अध्याय
14
वैसी पतझड़, जिसकी एल्तिशेवों को शहर में आदत
थी, नहीं हुई. अजीब बात थी, कि पचास किलोमीटर दूर, मुश्किल से दिखाई देने वाली
पर्वत-श्रृंखला से होकर जाता हुआ एक छोटा सा दर्रा, मगर मौसम बिल्कुल भिन्न था.
मौसम बहुत बुरा था... क़रीब पच्चीस अगस्त से जो बारिश शुरू हुई, वो होती ही रही,
होती ही रही और धीरे-धीरे बर्फ़ में बदलने लगी. बर्फ़ गिरती, और ज़मीन पर पहुँचने से
पहले ही पिघल जाती, ज़मीन में अभी भी गर्माहट थी, मगर दिन-प्रतिदिन सर्दियों का
एहसास बढ़ता जा रहा था. सायान में तो शायद वह आ चुकी थीं, और ये - और पचास किलोमीटर
दूर है.
आसमान बादलों से ठसाठस भरा था, पेड़-पौधे मुरझा
गए थे; पत्ते पीले नहीं पड़े थे, मगर साफ़ नज़र आ रहा था कि वे मर चुके हैं. लोग आलू,
मूली को कीचड़ से उखाड़ रहे थे, बाथ-हाऊस में, ड्योढ़ियों में सुखा रहे थे, रात में
उन्हें कपड़ों से ढाँक देते थे. प्रार्थना कर रहे थे कि जब तक उन्हें तहख़ाने में
नहीं पहुँचा देते, बर्फ न गिरे.
“क्या
तुम्हारे यहाँ सितम्बर हमेशा ऐसा ही होता है?” निकोलाय मिखाइलोविच ने भौंहे चढ़ाकर
भट्टी के पास सिगरेट पीते हुए पूछा, उसे ख़ुद भी पता नहीं था कि वह बीबी से पूछ रहा
है या आण्टी से.
जवाब अक्सर बीबी ही देती थी:
”मुझे कुछ याद नहीं है. कितना वक़्त बीत गया
है...शायद धूप भी निकला करती थी.”
एल्तिशेव मुस्कुराया.
“जवानी में हर चीज़ बेहतर थी.”
तात्याना आण्टी बैठी थी, वीरान आँखों से कहीं
दूर देख रही थी. शायद, उसे अपना कुछ याद आ रहा था...
निकोलाय मिखाइलोविच किसी कैदी की तरह कॉटेज
में घूम रहा था, लगातार सिगरेट पी रहा था, मन ही मन कुढ़ रहा था. वह समझ रहा था कि
बारिश के लिए प्रकृति को दोष देना बेवकूफ़ी है, और क़िस्मत को दोष देना भी बेकार है,
जो ऐसे पलट गई, वह अक्सर खारिनों को याद करता.
“कमीने,
कुत्ते! तुझे तो ऐसा मारना चाहिए! वह अब तक लकड़ी के फट्टे खड़े कर चुका होता, अगर
उनसे...”इलेक्ट्रिक-आरी, लठ्ठे और सिमेंट” की उम्मीद न होती. दो महीने बेकार में
गँवा दिए!
कभी-कभी टी.वी. के सामने बैठता, मगर जो कुछ भी
वह स्क्रीन पर देखता, उससे ताव खा जाता. लगातार गाने, भद्दे मज़ाक, अधनंगी
सुंदरियों वाले इश्तेहार और आत्मविश्वास से भरपूर मर्द, फिल्म्स – फ़ायरिंग वाली,
आपराधिक सीरियल्स. ये सीरियल्स उसे पागल कर देते – सभी चैनल्स पर बदहवास लुटेरे,
सीरियल किलर्स, मानव-तस्करी करने वाले, डिप्लॉमेट्स के पैसे से नशीली दवाओं और
कई-कई किलोग्राम्स हेरोईन का व्यापार करने वाले...एल्तिशेव को अपनी पुलिस वाली
नौकरी याद आ गई.
क़रीब पैंतीस साल नौकरी की. पैंतीस साल – मगर
एक भी बार असली अपराधी से सामना नहीं हुआ, एक भी डाकू को नहीं देखा. सब छोटे-मोटे
गुण्डे ही होते थे, पारिवारिक स्कैण्डल करने वाले और शराबी, शराबी, शराबी.
नशा-मुक्ति केन्द्र में भी, और उससे पहले भी...”क्या किया जाए,” निकोलाय
मिखाइलोविच अपने आप से बुदबुदाया, “अब बचा क्या है? बस पीते रहना.”
मौसम, अपनी बेबसी और निकम्मेपन का दुख पीने को
मजबूर करते. इस बात पर यक़ीन नहीं होता था कि पचपन साल की उम्र में वह पियक्कड़ बन
जाएगा, मगर पूरी तरह धुत होने तक उसने एक भी बार नहीं पी थी, मगर पूरे होशोहवास
में सोना मुश्किल हो रहा था – अनिद्रा परेशान करती थी, पत्नी की निकटता से चिड़चिड़ाहट
होती, जिसके साथ लम्बे समय से संबंध नहीं बना पाया था, हालाँकि अजीब बात थी कि
यहाँ, गाँव में दिमाग़ी परेशानियों के बावजूद वह जवान हो गया था, अपने आप को मर्द
महसूस करता था. मगर बीबी से निकटता कैसे हो सकती है, जब पतली दीवार के उस ओर
बुढ़िया पहलू बदल रही है, उनकी हर हरकत से पुराना दीवान चरमराता है...वलेंतीना को
किसी कोने में तो नहीं दबोच सकते. बाथ-हाऊस में भी दोनों नहीं जा सकते – वहाँ दो
लोग समा ही नहीं सकते: भट्टी वाला पिंजरा है. इन सर्दियों में नहायेंगे कैसे? शेल्फों
को छोटा कर दिया था, मगर सब गड्डमड्ड हो गया. उस फटेहाल बाथ-हाऊस को सुधारा नहीं
जा सकता.
निकोलाय मिखाइलोविच पॉलिस्टर का जैकेट
पहनकर, स्प्रिट लाने के लिए गाँव के दूसरे छोर पे जाता. बोतल ख़रीदता. शाम को बैठ जाता और जाम पे जाम
पीता रहता.
आण्टी कोने में झूलती रहती, बस, नज़रें गड़ाए
कहीं पे देखती रहती. हो सकता है, अपने पति को याद करती हो, जो बीस साल पहले मर गया
था, हो सकता है दोनों बेटों और बेटी को याद करती हो, जिन्हें भी काफ़ी पहले दफ़ना
दिया गया था...उसके रिश्तेदारों के बारे में एल्तिशेव को लगभग कुछ भी मालूम नहीं
था, उसे दिलचस्पी भी नहीं थी, असल में उसने इस बारे में कभी कुछ पूछा ही नहीं – न
बीबी से, न आण्टी से. अपना ही ग़म उसके गले-गले तक आ गया था.
कुछ न कुछ होना चाहिए था, समय हो चुका था –
हर मिनट निकोलाय मिखाइलोविच राह देखता कि अभी बेटा भागते हुए आयेगा और बिसूरने
लगेगा : “वाल्या को प्रसव-पीड़ा शुरू हो गई है, फ़ौरन ले जाना होगा! चलिए!...” मगर
आर्तेम के बदले यूर्का की बीबी आई.
दिन कुछ अच्छा निकला था, घर के कामों के लिए
ठीक-ठाक था. आसमान, हालाँकि भूरा-नीला था, मगर बारिश नहीं हो रही थी, हवा चल रही
थी, सब कुछ सुखा रही थी, और एल्तिशेव अगस्त में ख़रीदे गए बोर्ड्स को बाहर रख रहा
था – उन्हें सर्दियों के लिए तैयार करना था, डामर-पेपर से ढाँकना था, जिससे कि ख़ूब
गीले न हो जाएँ. अब सिर्फ बसंत में ही उनकी ज़रूरत पड़ेगी. बेशक, अगर, ख़ुदा ने चाहा
तो.
बोर्ड्स ले जाते हुए निकोलाय मिखाइलोविच ने
“मस्क्विच” की ओर देखा, और उसने भी जैसे अपने धुंधले लाईट्स से उसकी ओर शिकायत की
नज़रों से देखा. हाँ, उसे सर्दियाँ सड़क पर ही गुज़ारनी होंगी. टॉर्पोलिन का कवर
खरीदना पड़ेगा – थोड़ा बहुत बचाव हो जाएगा...”कैसा बचाव!” एल्तिशेव खुद ही ताव खा
गया. गैरेज बनाना पड़ेगा. सब कुछ बनाना पड़ेगा. हर चीज़ नई होनी चाहिए, भरोसेमन्द,
गर्माहटभरी. ये, यहाँ, भविष्य में बनने वाले घर के बाईं ओर गैरेज बनेगा, एकदम लग
के, और किचन से सीधे कार की ओर जाना होगा. बेहतर है कि भट्टी एक ही बनाई जाए,
दीवारों में गर्म पानी के टैंक्स बिठाए जाएँ. हर लिहाज़ से बढ़िया रहेगा...”
वह ख़यालों में खो गया, ईमानदारी से, स्पष्ट
रूप से, और साथ ही, सोच-समझकर इन सपनों से अपने ‘मूड’ को ठीक करने की कोशिश कर रहा
था. और तभी गेट बजा. ज़ोर से, बेताबी से. दीन्गा पहले तो घबरा के भौंकी और फ़ौरन
प्रसन्नता से इस खटखटाहट की ओर लपकी. “ये आर्तेम है, डिलीवरी की ख़बर लाया है,”
एल्तिशेव ने बोर्ड नीचे रख दिया.
मगर गेट के पीछे बेटे के बदले एक औरत खड़ी
थी.
“नमस्ते, मैं ल्युदमिला हूँ, यूर्का की बीबी.”
“हाँ, मुझे याद है. नमस्ते.”
“निकोलाय मिखाइलोविच...” औरत बड़ी शांत नज़र आ रही
थी, हो सकता है, बेहद गंभीर हो, मगर इस नाम और पिता के नाम के साथ वाले संबोधन में
कुछ डरावनापन भी था. एल्तिशेव ये कहने ही वाला था कि उसके पति को उसने कई दिनों से
नहीं देखा है, हो सकता है वह पी रहा हो, मगर उसके साथ नहीं है; औरत ने इससे पहले
ही कह दिया: “निकोलाय मिखाइलोविच, यूरा मर गया.”
...यूर्का क्लब के पोर्च में पड़ा था. पोर्च के
ऊपर छत थी, और यहाँ अक्सर मर्द, छोकरे बैठे रहते थे. बोतलें फोड़ते, सिगरेट पीते.
इस समय भी चारों ओर आधे-लीटर की बोतलें, सिगरेट्स के खाली पैकेट्स, पॉलिथिन के
बैग्स बिखरे पड़े थे. यूर्का का चेहरा कत्थई, लगभग काला ही हो गया था. “क्या, करेंट
से?” निकोलाय मिखाइलोविच ने रुकते हुए, वहाँ जमा लोगों की भीड़ में शामिल होते हुए
सोचा.
“देखो, ऐसे जल जाते हैं स्प्रिट से,” जैसे
एल्तिशेव के सवाल का जवाब देते हुए किसी आदमी ने कहा.
“हुम्-हाँ-“ अलसाई हुई साँस, “अभी जवान ही था.”
आसपास के लोगों के बर्ताव से एल्तिशेव को
आश्चर्य हुआ – वे खड़े होकर मुर्दे की ओर ऐसे देख रहे थे, जैसे ये कोई आम बात हो.
ल्युदमिला भी, जिसके लिए अब, पति की मृत्यु के बाद (प्रिय अथवा अप्रिय, ये दूसरी
बात है) उसकी और उसके बच्चों की किस्मत फूट गई थी, रो नहीं रही थी, यूर्का को
झकझोरकर उठने के लिए नहीं कह रही थी, बदहवासी में उसे मार नहीं रही थी, बल्कि,
औरों ही की तरह, खड़ी होकर देख रही थी. बच्चे भी वहीं थे, और वे भी शांत थे...मैनेजर
आया, फिर इन्स्पेक्टर और मेडिकल असिस्टेंट आए. वहाँ ठहरे और देखने लगे.
“फोन करना पड़ेगा,” निकोलाय मिखाइलोविच ने इधर
उधर देखते हुए कहा, “रिपोर्ट करनी पड़ेगी, कि ऐसा, ऐसा...”
“हाँ, कर दिया है,” मैनेजर ने जवाब दिया.
“उन्होंने कहा: अगर आप लोग चाहते हैं तो ख़ुद ही पोस्ट-मार्टम के लिए ले आईये, अगर
नहीं चाहते – तो कोई ज़रूरत नहीं. मौत का प्रमाण-पत्र इरीना बना देगी.”
“पोस्ट-मार्टम क्या करना है?” वही आदमी बोला
जिसने, जैसे एल्तिशेव को जवाब दिया था. “स्प्रिट की वजह से ख़ाक हो गया – बस. उसे
अपने आपको बचाने का उपाय मालूम नहीं था.”
एक मरियल सी बहस शुरू हो गई, यूर्का को
पोस्ट-मार्टम के लिए शहर ले जाना चाहिए अथवा नहीं. उसकी विधवा की ओर सवालिया नज़रों
से देखने लगे, मगर उसने इन सवालिया नज़रों का जवाब वैसी ही सवालिया निगाहों से
दिया.
“ओह, नहीं, ऐसे कैसे, क्या कर रहे हैं?” निकोलाय
मिखाइलोविच जैसे नींद से जागा हो, “ले जाना चाहिए, उन्हें मौत की वजह समझाने दो.
अगर अचानक किसी ने ज़हर दे दिया हो, या और कोई बात...” मैनेजर के पास गया. “आप यहाँ
के अधिकारी हैं ना? कैसी मध्ययुगीन व्यवस्था है!”
“मेरे पास कार नहीं है,” मैनेजर ने फ़ौरन उसकी
बात काटते हुए कहा, “और वे भेजना नहीं चाहते. कहते हैं कि ख़ुद ही...”
एल्तिशेव को बड़ी जल्दी पछतावा होने लगा कि
उसने क्यों इस मामले में अपनी नाक घुसेड़ी, क्यों आगे बढ़कर अपनी राय दी, पता चला कि
यूर्का को उसके अलावा कोई और ले ही नहीं जा सकता. गाँव में एक भी सरकारी गाड़ी नहीं
थी. इन्स्पेक्टर ने साथ चलने की पेशकश की; उसने फ़ौरन पंचनामा किया, और यूनिफॉर्म
पहनने के लिए भागा.
निकोलाय मिखाइलोविच शायद इन्कार कर देता,
मगर तभी ल्युदमिला रोने लगी, विनती करने लगी, बच्चों को उसकी तरफ़ धकेलने लगी, कि
वो भी मिन्नत करें; ऐसा लग रहा था कि अब उनके लिए ये पोस्ट-मार्टम बेहद ज़रूरी है, जैसे
इसकी बदौलत उसका पति और बच्चों का बाप ज़िन्दा हो जाएगा...अपने आप पर ही गुस्सा
करते हुए, एल्तिशेव कार को क्लब के पास लाया, पिछली सीट पर किसी का कंबल बिछाया गया,
सख़्त पड़ गए शरीर को किसी तरह भीतर रखा. ये तो ठीक था कि वह अधबैठी हालत में सख़्त
पड़ गया था. इस समय निकोलाय मिखाइलोविच एक पुलिस वाले के रूप में परिवर्तित हो गया
था, जिसने कई बार मुर्दों को पलटा था, इससे यूर्का को भीतर घुसाने में मदद मिली.
बाकी के लोग, पुलिस इन्स्पेक्टर समेत, सावधानी से सहायता कर रहे थे.
“बस, अब और कुछ नहीं करूँगा! उसे वापस कैसे
लाएँगे? या फिर शहर में ही दफ़ना देंगे? ले जाऊँगा – और बस, बाकी भाड़ में जाए...”
मगर साथ ही एल्तिशेव को अपने गुनाह का एहसास भी हो रहा था – गुनाह तो नहीं, मगर
कहीं न कहीं इस बात से उसका संबंध था, कि यूर्का के साथ ऐसे हुआ: पिछले कुछ हफ़्तों
से वे अक्सर साथ-साथ पीते थे; निकोलाय मिखाइलोविच सोने चला जाता, और यूर्का, शायद
नया हमप्याला ढूँढ़ने निकल पड़ता, हर तरह की गन्दगी निगल लेता और लो, ऐसे जल गया.
”ख़ुदा का शुक्र है कि ये मेरे सामने नहीं
हुआ,” थोड़ी सी राहत महसूस हुई, “वर्ना अभी...कहते, कि मैंने ही पीने की आदत डाल दी...यूर्का-यूर्का.”
एल्तिशेव ने पीछे देखने वाले शीशे पर नज़र डाली और “मस्क्विच” पर से कंट्रोल
छूटते-छूटते बचा: ऐसा लगा, जैसे मुर्दा अधखुली पलकों से उसकी ओर देख रहा है. “चेहरा
ढाँकना चाहिए. बाद में पिछली सीट को अच्छी तरह धोना होगा”. उसने एक्सेलेरेटर
दबाया.
...एक और दिन बाद वह फिर से इसी रास्ते पर
जा रहा था. पिछली सीट पर बहू कराह रही थी – प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी.
तात्याना आण्टी पर यूर्का की मृत्यु का
अप्रत्याशित रूप से गहरा असर पड़ा. वो जैसे जी उठी, ज़्यादा फुर्तीली, बातूनी हो गई.
अक्सर हिसाब लगाती रहती:
“उस
साल विताल्का पोतापोव मर गया था, उसकी उम्र तीस साल की भी नहीं थी. ओल्योझ्का को,
सनाएवा के बेटे को, उसके सगे चाचा ने ही मार डाला. मगर ओलेझ्का सबसे अलग-थलग ही
रहता था, हमेशा किसी न किसी लफ़ड़े में फंसता रहता था...ये, ग्लूश्कोव, पी-पी के मर
गया...मरते रहते हैं और मरते रहते हैं, मरते रहते हैं और मरते रहते हैं...युद्ध
में हमारे मुरानोवो से सत्रह लोग शहीद हो गए, वो स्मारक बना है, क्लब के पास.
सत्रह नाम हैं उस पर... मगर वो, युद्ध है, गोलियाँ, टैंक्स, मगर यहाँ, अगर गिनने
बैठो, तो पिछले पाँच सालों में कुछ ज़्यादा ही लोग मरे हैं...और ये क्या बात हुई –
ये, सभी मरते रहते हैं, या एक दूसरे को मारते रहते हैं.
“बस, हो गया, अफ़सोस करना!” निकोलाय मिखाइलोविच
से बर्दाश्त नहीं हुआ. “दिमाग़ नहीं है उनके पास, इसीलिए मर जाते हैं.”
“मगर, मरें भी तो कितने? ये तो सब के सब...”
“सब
नहीं. कुछ लोग समझदार भी होते हैं. सभी लोग चौबीसों घण्टे पीते नहीं रहते. घर-बार
का काम देखने वाले भी होते हैं.”
“घर-बार वाले भी तकलीफ़ उठाते हैं,” आण्टी हार
मानने को तैयार नहीं थी. “ये ओलेझ्का, सनाएव, समझ लो कि सारे घरों पे हाथ साफ़ कर
चुका था. किसी से कुछ लिया, किसी से कुछ और. शहर जाकर बेच देता, यहाँ भी सीधे-सीधे
– आकर पूछता था. और अपने चाचा के पास पहुँचा, उसके पास ख़रगोश थे. उसने फ़ोर्क फेंक
कर मारा. अंधेरे में देख नहीं पाया कि ये उसका भतीजा है. हो सकता है, सिर्फ डराना
चाहता हो, मगर किसी नाज़ुक जगह पे मार बैठा. “एम्बुलेन्स” तक का इंतज़ार न कर सके.
और सब – एक ही घर में रहते थे: तेरा भी रिश्तेदार मरा है, और, वो, ...सात साल की
सज़ा हुई, बोरिस को, उसने भी अपना बचाव नहीं किया: मार डाला, गुनहगार हूँ...और फिर,
ओलेझ्का के दोस्तों ने, लोगों ने सुना था, क़सम खाई थी कि उसको भी...अगर ख़ुद ज़िन्दा
रहे तो.”
जल्दी ही आण्टी रिश्तेदारों से बातें
कर-करके उकता गई – वो दूसरी बूढ़ियों के यहाँ जाने लगी. वापस लौटने के बाद देर तक
अलमारी में कुछ ढूँढ़ती रहती, अपनी कोई ड्रेस चुनती, वलेन्तीना से फुसफुसाकर कुछ
कहती. वह उत्तेजना भरे आँसुओं से उसकी बात काटती:
“बस
हो गया! बन्द कीजिए.”
“नहीं, तू सुन,” आण्टी चिरचिराते हुए ज़िद करती,
“मैं चाहती हूँ कि इन्सानों की तरह हो. अस्सी साल जी ली, औरों से बुरी नहीं थी
ज़िन्दगी, और अब मरना भी चाहिए... ज़मीन के नीचे कुत्ते की तरह पड़े रहना नहीं
चाहती...”
“ब-स- करो. कैसा कुत्ता? आप देख रही हैं हमारी
हालत कैसी है? और ऊपर से आप...”
“ए-एह, वाल्या, मुझे अपनी बात पूरी तो करने दे,”
और बुढ़िया फिर से फुसफुसाहट पे उतर आती;
एल्तिशेव के कानों तक कुछ वाक्य पहुँचते: “ये है, मुझे क्या पहनाया जाए...मैं
गिओर्गीव्ना और नीना सिम्योनोवा के साथ... नहलाएंगी, तैयारी करेंगी...जल्दी ही
जाना है, वालेन्का...”
उसने ये बात एक या दो बार नहीं कही, वह
दुहराती रहती, जैसे डरती हो कि भतीजी कोई बात भूल न जाए, कोई इच्छा पूरी न करे.
इन निर्देशों के बाद वो अपने पलंग पर लेट
जाती और कई-कई दिनों तक पड़ी रहती, वलेन्तीना को खाना बनाने में, बर्तन धोने में
रुकावट डालती, निकोलाय मिखाइलोविच को – किचन में जाने में रुकावट बनती. लगातार
लेटे हुए इन्सान के कारण जैसे हाथ-पाँव बंध जाते थे. उसके लेटने से एल्तिशेव को या
तो आंगन में या बगल वाले कमरे में ही पड़े रहना पड़ता.
मगर, लेटे रहने के बाद, मौत के न आने के
कारण, बुढ़िया उठ जाती, फिर से अपनी गिओर्गीव्ना या नीना सिम्योनोवा के यहाँ जाती,
फिर दुबारा अलमारी की अपनी चीज़ें खंगालने लगती, फुसफुसाहट से वलेन्तीना को बेज़ार
करने लगती.
मरने की ये कोशिशें निकोलाय मिखाइलोविच को
पागल बना देतीं – जैसे वह ख़ुद को नहीं, बल्कि अपने आसपास के लोगों को निढ़ाल बनाने
का खेल खेल रही हो. या, फिर, कोई खेल नहीं खेल रही थी, बल्कि सिर्फ उन्हें सता रही
हो, जो बेकार ही में, बिना किसी वजह के, साल भर से उसके घर में डटे बैठे थे, जो
उसे गुस्सा दिला रहे थे, जिन्होंने उसे बर्तनों वाली अलमारी और भट्टी के बीच वाली
जगह में धकेल दिया था. अब और बरदाश्त नहीं कर पा रही है – और हो गई शुरू...
“ओह, आख़िर कब...” न जाने कौनसी बार वह पलंग से
उठी, अपनी सुन्न पड़ी कुहनियों को, कमर को सहलाया. “उस दुनिया में मुझे ‘अनुपस्थित’
दिखाते-दिखाते थक गए हैं, और मैं अभी यहीं...”
“ओह, आख़िर बस भी करो, आण्टी तान्!” वलेंतीना ने
उसकी बात काटते हुए पूछा. “कहाँ दर्द हो रहा है? बताईये, मैं जाकर दवा ले आती हूँ.
कम्पाऊण्डर को बुलाऊँ? ठीक है, कहीं दर्द नहीं हो रहा है – पतझड़ का मौसम है, बस,
और कोई बात नहीं. सभी को कुछ न कुछ हो रहा है...आपका पड़-पोता आया है, रोदिओन.
ख़ूबसूरत नाम है ना? जल्दी ही यहाँ लायेंगे, उसे देखेंगी, और आप उसे संभालेंगी.”
“ओह, ओह,” बुढ़िया ने हाथ झटके और देहलीज़ की ओर
चली, पुराने, मुड़े-तुड़े, बहुत बड़े जूतों में पैर डाले, रूई का जैकेट पहना. दरवाज़े
को चरमराती हुई धीरे-धीरे ड्योढ़ी में आई. कॉटॆज में रास्ते से चुभती- सी,
सर्दियों-पूर्व की हवा घुसी.
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