! वर्ना फिर वो चुकाएँगे ही नहीं. उनसे कड़ाई से पेश आएँ.”

जुलाई की दस तारीख़ को – एल्तिशेव आँगन में थे – वलेन्तीना आई.
 “अब तुझे क्या चाहिए?” निकोलाय मिखाइलोविच ने बीबी को कुछ कहने का मौक़ा दिए बगैर फ़ौरन पूछा.
 “मैं सर्टिफिकेट के लिए आई हूँ,” बेशर्मी से उसकी आँखों में देखते हुए वलेन्तीना ने जवाब दिया. “जिससे कि पालनकर्ता की मौत के बदले...मौत का सर्टिफिकेट चाहिए.”
 “बस इतना ही?”
उसकी नज़रों में थोड़ा आश्चर्य दिखाई दिया.
“फिर से यहाँ आते हुए तुझे शरम नहीं आई?!” हिचकियाँ लेते हुए बीबी चीख़ी. “दो साल उसका दिमाग़ कुरेदते रहे, इस हद तक पहुँचाया और अब फिर से आ गए...तू कहाँ थी जब उसे दफ़ना रहे थे, जब मदद की, सहारे की ज़रूरत थी?...हमारे परिवार का सत्यानाश कर दिया, और अब हक़ जताने आई है.”
 “सुनिये तो सही...”
 “बस, भाग जा यहाँ से,” निकोलाय मिखाइलोविच ने बहू की बात काटते हुए कहा. “और इधर का रास्ता भूल जा. अगर फिर कभी देखा – तो नज़र नहीं आएगी,” और वह गेट बन्द करने लगा.
 “मगर, ये आप ही के पोते के लिए तो है! मैं उसे कहाँ से खिलाऊँ?! पति की मौत के बाद पैसे तो मिलते ही हैं...”                                                               
एल्तिशेव ने झटके से गेट खोला, हैण्डल पकड़े खड़ी बहू आँगन में गिरते-गिरते बची.
 “मैं तुझसे पहले ही कह चुका हूँ: यहाँ से दफ़ा हो जा. मैं बस, एक ही बार मारता हूँ...तीन तक गिनूँगा – तब तक निकल जा.”
बहू फ़ौरन सड़क पर चली गई.
दो दिन बाद उसकी माँ प्रकट हुई. आते ही फ़ौरन हमला बोल दिया – ये कहते हुए कि इस बात की शिकायत करेंगे कि कैसे उसकी बेटी को धमकी दी, कि पोता तो दोनों का है और एल्तिशेवों को आर्तेम के लिए पेन्शन हासिल करने में मदद करनी चाहिए; उसने धमकी दी कि वह संबंधित अधिकारियों को बता देगी कि आर्तेम की मौत असल में कैसे हुई थी.   

निकोलाय मिखाइलोविच सुनता रहा, सुनता रहा, फिर वह ड्योढ़ी की ओर भागा, वहाँ खड़ा लम्बा चिमटा उठा लाया.
“ओ-ओय!” समधन चीखी और दूर भागी “मार डालेंगे! ओय-ओय!”
एल्तिशेव उसे पकड़ ही लेता, अगर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने उसे रोका न होता:
 “कोई ज़रूरत नहीं है, कोल्, ज़रूरत नहीं है, ख़ुदा के लिए, होश में आओ. मेरे बारे में सोचो.”
कुछ दिनों बाद बीबी अचानक बेहोश हो गई. किचन में कुछ पकाते-पकाते गिर पड़ी. निकोलाय मिखाइलोविच ने उसके गालों को थपथपाया, फिर उस पर खूब सारा ठण्डा पानी डाला. उसने धीरे-धीरे, भारीपन से आँखें खोलीं.
 “क्या, कम्पाऊण्डर के पास जाऊँ?” पलंग के पास उसे संभालकर ले जाते हुए एल्तिशेव ने पूछा.
 “वो क्या...अस्पताल में जाना होगा...” दबी-दबी फुसफुसाहट से वह बोली. “बहुत दिनों से मुझे...अन्दर कुछ...कैंसर है शायद...”
 “कहाँ का कैंसर?! क्या बक रही है?” मगर निकोलाय मिखाइलोविच ख़ामोश रहा, घबरा गया, पहली बार, सचमुच में ये कल्पना करके, कि बीबी के बगैर रह जाएगा; ये सबसे भयानक बात थी. “सब ठीक हो जाएगा, वाल्. अभी...”
उसे लिटाया, गाड़ी की चाभी ली, आँगन में गया. बड़ी देर तक स्टार्टर घुमाता रहा, मगर ‘मस्क्विच’ चली ही नहीं. बैटरी तो ठीक है, लाईट्स भी, मगर इंजिन टस से मस नहीं हो रहा था. दस मिनट बाद जाकर एल्तिशेव की समझ में आया: पेट्रोल तो है ही नहीं. उन दिनों, बेटे की मौत के बाद, काफ़ी घूमना पड़ा था और आख़िरी बार तो मुश्किल से उसे गेट तक खींचा था, आँगन में तो धकेल कर ही लाना पड़ा था. तब से ऐसे ही खड़ी है.

तीन लिटर वाला कनस्तर उठाया, गाँव में पेट्रोल ढूँढ़ने चल पड़ा. रास्ते में कम्पाऊण्डर की क्लिनिक में झांका, आने के लिए विनती की, समझाया कि क्या हुआ था.
 “ऊहूँ,” बिना किसी उत्साह के उसने कहा और गेट बन्द कर लिया.
 “यूराल” वाले छोकरे से तिगुनी कीमत देकर पेट्रोल ख़रीदा. उसका नाम गोशा या ग्लेब, ऐसा ही कुछ था; एल्तिशेव ने उसे कई बार आर्तेम के साथ देखा था.
बड़ी अजीब तरह से निकोलाय मिखाइलोविच की ओर देखते हुए छोकरे ने कनस्तर भरा, बढ़ा दिया:
  “क्या दूर जा रहे हैं?”
 “पता नहीं...बीबी बीमार हो गई है...थैंक्यू.”
 “ठीक है, चलिए.”
लेडी कम्पाऊण्डर अभी तक आई नहीं थी. निकोलाय मिखाइलोविच ने बीबी को कपड़े पहनाए – उसमें ख़ुद कपड़े पहनने की बिल्कुल भी ताक़त नहीं थी – छुट्टियों वाली ड्रेस पहनाई, गाड़ी में बिठाया.
 “वो...कोल्या...पॉलिसी वाला कार्ड ले लो...मेरा,” किसी तरह से, सिर्फ होठों से उसने कहा.
 “कहाँ है?”
 “वो...वहाँ...जहाँ पैसे हैं.”
एल्तिशेव घर के भीतर भागा. दराज़ से हरा वाला पॉलिसी-कार्ड लिया, पैसे भी ले लिए: “अचानक ज़रूरत पड़ जाए. हो सकता है, थमाने पड़ें..”
दरवाज़े को ताला लगाया, गाड़ी सड़क पर ले गया, गेट बंद किया. हाथ थरथरा रहे थे, लगातार ऐसा लग रहा था कि कुछ भूल गया है, कुछ गलत कर रहा है. बीबी बैठी थी, सिर सीट पर पीछे टिका था, आँखें अधखुली, चेहरा फक् पड़ गया था.       
 “कहाँ, शहर में या ज़ाखोल्मोवो तक?”
 “चलो... ज़ाखोल्मोवो तक...हालाँकि....बैठ नहीं...”
निकोलाय मिखाइलोविच को ऐसा लगा कि बड़ी देर तक रजिस्ट्रेशन-रूम में इंतज़ार करना पड़ा है, कई सारे फॉर्म्स भरे, बीबी के कपड़े बदलने पड़े. यह बताए बिना कि उसे हुआ क्या है, भर्ती करने का फ़ैसला किया.
 “मैं कल आऊँगा,” उससे हाथ मिलाते हुए एल्तिशेव ने कहा. “सब्र कर.”    
वहाँ से निकला, रास्ते में सामान ख़रीदा – मुरानोवो के मुक़ाबले में यहाँ काफ़ी वेराइटी थी. शाम होते-होते घर लौट आया.

दिमाग़ को ज़रूरी कामों में उलझाने की, छोटी-छोटी बातों के बारे में सोचने की कोशिश की, जिससे मन में ये सवाल न उठें : बीबी को क्या हुआ है? कहीं सचमुच में ही कैन्सर तो नहीं है? अगर उसके साथ कोई भयानक बात हो जाए, तो वह अकेला कैसे रहेगा?

चाभी निकाली और मानो बुत बन गया: कॉटॆज का दरवाज़ा पूरा खुला था, कमज़ोर कुन्दा ताले समेत खींच लिया गया था, वह आख़िरी बोल्ट पर टंगा था.
...वो, जिसका डर एल्तिशेव को पिछले तीन सालों में सताता रहा था, हो चुका था, और उसी समय हुआ जब उसने डरना बन्द कर दिया था, सही कहा जाए तो, इस डर के बारे में भूल चुका था – उसके बारे में सोचने की फ़ुर्सत नहीं थी. और, बस, घुस गए, लूट लिया. क्या क्या चुराया था, अभी वह समझ नहीं पाया था, और, वैसे भी, क्या फ़रक पड़ता है – सिर्फ एक ही बात, कि घर के भीतर पराए लोग घुस आए थे, उन्होंने चीज़ों को छान मारा था, उन्हें छुआ था, उन्हें मैला कर दिया था, बर्दाश्त के बाहर था...
स्टूल पर धंस गया, थरथराते हाथों से सिगरेट निकाली, मुश्किल से लाईटर जला पाया.
 “ठी-क है,” धमकाते हुए उसने कहा. “ठी-क है, देख लेंगे.”
अलमारी की तरफ़ देखा. बेशक, वहाँ भी गए थे – स्प्रिट वाला कनस्तर नहीं था.
 “अब क्या, अब तुम्हारी हत्या कर दूँ” न जाने किससे पूछने लगा: कोई भी ये काम कर सकता था, वो छोकरा भी कर सकता था, जिसने पेट्रोल दिया था.”
एल्तिशेव उछल पड़ा, फ़ौरन गेट से बाहर आया. इधर-उधर देखा. रास्ता ख़ाली था, एक भी आदमी नहीं था. सामने वाले घरों की खिड़कियों में डूबता हुआ सूरज लाली बिखेर रहा था.

 “दे-ख लें-गे,” धमकाते निःश्वास के पीछे अपनी असहायता को छुपाते हुए एल्तिशेव ने दुहराया. 

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