सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

Eltyshevi - 11

अध्याय – 11

 ‘हनीमून’ बिल्कुल भी ‘हनी’ जैसा नहीं था...

दिन का अधिकांश भाग आर्तेम अपने छोटे से, एक धुंधली खिडकी वाले आउट-हाऊस में बिताता था. आँगन से आ रही पैरों की आहट को, आवाज़ों को सुनता हुआ पलंग पर पड़ा रहता. बाहर निकलना, पराई ज़िन्दगी में दखल देना ठीक नहीं था, उसे ये अच्छा नहीं लगता था. जब वाल्या खाने के लिए बुलाती तो उठकर जाता. इधर उधर न देखने की कोशिश करते हुए चुपचाप अपनी जगह पे बैठ जाता, जो परोसा जाता वो ही चबाने लगता.
त्यापोवों के घर तरह-तरह का खाना नहीं बनता था. आलू, ज़्यादातर उबला हुआ, चावल और         कूटू का पॉरिज, मोटी चमड़ी वाला, नमक लगा चर्बी का टुकड़ा, कभी कभी माँस का शोरवा, सफ़ेद ब्रेड, नमकीन खीरे, खट्टी गोभी. लगभग हर रोज़ मेज़ पर नमक लगे तरबूज़ के टुकड़े रखे रहते थे, आर्तेम को वो बड़े घिनौने लगते थे...
घर में लगभग तात्याना दादी की उमर की एक बुढ़िया रहती थी. शायद, और भी ज़्यादा प्राचीन हो. वो भी कम बोलती थी, एक ही कोने में स्टूल पर बैठी रहती, अपनी धुंधली, फूल पड़ी आँखों से दुख और पीड़ा से ताकती रहती. आर्तेम अब तक नहीं समझ पाया कि उसे किस नाम से बुलाते हैं – वाल्या के माँ-बाप उसे “माँ” कहते थे, मगर वाल्या, उसकी बहनें और उनकी लड़कियाँ बुढ़िया को अनदेखा करती थीं.
क़रीब-क़रीब हर शाम को, मौक़ा देखकर, जब आर्तेम अकेला होता था, गिओर्गी स्तेपानोविच आउट-हाऊस में आता. ग़ौर से उस जगह को देखता, पूछता:
 “तो, क्या हाल है, ठीक से तो हो ना?”
आर्तेम सिर हिला देता.
 “चलो, अच्छा है. क्या एक घूँट पीने का मन है?”
 “कैसे...” वैसे तो आर्तेम इसके ख़िलाफ़ नहीं था. “पैसे नहीं हैं.”
अक्सर गिओर्गी स्तेपानोविच सहानुभूति से गहरी साँस लेता, शिष्ठाचार की ख़ातिर कुछ इधर-उधर की बातें करता, और चला जाता, कभी ऐसा भी होता कि अपने पुराने कोट की जेब से बोतल निकालता:
 “मेरे पास है.”
या तो वहीं बैठकर पीते, या पिछले आँगन में ठूंठों पर बैठकर, मुर्गियों को खाने पीने की चीज़ों से दूर भगाते हुए. खाने पीने की चीज़ों में शामिल थी ब्रेड और हरी प्याज़.
पीने के आरंभ में त्यापोव को गुज़रे ज़माने के बारे बताना अच्छा लगता था:
“गाँव में मैं अकेला ही अकॉर्डियन बजा सकता हूँ. पहले भी...कभी कभी – मेरे पास आकर कहते: “झोरूश्का, बजा ना!” और गिलास से मुझे गरमाते, बाद में भरपेट खिलाते...और, जब जवान था, ओह, कितना बढ़ि-या था! हज़ारों गाने जानता था – रोमॅंटिक, चोरों के, सैनिकों के...लड़के, मुझसे बड़े भी, इज़्ज़त करते थे, लड़कियों के झुण्ड पीछे पड़े रहते थे. मालूम है, मेरी वजह से मारपीट भी कर लेती थीं! हाँ-आ, हर शाम किसी त्यौहार की तरह होती थी. सोना, जैसे तू सोता है, नसीब ही नहीं होता था. दिन में काम करता था, फिर नहाता था, कमीज़ पहनता, बगल में अकॉर्डियन दबाता – और निकल पड़ता. तीन-चार बजे धीरे-धीरे घर लौटता. सात बजे तक ऊँघता, और उसके बाद, फिर काम पे...ओह, मनमौजी ढंग से ज़िन्दगी जीता था, अब तो बस, याद ही बाक़ी है.
जब बोतल में एक तिहाई वोद्का रह जाती थी, तो बातचीत का विषय बदल जाता – ससुर वर्तमान में आ जाता:
 “हाँ, आर्तेम्का, अब तो सिर्फ याद ही बाकी है. देख रहा है न, कैसा इत्तेफ़ाक हो गया – उम्र भी ऐसी, और वक़्त भी ऐसा, जब हर चीज़ शैतान जाने कहाँ लुढ़क गई...हमारे यहाँ, ये इधर, सिलाई-कारखाना था, और सोचो, मैं उसमें पूरी ज़िन्दगी काम करता रहा. कुली, चौकीदार...सीधी-सादी बोरियाँ सीते थे, मगर फिर भी. फ़ायदा क्या – आख़िर किसी न किसी को तो बोरे भी सीने होते हैं. मगर अब...सब कुछ था, और सब कुछ ख़त्म हो गया. कितनी लड़कियाँ मेरे चारों ओर मंडराती थीं, मगर शादी की इससे...   फ़ौजी सार्जेंट है - बढ़ी हुई मियाद वाला, न कि औरत. एह, आर्तेम्का, क़सम से कहता हूँ, वैसा ही, जैसा तेरे साथ हुआ: घूमे-फिरे, इत्तेफ़ाकन, और फिर कहा कि पेट से है. शादी करनी पड़ी. और मुझसे पहले भी कितनों के साथ घूमती थी! मगर लड़कियाँ, शायद, मुझ पे गईं हैं. क्या, मेरे जैसी हैं?”
आर्तेम ने छिलके पड़े हुए फर्श की ओर देखते हुए सिर हिला दिया. इस तरह की तुलनाएँ उसे अच्छी न लगतीं, और वाल्या के प्रति प्यार – या यूँ कहें कि वह भावना, जिसे वह प्यार समझता था, गंदा होता जाता था, गंदा होता जाता था...बड़ा अजीब लगता था कि ससुर यह सब उससे क्यों कह रहा है.
 “अफ़सोस है कि सिर्फ लड़कियाँ ही हुईं. तीनों. बेटे के बिना दिल नहीं लगता. कम से कम तू तो मुझे नीचा न दिखा – मुझे पोता दे दे. उसके साथ मछलियाँ पकड़ने जाया करूँगा. अकॉर्डियन बजाना सिखाऊँगा...”
जब गिओर्गी स्तेपानोविच झगड़ा करता, तो जैसे उसमें गाँव का अव्वल नंबर का नौजवान जाग उठता. वो अपनी कैप को कान पे खींच लेता, अकॉर्डियन लटका लेता और बीबी के पास खड़ा हो जाता. उसके कई सारे गुनाह गिनाता. कई बार आर्तेम उनके झगड़े का गवाह बना था. नहीं, झगड़ा बीबी करती थी, उँगलियों की हड्डियों से त्यापोव के सिर पर मारती थी, और वह गालियाँ देता, हँसता, बार-बार दुहराता कि उसने उसकी पूरी ज़िन्दगी को नरक बना दिया है.
वाल्या फ़ौरन आर्तेम को आउट-हाऊस में ले जाती, पुराना कैसेट-प्लेयर चालू कर देती. गाने तो ज़्यादा नहीं थे – कुछ कैसेट्स दस-पन्द्रह साल पुराने लोकप्रिय गानों के थे. जैसे “कम्बिनेशन्स’ ‘मिराज’, व्लादा स्ताशेव्स्की के गाए हुए...आवाज़ खूब बढ़ा देती, वाल्या थककर पलंग पर लेट जाती, पेट के निचले हिस्से को उँगलियों से सहलाती, और आँगन से चीखें, नशे में धुत हँसी, अकॉर्डियन की सिसकारियाँ सुनाई देतीं.
शादी के बाद जल्दी ही वाल्या और आर्तेम के संबंधों में परिवर्तन आने लगा. बाथ-हाउस के सामने वाले कमरे में छुप-छुपकर संबंध बनाने के समय की परेशानी और उत्तेजना के स्थान पर अब नपी-तुली नियमितता नज़र आने लगी थी. उनके पास अब थी शाम, और रात, और सुबह. मगर इससे ख़ुशी नहीं होती थी. बल्कि इसका उल्टा ही हो रहा था. बात-बात में इस बात से चिड़चिड़ाहट पैदा हो जाती थी कि वे निरंतर एक दूसरे की बगल में ही हैं, हालाँकि वास्तव में उन्हें एक दूसरे की अभी तक आदत नहीं पड़ी थी. ऊपर से वाल्या प्यार करने से इनकार करती थी. गर्भावस्था का हवाला देती, तबियत ख़राब होने का बहाना बनाती.         
 “मैंने सुना है, शुरू में ऐसा होता है,” आर्तेम कहता. “जी मिचलाना, एबॉर्शन... क्या तुमको नहीं हुआ?”
 “होता था. मैं नहीं दिखाने की कोशिश करती थी.”
 “हुम्, दिलचस्प बात है. और, अब कोशिश नहीं करती हो?” आर्तेम को ये एहसास हुआ कि उसे धोखा दिया गया है.
वाल्या उससे चिपक गई, चूमती रही, मगर ऐसा लग रहा था कि वो ये ज़बर्दस्ती कर रही है.
 “क्या तू भी,” वह शिकायत के सुर में फुसफुसाई. “मैं नन्हे की ख़ातिर डरती हूँ, अब ये ख़तरनाक है, वैसे भी पाँचवाँ महीना चल रहा है. सब्र करो, ठीक है?”
वे तंग, पाईपों वाले पलंग पर लेटे थे, एक दूसरे को बांहों में लेकर, आँखें बन्द कर लीं... ऐसी अवस्था में नींद आना मुश्किल था, इसलिए कुछ मिनट बाद एक दूसरे की ओर पीठ कर ली, भारीपन से, तकलीफ़ उठाते, नींद की गोद में चले गए.
सुबह आर्तेम ने अपने सपने को याद करने की कोशिश की, मगर कुछ भी याद नहीं आया. विस्मृति का अंधेरा मंडल. और वह थका हुआ ही उठा, जैसे सिर्फ आधा घंटा सोया हो.
खाली, लम्बे दिन सोचने में गुज़ार देता.
वे लड़के जिनके औरतों से संबंध थे, हमेशा उसे अपने से ऊँचे, समय से पहले ज़्यादा ताक़तवर हो गए प्रतीत होते थे. वाक़ई में, औरत को काबू में रखने के लिए किसी विशेष चीज़ की, असाधारण चीज़ की ज़रूरत होती है जो उसके पास नहीं थी. और किशोरावस्था में लड़कियों से दोस्ती करने की, ‘सेक्स’ करने की उसकी सारी कोशिशें जल्दी और दयनीय रूप से ख़त्म हो गईं – लड़कियाँ बस कुछ ही बातों में जान जाती थीं, कि उसके पास वह विशेष, असाधारण चीज़ नहीं है. और वे उसमें दिलचस्पी लेना बन्द कर देतीं. तीन या चार बार, वोद्का की बदौलत, ये फूहड़ संवाद निकटता तक पहुँच गए थे, मगर असफलता के साथ ही समाप्त हुए; इन निकटताओं से शर्म के अलावा आर्तेम के पास कुछ न बचा.
जब बाथ-हाऊस वाले कमरे में बार-बार वाल्या के साथ उसकी निकटता होने लगी तो आख़िरकार आर्तेम अपने आप को कई मर्दों के बराबर समझने लगा, भाई के बराबर समझने लगा जो हालाँकि उससे दो साल छोटा था, मगर उम्र के लिहाज़ से काफ़ी पहले बड़ा हो गया था. मगर अब, छह महीने बाद, आर्तेम के मन में ये ख़याल आने लगा कि वाल्या के साथ अगर उसकी मुलाक़ात न हुई होती तो ज़्यादा अच्छा होता. या फिर, निकटता इस हद तक आगे न बढ़ी होती. अब उसकी तनहाई और वो कसकती पीड़ा उसे कुछ ख़ुशनुमा, मीठी, कभी वापस न आने वाली प्रतीत हुई.
बार-बार पत्नी के चेहरे पर तकलीफ़ के भाव देखना अच्छा नहीं लगता था; बुरा लगता था ये देखना कि वह कैसे अभी तक लगभग दिख नहीं रहे पेट को संभालती है, जैसे उसकी हिफ़ाज़त कर रही हो. मगर सबसे ज़्यादा बुरा लगता था यहाँ, इस आउट-हाऊस में, इस आँगन में अपना इस तरह से बन्द होकर रहना, जहाँ ज़रा सा बाहर आते ही उसका स्वागत होता था त्रेज़र के भौंकने से, जिसे अभी तक उसकी आदत नहीं हुई थी. आर्तेम को, बेशक, किसी ने भी बन्द नहीं किया था, कोई उसकी चौकीदारी नहीं करता था – उसके अपने विवेक ने ही उसे बन्द कर रखा था, वही उसकी चौकीदारी करता था. उसका विवेक कहता था कि उसे अब उस औरत के पास होना चाहिए, जो उसकी पत्नी बन गई है. हाँ, और जाना भी कहाँ था? क्या माँ-बाप के पास, जहाँ वह अब तक बन्द था?
माँ-बाप के पास वह पैसे न होने पर ही जाता था, एक क्षीण सी इच्छा भी थी घर के काम में मदद करने की.
 “ओह, हमारे यहाँ मेहमान आए हैं!” ऐसा लगा कि बाप व्यंग्य से चहका था. “ चल, आजा, बता तेरा ‘हनीमून का महीना’ कैसा चल रहा है.”
 “हनीमून का महीना,” आर्तेम ने मन ही मन दुहराते हुए कहा, “”पाँच हज़ार दीजिए – ‘हनी’ बन जाएगा.”
बाप के साथ मिलकर नया टॉयलेट बनाया; भावरहित आँखों से आँगन के गड्ढे को देखते हुए गुस्से से की गई शिकायत सुनता रहा कि खारिनों ने अपने वादे नहीं निभाए – न तो पेट्रोल-आरी दी, न ही लट्ठे, और ये गड्ढा बस, भरता जा रहा है; बाथ-हाऊस में भट्टी को फ़ौरन बदलना होगा, नई शेल्फ्स बनानी होंगी, मगर अच्छे बोर्ड्स नहीं हैं, और, वैसे भी पूरे बाथ-हाऊस को ही नया बनाना होगा; और कम से कम पतझड़ तक घर की नींव भरनी पड़ेगी...
 “हाँ, करना पड़ेगा,” आर्तेम ने सहमति दर्शाई, मगर उसे पक्का विश्वास नहीं था कि इस प्राचीन ढाँचे में कुछ भी बदलना उनके लिए संभव होगा. टॉयलेट के पीछे चार दिन सिर खपाते रहे, और वह टेढ़ा-मेढ़ा, तंग, नीचा बना – बाप ने सफ़ाई दी कि सामान सही नहीं है, मगर कारण ये था कि उन्हें बनाना आता ही नहीं था. हुम् – टॉयलेट बनाना – अलग बात है, और घर, बाथ-हाऊस बनाना अलग...
फिज़िकल ट्रेनिंग टीचर से एस्कीमो कुत्ते का पिल्ला खरीदना माँ-बाप के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी. नाममात्र के बीस रूबल्स में खरीदा, ख़ासतौर से कुतिया ख़रीदी, जिससे उसके पिल्ले बढ़ सकें, ज़्यादा सोचे-समझे बिना उसका नाम रखा दीन्गा. हालाँकि वह सिर्फ दो महीने की ही थी, मगर अभी से काफ़ी गुस्से वाली प्रतीत होती थी, गार्डन के भीतर की अपनी सीमा की रखवाली करने की ड्यूटी अच्छी तरह समझती थी, अपनों और परायों का फर्क जानती थी. आर्तेम का स्वागत उसने गुर्राकर किया, फिर पतली, गुसैल आवाज़ में भौंकने लगी, उसका पैर दबोचने की कोशिश की.
 “शाबाश, दीनूश्का,” बाप ने तारीफ़ की और उसकी सलवटों वाली गर्दन को सहलाया, “अच्छी मालकिन बन रही है.”
यह समझते हुए भी कि ये बेवकूफ़ी है, आर्तेम बुरा मान गया – “मेरे बदले किसी और को ले आए. अब तो घर भी नहीं आ सकता. वहाँ भी भौंकते हैं, और यहाँ भी...” और, पिल्ले से खेलने के बहाने उसने उसे सताना शुरू कर दिया, तिलमिलाकर थोबड़े पर झापड़ मारा, बगल में उँगलियाँ चुभाईं, जूते की नोक पंजे में गड़ा दी. दीन्गा कूं-कूं करने लगी, उछल कर दूर चली गई, मगर उसने फ़ौरन बदला लेने की कोशिश की, भयानक गुर्राहट से आगे की ओर उछली.
सबसे बड़ी बात, जो उसे गुस्सा दिलाती थी, वह था – पैसों का अभाव. काश, उसके पास पैसे होते...ज़्यादा पैसों का सपना देखने की तो वह कोशिश ही नहीं करता था – ये सपने उसे अत्यंत कठोर परिश्रम से भी ज़्यादा थका देते थे, - सौ, दो-सौ तो सिर्फ माँ-बाप से ही लिए जा सकते थे.
माँगने में आर्तेम को शरम आती थी. नहीं, ये बात नहीं कि वह शरमाता था, बल्कि उसे ये डर था कि जवाब में कोई तीखी, अपमानजनक बात न सुननी पड़े. देख रहा था कि वे कैसे एक-एक रूबल बचाते हैं, इसी कुछ एकड़ ज़मीन में बस जाने की उम्मीद लगाए हैं, लगता था कि सिर्फ इसी के भरोसे जीते हैं.
पारिवारिक मामलों के बारे में माँ-बाप आर्तेम से क़रीब-क़रीब कोई बात नहीं करते थे – सवाल पूछते, मगर जवाब की उम्मीद न करते, - ज़ाहिर है, उसकी शिकायतें सुनना नहीं चाहते थे, ताने और आरोप सुनने से डरते थे. और, कहने को था ही क्या? वैसे भी सब कुछ साफ़ है. बस एक ही बात समझ में नहीं आ रही थी कि आगे कैसे जिएँगे.
 “हमें, वो,” धीरे से, मुश्किल से, दबी-दबी आवाज़ में आर्तेम बतलाना शुरू करता कि वह क्यों आया है, “हमें कल डॉक्टर के पास जाना है, चेक-अप के लिए. वो, बच्चे के बारे में...जाँच करवानी है.”
 “तो क्या?” यह समझते हुए भी कि वो क्या कहने वाला है, बाप ने पूछ लिया.
“वो, बस में जाने के लिए...बिल्कुल पैसे नहीं हैं. शहर तक जाना और वापस लौटना...”
”वो ज़रा ज़्यादा ही जाती है चेक-अप के लिए,” माँ ने कहा. “क्या कोई प्रॉब्लम है?”
 “मुझे नहीं मालूम. मगर कुछ प्रॉब्लम तो है. उहूँ...”
असल में चेक-अप के लिए, और वो भी शहर में नहीं, बल्कि ज़ाखोल्मोवो में, जहाँ गायनिक डिपार्टमेंट की शाखा थी, वे सिर्फ दो बार गए थे. मगर इस बात के लिए पैसे आर्तेम पाँच बार ले चुका था. इसलिए वह मिमिया रहा था, डर रहा था, नज़रें चुरा रहा था.
कभी कभी सिर्फ खाने-पीने के सामान के लिए भी पैसे मांगता था. माँ-बाप चिड़चिड़ाते, मगर फिर भी दे देते. वह दुकान में जाता, कोई स्वादिष्ट सी चीज़ ख़रीदता (आलू बिल्कुल नहीं खरीदता), सही-सही कहें तो – अलग-अलग तरह की चीज़ें. चॉकलेट्स, वेफ़र्स, सॉसेज, हलवा, मैकरोनी, एपल्स...
मेज़ पर ये सब देखकर गिओर्गी स्तेपानोविच को ताज्जुब हुआ: “क्या आज कोई त्यौहार है?” – और उसने फ़ौरन इन स्वादिष्ट चीज़ों पर हाथ मारा. इसके बाद आर्तेम फ़ौरन अपनी ख़रीदी हुई चीज़ें आउट-हाऊस में ले जाने लगा, ख़ुद ही खाता और वाल्या को भी खिलाता. उसे गुस्सा नहीं आता था कि वह डाईनिंग टेबल पर ये सब क्यों नहीं ले जा रहा है.
गर्मियों के मध्य में, ऐसे ही एक बार जब वह पैसे मांग रहा था, तो बाप ने रूखे, धमकाते हुए अंदाज़ में – जिसका मतलब था कि वो अपना आपा खोने वाला है, कहा:
 “सुन, बेटा, क्या अब समय नहीं आ गया है, यह सोचने का कि परिवार का पालन-पोषण कैसे करना है?”
आर्तेम सिकुड़ गया, उसने आँखें फेर लीं. “वो, बस यही.”
 “मैं पन्द्रह साल की उम्र में अपने पैरों पर खड़ा हो गया था, इन्स्टीट्यूट में दाख़िला ले लिया, शाम को काम करके कमाता भी था. फिर कारखाना, फिर फ़ौज...तू कब तक बच्चा बना रहेगा? ख़ुद का बच्चा बस आने ही वाला है, फिर भी सब कुछ...” बाप धीरे-धीरे सुलग रहा था. “क्या तेरी पेन्शन मिलने तक मैं तुझे खिलाता रहूँगा?! और बाकी लोगों को भी?”
 “करूँ क्या?!” रोक नहीं पाया आर्तेम अपने आप को, ज़िन्दगी में पहली बार खुल्लमखुल्ला उससे बहस करने लगा. “यहाँ काम करूँ तो कहाँ करूँ? ले आए इस...शैतान जाने कहाँ, और – क्या?!” बाप की सफ़ॆद पड़ती आँखों की ओर देखा और ख़ामोश हो गया.
 “तो- मतलब- ज़बर्दस्ती तुझे ले आए हैं. पच्चीस साल के आदमी को! हाँ?!” बाप माँ और बुढ़िया की ओर देखते हुए हँसने लगा (उन्होंने सहमति में सिर हिला दिया). “ज़बर्दस्ती लाए हैं उसको! इसलिए लाए हैं कि चौबीसों घण्टे कमरे में पड़ा रहता था. निकम्मा है तू, और कुछ नहीं. शादी भी तुझे बदल नहीं पाई. कोई और होता तो रोज़ घर बनाने के लिए मेरे पीछे पड़ा रहता, अपने परिवार की किसी तरह देखभाल करता, मगर तू...”
”चलो, बनाएँगे,” आर्तेम ने उसकी बात पकड़ ली, “मैं इसके ख़िलाफ़ नहीं हूँ. चलो.”
बाप उठा, जल्दी से कमरे में गया, कुछ धड़ाम-धड़ाम किया और पैसे की गड्डी लाया. मेज़ पर फेंक दी:
 “ये रहे दस हज़ार – बना. जा, जाकर ईंटें, सिमेंट, बोर्ड्स, लोहा ख़रीद ला. चल, बना, मैं मदद करूँगा.” और उसने ऊँगली से नीले-सफ़ेद नोट आर्तेम की तरफ़ सरका दिए.
माँ आश्चर्यजनक रूप से ख़ामोश बैठी थी, वह गुस्से में पागल हो रहे बाप को रोक नहीं रही थी, कुछ भी नहीं कर रही थी. “ये उसका ही आयडिया था, हमें यहाँ लाने का...” आर्तेम को याद आया और माँ के प्रति मन में जैसे नफ़रत की भावना जागी; बाप से नफ़रत करने से वह डरता था.
 “तो क्या?” पैसे आर्तेम के और नज़दीक सरके. “मैं और माँ तो बूढ़े हो गए हैं, हम यहाँ भी किसी तरह रह लेंगे. बना घर, बीबी को, बच्चे को यहाँ ला. सब कुछ तेरे हाथ में है.”
 “ठीक है, जाऊँगा.” आर्तेम धीरे से उठा और, ये उम्मीद करते हुए रास्ते की ओर बढ़ा कि उसे रोकेंगे, वापस बैठने को कहेंगे, और कुछ न कुछ फ़ैसला करेंगे.
 “ये तो अच्छा है कि मैं सिगरेट नहीं पीता,” अपनी जेबों को टटोलते हुए, जिनमें चिल्लर भी नहीं थी. वह अप्रत्याशित रूप से ख़ुश हो गया,  “वर्ना तो यहाँ कुछ नहीं होने वाला, चाहे फाँसी पर ही क्यों न लटक जाओ.”
अगली सुबह बाप त्यापोवों के यहाँ आया. आर्तेम को बाहर बुलाया. तालाब के किनारे घास पर बैठे. बड़ी देर तक ख़ामोश रहे, इधर-उधर देखते रहे, गाँव के उस पार, एस्पेन से ढँकी छोटी पहाड़ियों को देखते रहे. हो सकता है – खाली आँखों से देख रहे थे, सही घड़ी का इंतज़ार कर रहे थे.
 “बड़ी मुसीबत में हैं हम,” बाप भर्राई आवाज़ में बोला और खांसने लगा. “बहुत भारी पड़ रहा है, इसीलिए एक दूसरे से दूर जा रहे हैं. माँ को भी कुछ – ग़ौर किया तूने? बदल गई है एकदम. समझ में नहीं आता कि क्या करूँ. जैसे कोई अंधी गली है. और ताक़त भी नहीं है...सोचा था कि चले जाएँगे, सर्दियाँ किसी तरह गुज़ार देंगे, और बसंत में – शुरू करेंगे. जल्दी-जल्दी, हिलमिल कर. और नई सर्दियों का स्वागत नए घर में करेंगे. चलो,” गहरी और वाक़ई में कुछ कमज़ोरी सी साँस ली, “चलो, इस बारे में क्या...मैं पूरी रात नहीं सो सका, सभी विकल्पों पर विचार करता रहा. आज माँ से सलाह की. हो सकता है – तू, बस सही तरीक़े से समझने की कोशिश कर – हो सकता है तू पुलिस में चला जाए? हाँ? सोच कर देख. मेरे अभी भी कुछ कॉन्टेक्ट्स हैं, बात करूंगा. तूने तो फ़ौज में भी काम किया है, अभी तीस का भी नहीं है. तुझे ले लेंगे. चौबीस घण्टे ड्यूटी करेगा, फिर दो-तीन दिन यहाँ रहेगा. लोग ऐसे ही काम करते हैं. या – वहाँ हॉस्टेल भी है. हो सकता है, मिल जाए...किसी तरह इस परिस्थिति से निकलना होगा. अच्छी तरह सोचना. आँ?”
आर्तेम समझ ही नहीं पाया कि क्या जवाब दे – प्रस्ताव आकस्मिक था और एकदम ख़तरनाक था. स्कूल में उसे सुनना पड़ता था थी कि उसका बाप पुलिसवाला है; सिर्फ जब डेनिस हट्टाकट्टा निकल आया तो छोकरे चुप हो गए. मगर इस प्रस्ताव में आगे रोशनी नज़र आ रही थी, कमज़ोर ही सही, मगर फिर भी...शुक्र है ख़ुदा का कि बाप ने ज़ोर नहीं दिया:
 “कुछ और तो अभी दिमाग़ में नहीं आ रहा है. फिलहाल,” कमीज़ की सीने वाली जेब से पाँच सौ के नोट निकाले, “ ये रख ले. फ़िज़ूलख़र्ची मत करना. तू तो ख़ुद ही समझता है...और कल जल्दी आ जाना, आरी वाले सामान का ऑर्डर देने जाएँगे. आगे क्या होगा, पता नहीं, मगर घर तो बनाना ही पड़ेगा. ठीक है?”

 “ठीक है,” आर्तेम ने यांत्रिकता से दुहराया, और होश में आकर आत्मविश्वास से बोला: “बेशक. चलो, जाएंगे.”

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें