अध्याय
16
बच्चे को प्रसूति-गृह से घर लाने के बाद
पहले कुछ दिन आर्तेम अजीब सी मनस्थिति में रहा: जैसे बड़ी दौड़-धूप कर रहा हो,
निरंतर मानसिक तनाव में हो, रात में बच्चे की पहली ही चीं-चीं से उछलना या फिर,
इसके विपरीत, इस बात से परेशान होना कि उसकी साँसों की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही
है... मानसिक बोझ, जैसे चरम सीमा तक पहुँच गया हो, मगर इस बोझ को वह काफ़ी हल्के से
बर्दाश्त कर रहा था. शायद, इसलिए, कि ये एक नई परिस्थिति थी, नई ज़िन्दगी थी.
ये सही है कि आर्तेम के पास ज़्यादा दिनों के
लिए ताक़त नहीं बची थी – क़रीब दो हफ़्ते बाद वह मौक़ा मिलते ही पलंग पर लुढ़कने लगता.
दोपहर में आऊट-हाऊस में जाता, पुराने कपड़ों में दुबक जाता और सो जाता, ठण्ड़ के
मारे ठिठुर जाने का डर भी उसे रोकता नहीं था. “ठिठुर जाऊँगा, शैतान ले जाए,” वह
आहत भाव से फुसफुसाता, स्वेटर की आस्तीनों से नाक ढाँक लेता...
“ठिठुरने का मौक़ा ही नहीं मिला – लगातार कोई न
कोई काम निकल आता, उसे झकझोर के उठाते, काम देते, कभी-कभी गुस्सा भी करते:
“
ये तू ऐसा फूला हुआ क्यों बैठा है?! बच्चे की ख़ूब देखभाल करनी पड़ती है. तेरा ही तो
बच्चा है ना?!”
आर्तेम गहरी साँस लेता, आँखें मलता और
“बच्चे की ख़ातिर” पानी लेने जाता, धुले हुए कपड़े रस्सी पे डालता, लकड़ियाँ घसीट कर
घर में लाता, आँगन की बर्फ साफ़ करता.
जब माँ-बाप आते और “रोदिओन्चिक’ को देखकर
ख़ुश होने लगते तो आर्तेम चिड़चिड़ाने लगता, किसी बात से शरमाता – हो सकता है, उसे
जलन भी होती हो...नन्हे के प्रति उसके मन में असंतोष और सतर्कता के अलावा कोई और
भावना नहीं थी; जब शाम को बीबी और सास मिलकर उसकी मालिश करने लगतीं, तो वह मुँह
फेर लेता, पेट में मिचली होने लगती.
“मुँह क्यों बना रहा है?” गिओर्गी स्तेपानोविच
उसका हौसला बढ़ाता. “ख़ुद भी ऐसा ही था. हे-हे. एकदम तेरे जैसा है. बिल्कुल
आर्तेम्का.”
हमेशा इस बात की याद दिलाना, कि बच्चा उसीका
है, कुछ शक पैदा कर रहा था. हाँ, उन हफ़्तों में, जब वाल्या गर्भवती हुई थी, वे
क़रीब-क़रीब हर शाम एक दूसरे के पास ही होते थे, मगर दिन का अधिकांश समय एक दूसरे से
नहीं मिलते थे. उसकी बात तो ठीक है, मगर वो – छोकरे कहते थे, और तात्याना दादी भी
कहती थी – कि घूमती ही रहती थी. हो सकता है कि उन हफ़्तों में भी घूमती रही हो. दिन
में किसी स्थानीय लड़के के साथ, और शाम को – उसके साथ...और फिर, वो, ये तय कैसे
करते हैं कि बच्चा किसके जैसा है, किसके जैसा नहीं है? चेहरा झुर्रियों भरा,
लाल-लाल, नाक तो दिखाई ही नहीं देती है, न होंठ, न ठोढ़ी; धड़ तो लारवा की याद
दिलाता है, हाथ और पैर ऐसे हैं जैसे नली वाला सॉसेज. पैरों के बीच में छोटी सी
पिन. आँखें उदास, ग़ौर से देखती हुईं, मगर नज़र अजीब सी है, पुतलियाँ विभिन्न दिशाओं
में घूमती हैं.
“वाल्,” आर्तेम से रहा नहीं गया, “ये, क्या,
भेंगा है?”
“तू
ही भेंगा है! बहुत सारे नवजात बच्चों की आँखें ऐसी ही होती हैं. समझ में आया?
भेंगा...ऐसा कहने की हिम्मत न करना. समझे?”
“समझ गया.”
सबसे ज़्यादा आहत और हैरान करता था बीबी का
रूखा व्यवहार. उसके हर सवाल पर ऐसी ही प्रतिक्रिया होती थी. जैसे वह बात नहीं करती
थी, बल्कि शब्दों के घाव देती थी. निकटता तो उनके बीच कब से नहीं थी. अब आर्तेम का
दिल भी नहीं चाहता था. वह सिर्फ तनहाई चाहता था.
रोदिक के साथ एक ही कमरे में सोते थे. पतली
दीवार के पीछे वाल्या के माँ-बाप खर्राटे लेते रहते, किचन की बेंच पर पड़ी रहती
अनिद्रा से तड़पती बुढ़िया, सास की माँ. अगर रात को कभी भूले से भी आर्तेम बीबी को
छू लेता, तो वह घबराकर गुस्से से फुसफुसाती:
“क्या कर रहा है?! बच्चे को जगा देगा. बाद में,
शनिवार को बाथ-हाऊस में जाएँगे...”
“गुलाम ने अपना काम कर दिया है,” – आर्तेम ने न
जाने कौनसी बार सोचा, “मनचाहा खिलौना पैदा कर दिया, अब उसे वापस भेजा जा सकता है.”
इस बात का पता चलते ही कि तात्याना दादी
गायब हो गई है – शाम को अपनी दोस्त के यहाँ गई और वापस नहीं लौटी, और इस बात को
हुए हफ्ता बीत चुका है - वह अक्सर अपने माँ-बाप के यहाँ जाने लगा. खाली हो चुके
पलंग पर सो जाता. माँ को दुख हो रहा था. वह डिस्ट्रिक्ट पुलिस इन्स्पेक्टर के पास
गई, गुमशुदा इन्सान के बारे में रिपोर्ट
लिखवाई. डिस्ट्रिक्ट पुलिस इन्स्पेक्टर ने सड़क का चक्कर लगाया, पड़ोसियों से कुछ
पूछा और इत्मीनान से बैठ गया. जब माँ की परेशानी बदहवासी में बदलने लगी, तो बाप ने
घुड़की देते हुए कहा:
“अब
किया क्या जाए? क्या बर्फ के टीलों को खोदा जाए? जब लोगों को मौत की आहट सुनाई
देने लगती है, तो वो कहीं भाग जाना चाहते हैं. और, शायद, उसे भी... यहाँ वो इतनी पस्त
हो गई थी, और हमें भी सताती थी.”
“मगर फिर भी...”
“क्या – फिर भी? क्या- - -?” बाप को गुस्सा आ
गया. “अगर ठण्ड़े दिमाग़ से सोचा जाए, तो ख़ुदा की मेहेरबानी समझो, जो ऐसा हो गया.
अगर कुछ दिन और ऐसा चलता रहता तो हम लोग पागल हो जाते...और, कम से कम अब आर्तेम तो
चैन से सोएगा.”
धीरे-धीरे माँ ने भी परिस्थिति से समझौता कर
लिया. बुढ़िया के ग़ायब होने के दो सप्ताह बाद किचन में कुछ साफ़-सफ़ाई का काम शुरू
किया. उसने दादी की दवाईयों वाली शीशियाँ फेंक दीं, पलंग के सिरहाने टंगा हुआ रूई
का जैकेट निकाल दिया, दीवार से घड़ी हटा दी, बर्तनों वाली अलमारी से सब रद्दी सामान
निकाल दिया...और एक महीने बाद, नए साल से कुछ पहले, बुढ़िया के बारे में वे लोग
बिल्कुल भूल ही गए, वैसे भी उसके बारे में याद करने लायक ज़्यादा कुछ था भी नहीं.
उसकी गंध भी ग़ायब हो गई. गाँव में हो रही घटनाओं ने भी उसे भुलाने में काफ़ी मदद
की. अचानक यूर्का की बीबी के सपनों में उसका पति आने लगा. सही कहें तो – पहले वो
अपने दोस्त और हमप्याला वान्का कलाशोव के सपने में आया, और उसके बाद ल्युदमिला के
सपने में. सपने सीधे-सादे नहीं थे, और वान्का और ल्युदमिला गाँव में घूम-घूमकर इन
सपनों के बारे में बताते और फिर लोगों की राय पूछते. एक बार आर्तेम ने उन्हें अपने
माँ-बाप के यहाँ देखा.
“मैं यूँ सो रहा था,” आँखों को डरावनेपन से
घुमाते हुए, जैसे ये अभी-अभी हुआ हो, वान्का ने कहा, “वैसे, शाम को मैंने थोड़ी ले
ली थी...तो, मैं सो रहा हूँ. और वो – धम् – अपने कब्रिस्तान में जा रहा हूँ, देखता
क्या हूँ कि यूर्का की कब्र से ऊँचे वाले जूते बाहर झाँक रहे हैं. ऊँचे वाले नहीं,
बल्कि वो...”
“उन्हें स्नीकर्स कहते हैं,” यूर्का की
विधवा ने कहा. “याद रखना चाहिए.”
“तो, आहा...और यूर्का की आवाज़ सुनाई दी, “वान्,
ल्यूद्का से कहना कि मुझे दूसरे जूते पहनाए. मुझे ये स्नीकर्स अच्छे नहीं लगते,
मैं इन्हें पहनने से हमेशा इन्कार करता था, उसने मुझे इन जूतों में क्यों दफ़नाया?”
नींद में मेरी पतलून गीली होते-होते बची. उठा, तो पूरा गीला था, अंधेरे में आँखें
फ़ाड़े पड़ा रहा. और सपना ऐसा, जैसे सचमुच
में सब... सुबह तक आँख नहीं लगी, और सुबह ल्यूद्का के पास भागा और उससे सारा हाल
कह दिया.
“और
अगली रात,” – यूर्का की विधवा ने बात आगे बढ़ाई, “मुझे भी वही सपना आया. बस, उसमें
मैं ख़ुद कब्रिस्तान में जा रही थी. और हर बार, जैसे ही आँख लगती है, वही दुहराया
जाता है. नहीं, मैं झूठ नहीं कह रही हूँ,” एल्तिशेवों की नज़रों की ओर देखते हुए
आगे बोली, “नहीं. ये दूसरी बात है...होता है कभी-कभी. टी.वी. पर भी इस बारे में
कितना दिखाते हैं...मैंने पाँच साल पहले उसके लिए स्नीकर्स ख़रीदे थे, शहर गई थी,
वहाँ बाज़ार में दिखाई दिए. कीमत भी कम थी, देखने में – अच्छे ही थे, और, ख़रीद लिए.
मगर वो...यूरी – पहने ही नहीं. स्टोर-रूम में फेंक दिए: “बेटे बड़े होंगे, उन्हें
ही पहनाना.” और अब...जब उसे दफ़ना रहे थे,” उसकी आवाज़ आँसुओं से भीग गई, मगर ल्यूदा
ने अपने आप पर काबू किया, रोई नहीं, “जब दफ़ना रहे थे, तो मैंने ही उन्हें पहनाने
का फ़ैसला किया...दूसरे कोई जूते थे नहीं, और ये वाले तो नए ही थे, ज़रा भी पहने
नहीं गए थे. और अब...उस दुनिया में भी...अब वह...वहाँ से...” आख़िर वह रो ही पड़ी,
फुसफुसाते हुए माफ़ी मांगी, रूमाल से आँखें पोंछने लगी, आँसू गटकते हुए हिचकियाँ
लेने लगी. “मुझे चैन नहीं लेने दे रहा है, पागल बना रहा है.”
“तो मैंने और ल्यूद्का ने.” वान्का कलाशोव
ने धीमी, आत्मविश्वास भरी आवाज़ में कहना शुरू किया, “और लोगों से भी सलाह-मशविरा
किया...क्या ये, मुर्दे को बाहर निकालना, करवा सकते हैं? फिर, उसे दूसरे जूते पहना
देंगे. कैसा रहेगा? आख़िर, ज़रूरत हो, तो करते ही हैं. हम मैनेजर के पास गए थे, वो
सिर्फ हँसता है, हाथ हिला देता है. उसे अगर ऐसा सपना आता – तो फिर मैं देखता. सबसे
पहले मैं ही फ़ावड़ा लेके भागता...”
“आप क्या सलाह देते हैं?” कुछ शांत होने के
बाद, यूर्का की विधवा ने उसकी बात काटी. “आप सब विद्वान लोग हैं. क्या ऐसा कर सकते
हैं? वो तो मुझे पागल बना देगा. हर रात...और फिर, मेरे घर में बच्चे हैं, अगर मैं
पागलखाने चली गई तो उनकी देखभाल कौन करेगा...क्या संभव है?”
बाप ने, मुस्कुराहट दबाते हुए, कंधे उचका
दिए:
“सैद्धांतिक रूप से – संभव है. मगर मुर्दे को
कब्र में से बाहर निकालने के लिए कोई ठोस कारण होना चाहिए...मतलब, सपने से ज़्यादा
दमदार.”
“क्या अभी चालीस दिन नहीं हुए?” माँ ने पूछा.
“कहते हैं कि जब तक चालीस दिन नहीं गुज़र जाते, मरा हुआ इन्सान, ज़िन्दा लोगों के बीच
ही मौजूद होता है.”
“कहाँ के चालीस दिन!” वान्का की आँखें फिर से
गोल-गोल हो गईं. “तीन महीने पूरे होने वाले हैं.”
“हुम्.” बाप उठा, भट्टी से सिगरेट ली, कश लगने
लगा. “मेरा ख़याल है एक एप्लिकेशन लिखना होगा. किसके नाम पे, ..शायद, प्रॉक्युरेटर
के नाम पे.” आर्तेम देख रहा था कि बाप यूँ ही अंधेरे में तीर छोड़ रहा है, उसे ख़ुद
भी नहीं मालूम कि इस मामले में क्या करना चाहिए.
“या, बेहतर है,” माँ ने उसकी बात काटते हुए
कहा,” चर्च में जाना. मोमबती जला दो.”
बाप ने फ़ौरन हाँ में हाँ मिला दी:
“व्वो-व्वो! फ़ादर से सलाह करनी होगी. उनके पास
तो अनुभव है.”
“हाँ, चर्च में जाना चाहिए,” यूर्का की विधवा ने
बूढ़ियों जैसे अन्दाज़ में गर्दन हिलाते हुए कहा. “अच्छा, धन्यवाद...”
“उसकी उम्र है सिर्फ पैंतीस साल,” आर्तेम ने
सोचा, “हो सकता है, थोड़ी सी ज़्यादा हो. देखने में भी ठीक-ठाक है, हालाँकि इतने
सारे बच्चे हैं, पति के साथ...और खारिना भी – सोच भी नहीं सकते कि उसने पाँच-पाँच
बच्चे जने हैं.” पेट के निचले भाग में अचानक तनाव महसूस हुआ, औरत की चाहत होने
लगी. वह मुड़ा, दिखाने के लिए उबासी ली. सोना चाहिए, जिससे सुबह पत्नी और सास के
आदेशों का पालन करने के लिए कुछ ताक़त आ जाए.
पहले तो माँ-बाप पोते के लिए पैसे खर्च करने
में कंजूसी नहीं करते थे. आर्तेम को भी पैसे देते, पूछते भी नहीं थे कि किसलिए
चाहिए. उनका कुछ हिस्सा आर्तेम अलग से रख लेता, अपनी चीज़ों के बीच में छुपा देता,
बचे हुए पैसों से, पहले की तरह, खाने-पीने का सामान ख़रीदता, गाँव वाली दुकान से
नहीं. थोड़ा-बहुत वाल्या को दे देता – परिवार के बजट के लिए...
नया साल दोनों परिवारों ने मिलकर मनाया .
शुरूआत रिश्तेदारों जैसे अंदाज़ में हुई, जोश भरी गर्माहट के साथ, एक दूसरे को शुभ
कामनाएँ दीं कि आने वाले साल में सब कुछ बेहद अच्छा हो. ‘नए इन्सान’ के आने की ख़ुशी
मनाई. मगर फिर छक कर पी लेने के बाद, बड़े एल्तिशेव और त्यापोव बच्चों के भविष्य की
प्लानिंग करने लगे. ये प्लान्स और सपने जल्दी ही बहस में बदल गए, और बहस – झगड़े
में.
“हाँ, हमारे ही यहाँ डोलता रहता है!” माँ ने
क़रीब-क़रीब चिल्लाकर समधन के तानों का जवाब दिया. “नहीं तो और क्या करे?! कितनी
ख़राब हालत में था. आप लोग यहाँ उसके साथ क्या करते हो, मालूम नहीं...”
“उसके साथ कुछ भी नहीं करते हैं,” वैसी ही
ऊँची आवाज़ में समधन ने जवाब दिया. “छोटे बच्चे की देखभाल तो, बेशक, करनी ही पड़ती
है. और अगर उसे आदत है...”
“उनके पास अपना घर होना चाहिए, अपना, अलग से. वहाँ
उन्हें जो चाहे करने दो,” बीबी की बात काटते हुए गिओर्गी स्तेपानोविच ने कहा और
फ़ौरन उसे बाप से जवाब मिल गया:
“चलो फिर, बनाते हैं! मैंने शुरूआत तो की थी,
मगर कहीं से कोई मदद नहीं मिलती. क्या मुझ अकेले को उसकी ज़रूरत है?”
“जैसे कि आप उसे सिर्फ वाल्या और आर्तेम के ही
लिए बनाने वाले हैं!” समधन ठहाका मारने को तैयार थी. “पहले ख़ुद ही उसमें घुसोगे.”
“आपको उससे क्या मतलब है?! मैं बड़ा घर बनाऊँगा,
सबके लिए काफ़ी होगा.”
“आहा!...”
कमरे में रोदिक रोने लगा.
“देखा,” वाल्या उछली. “धीमी आवाज़ में बातें
करें? ये आप लोग तैश में क्यों आ गए?”
आर्तेम के माँ-बाप उठने की तैयारी करने लगे:
“चलिए, बैठे...नया साल मनाया...”
“तू
रुकेगा?” बाप ने कठोरता से पूछा.
आर्तेम ने अपराध भाव से सिर हिला दिया.
“ख़ैर, जैसी तेरी मर्ज़ी. गुड़ लक.”
माँ-बाप चले गए. गिओर्गी स्तेपानोविच गहरी
साँस लेते हुए बिस्तर पे लुढ़क गया. वाल्या रोदिक के साथ लगी रही. समधन उदासी से
मेज़ साफ़ करने लगी.
“फटीचर हैं तेरे माँ-बाप,” वह बुदबुदाई. “अगर
पहले मालूम होता...सोचा, शहर वाले हैं...”
“सुनिए!” आर्तेम को गुस्सा आ गया. “मेरे माँ-बाप
के बारे में कुछ कहने की हिम्मत न करना! “ह-हा, छोकरे को फँसा लिया, बाथ-हाऊस वाले
कमरे में घसीट लिया, और अब मैं आपका गुलाम हो गया हूँ. दिल भी लगाया तो किससे...
घिन आती है!”
समधन हाथों में प्लेटें लिए मानो जम गई,
अविश्वास से आँखें फाड़ कर उसे देखने लगी. मगर, जल्दी ही संभल गई, प्लेटें रख दीं,
आँखें सिकोड़ते हुए जल्दी-जल्दी फुफकारने लगी:
“तो
क्या, तेरी आरती उतारें?! शरम आनी चाहिए तुझे, अपने बच्चे के लिए पानी लाने में
तकलीफ़ होती है! और तेरे लिए पकाने में, तेरे कपड़े धोने में हमें तकलीफ़ नहीं
होती?!”
वह और भी कुछ कुछ बोलती रही, बोलती रही;
कमरे से किचन में चक्कर लगाते हुए बेटी उसे शांत करने की कोशिश कर रही थी, नशे में
ऊँघते हुए ससुर ने चीखकर कुछ कहा...
आर्तेम को इस तूफ़ान के बाद एकदम हल्का महसूस
होने लगा, और वह समझ गया कि यही समय है रिश्ते तोड़ने का. आठ महीनों से, गर्मियों
के मौसम से, कुछ भी ठीक नहीं था. क़रीब-क़रीब शादी के तुरंत बाद से ही – बीबी का
ठण्डापन, सास के ताने, ससुर का पीना-पिलाना, अपने आपको यहाँ आश्रित-गुलाम महसूस
करमा...
“भाड़ में जाओ,” उसने हाथ झटक दिया.
उसने ओवरकोट पहना, कैप पहनी, मुड़े-तुड़े
लम्बे जूतों में पैर घुसाए. सड़क पर निकलते हुए सोचा: “कुछ छोड़ा तो नहीं?” याद करने
की कोशिश की. “नहीं, कोई महत्वपूर्ण चीज़ नहीं छोड़ी.”
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