अध्याय 2
पिछले कुछ समय से वलेंतीना विक्तोरोव्ना
अक्सर विगत की यादों में खो जाती. यादें अचानक ही दिमाग़ में तैर जातीं, जैसे
बीमारी का दौरा पड़ा हो. वे उसे दबातीं, पूरी ताक़त खींच लेतीं. काम-धाम छोड़कर ख़ामोश
बैठ जाना पड़ता और स्वयँ को इस दौरे के हवाले कर देना पड़ता – विगत के बारे में सोचना,
ज़िन्दगी के पलों को फिर से जीना, ख़यालों से ऐसे थरथरा जाना जैसे इंजेक्शन की सुई चुभ
गई हो: ये सुधारा जा सकता था, इसे बदला जा सकता था...आधी सदी पीछे छूट चुकी थी.
मतलब, औरत की पूरी ज़िन्दगी. आगे है – बुढ़ापा.
कभी, बचपन में उसे लगता था कि बुढ़ापा बेहद
ख़ुशनुमा दौर है, वांछित आराम है. उसने उन गरिमामय बूढ़े मर्दों और औरतों को देखा
था, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी इज़्ज़त से, अक्लमन्दी से, उपयोगिता पूर्वक जी थी, और अब
वे चैन से आराम कर रहे हैं. महिने में एक बार डाकिया उनकी पेंशन लेकर आता है, और
ये बूढ़े लोग बिना जल्दबाज़ी किए, आराम से, गर्व से रसीद पर हस्ताक्षर करते हैं. बड़े
बेटे और बेटियाँ उनके पास पोतों को लेकर आते हैं, और ये वृद्धजन उन्हें वो सब
सिखाते हैं, जो सिर्फ वो ही सिखा सकते हैं, क्योंकि उन्हें ज़िन्दगी के सारे
भेद मालूम हैं. उन्हें कहीं जाने की जल्दी नहीं है, वे एक ख़ास तरह से धूप का आनन्द
उठाते हैं, पत्तियों की सुन्दरता निहारते हैं, ख़ास तरह से हवा में साँस लेते
हैं...
या तो ये उसकी बच्चों वाली कल्पना थी, या
फिर अब बुढ़ापा दूसरी तरह का हो गया था – मगर वलेंतीना विक्तोरोव्ना को ऐसा नहीं
लगता था कि जल्दी ही शांति का अनुभव होगा. बल्कि – ज़िन्दगी ज़्यादा, और ज़्यादा ताक़त
की, प्रयत्नों की, दौड़-धूप की, जल्दबाज़ी की, अंतहीन समस्याओं को सुलझाने की, एक के
बाद एक दुर्भाग्य का सामना करने की मांग कर रही थी. और अब ये आगामी संकट – संभावित
स्थानांतर. स्थानांतर, न जाने कहाँ.
आज काम से घर-वापसी का रास्ता बेहद
मुश्किल लगा. पैर जवाब दे रहे थे, चारों ओर की हर चीज़ – लोग, ट्रैफ़िक लाईट्स,
कारें, घर – दुश्मन जैसी प्रतीत हो रही थी, जो झपटने के लिए तैयार खड़ी थी, कि या
तो आप को दबा दे, या चटख़ारे ले-लेकर आपकी आँखों में वह अख़बार घुसा दे...और ये शहर
भी, जिसमें ज़िन्दगी के क़रीब बत्तीस साल गुज़ारे
थे, जिसे कब से अपना पैतृक शहर समझने लगी थी, दुश्मन नज़र आ रहा था, जैसे वह उसका
अपना नहीं, बल्कि पराया था.
कुछ दूर चलने के बाद वलेंतीना विक्तोरोव्ना
को बेहद कमज़ोरी महसूस होने लगी, वह समझ रही थी कि अब बस, गिरने ही वाली है, एक
बेंच ढूँढ़ कर जल्दी से बैठ गई, लकड़ी की पट्टियों को हाथों से कसकर पकड़ लिया, आँखों
के सामने तैरते हुए लाल-लाल धब्बों से बचने के लिए पलकें भींच लीं... कहीं
ब्लड-प्रेशर तो नहीं बढ़ गया...बैठना ज़्यादा अच्छा लग रहा था, मगर यादों के जाले
उसे अपनी ओर खींचने लगे, उलझाने लगे.
कैसे वह सन् पैंसठ में यहाँ आई थी – पढ़ने
के लिए. कौन सा कोर्स करना है, ये तय नहीं किया था – बस, एक ही धुन सवार थी कि
किसी तरह अपने छोटे से, उदास गाँव से निकल जाए. मगर शहर भी, जहाँ इससे पहले दो बार
आई थी, जल्दी ही बुरा लगने लगा: पूरा शहर एक मंज़िला था, धूल भरा और मायूसी से भरा
(लकड़ी के पुराने घर, फ़ेन्सिंग्स, लकड़ी के फ़ुटपाथ), उसीके जैसे पुराने
सामूहिक-फार्म वासियों से खचाखच भरा हुआ. वे सब हड़बड़ी में, एक दूसरे को धक्का देते
हुए जल्दी-जल्दी चलते; लॉरियाँ चीख़तीं, फ़ेन्सिंग्स के पीछे गड्ढे खोदे जाते...
वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने टीचर्स–ट्रेनिंग
कॉलेज में रूसी भाषा और साहित्य विभाग में एडमिशन ले लिया. उसे बैरेक-हॉस्टेल में
जगह दी गई, कमरे में तीन लड़कियाँ और थीं. बहुत असुविधा होती थी, हमेशा लोगों की
नज़रों के सामने रहने में शरम आती थी.
मगर टीचर्स-ट्रेनिंग कॉलेज में वह सिर्फ
डेढ़ महीना ही पढ़ पाई. अक्तूबर में लाइब्रेरी-ट्रेनिंग स्कूल के लिए विद्यार्थियों
का चयन करने हेतु जिला-केन्द्र से एक कमिटी आई. वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने सबसे पहले
अपना नाम दिया – इसलिए नहीं कि उसे लाइब्रेरी के काम में दिलचस्पी थी: उसे ऐसा लगा
कि वहाँ ज़िन्दगी बेहतर होगी. उसका चयन हो गया.
अब, यह सब सोचकर उसे ऐसा लगता है कि तब
उसने अपनी ज़िन्दगी की पहली बड़ी गलती कर डाली थी. टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल में ही रुक
जाना बेहतर होता, आराम से ट्रेनिंग पूरी करती और अपने घर वापस लौटकर अपने ही स्कूल
में पढ़ाने लगती...मगर, अगर यह बात उससे तब कही जाती, पन्द्रहवें साल में...
ज़िला-केन्द्र ने उसे चकाचौंध कर दिया. ये
था सचमुच का शहर – चौड़ी-चौड़ी सड़कें, स्क्वेयर्स, ट्रामगाड़ियाँ, बहुत बड़ा थियेटर.
वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने वहाँ बस जाने का सपना ही नहीं देखा - पत्थर की बनी, आधी
गोल खिड़कियों वाली, दसियों बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स में से किसी एक के, किसी फ्लैट में
बस जाने का. शायद, सपना देखना चाहिए था, कोशिश करनी चाहिए थी.
स्थानीय लड़के उसे पटाने की कोशिश करते, मगर
वह, अपनी सहेलियों के - जिनके नाम भी कब के भूल चुकी थी - ‘झुला कर छोड़ देने’
वाले, ‘गर्भपात’ वाले किस्से-कहानियों से डरी हुई, लड़कों को मुँह ही न लगाती. उसने
किसी के साथ कभी डान्स तक नहीं किया.
छुट्टियों में घर जाते हुए वह उस छोटे से
शहर से गुज़रती जहाँ थोड़े दिनों तक टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ी थी. देखती कि वह
भी सचमुच के शहर में परिवर्तित हो रहा है – गड्ढों से चार मंज़िलों वाले, बढ़िया
तरीक़े से बनाए गए घर उठ रहे थे, सड़कों पर डामर बिछ गया था, लॉन्स बन गए थे,
सिमेन्ट के लैम्प- पोस्ट्स दिखाई दे
रहे थे. सीमा पर रेल की बोगियाँ बनाने का कारख़ाना लग गया था, और गाँव के पुराने
निवासी अब मज़दूर बन गए थे.
ये छोटा-सा शहर वलेंतीना विक्तोरोव्ना को
अच्छा लगने लगा, और जब, लाइब्रेरी की ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उसे हाल ही में
खुली केन्द्रीय लाइब्रेरी में नौकरी का प्रस्ताव मिला तो वह तैयार हो गई.
ताज़ी-ताज़ी किताबें, नई-नई रॅक्स, बड़ा-सा रीडिंग रूम – ये सब उसे अच्छा लगा.
रहने के लिए होस्टल में कमरा दिया गया,
काम भी कठिन नहीं था. ट्रेनिंग के दौरान तो हर चीज़ ज़्यादा कठिन और समझने में
मुश्किल लगती थी...
वलेंतीना विक्तोरोव्ना अभी तक केन्द्रीय
लाइब्रेरी में ही काम करती रही. कभी लाइब्रेरी से होस्टल के रास्ते पर मिलिट्री के
नौजवान सार्जेंट से मुलाक़ात हुई, जिससे छह महीने की दोस्ती के बाद उसने शादी कर
ली. उसे यक़ीन था कि यहीं से पचपन साल की उम्र में उसे बिदाई दी जाएगी.
मगर, ऐसा लगा कि शायद समय से पहले ही
नौकरी से बिदा लेनी पड़ेगी, अज्ञातवास में जाना पड़ेगा. सहकर्मियों की, मुलाक़ातियों
की ज़हरीली नज़रों का सामना करना असंभव होता जा रहा था, जिनमें से हरेक को उसके पति
के बारे में मालूम था...
“आपराधिक मामला”, दिमाग़ पर जैसे हथौड़े पड़
रहे थे, “आपराधिक मामला”. कितनी ताक़त, कितना पैसा खर्च करना पड़ा था, जब बेटे पर
मुक़दमा चला था, कितनी मानसिक यातनाएँ झेलनी पड़ी थीं. और अब, वैसा ही निकोलाय के
साथ हुआ. अगर पहले किस्से में लोगों की उसके साथ सहानुभूति थी – क्या लड़कों के बीच
झगड़े नहीं होते, और बेटे के पास तो चाकू भी नहीं था, अपने दुश्मन पर उसने तेज़
हथियार से थोड़े ही वार किया था, बस घूँसा मारा था – तो अब इसके ठीक विपरीत था.
निकोलाय भी क्या करता? वो लोग हिंसा पर
उतारू हो गए थे, हाथा-पाई कर रहे थे, औरों की शांति भंग कर रहे थे, उसने उठाकर
उन्हें ‘सेल’ में बन्द कर दिया. और, ये कैसे हिसाब लगाओगे कि वहाँ कितने लोगों के
लिए पर्याप्त ऑक्सीजन है, उनका क्या हाल होने वाला है? क्या उसे मालूम था कि ऐसा
हो जाएगा – पांच लोगों के फ़ेफड़ों में सूजन आ गई, आई.सी.यू. में रखना पड़ा, मुश्किल
से चल पा रहे थे. और, हो सकता है कि, सब कुछ रफ़ा-दफ़ा हो भी जाता, माफ़ी मांग लेते,
कोई समझौता कर लेते, मगर शहर के अख़बार में एक लेख निकला. तब तो सारी मुसीबत शुरू
हो गई.
सब जानते हैं कि जर्नलिस्ट्स मिलिशिया
वालों से कितनी नफ़रत करते हैं, और इस ज़्यादती का शिकार हुए लोगों में उनका साथी
था. बस, बना दिया बात का बतंगड़...
मामले की छनबीन करने वालों से वलेंतीना
विक्तोरोव्ना बहुत कुछ कह सकती थी, शायद, उन्हें समझा सकती थी, यक़ीन दिला सकती थी,
कि उसके पति का कोई दोष नहीं है, मगर उससे कुछ पूछा ही नहीं गया. निकोलाय ने भी इस
घटना की याद दिलाने से रोक दिया – उसका चेहरा फक् हो जाता. मगर कोई याद कैसे न
करे, कैसे इस बारे में बात न करे, अगर अब हर चीज़ उसीके इर्द-गिर्द घूम रही हो?
क्या, इस बात से अपने आपको सांत्वना दे दे कि जेल में बन्द नहीं कर दिया, बल्कि
चार साल पहले नौकरी से बिदा कर दिया? मगर, फिर भी – ज़िन्दगी तो बर्बाद हो ही गई,
और अब किसी तरह इस मलबे से निकलना होगा, ज़िन्दगी को फिर से पटरी पर लाना होगा.
हो सकता था, ये भी हो सकता था, कि ज़िन्दगी
किसी और करवट बैठती. अगर वह जिला-केन्द्र में रुक जाती, किसी बुद्धिवादी से शादी
कर लेती, किसी दुबले-पतले बुद्धिवादी से, जो अपने इस दुबलेपन और बौद्धिकता से
डराते थे, जिसे वह ओछापन समझती थी. और तब वो बहुत बड़े शहर में रहती, और, हो सकता
है, खूब बड़ी, खूब रोशनी वाली लाइब्रेरी की डाइरेक्टर बन जाती. या कहीं भी काम न
करती, घर की, पति की ही फ़िक्र करती, जो किसी कारख़ाने का डाइरेक्टर होता; बच्चे
इंस्टीट्यूट्स की पढ़ाई ख़त्म कर चुके होते, वो भी...नहीं, उस समय यही बेहतर होता कि
गाँव लौट जाए, बच्चों को पढ़ाए. एक पक्का घर ऊँची नींव पर, किचन-गार्डन, गायें....
काफ़ी ज़माने से वह अपने पैतृक गाँव नहीं गई
थी, और गाँव की ज़िन्दगी उसे सही और साफ़-सुथरी प्रतीत होती. मगर वहाँ किसके पास
जाए? माता-पिता की मृत्यु के बाद घर तो बेच दिया था, बच्चों ने पैसे आपस में बाँट लिए,
वे सब काफ़ी पहले से शहरों में रहते हैं. किसी के भी कोई रिश्तेदार नहीं बचे हैं,
बस एक आंटी तान्या है – माँ की बड़ी बहन, जिसका पति और तीनों बच्चे कब के गुज़र चुके
थे. हो सकता है कि अब वो भी नहीं हो – अस्सी से ऊपर की होगी.... अच्छी तरह से जाकर
देखना पड़ेगा, अभी, फ़ौरन...ओह, ख़ुदा!...
उनकी चार मंज़िला इमारत, जो शहर में बनाई
गई पहली बहुमंज़िला इमारतों में से एक थी आज वलेंतीना विक्तोरोव्ना को घटिया,
ख़स्ताहाल और जर्जर प्रतीत हुई. शायद, आत्मरक्षण की भावनावश वो ऐसा सोच रही थी –
क्योंकि जल्दी ही ये इमारत उसके और उसके परिवार के लिए पराई हो जाएगी, जल्दी ही
उन्हें यहाँ से चले जाना है.
कम्पाऊण्ड में आकर वह फिर से बैठ गई, गहरी
साँस ली – हालत ऐसी हो रही थी, मानो ऊँची पहाड़ी चढ़कर आई हो. इधर-उधर नज़र दौड़ाई.
सामने भी वैसी एक चार-मंज़िला इमारत थी – मटमैले शीशे, बाल्कनियाँ पुराने फ़र्नीचर
से ठसाठस भरी थीं, कुछ बोर्ड्स, फिसलते हुए डिब्बे. कम्पाऊण्ड में बच्चों का पार्क
था जिसमें बालू डली हुई थी, लकड़ी का टूटा टीला, झूले जिन पर अगर बच्चे झूलते तो वो
कर्कश आवाज़ करते थे; कड़वी-बूटी से भरा हुआ हॉकी का मैदान, पेड़ों के बीच तनी हुई रस्सियों
पर सूखते भूरे, बदरंग कपड़े... बेशक, एक नीरस तस्वीर थी, सितंबर की पत्तियों का
सुनहरापन भी उसमें कोई रंग नहीं भर रहा है, मगर यहाँ ज़िन्दगी का काफ़ी वक़्त गुज़रा
है...यहीं उसके बच्चे बड़े हुए...
बड़ी मुश्किल से, ज़ोर लगाकर उठी. जाना
होगा. खाना बनाना है. और – बात भी करनी पड़ेगी. आज निकोलाय आंतरिक मामलों के
डिपार्टमेंट के डाइरेक्टर वेरेसोव से मिलने वाला है; आज पता चल जाएगा कि उनका
परिवार गहरी खाई में गिर जायेगा, या सहारे की कोई उम्मीद बाक़ी है.
ख़ुद ही चाभी से दरवाज़ा खोलकर भीतर गई. बड़े
कमरे में टॆलिविजन भिनभिना रहा था, बाथरूम में शॉवर चल रहा था. मगर, इन सजीव
आवाज़ों के होते हुए भी वातावरण में तनाव था, परेशानी थी. “जैसे घर में कोई मुर्दा
पड़ा हो”, वलेंतीना विक्तोरोव्ना को इसी कहावत की याद आई, और उसने फ़ौरन अपने आप को
डाँटा, भयभीत-विनती करते हुए सोचा: “ख़ुदा न करे, ख़ुदा न करे.”
मुस्कुराकर सबसे मिलना चाहती थी – अपने
आने की सूचना देना चाहती थी, जैसा कि अक्सर करती थी, मगर उसने ऐसा नहीं किया.
चुपचाप जूते उतारे, हैंगर पर गर्म-कोट लटकाया.
निकोलाय कुर्सी मं बैठा था. टेलिविजन के
स्क्रीन पर अधनंगी दुबली-पतली लड़कियाँ फुदक रही थीं, कमज़ोर आवाज़ों में लगातार गाती
जा रही थीं:
मेरी नज़रबन्दी ख़त्म
करो,
ख़तम करो नज़र-बन्दी!
पति के प्रति सहानुभूति फ़ौरन चिड़चिड़ेपन
में, गुस्से में बदल गई. वलेंतीना
विक्तोरोव्ना ने कड़ाई से पूछा:
“क्या हुआ?”
“क्या?” निकोलाय ने कुछ घबराकर उसकी ओर देखा,
पत्रिकाओं वाली मेज़ से रिमोट उठाया और टी.वी. की आवाज़ कम कर दी.
“वेरेसोव से बात की?”
“की.”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना समझ गई कि अच्छी
ख़बर की कोई आस नहीं है, मगर फिर भी उसने पूछा:
“तो?”
“तो क्या...बुरी ख़बर है. बस.” निकोलाय कराहते
हुए बोला और अपनी कुर्सी में कसमसाया. “एक महीने में ये जगह ख़ाली कर देनी
है...वेरेसोव ख़ुद भी मुसीबत में है – लगातार इन्स्पेक्शन पे इन्स्पेक्शन,
व्यक्तिगत सुरक्षा विभाग का डाइरेक्टर नया आदमी है, बाहर से आया है...”
वह और भी कुछ कह रहा था, नीरसता और अपराध
बोध से, समझाने के अन्दाज़ में कि कल वो कहाँ कहाँ गया था, मगर वलेंतीना विक्तोरोव्ना
सुन ही नहीं रही थी – दिमाग़ में बस एक ही बात रह-रहकर गूंज रही थी: “महीने भर में
ख़ाली कर देना है...” इसका मतलब – सारे माल-असबाब के साथ, बर्तन-भांड़ों के साथ, इन
नासपीटे टी.वी. के साथ (उसने रिमोट लिया और उसे बन्द कर दिया), भारी-भरकम, चरमराते
हुए दिवान के साथ, किताबों के साथ, जिन्हें न जाने कब से कोई पढ़ता भी नहीं है. सब
कुछ समेटकर सड़क पे आ जाओ.
“फिर,” पति की बात काटते हुए उसने कहा, “फिर, अब
कैसे?”
वह भड़क गया:
“तो, क्या मुझे मालूम है – अब कैसे?! कैसे! माफ़ी
चाहता हूँ, शराबियों से मैंने कम पैसे इकट्ठे किए, क्वार्टर के लिए हमारे पास पैसे
नहीं हैं.”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना दिवान पे बैठ गई,
उसकी स्प्रिंग्स चरमराकर सिमट गईं. इसके विपरीत, पति उछल कर उठ गया और कमरे के
छोटे से ख़ाली हिस्से में चक्कर लगाने लगा:
“तीस साल काम किया! इन सड़कों को कुचलता रहा गश्त
लगाते हुए! और – ये....हरामी!”
“ठहरो,” उसकी चीख़ों के सामने अपने भय पर
क़ाबू पाते हुए वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने उसे रोका; पिछले कई महीनों से पति अक्सर
इसी तरह चिल्लाता था. कोई न कोई हल तो ढूँढ़ना ही होगा. “ठहरो, चलो कोई फ़ैसला करते
हैं.”
“क्या फ़ैसला करना है?! फंदे में मुंडी लटका लेना
है...”
“ब-स- क-रो!”
बेटा आया. गीला, नंगे बदन, एक तौलिया
लपेटे. माँ-बाप को घूरा, अपने कमरे में चला गया.
“आर्तेम,” वलेंतीवा विक्तोरोव्ना ने पुकारा.
“यहाँ आओ.”
“क्या?” वह ठहर गया, मगर उसने मुड़ कर नहीं देखा.
“यहाँ आ, कह रही हूँ!”
वह आया. लम्बा, मज़बूत, छाती पर बहुत सारे
बालों वाला नौजवान, मगर आँखें बच्चों जैसी, मुँह फुलाए बच्चे जैसी...
”तो, निकोलाय,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने
दृढ़ता से कहा, “निकोलाय, बैठो. तो, चलो, फ़ैसला करते हैं...फ़ैमिली मीटिंग.”
बेटा ही-ही करने लगा.
“अरे-! बैठ, जल्दी से! यहाँ तो हमें किसी भी दिन
सड़क पर फेंक देंगे, और ये है कि ही-ही किए जा रहा है...तो,” उसने शांत रहने की
कोशिश की. “तो, हमारे सामने कौन-कौनसे विकल्प हैं? पहला: कोई क्वार्टर किराए पर
लिया जाए...”
“दो कमरों वाला – पाँच हज़ार किराए पर,” बेटा बीच
में टपका.
“तुझे कैसे मालूम?” वलेंतीना विक्तोरोव्ना की
तनख़्वाह थी चार हज़ार सात सौ.
“मैंने पूछा था.”
“तो फिर, घर...”
“फिर क्या?” पति ने कहा. “चलो, ले लेते हैं, एक
साल रहेंगे, दो साल...हमारे पास ज़्यादा समय नहीं है, मगर ये,” बेटे की तरफ़ इशारा
करते हुए बोला, “डेनिस वापस लौटेगा.”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना कहना चाह रही थी कि
इस बारे में बहुत पहले ही सोचना चाहिए था, कि ये क्वार्टर – सरकारी है, उनका नहीं
है, और ये तो देर-सबेर होना ही था. मगर उसे एक नए विस्फ़ोट की तमन्ना ज़रा भी नहीं
थी...तभी, दिमाग़ में एक ख़याल कौंध गया, रास्ता मिल गया था:
“तो फिर, ऐसा करें कि – गाँव चले जाएँ? यहाँ से
चालीस किलोमीटर्स.”
“उस,” निकोलाय ने माथे पर बल डालते हुए कहा, “तेरे
वाले?” – वह ख़ुद तो स्थानीय निवासी था, शहर वाला, मगर कभी का रिश्तेदारों को खो
चुका था, और वह बैरेक, जिसमें बचपन बिताया था, सत्तर के दशक में तोड़ दिया गया था.
“और नहीं तो कहाँ? वहाँ आंटी है, शायद अभी
तक ज़िन्दा है...उसकी अपनी कॉटेज है.”
‘कॉटेज’ शब्द सुनकर आर्तेम फिर से ही-ही
करने ही वाला था. वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने देख लिया:
“क्या? अब और क्या? अगर काम कर लेता, पढ़ाई कर
लेता...आदमी पच्चीस साल का हो गया है, मगर बस, ये ही...”
“मगर तुम तो काम कर रही हो न,” पति ने उसकी बात
काटी. “क्या हर रोज़ वहाँ से काम पे आया करोगी.”
“रिटायरमेंट ले लूंगी. अब और ज़्यादा सामना नहीं कर
सकती लोगों का...मैं कोई फ़ौलाद की तो नहीं हूँ, कि इस तरह...ख़ुद को ही क़ातिल समझने
लगी हूँ”
निकोलाय ने कराहकर मुँह फेर लिया.
कुछ देर तक ख़ामोश रहे. बेटा कंपकंपा रहा था,
जमा जा रहा था, मगर, ज़ाहिर था, कि समझ रहा था कि अभी कपड़े पहनने के लिए जाना – ख़तरे
से ख़ाली नहीं है. चिल्ला-चोट मचाने लगेंगे कि उसे किसी बात से कोई मतलब ही नहीं है.
सब्र करना पड़ेगा.
“तो,”
शुरुआत वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने की, “फिर क्या करें? कल एक दिन की छुट्टी लेकर, वहाँ
चली जाऊँगी. हो सकता है...हो सकता है कि अब वहाँ कुछ भी न हो...हाँ?” पति की और बेटे
की ओर देखा. “कुछ तो करना होगा...हाँ?” वे ख़ामोश थे, वलेंतीना विक्तोरोव्ना अपना आपा
खोने लगी, गले से चीख़ फूटी: “आख़िर कहीं तो हमें सिर छुपाना होगा!”
उसके प्रस्ताव से सब सहमत हो गए. पति – दुर्भाग्य को कोसते हुए, बेटा, उदासीनता
से.
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