अध्याय – 25
पूरा अगस्त
मशीनों का शोर-शरावा चलता रहा, सिमेंट-कॉंक्रीट मिक्सर की घड़घड़ाहट, क्रेन की
चरमराहट, क्लब के निर्माण स्थल पर मज़दूरों की चिल्लाहट. क्लब ही बनाया गया, चर्च
नहीं बना.
ऐसा लग रहा था
जैसे काम बहुत जल्दी में हो रहा हो, मगर बारिश आने तक सिर्फ दीवारें ही बन पाईं,
और इसके बाद मशीनों समेत सब ग़ायब हो गए. आधे बने क्लब में छोकरे युद्ध का खेल
खेलने लगे, और बड़े – चुपके से जंगल से बचे हुए लकड़ी के फट्टे घसीट-घसीट कर ले जाने
लगे.
“भागो-भागो,” कभी-कभी निकोलाय मिखाइलोविच अपने
गेट से फट्टे ले जाते हुए लोगों के पीछे चिल्लाता, “चोर!”
...अलसाते हुए,
बामुश्किल एल्तिशेवों ने अपनी फसल इकट्ठा की. आलू खोदकर निकाला, मूली, शलजम, गाजर
खींच-खींच कर तोड़े. मौसम ने साथ दिया – सूखा और साफ़ रहा. अच्छी तरह आँगन में सब
कुछ सुखाया, नीचे तहख़ाने में रख दिया.
वलेन्तीना ने
कई डिब्बे भर के खीरे का और टमाटर का अचार बनाया, लहसुन की चोटी बनाई. गोभी का अचार
बनाया. निकोलाय मिखाइलोविच काफ़ी समय गार्डन में बिताता. मगर ज़्यादातर बालटी पर
बैठकर सिगरेट पीता रहता.
हवा इन दिनों
ख़ास तौर से पारदर्शी और स्थिर थी, जैसा कि प्रकृति के नियमानुसार आरंभिक पतझड़ में
होती है. धरती इत्मीनान से, ख़ामोशी से अपने आप को ठण्ड के लिए, सर्दियों के लिए
तैयार कर रही थी. बर्च के पेड़ों से पीले पत्ते टूट-टूटकर हौले-हौले उड़ रहे थे,
हल्की सी सरसराहट के साथ सूखी घास पे पहले गिर चुके अपने भाई-बंधुओं के ऊपर गिर
रहे थे. घास-पात अपने बीज गिरा रहे थे, जिनमें से कुछ अप्रैल में और कुछ पूरी
गर्मियों में फूलेंगे, जिससे कि इन सभी अनावश्यक, नुक्सानदायक पौधों का, जिन्हें
नष्ट नहीं किया जा सकता, अस्तित्व जारी रख सकें.
हल्की हवा
सूरजमुखी के सूखे, कागज़ जैसे पत्तों को सहलाती, और तब एक उनींदी, कुछ डरावनी-सी खरखराहट पैदा होती...शाम को कौए उड़ना शुरू
करेंगे, आत्मा को चीरते हुए, दुखभरी आवाज़ में चिल्लाएँगे.
निकोलाय
मिखाइलोविच उठा, फ़ावड़ा लिया और गाजर वाली क्यारी खोदने लगा. वलेन्तीना परसों ही
उसे टटोल चुकी थी, जितना संभव था उतने तने उखाड़ चुकी थी, मगर ज़मीन के नीचे अभी भी
बहुत कुछ बचे थे. निकोलाय मिखाइलोविच ने फ़ावड़े की नोक ज़मीन के अन्दर घुसाई तो उसे
काटे जा रहे गाजरों की चरमराहट, सुनाई तो नहीं दी, मगर महसूस हुई. शैतान ले जाए, जैसे
किसी की ऊँगलियाँ रेत रहे हो. और याद आया, कैसे चरमराईं थीं खारिन की रीढ़ की
हड्डियाँ...निकोलाय मिखाइलोविच ने फ़ावड़ा फेंक दिया, फिर से उल्टी रखी हुई बाल्टी
पर बैठ गया.
शाम को काफ़ी
ताज़गी महसूस होती थी, हवा नमी से, मिट्टी की गीली, सोंधी ख़ुशबू से सराबोर हो रही
थी. तालाब से नमी और गीलेपन की लहरें आ रही थीं, साथ ही सुअर वाले खाद की तीखी बू
भी लहरों की ही तरह आ रही थी. जैसे सुअरों के किसी बाड़े में बार-बार पंखा बन्द और
चालू कर रहे हों. कभी-कभी तो बदबू इतनी तेज़ होती थी कि नथुनों में सुरसुराहट होने
लगती, छींकने को जी चाहता.
सितम्बर के
आरंभिक दिनों में, जैसे, कैलेण्डर के मुताबिक, पतझड़ के मौसम के आगमन की पुष्टि
करते हुए, कई दिनों के लिए रूह को बेचैन करने वाली बारिश की झड़ी लग गई.
टी.वी. का
प्रसारण बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होता था – चैनल नं. 1 पर भी एकदम कचरा दिखाई दे रहा
था, लोगों के चेहरे समझ में नहीं आते थे. साऊण्ड जैसे तैर रही थी, कभी बिल्कुल
मन्दी तो कभी एकदम ऊँची हो जाती थी.
“चलो, एन्टेना खरीदेंगे,” आखिरकार बीबी से
बर्दाश्त नहीं हुआ, “दुकान में चार हज़ार में मिल रहा है.”
“क्या फ़ायदा है...” निकोलाय मिखाइलोविच ने हाथ झटक
दिया; उसे टी.वी. में दिलचस्पी कम थी, और अगर वह कभी स्क्रीन पर देख भी रहा होता
तो वहाँ क्या चल रहा है इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देता था: दिमाग़ में विचार घूमते
रहते, धुंधले, आकारहीन, मगर पीछा न छोड़ने वाले.
वलेन्तीना ने
ज़िद पकड़ ली, वह मांग करने लगी, मगर मांग वह एन्टेना की इतनी शिद्दत से नहीं कर रही
थी, जितना इस बात की कि आत्म विश्वास न खोया जाए:
“मुँह लटका कर बैठने की कोई ज़रूरत नहीं है! इस
तरह भावुक होना...तुम ही ऐसे हाथ-पैर छोड़ दोगे तो फिर मैं क्या करूँगी?! मैं तो अब
ज़िन्दगी भर के लिए डिसएबल्ड हो गई हूँ. क्या तुम समझ सकते हो कि डाइबिटीज़ का मतलब
क्या होता है?! हर पल उसके बारे में सोचना पड़ता है. मगर जीना तो पड़ेगा ही, जीना!
चलो, ये एन्टेना लाने चलते हैं, वर्ना तो बिल्कुल...जैसे कब्र में पड़े हों...”
और एल्तिशेव
दुकान की ओर चल पड़ा.
एन्टेना बहुत
बड़ा था, रडार की याद दिला रहा था, मगर हल्का था. उसकी ख़ास बातें थीं – सेट-टॉप
बॉक्स, रिमोट-कन्ट्रोल, और केबल. एन्टेना के साथ मैकेनिक का नम्बर भी दिया गया.
जब तक मैकेनिक
को फोन किया (उसका सर्विस-चार्ज था चार सौ रूबल्स), जब तक उसका इंतज़ार किया, जब तक
एन्टेना-रडार को फिक्स किया गया, कॉटेज की दीवार में केबल जाने के लिए छेद किया और
प्रोग्राम्स एडजस्ट किए, पता ही नहीं चला कि कितने दिन बिना तनाव के बीत गए.
उसके बाद, फिर
से बीबी की ज़िद पर निकोलाय मिखाइलोविच पहले बाथ-हाऊस की (“डेनिस आएगा – यहाँ पर वो
नहाएगा कैसे? ये तो खण्डहर है, न कि बाथ-हाऊस”), और फिर कार की मरम्मत में जुट
गया. नई बैटरी ख़रीदनी पड़ी, दो दिन कार के नीचे घुसकर काम करना पड़ा. मगर – कोई
फ़ायदा नहीं हुआ. एल्तिशेव ने काम आधा ही छोड़ दिया:
“मैं कोई मैकेनिक नहीं हूँ.”
“फिर लकड़ियों का क्या?” रोनी आवाज़ में बीबी ने
पूछा. “सर्दियों के आने में बस एक महीना ही बचा है!”
“भूसे की मशीन खरीदेंगे. बड़ी सस्ती मिलती है.”
“उससे कहाँ की गर्मी मिलेगी? कोयले तो बिल्कुल
नहीं हैं...”
“बस! बस, बहुत हो गया! कोई जम नहीं जाएँगे.
डेनिस आएगा, तब तय करेंगे.”
सत्रह तारीख का
इंतज़ार करते रहे. सत्रह की पूर्व संध्या पर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना शहर गई,
ख़ाने-पीने का काफ़ी सामान ख़रीदा, मार्केट में कम नमक वाली ग्रेलिंग मछली ख़रीदी,
कोन्याक की बोतल भी ली. साथ ही डिसएबिलिटी के आधार पर पेन्शन के केस पर भी काम करती
रही (यह पूरी प्रक्रिया महीने भर से भी ज़्यादा चली).
उत्सव की मेज़
बिना सजाए, क्षीण-सी आशा लिए सत्रह और अठारह तारीख बिताई; फिर, बार-बार आहट सुनते
हुए, खिड़की से बाहर, फेन्सिंग के पार देखते हुए और दो दिन गुज़ारे. इक्कीस तारीख को
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना फोन करने के लिए पोस्ट-ऑफ़िस जाने ही वाली थी, मगर पति ने
उसे कुछ और इंतज़ार करने के लिए मनाया:
“अभी इसमें-उसमें लगा होगा, शायद, शहर में
दोस्तों के साथ...घूमने दो थोड़ा.”
मगर वह ख़ुद
जैसे काँटों पर बैठा था: कई बार भाग कर गेट की तरफ़ भी गया – ऐसा लगा कि कोई खटखटा
रहा है, मगर वहाँ कोई नहीं था. स्प्रिट के ग्राहकों ने उसे पहले कभी इतना गुस्सा
नही दिलाया था – पहले तो वह हरेक को वापस आया हुआ बेटा समझ रहा था.
बाईस तारीख को,
सुबह वाली बस के बाद, बीबी पोस्ट-ऑफ़िस चली ही गई. वापस लौटी तो परेशान थी.
“क्या हुआ?” एल्तिशेव डर गया. “क्या छूटा नहीं?”
“हाँ, छूट गया. बोले कि चला गया...”
“मगर कहाँ?”
“कहाँ क्या – घर, ऐसा उनसे कहा. मैंने कहा कि
नहीं आया, मगर वो मज़ाक करने लगा: बोला, बड़ा है
आपका बेटा, अब हम तो उसकी देखभाल नहीं कर सकते.”
“शैतान ले जाए,
उससे मिलने जाना चाहिए था. क्या नहीं होता...पाँच साल वहाँ रहा, उसकी मानसिक हालत
इस समय...”
“ख़ुदा के लिए, तुम डराओ मत! तो...”
“बस,
बस, बस,” निकोलाय मिखाइलोविच ने बीबी को अपनी बाँहों में ले लिया. “इंतज़ार करेंगे.
सब कुछ ठीक हो जाएगा.”
... डेनिस
पच्चीस तारीख़ की दोपहर को आया. सफ़ेद विदेशी ब्राण्ड की कार में आया. बाहर निकला,
बदन को सीधा किया, चारों ओर देखा, अंगड़ाई ली.
“तो,” ज़ोर से ड्राईवर से बोला, “पाँच का नोट रख
ले,” और गेट से भाग कर आए माँ-बाप से मिलने के लिए आगे बढ़ा.
उन्होंने एक
दूसरे का आलिंगन किया, माँ की आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे, जो किसी भी सवाल का
जवाब नहीं चाहते थे...
निकोलाय
मिखाइलोविच ने चार साल से बेटे को नहीं देखा था – बस, एक बार उससे मिलने गया था,
फिर नहीं जा सका: डेनिस को क़ैदियों के काले यूनिफॉर्म में देखना, उस बिल्डिंग के
डरावने निर्माण को, वहाँ के अनुशासन को
देखना, अपने आप को - मिलिशिया के कैप्टेन को - भी क़ैदी समझना, बर्दाश्त के बाहर
था. अगली मुलाक़ात पर बीबी को अकेले भेज दिया; आर्तेम तो कभी भी भाई से मिलने नहीं
गया, उसने इच्छा ही नहीं दिखाई.
हाँ, इन सालों
में बेटा बहुत बदल गया था, एक छोकरे से बदल कर मज़बूत, अपना महत्व समझने वाले मर्द
में परिवर्तित हो गया था. शांत हो गया था, मगर उसमें गहरा आत्मविश्वास नज़र आ रहा
था.
“कोई बात नहीं,
माँ,” रोती हुई वलेन्तीना को सहलाते हुए बोला, “कोई बात नहीं, हम फिर से उठ खड़े होंगे. ख़ास बात ये है कि हम ज़िन्दा हैं.” मगर,
ज़ाहिर है, आर्तेम को याद करके खाँसने लगा: “ ख्म्... भाई को यहीं दफ़नाया है?”
“हाँ,” निकोलाय मिखाइलोविच ने सिर हिलाया, “और
कहाँ दफ़नाते.”
“नहीं, शहर में, हो सकता है...कोई बात नहीं, हम
यहाँ से बाहर निकलेंगे. यहाँ बस ख़ाली कॉटेज रहेगी. क्वार्टर खरीदेंगे. मैंने पता
किया है, दो कमरों वाले क्वार्टर की कीमत आठ लाख है.”
“रूबल्स?”
“हाँ.”
निकोलाय
मिखाइलोविच ने दिमाग़ पर ज़ोर दिया – वैसे इतना ज़्यादा भी नहीं है. सिर्फ आठ सौ चटख़
नीले हज़ार-हज़ार के नोट. मगर, वो आएँगे कहाँ से? और वह ज़ोर से बोला:
“मगर इतने पैसे आएँगे कहाँ से? यहाँ तो पैसे
पैसे को तरसना पड़ता है...”
“मिल जाएँगे, कमाएँगे.”
मेज़ पे बैठे.
वलेन्तीना, आँसू पोंछते हुए, बेटे के सामने कभी एक तो कभी दूसरी प्लेट सरकाती जा
रही थी:
“खा. मैंने सत्रह तारीख़ के लिए ही सब कुछ ख़रीदा
था, तेरी राह देखते रहे, देखते रहे...आख़िर इंतज़ार पूरा हुआ.”
“ग्रेलिंग ले,” निकोलाय मिखाइलोविच ने भी मछली
की प्लेट बढ़ाई, “गंध आने लगी है, है ना, मगर स्वादिष्ट है. बहुत सारे लोगों को
गंधाती मछली ही पसन्द है.”
“ग्रेलिंग, ये हुई न बात.” डेनिस खा रहा था, मगर
लालचीपन से नहीं, बल्कि स्वाद ले-लेकर खा रहा था. “यहाँ नदी है? कौन सी मछली मिलती
है?”
“यहाँ कहाँ से होने लगी मछली...तालाब में
छोटी-छोटी मछलियाँ हैं. मैं मछली नहीं पकड़ता...”
“और, वो, आर्तेम्का का बेटा है ना?”
“है ना.”
“कैसा है? बीबी...उसकी विधवा, कैसी है?”
वलेन्तीना ने
दुख से निःश्वास छोड़ा:
“बेटा, हमारी उनसे कोई बातचीत नहीं है. मैंने
तुझे बताया नहीं, लिखा भी नहीं, मगर उसके कारण, उसीके कारण ये सब हुआ. आर्तेम को
जाल में फंसाया, शादी की...”
“और, कहते हैं, कि वह ख़ुद ही बदचलन है,” निकोलाय
मिखाइलोविच ने पुश्ती जोड़ी, जिससे जल्दी से इस विषय को समाप्त करे, मगर बीबी रोनी
आवाज़ में अपनी कथा बाँचे जा रही थी:
“और उसके माँ-बाप...आर्तेम को अपने घर में रख
लिया, जैसे उनका नौकर बन गया था वो. हमारे पास कभी-कभार आता था, घर बनाने का काम,
जैसे शुरू हुआ था, वैसे ही...तूने ख़ुद ही देखा. उसे पैसों के लिए यहाँ भेजते थे और
कहते थे कि फ़ौरन वापस आए. ख़ैर उन्हें भी इसका फल मिल गया. सुना है, कि मर्द
बिल्कुल पागल हो गया है. बिल्कुल ‘पल्प’ की तरह हो गया है. इसमें अचरज की कोई बात
भी नहीं है – बीबी हमेशा उसके सिर पे मारा करती थी. एक बार मारा ज़ोर से और बना
दिया ‘पल्प’ - अब चम्मच से खिलाना पड़ता है.”
“मगर पोते को...” डेनिस ने ज़ोर देकर कहा, “किसी
तरह...जिससे अपने घर के लड़के के रूप में बड़ा हो.”
“क्या उनकी ख़ुशामद करने जाएँ?” निकोलाय
मिखाइलोविच गंभीर हो गया. “मुझे तो यहाँ किसी से भी किसी तरह का संबंध रखने की
इच्छा नहीं है. सब नीच हैं, लालची हैं... सिर्फ, चोर.” बची हुई कोन्याक जामों में
डाल दी. “यहाँ माँ बीमार हो गई, सीधे गिर ही पड़ी – बेहोश हो गई, उसे अस्पताल ले
गया. वापस लौटा तो देखता हूँ कि घर का ताला टूटा पड़ा है, कुछेक चीज़ें चुरा कर ले
गए...कुछ दिनों बाद – फिर से वही. इसके बाद तो अक्सर चोरियाँ करते रहे, जब हम सो
रहे थे, ‘मस्क्विच’ का सामान पार कर दिया.
“ठीक है, पापा,” डेनिस ने विश्वासपूर्वक साँस
छोड़ी, “प्रॉब्लेम्स भगा देंगे. सब ठीक कर लेंगे. तो, मतलब की बात ये है, कि अब, इन
सब ‘हैमोराईड्स’ के बाद, और इन सब, बेशक, दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद, हमारे
जाने का वक़्त आ गया है.”
“हाँ, बिल्कुल आ गया है...”
जाम खाली कर
दिए. निकोलाय मिखाइलोविच ने फ्रिज से स्प्रिट की बोतल निकाली.
“चलो, अब कुछ देर का ‘पॉज़’ लेते हैं.” बेटा उठ
गया, किचन में घूमने लगा; लकड़ी का फ़र्श चरमराने लगा, मगर अब, जैसे, कुछ आदरपूर्वक,
आराम से चरमरा रहा था, जैसे कि वह असली मालिक के पैरों के नीचे हो.
बगल वाले कमरे
में देखने पर उसे दीवार से टंगी गिटार दिखाई दी.
“ओ, हमारी पुरानी गिटार,” उसे उतारा, मेज़ के पास
वापस आया, तार छुए. “सही-सलामत है और कमोबेश सुर में है.”
“गिटार तो सही-सलामत है,” वलेन्तीना
विक्तोरोव्ना हिचकियाँ लेने लगी.
डेनिस ने एक
दुखभरी, धीमी धुन बजाई. फिर गाने लगा:
घर आते ही, चिपकते मुझसे, जैसे मधुमक्खियाँ:
”बोलो, मम्मा, कब आएगा सेर्गेई?...”
चमकते एक आँख़ में आँसू.
वापस आ, बेटा, तू जल्दी.
“ठीक है, पापा, डालो!”
...आया सितम्बर, लिखता है बेटा माँ को:
“राह
न देखना, प्यारी माँ, मेरा इंतज़ार न करना
कैम्प की अदालत ने है सुनाई नई सज़ा मुझको,
ख़तम कर दिया क्योंकि हमने रक्षक दल को ”...
फिर उसने गिटार
को पलंग पर रख दिया, बिना टकराए जाम पी गया, फिर से उठा. मेज़ से भट्टी की ओर आया,
बदन को सीधा किया. निकोलाय मिखाइलोविच बीबी के साथ ख़ामोशी से उसकी ओर देख रहा था,
मन ही मन ख़ुश हो रहा था.
“चलो, थोड़ा घूम कर आता हूँ.”
वलेन्तीना फ़ौरन
सतर्क हो गई:
“अंधेरा हो गया है...”
“ठीक है, माँ, तू भी क्या!” और फिर से गाने लगा:
“जाऊँगा रा-स्ते पे, देखूँगा गाँ-व को!...” जैकेट पहना, हाथ से सैल्यूट किया,
दरवाज़े की नीची चौखट पे सिर नीचा किया, ड्योढ़ी में गया.
उसकी हाथ से ये
सैल्यूट करने की अदा काफ़ी दिनों तक एल्तिशेव की आँखों के सामने ही रही. बाकी सब
निश्चल हो गया...
मगर उस समय वह
बीबी के साथ ख़ामोश मेज़ पे बैठा था. छत से लटकता बल्ब मद्धिम रोशनी फेंक रहा था,
कभी-कभी बेसिन में नल से एकाध बूंद के गिरने की आवाज़ आ जाती थी. कुछ भी कहने का मन
नहीं था, हाँ, और ज़रूरत भी नहीं थी. ताक़तवर, यातनाओं से तपा हुआ, ज़िन्दगी द्वारा
सिखाया हुआ, दु:खों की दिशा को बदलने को तैयार और क़ाबिल बेटा वापस आ गया था. वो
यहाँ है. अब सब ठीक हो जाएगा. बेशक, धीरे-धीरे, मुश्किल तो है, मगर इस गड्ढ़े से
बाहर निकलना शुरू कर देंगे. इन्सानों की ज़िन्दगी में वापस लौट जाएँगे.
निकोलाय
मिखाइलोविच ने थोड़ी और पी, मछली का नाज़ुक टुकड़ा स्वाद से खाया, भट्टी के पास गया.
सिगरेट पी, पहले कश का धुआँ मुँह से दूर तक छोड़ा.
“क्या, मेज़ साफ़ कर दूँ?” बीबी ने पूछा.
“थोड़ी देर रुक जा. हो सकता है, कुछ देर और
बैठें. हमें कहाँ की जल्दी है...तेरे इन्जेक्शन का टाईम तो नहीं हो गया?”
वलेन्तीना ने
घड़ी की ओर देखा.
“ओह, हाँ!” कमरे में भागी. “थैंक्यू, डियर, जो
याद दिलाया.”
“डियर”...इस तरह वह बहुत पहले निकोलाय मिखाइलोविच को बुलाया करती थी, सन् 80
के दशक में. तब छुट्टियों में वे चारों – मियाँ, बीबी और बच्चे – शहर में घूमने के
लिए निकल जाते थे, आर्तेम और डेनिस को पार्क-कुल्तूरी में झूला झुलाते थे, फिर नदी
के किनारे वाले ओपन-रेस्तराँ में खाना खाते थे. कबाब खाते...किसी तरह कबाब का
इंतज़ाम करना चाहिए.
मुश्किल से आधी
पी हुई सिगरेट भट्टी के किनारे पर मसल कर बुझा दी. टुकड़े को एश-ट्रे में डालना
चाहता था, मगर फिर लोहे की जाली के भीतर फेंक दी. “सिगरेट कम करनी होगी. ‘बार्स’
पर कसरत करनी होगी, बाएँ हाथ का पुट्ठा दबाया. “हाँ, पिलपिला हो रहा है.”
“ऐ, घर वालों!”
आँगन में आवाज़ सुनाई दी. “कोई है?”
“कौन है?” इस समय स्प्रिट खरीदने वाले ना हों!
और वैसे भी यह धंधा समेटने का वक़्त आ गया है. पैसे की तो कोई बात नहीं है, मगर
प्रतिष्ठा...
एल्तिशेव बाहर
निकला. अंधेरे में गेट के पास वाली आकृति को ठीक से देख नहीं पाया.
“क्या चाहिए?” उसने अप्रसन्नता से पूछा.
“क्या ये आपका छोकरा पड़ा है वहाँ पर?”
”कौन सा छोकरा?
कहाँ?” और आगे कहना चाहता था: “क्या बकवास कर रहे हो?!” मगर ख़ुद सड़क पर निकल आया.
निर्माणाधीन क्लब
से थोड़ी दूर जेबी टॉर्च की रोशनी घूम रही थी. बिना महसूस किए कि भाग रहा है,
निकोलाय मिखाइलोविच उस ओर मुड़ा. जिस्म में जैसे आग लगी थी, और दिमाग़ में आश्चर्य
कौंध गया: “इतना गर्म क्यों है?”
कोई लड़खड़ाकर
एल्तिशेव से दूर हटा, किसी ने कुछ कहा...निकोलाय मिखाइलोविच घास पर पड़े आदमी के
पास रुका. खड़ा रहा और देखता रहा और कुछ भी नहीं देख पाया. टॉर्च की रोशनी चेहरे पर
जम गई थी. डेनिस. निश्चल परेशानी...रोशनी और नीचे सरकी. सीने में पतली, पेन्सिल
जैसी, स्टील की पिन घुसी थी. निकोलाय मिखाइलोविच ने उसे पहली नज़र में नहीं देखा.
...वह भागने
लगा, बिसूरने लगा, उसे पकड़ा गया, हाथ मरोड़े गए, मारा गया. उसने भी मारा, बिना देखे
कि किसे, कहाँ मार रहा है. फिर उसे घसीटा गया... आँख खुलने पर एक छोटे से कमरे के
खूनी अंधेरे से बाहर आया. कमरा मिलिशिया वालों से भरा था, और सामने, सिविल ड्रेस
में, पहचान वाला जाँचकर्ता था. जिसने कभी उससे पूछताछ की थी.
“मुझे मालूम है कि ये किसने किया है.” भर्राई
हुई आवाज़ में, पीड़ा से एक-एक शब्द तौलते हुए (कनपटियों पर जैसे हथौड़े पड़ रहे थे),
एल्तिशेव ने कहा. “जानता हूँ...”
“किसने?”
“जाओ...” वह उठना चाह रहा था, मगर दो मिलिशिया
वालों ने कंधे दबाकर उसे कुर्सी में सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया. “हाँ, मैं उन्हें
जानता हूँ!”
“क्या ‘प्रूफ’ है?” शांति से जाँचकर्ता ने नया
सवाल पूछा.
“कैसे ‘प्रूफ’?! हैं प...हैं ‘प्रूफ’.”
“हम, बेशक, ऊँगलियों के निशान लेंगे, उसे ढूँढ़
लेंगे. मगर सिर्फ...सिगरेट पिएंगे?” एल्तिशेव ने इनकार करते हुए सिर हिला दिया, और
खोजकर्ता सिगरेट के कश लगाने लगा. “मगर, आप समझ रहे हैं कि हम तहख़ाने से निकाली गई
उस बुढ़िया को भी याद कर सकते हैं. शायद, आपकी आण्टी थी, हाँ? और खारिन को, और आपके
बेटे को भी. सभी आश्चर्यजनक मौतें थीं, मगर सभी को दुर्घटना कह दिया गया...अगर
खोदने जाओ, तो कितना कुछ बाहर आएगा. क्या आप ऐसा चाहते हैं?”
“मैं!...” एल्तिशेव गरजते हुए उछला. “मैं तुझे,
क-मी-ने!...”
और तभी कई
हाथों ने उसे दीवार की ओर धकेल कर नीचे गिरा दिया. कुर्सी पे.
“क्या तेरे पास कोई भरोसेमन्द तहख़ाना है?”
खोजकर्ता की आवाज़ आई. “इसे वहाँ...थोड़ा ठण्डा होने दो...है या नहीं?”
“दुकान के पीछे तहख़ाना है,” पुलिस ऑफ़िसर की
मरियल आवाज़ आई.
“बस, वहीं पे!”
“अभ्भी
भागकर चाभियाँ लाता हूँ.”
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