मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

Eltyshevi - 17

अध्याय 17


सर्दियाँ परेशानी में बीतीं. परेशानी और खालीपन. सर्दियों के लिए ख़ालीपन – आम बात है: जब चारों ओर कमर तक बर्फ़ पड़ी हो, तो करने के लिए कोई ख़ास काम नहीं होता. लगातार बर्फबारी के बाद पगडंडी को साफ़ करना – ये भी बड़ा काम होता है, एक दिन में नहीं होता; जमी हुई स्लैब्स को फिर से छत पर बिठाना – ये भी बड़ी गाथा होती है. घर में कोयले, लकड़ियाँ, पानी लाना...ये तो निरंतर चलने वाली परेशानी थी...ज़रूरी बात है – अपने अस्तित्व को सहारा देना. मगर एक जैसा काम करते-करते भी ख़ालीपन का एहसास होने लगता है.

हालाँकि इन सर्दियों में मानसिक परेशानियाँ बहुत थीं. और वो काम की एकरसता से बेज़ार किए जा रही थीं.

आर्तेम के बीबी से दूर चले जाने से की घटना ने परेशान तो कर दिया , मगर अस्तव्यस्त नहीं किया: जब गर्मियों में वह माँ-बाप से दूर चला गया था, सिर्फ पैसों के लिए उनसे मिलने आता था, तो अपमान का अनुभव होता था, डर भी लगता था, कि ज़िन्दगी की नई परिस्थितियों में, कठिन हालात में, वे अकेले रह गए हैं, और बेटे के परिवार को सहारा देने की ज़िम्मेदारी भी उन पर आ गई है, और बदले में किसी भी चीज़ की उम्मीद नहीं है. ऊपर से, वे ख़ुद भी जवान नहीं हैं, बदले हुए हालात के ज़ख़्म खाये हुए हैं. अब, जब आर्तेम फिर से उनके साथ है, तो ये एहसास लौट आया है कि वे – एक हैं. एक परिवार हैं, जो भविष्य के लिए संघर्ष कर रहा है. फिर भी, पोते के बारे में ये ख़याल कि वह उनके बगैर बड़ा हो रहा है, लगातार आती हुई ख़बरें कि बहू और समधी रिश्तों को दोबारा पटरी पर लाने के ख़िलाफ़ नहीं हैं, मगर पहल उनकी तरफ़ से नहीं होगी, मानसिक रूप से परेशान कर रहे थे. बेशक, आर्तेम का बीबी और बच्चे के साथ रहना ही बेहतर होगा, मगर ऐसी हालत में यह कैसे संभव होगा? निकोलाय मिखाइलोविच इस बात की कल्पना नहीं कर सकता था कि शादी के बाद एक ही छत के नीचे सास, और माँ के भी, साथ रहे. नहीं, चाहे छोटे से ही कमरे में रहे, मगर स्वतंत्र रहे.

जनवरी के अंत में खारिन अचानक एक लॉरी में चीड़ के तीन गँठीले लट्ठे डालकर लाया. ऐसा दिखा रहा था, जैसे आख़िरकार, उसने एहसान कर ही दिया है. पहले तो निकोलाय मिखाइलोविच ने उसे इन लट्ठों समेत वापस भेज देना चाहा, मगर फिर अपना इरादा बदल दिया: भागते भूत की लंगोटी ही भली.
 “और बाकी के कब?” पूछा.
 “जब मिलेंगे.”
  “हुम्...और इलेक्ट्रिक-आरी?”
खारिन ने गुस्से से एक ओर को देखते हुए कंधे उचका दिए, वह मुड़ा और ट्रैक्टर वाले को लट्ठों का गट्ठर खोलने में मदद करने लगा.
 “ठीक है, बाद में निपट लेंगे,” निकोलाय मिखाइलोविच ने मन ही मन कहा.

सर्दियों में दो बार डिस्ट्रिक्ट पुलिस अफ़सर आया. पूछा, क्या कुछ अंदाज़ लगा सकते हैं कि तात्याना आण्टी कहाँ जा सकती है. किचन में बैठ जाता, एल्तिशेवों के जवाब सुनते हुए खोई-खोई नज़रों से देखता रहता, दुख से गहरी साँस लेता, “नहीं, हम भी कुछ समझ नहीं पा रहे हैं,” – और फिर उठ जाता, पुलिस वाली नीली हैट पहन लेता.

फरवरी में, जब बेहद कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी, इतनी कि सड़क पर सांस लेने से भी ठण्ड लगती थी, एक अफ़वाह फैली कि यूर्का की कब्र को खोदा जाएगा. इस अफ़वाह का समर्थन ख़ुद मैनेजर ने किया जब निकोलाय मिखाइलोविच से उसकी मुलाक़ात हुई. यूर्का की विधवा ने किसी तरह इजाज़त ले ली थी.
कब्रस्तान तो एल्तिशेव नहीं गए, मगर बाद में उन्हें पता चला कि एक ख़ास टीम आई थी, टायर जलाकर ज़मीन को गरमाया गया, सब्बल से चोट की गई. ताबूत को खोला गया, यूर्का को वही जूते पहनाए गए, जो वह पिछले दो सालों से पहन रहा था – फटे हुए, टूटे हुए सोल वाले – और फिर से कीलें ठोंक दी गईं. कई लोग इस बात की उम्मीद कर रहे थे कि जैसे ही ताबूत का ढक्कन खोला जाएगा, यूर्का की विधवा हिचकियाँ लेकर ये कहते हुए उससे लिपट जाएगी कि उसे भी पति के साथ दफ़ना दिया जाए, या उसके सूट की लाइनिंग के भीतर से नोटों की गड्डी निकाल लेगी (इस बात पर कोई भी यक़ीन नहीं कर रहा था कि ये सिर्फ स्नीकर्स की वजह से किया गया है). मगर बात सिर्फ जूते बदलने तक ही सीमित रही. निराश, ठण्ड से जम चुके दर्शक फ़ौरन वहाँ से खिसक लिए.
फ़रवरी के अंत में दिन साफ़ होने लगे. बर्फ पिघलकर छतों से गिरने लगी, बर्फ चमक रही थी, आँखों को चकाचौंध किए जा रही थी, सांस लेना आसान हो रहा था, हवा में ख़ुशबू तैर रही थी, बसंत की – सजीव होती हुई प्रकृति की ख़ुशबू. मुर्गे ख़ुशी से बांग देने लगे, कुते जंज़ीरों से छिटक कर भागने लगे, गौशाला में गाएँ रंभाने लगीं और दीवारों को धक्के देने लगीं. बसंत की निकटता ने लोगों पर भी प्रभाव डाला – अब वे सड़कों पर ज़्यादा दिखाई देने लगे, एक दूसरे का अभिवादन करने लगे, कभी मुस्कुराकर, तो कभी आँखें मिचकाते हुए. एल्तिशेव भी ख़ुश होने लगे, बेसब्री से बर्फ के पिघलने का इंतज़ार करने लगे.

अब आर्तेम भटकने लगा: पूरा दिन बीबी के पास रहता, एक बार तो देर रात तक भी नहीं लौटा. निकोलाय मिखाइलोविच को जाकर पता लगाना पड़ा कि वह वहाँ है या नहीं; वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ज़िद कर रही थी: “वो भी कहीं अचानक ग़ायब न हो जाए, आण्टी की तरह. जा-ओ!”
एल्तिशेव गया, इत्मीनान कर लिया कि बेटा त्यापोवों के यहाँ है.
 “क्या हमें बताकर नहीं जाना चाहिए?!”
 “वो-वो...” आर्तेम ने आँखें नीची कर लीं, “मैं तो यहीं...”
  “मगर, हमें कैसे मालूम? माँ ने सिर पे घर उठा लिया है...और वैसे भी, पता है, तू सोच ले , अच्छी तरह से.”
 “क्या ‘सोच ‘ले’?”
 “यही कि तू यहाँ रहेगा...या तो घर बनाएँगे और तू बीबी और बच्चे को वहाँ लाएगा. ये ऐसा कितने दिनों तक चलेगा! यहाँ – वहाँ. जहाँ तुझे आराम मिलता है, वहीं भाग जाता है. घर बनाएँगे, दो दरवाज़े, दो किचन्स, अगर तुम्हारे लिए इस तरह...और यहाँ क्या है?...बेशक, आराम से रहता है – दो परिवारों के भरोसे जीना. – और यह समझकर कि ज़रा ज़्यादा ही बोल रहा है, निकोलाय मिखाइलोविच ने फिर से दुहराया: “फ़ैसला कर ले कि कैसे रहना है. बहुत दिनों तक बर्दाश्त करने का मेरा कोई इरादा नहीं है. और तुझे ढूँढ़ने के लिए भागते फिरना...मतलब, फ़ैसला कर ले,” और तेज़ी से मुड़कर, जैसा पहले कभी परेड के समय किया करता था, घर चला गया.
पीठ के पीछे ख़ामोशी थी; उसने महसूस किया कि बेटा उसे जाते हुए देख रहा है. फिर गेट चरमराया, कुंडी की आवाज़ आई.
 “रुक गया,” निकोलाय मिखाइलोविच बुदबुदाया. “तो- ऐ-सा है...”

पैसा जैसे पिघल रहा था. पेन्शन तो खाने-पीने के सामान पे, छोटी-मोटी, नज़र न आनेवाली ज़रूरतों पर   खर्च हो जाती थी. हाँ, पैसा वाक़ई में पिघल रहा था, और बचत खाते से पैसा निकालना पड़ता था - उस रकम में से, जो गैरेज बेचने के बाद अभी तक बची थी. छोटे बेटे को मनी-ऑर्डर से काफ़ी पैसे भेजना पड़ते थे, और बड़ा फिर से समय-समय पर ऐसी शकल बना कर खड़ा हो जाता, कि यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता कि या तो उसे फ़ौरन भगा दे या फिर सौ-दो सौ देकर भेज दिया जाए.
 “ये तो सफ़ेद बैल के किस्से जैसा हो रहा है!” आख़िरकार एल्तिशेव से रहा नहीं गया. “कहाँ तक दे सकते हैं?! क्या तूने हमें कोई बैंक समझ रखा है? बर्फ पिघल गई, गरमियाँ आ गईं, कोई और होता तो हर रोज़ मेरे पीछे पड़ा रहता: चलो, घर बनाएँगे, और तू...’पैसे दो’.”
 “चलो, बनाएँगे,” बेटा बगैर किसी उत्साह के बुदबुदाया.
 “चल. जा, सॉलुशन बना.”
 “मगर, कैसे – मिट्टी तो नहीं है.”
 “तो, ले आ.” निकोलाय मिखाइलोविच को पिछली गर्मियों में हुई ठीक वही बातचीत याद आ गई. “वाक़ई में ‘सफ़ेद बैल’ वाली कहानी...” उसने थूका, मेज़ से सिगरेट उठाईं, ज़ोर का कश खींचा. मुड़ गया.
“मैं क्या करूँ?!” रोनी आवाज़ में आर्तेम ने पूछा. “कैसे करूँ ... मैं नहीं कर सकता!...मैं ज़िन्दा रहना नहीं चाहता! कुछ भी नहीं कर सकता, कुछ नहीं जानता...आप ही मुझे यहाँ लाए थे, और अब...मैं यहाँ करूँ तो क्या करूँ? मुझे यहाँ नहीं रहना है...समझ गए?”
“मैं तुझे पहले ही जवाब दे चुका हूँ,” पूरी ताक़त से अपनी वहशियत को रोकते हुए निकोलाय मिखाइलोविच ने जवाब दिया, “चल, चलते हैं, मैं तुझे पुलिस में लगवा दूँगा. पहले – पेट्रोलिंग की ड्यूटी, फिर...”
 “कैसी पुलिस की नौकरी? मुझे यहाँ...मुझे खा जाएँगे, पता चलेगा तो.”
 “ह-हा! मतलब, पुलिसवाला होना तेरे लिए शरम की बात है? ठीक है. ठी-क है...और तू किस पैसे के बल पे पच्चीस साल जिया, खाया, बियर पिया, लड़कियों के लिए आईस्क्रीम ख़रीदता रहा? आँ? क्या वो पुलिस का पैसा नहीं था? फिर कहाँ का था? तब शरम नहीं आती थी?” एल्तिशेव धीरे-धीरे बेटे की ओर बढ़ा. “आँ?”
 “कोल्या, शांत हो जाओ!” वलेन्तीना उठकर सामने आ गई. “शान्त हो जाओ...और तू,” उसने बेटे की ओर देखा, “ हमसे ऐसा कहने की जुर्रत न करना... या तो अपनी ज़िन्दगी जिओ, अगर नहीं जी सकते, तो इज़्ज़त करो.”
 “थैंक्यू!” और आर्तेम फ़ौरन पाप से दूर, कॉटेज से बाहर, निकल गया.

इसके बाद तीन हफ़्ते वह नहीं आया.

निकोलाय मिखाइलोविच अक्सर भड़क उठता, बार-बार दुहराता: “आने तो दो! मैं उसे दिखाऊँगा! ठेंगे से दूंगा उसे और पैसे, मदद...” मगर दिल ही दिल में आर्तेम की राह देखता रहा, मुस्कुराते हुए, फुर्तीले आर्तेम की. जैसे ही वह आएगा, बाँहें फैलाकर कहेगा : “बस, बेटा, सब भूल जाएँ. चल, घर बनाएँगे.”

जब गेट के पास ज़मीन कुछ सूख गई, तो एल्तिशेव खारिन के लाए हुए लट्ठों को छीलने लगा.
जैसे ही काम में मगन हुआ, काम की धुन में कुछ हल्का महसूस करने लगा, पड़ोसन आ धमकी. उसका नाम एल्तिशेव को आज तक याद नहीं था – वो सड़क के उस पार रहती थी,  लगभग एल्तिशेवों के सामने ही, छोटे से, साफ-सुथरे, भड़कीली खिड़कियों वाले घर में. गर्मी के मौसम में वह सुबह से रात तक गेट के पास बेंच पर बैठी रहती, अपने मज़बूत दाँतों से अख़रोट के छिलके तोड़ती रहती, जैसे कोई बड़ा गंभीर काम कर रही हो, सिर हिलाकर आने जाने वालों का अभिवादन करती. ऐसा लगता कि उसका सब कुछ हमेशा के लिए अच्छा हो गया है, ज़िन्दगी में कोई समस्या नहीं है – सारे काम पूरे हो चुके हैं – और अब वह, भली बुढ़िया, सिर्फ आराम ही करती रहती है.
पिछली गर्मियों में एल्तिशेव को थोड़ा सा आश्चर्य हुआ था, जब ये पड़ोसन अचानक बेंच से उठकर उसके पास आई थी. वह डिक्की में से मिट्टी के बोरे और बाल्टियाँ निकाल रहा था.
 “न-म-स्ते,” सुर में बोली, “मिट्टी लाए हैं?”
 “हाँ.”
 “क्या मुझे आधी बाल्टी देंगे? भट्टी को लीपना है, और कॉटेज के चारों ओर भी.”
एल्तिशेव ने मिट्टी दे दी, ख़ुद ही उसके गेट तक ले गया.
 आज भी आ गई. और उसी तरह गाते हुए बोली:
 “अ-च्छी लकड़ी है. अ-च्छी- है”
 “उसमें क्या अच्छा है?” तने टेढ़े-मेढ़े, पतले थे; फ्रेम्स के निचले हिस्सों के लिए वे किसी काम के नहीं थे.
 “हाँ, ज़्यादा अच्छे नहीं हैं,” पड़ोसन फ़ौरन सहमत हो गई. “सिर्फ ईंधन के लिए या कहीं और फिट करने के लिए ठीक हैं...मेरे घर में एक मुसीबत हो गई है, पिछली फेन्सिंग के दो खंभे बिल्कुल सड़ गए हैं. ऐसा लगता है कि अब गिरे, तब गिरे...”
निकोलाय मिखाइलोविच ख़ामोश रहा, कुल्हाड़ी से छिलका उतारता रहा.
“तो, मैं क्या सोच रही थी, शायद आप मुझे दे देंगे? आँ? यहाँ से अगर एक-दो मीटर काट दें...” पड़ोसन जवाब का इंतज़ार कर रही थी. “देंगे?”
 “दफ़्तर में जाईये, वहाँ पूछिये.” एल्तिशेव को उसकी विनती से उतना गुस्सा नहीं आया जितना इस बात से कि बुढ़िया ने उसका अच्छा-भला मूड ख़राब कर दिया. “मैं क्या आपको हर चीज़ देता ही रहूँ?”
अब वह ज़बर्दस्ती काम कर रहा था, सब कुछ छोड़छाड़ कर गेट से बाहर निकल जाने को जी चाह रहा था.
“ऑफ़िस में जाने को कह रहे हैं?” अब उसने दूसरी तरह से, मानो धमकाते हुए पड़ोसी से पूछा. “ऑफ़िस में जाना प-ड़े-गा...और आप इसे कहाँ से लाए हैं? क्या इजाज़त लेकर आए हैं? नहीं तो, फिर कैसे? मैं देख रही थी कि कैसे लाए थे – अंधेरे में, चोरी-चोरी. और कौन लाया – ये भी देखा. ये खारिन, वो कोई भी काम ईमानदारी से नहीं करेगा.”
 “आप,” एल्तिशेव कुल्हाड़ी से खेलते हुए तनकर खड़ा हो गया, “आप यहाँ से चली जाईये...जाईये.”
 “ओय, खुदा,” कुल्हाड़ी की ओर देखते हुए पडोसन बुदबुदाई; कुछ मीटर पीछे हटी, फिर मुड़ गई और फ़ौरन अपने गेट की ओर चली गई.  

शाम को एल्तिशेव स्प्रिट लेने गया. स्प्रिट का व्यापार बड़ी दूर होता था, ज़ागिबालोव्का स्ट्रीट पर. काफ़ी डीसेन्ट लोग बेच रहे थे, वे अमीर भी थे. ग्राहक को बर्तन – काँच की या प्लास्टिक की बोतल – लेकर जाना पड़ता था, मगर ज़रूरत पड़ने पर बर्तन में भी बेचते थे, हाँ उसके लिए दो रूबल्स ज़्यादा देने पड़ते थे. ग्राहक सेल्समैन को (या सेल्सगर्ल को, या उनके किसी बच्चे को – पूरा परिवार ही इस व्यापार में शामिल था) खाली बोतल और पैसे देता था और एक-दो मिनट बाद उसके हाथों में भरी हुई बोतल होती थी.

स्प्रिट को खूब ज़्यादा पतला कर देते थे, चालीस डिग्री तापमान पर; जले हुए रबर और एसिटोन का स्वाद बिल्कुल महसूस नहीं होता था, और निकोलाय मिखाइलोविच को इससे कोई ख़ास नशा, जो ज़हरीलेपन की सीमा तक पहँचता हो, नहीं चढ़ता था. और धीरे धीरे उसे स्प्रिट दुकान वाली वोद्का की अपेक्षा ज़्यादा अच्छी लगने लगी, जो वैसे भी गाँव में कहीं नहीं मिलती थी.
कभी कभी वह ख़ालिस स्प्रिट लाता, ख़ुद उसे पतला करता, मगर, अक्सर दुकानदारों पर भरोसा करता – “उनके पास विवेक है”.
इस बार उनके यहाँ काफ़ी सरगर्मी हो रही थी. गेट के सामने लॉरी “गाज़ेल” खड़ी थी, आँगन में उत्तेजित आवाज़ें आ रही थीं.         
“क्या तलाशी हो रही है? बन्द कर रहे हैं...” एल्तिशेव के दिमाग़ में एक ख़याल तैर गया, और उसने अपने आप आधे लिटर की बोतल अपनी जेब में गहरे घुसा दी. कुछ देर खड़ा रहा, सतर्कता से गेट के पीछे नज़र डाली. सामने से हाथों में कनस्तर लिये, एक नौजवान आ रहा था, उसके पीछे-पीछे, अपने सीने पर, जैकेट के नीचे, कुछ ठीक करते हुए – वही मझोले कद का आदमी था, जो साल भर पहले उनके पास स्प्रिट बेचने का प्रस्ताव लेकर आया था.
 “ओह, नमस्ते,” एल्तिशेव को देखकर वह बड़े प्यार और संतोष से मुस्कुराया और पूछने लगा, “क्या हाल है?”
 “ठीक है.”
 “ क्या माल लेने आए हो?”
 “हाँ...लेना था.”
उस आदमी ने जल्दी से निकोलाय मिखाइलोविच का निरीक्षण किया, उसे तौलता रहा, फिर लॉरी में कनस्तर रखते हुए लड़के से बोला:
 “बैठ, सामान रख ले. मैं अभी...क्या आपने ख़ुद यह व्यापार करने के बारे में नहीं सोचा? आपके मुहल्ले में मुझे अच्छे लोग नहीं मिल रहे हैं. और काम तो फ़ायदे का है.”
निकोलाय मिखाइलोविच इन्कार करना चाहता था, स्वाभिमानपूर्वक, शांति से कहना चाहता था: “नहीं, थैंक्यू.” मगर किसी चीज़ ने भीतर से उसे झकझोरा : “क्या सोचता है – यही रास्ता है. और कहाँ कमाओगे तुम, क्या करके कमाओगे? शहतीरें ख़रीदना हैं, ईंटें...पैसे, पैसे...”


और वह शर्तों के बारे में, तकनीक  के बारे में पूछने लगा; अभी तक मुँह से “हाँ” नहीं निकला था, मगर उसे, जैकेट वाले आदमी को भी, समझ में आ गया था कि अभी वह बस, निकलने ही वाला है.

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