शनिवार, 7 मार्च 2015

Eltyshevi - 24

  
अध्याय - 24


एक समय था कि एल्तिशेव अक्सर मृत्यु के बारे में सोचता था. जैसे कि – कोई आदमी चल-फिर रहा है, देख रहा है, सुन रहा है, महसूस कर रहा है, सोच रहा है, लगता है कि हर काम कर सकता है – और अचानक उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है. धम् – और अंधेरा, निपट खालीपन. आदमी के पास कुछ भी नहीं बचता है, और ‘आदमी’ बस – है ही नहीं. सिर्फ मांस और हड्डियों का एक लोथड़ा, जिसे जल्दी से जल्दी ज़मीन में गाड़ देना पड़ता है.

जितना ज़्यादा निकोलाय मिखाइलोविच किसी अलौकिक चीज़ के बारे में, भूतों के बारे में, आवाज़ों के बारे में, उजली सुरंगों के बारे में - जिनसे होकर ‘क्लिनिकली डेड’ उड़ते हैं - सुनता था, उतना ही उसे मृत्यु के बाद की नश्वरता का एहसास होता था. और ये सारी बातें – लोगों के इस ‘नश्वरता’ के प्रति भय के सिवा कुछ भी नहीं हैं.

मिलिशिया की नौकरी ने उसे कठोर बना दिया था, सही-सही कहें तो, निर्दय बना दिया था – मृतकों के प्रति न तो उसके मन में सहानुभूति थी, न ही भय, बल्कि अक्सर इसका उल्टा ही होता था – चिड़चिड़ाहट होती थी. मुर्दे ढोये जाने की, ध्यान देने की मांग करते थे, उनके बारे में जवाब देना पड़ता था, परेशान होना पड़ता था, उनके बारे में लम्बी-लम्बी रिपोर्ट्स लिखनी पड़ती थीं.

पिछले कुछ सालों से एल्तिशेव ज़िन्दा लोगों को नापसन्द करने लगा था. उसके पास रहने वाले ज़िन्दा लोगों में से कई लोग अनावश्यक थे, कई लोग उसके दुश्मन बन गए थे, या ऐसे हो गए थे जो उसे और उसके निकटतम लोगों को चैन से जीने नहीं देते थे. गाँव में तो यह बात काफ़ी स्पष्ट हो चुकी थी. अस्तित्व के लिए संघर्ष, अपमान का प्रतिशोध – धोखे को पचा जाना, ये भी तो अपमान ही है.

मगर हाल ही के कुछ दिनों से निकोलाय मिखाइलोविच अनिच्छा से – न चाहते हुए, मगर डरते हुए, उन लोगों से ईर्ष्या करने लगा था जो मर चुके थे. जो फ़ौरन मर गए थे, ये समझ भी नहीं पाये थे कि मर रहे हैं; हो सकता है, वे डर रहे हों, मगर डर सिर्फ उसी पल तक सीमित था, जब मौत को वापस लौटाना संभव नहीं था और किसी भी चीज़ को बदलना संभव नहीं था...वह यूर्का से ईर्ष्या करता था (हालाँकि वह, अगर उसकी विधवा की बातों पर यक़ीन किया जाए और ये मान लिया जाए कि उसका दिमाग़ बिल्कुल ठिकाने पर है, तो उस दुनिया में दुख उठा रहा था), खारिन से ईर्ष्या करता था, उन छोकरों से ईर्ष्या करता था जो नशे में मार-काट करते थे, अपने बेटे से भी ईर्ष्या करता था जिसकी खोखली और उसे ख़ुद को भी अप्रिय लगने वाली ज़िन्दगी की डोर एक दुर्घटना के कारण अकस्मात् टूट गई थी...दुर्घटना...ईर्ष्या इसलिए करता था क्योंकि उसे निकट आते हुए बुढ़ापे का एहसास हो रहा था. वास्तविक बुढ़ापा, जिससे छुटकारा पाना मुमकिन नहीं था; उसे और अपने आप को धोखा देना संभव नहीं था. और, हर महीने ये बद से बदतर होता जाएगा. और ऐसे काफ़ी महीने बाकी हैं ज़िन्दगी में. हो सकता कुछ दशक भी हों. जैसे कि तात्याना आण्टी के साथ हुआ था. पूरी तरह दुर्बल और शक्तिहीन होने तक...

वह सोता रहता, उठने की इच्छा ही न होती. हर रोज़ यह कल्पना करने की कोशिश करता कि शायद आज कुछ अच्छा होगा. मगर कुछ भी अच्छा न होता. फिर भी वह उठता, बदन पर कपड़े डाल लेता. उसके सामने होता एक बेकार का, अनावश्यक, बोझिल दिन. किसी भी तरह की हलचल से दर्द का एहसास तो नहीं, बल्कि उससे भी बुरा – शारीरिक बीमारी का एहसास होता. कुछ भी करने का मन न होता – नहीं – मन हो ही नहीं सकता था. ज़िन्दा रहने का मन न होता. “ये ही बुढ़ापा है,” भट्टी के पास बैठे बैठे और अपने भीतर लगातार एक के बाद एक सिगरेटों का धुँआ भरते हुए निकोलाय मिखाइलोविच समझ रहा था. “ये ही है बुढ़ापे का घिनौनापन. न कोई बीमारी, न ही जिस्म की कमज़ोरी, मगर ये घिनौनापन.”

बुढ़ापा काफ़ी पहले से आने की तैयारी कर रहा था, मगर उसने हमला उस दिन सुबह बोला जब बीबी बेहोश हो गई थी, और फिर उस शाम वह आ धमका, जब एल्तिशेव ने पाया कि चोरों ने उनके घर को ज़हरीला बना दिया था. इसके बाद वह, बस, मजबूरी में जिए जा रहा था, और एक-एक दिन काटना अधिकाधिक मुश्किल होता जा रहा था. अब वह, शायद, बीबी से भी ज़्यादा, डेनिस के आने की राह – उसे देखने की, उसके सामने अपने गुनाह क़ुबूल करने की राह देख रहा था – कि उनके साथ ऐसा हो गया है. परिवार टूट गया है, नष्ट हो रहा है.

मगर क़िस्मत वार पे वार किए जा रही थी... एक दिन सुबह निकोलाय मिखाइलोविच आँगन में आया, हमेशा की तरह इधर-उधर बिना देखे टॉयलेट की तरफ चला. मगर फिर भी उसने महसूस किया कि सब कुछ ठीक नहीं है. कार की तरफ़ मुड़ा. बोनेट थोड़ा सा खुला था, सामने वाले शीशे से कुछ ग़ायब था. वह कार के नज़दीक गया, बोनेट खोला. हाँ, बैटरी (पुरानी, जर्जर) नहीं थी, और विन्डस्क्रीन के वाईपर्स उखाड़ लिए गए थे. डिकी खाली थी – स्पेयर-पार्ट्स, जैक, चाभियों वाला बैग...कुछ भी नहीं था. गेट का कुन्दा भी निकला हुआ था.
 “जा-नवर” एल्तिशेव ने हौले से, बिना किसी कड़वाहट के कहा; उसे इसकी आशंका थी – जब एक बार यहाँ का रास्ता देख लिया है, तो अब उन्हें रोकना मुश्किल है.
भूखे पेट डेढ़ सौ ग्राम्स स्प्रिट पी गया, अलमारी में, सूटकेसों में कुछ टटोलने लगा.
 “क्या ढूँढ़ रहे हो?” उसकी ओर देख कर, बिना अपनी चिड़चिड़ाहट छुपाए बीबी ने पूछा (वह टी.वी. देख रही थी, और पति बार-बार सामने डोल रहा था).
 “कुछ चाहिए...”
मिल गया. एक सूटकेस में उसका यूनिफॉर्म रखा था. नौकरी से हटाए जाने के बाद संभाल कर रखा था, और अब उसकी ज़रूरत पड़ गई. उसे लेकर किचन में गया. बड़ी देर तक देखता रहा, ऊँगलियों से कपड़े की सिलवटें ठीक कीं. बीबी से इस्त्री करने के लिए कहना ठीक नहीं था, ऊपर से, वह बेकार के सवालों के लिए बहाना नहीं देना चाहता था.

यूनिफॉर्म पहना, अपने आप को आईने में देखा...भाड़ में जाए... कैप भी होनी चाहिए. मगर कैप तो उसने शहर से यहाँ आते समय फेंक दी थी – “ख़राब हो जाएगी”... ठीक है, बिना कैप के भी इम्प्रेसिव लग रहा है. शेवर से चेहरे को चिकना किया, छुट्टियों वाले जूते गीले कपड़े से पोंछे...यूनिफ़ॉर्म से उनका रंग बिल्कुल मैच नहीं कर रहा था...
 “मैं जल्दी लौट आऊँगा,” किचन से ही बीबी से बोला.
 “तुम जा कहाँ रहे हो?”
 “काम है...”
अलमारी की ओर गया. जल्दी से जाम भरा, स्प्रिट का गरम घूंट मुँह के भीतर फेंका. बड़बड़ाया:
 “अच्छा, ठीक है.”

पूरे गाँव का चक्कर लगाया, हर मिलने वाले का रास्ता रोका:
 “क्या तुम लोगों ने मुझसे मज़ाक करने की ठान ली है? बेटे को दफ़नाया तो तुम लोग समझे कि अब हमला कर सकते हैं, आँ? मैं तुम सबको देख लूँगा, गन्दे जानवर! स-ब को! डेनिस आएगा, वो सब ठीक करेगा, दीवार पर रेंगते नज़र आओगे! समझ गए, या नहीं?” – और अगर कोई आदमी ख़ामोश रहता, तो वह गरजते हुए मुट्ठियाँ तान लेता: “स-म-झ में आया?!”
कोई-कोई बुदबुदाता: “हाँ-हाँ,” कोई-कोई सिर्फ एल्तिशेव से मुँह फेर कर दूर भाग जाता. मगर उससे झगड़ा मोल लेने का इरादा किसी का नहीं था. देख रहे थे कि वह कैसी हालत में है. वापसी के रास्ते पर, जब निकोलाय मिखाइलोविच कुछ शांत हुआ और उसका मन यूनिफॉर्म उतार कर, थोड़ी और पीकर सोने को करने लगा, तो उसे किसी ने आवाज़ दी:
 “ऐ, चचा, क्यों झगड़ा कर रहे हो?”
 “क्या?”
फ़ेन्सिंग के पीछे से वह छोकरा झाँक रहा था, जिसने पहली चोरी वाले दिन एल्तिशेव को पेट्रोल दिया था. वो ही कोई गोशा, या ग्लेब... उस पर निकोलाय मिखाइलोविच को सबसे ज़्यादा शक था – इसीको तो मालूम था कि वह जा रहा है, ख़ुद ही तो उसे बताया था...
 “क्यों,” शायद छोकरा उसे चिढ़ा रहा था, “माँ को क्यों डरा रहे हो, वलेरीन पी रही है. उसे किसलिए?”
 “कोई वजह तो है. चोर तो चोर है.”
 “सुन, चचा...”
 “तू बाहर आ,” निकोलाय मिखाइलोविच उसकी बात काटते हुए बोला,” फेन्सिंग के पीछे से क्या चिल्ला रहा है?...बाहर आ, बात करेंगे.”
 “सुन, हमने तेरी कोई चीज़ नहीं ली है. हमारे यहाँ घुसने की कोई ज़रूरत नहीं है.”
 “मैं समझ लूँगा कि किसने ली है, और कौन... जल्दी ही बेटा वापस आएगा, तब समझ लेंगे...”
 “वो तो मर चुका है,” छोकरे ने अचरज से कहा.
 “आर्तेम – हाँ. दूसरा है ना. ऐसे ही एक बदमाश को माथे पर घूंसा जड़ कर जोकर बना दिया था...तू बाहर आ.” ये बातचीत एल्तिशेव को पागल बना रही थी, जिसमें वह अपने आप को सच साबित नहीं कर पा रहा था. “बाहर आ, मैं अकेला ही तुझसे निपट लूँगा.”
 “मैं कह रहा हूँ: मैंने आपकी कोई चीज़ नहीं ली. और अगर मुझसे पंगा लोगे, तो निपट लूँगा.”
 “ऊपर से मुझे धमकी देता है?!” एल्तिशेव फेन्सिंग की तरफ़ बढ़ा, मगर समय पर संभल गया:
 ‘ये मैं क्या कर रहा हूँ? दूसरी तरह से निपटना होगा. बाद में... ठीक है, तब तक जी ले.’

अपनी कॉटेज की ओर चला...सूरज आसमान में ऊपर चढ़ आया था, जला रहा था. कनपटियों पर, सीने पर पसीना बह रहा था. या तो गर्मी के कारण या उन लोगों के प्रति नफ़रत के कारण जो उसके संसार को नष्ट कर रहे थे, ज़मीन्दोस्त कर रहे थे...इन विध्वंसकों को वह ढूँढ़ नहीं पाया – बैटरी को, स्प्रिट के कनस्तर को, स्पेयर-पार्ट्स को ढूँढ़ने में हर आँगन तो छाना नहीं जा सकता. और बात ये भी नहीं थी, पुरानी बैटरी की नहीं थी, गंजी स्टेपनी की भी नहीं थी. बात बहुत उलझी हुई थी, बेहद उलझी हुई...

बड़ी मुश्किल से बेटे के आने तक दिन खींचते रहे. उसकी मियाद सत्रह सितम्बर को पूरी हो रही थी, और अब बीबी के बदले निकोलाय मिखाइलोविच ने ही कैलेंडर का पन्ना पहले फ़ाड़ दिया; वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को अच्छा नहीं लगा, मगर उसने कुछ कहा नहीं.

वह अपनी बीमारी में ही अधिकाधिक व्यस्त होती गई. शहर से कुछ विटामिन्स, फूड-सप्लिमेंट्स, कुछ ब्रोश्यूर्स लाती.
ज़ोर से पढ़ती:
 “नीलबदरी का पत्ता, बर्च की कलियाँ, पीले फूलों वाली घास, गालेगा-घास....ये क्या है, गालेगा? और कहाँ से लाऊँ? और ये तेजपत्ता, नीलबदरी-पत्ता, अरार के फल....

ख़ुदा का शुक्र है कि स्प्रिट के लिए लोग लगातार आते थे. गाँव में शराबियों पर पड़ा छापा भी उन्हें डरा नहीं सका. पैसे किसी तरह आते रहे. उन कनस्तरों की चोरी की नुक्सान-भरपाई, जिनमें से एक पूरा भरा हुआ था, बिना किसी ख़ास परेशानी के पूरी हो गई. निकोलाय मिखाइलोविच ने बेशक, इस घटना के बारे में सेर्गेई अनातोल्येविच को बताया; उसने बड़ी कृत्रिमता से सहानुभूति जताई:
 “होता है, होता है. लोग तो एकदम...”

दुकान में या कहीं और किसी काम के लिए जाते समय अगर रास्ते में एल्तिशेव किसी ऐसे आदमी को देख लेता, जो उससे नज़रें चुरा रहा होता, तो वह धमकाता:
 “जैसे ही बेटा लौटेगा, पता लगा लेंगे, कि किसने पराया धन चुराया है. हम तुम्हें दिखा देंगे!”

लोग, ज़ाहिर है डर रहे थे कि वह अपनी धमकी ज़रूर पूरी करेगा – एल्तिशेवों के यहाँ पुलिस-ऑफ़िसर आया. पहले तो उसने पूछा कि उनके यहाँ क्या हुआ था, कौन-कौन सा सामान चोरी गया है, और फिर, उनका जवाब सुनने के बाद, और दिखाने के लिए, अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए बोला कि उन्होंने समय पे रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई, फिर चेतावनी दी:

 “आप ज़्यादा सावधान रहिए. आपके बारे में शिकायतें आ रही हैं, कहते हैं कि आप लोगों को धमकाते हैं.”

 “मगर मेरे घर तो वे बिना किसी धमकी के घुसे थे, आधी कार चुरा ले गए!” निकोलाय मिखाइलोविच गरम होने लगा.

 “हाँ, मैं समझता हूँ. मगर, फिर भी, एक साथ सबको तो...ऊपर से यहाँ के लोग बदला लेने में माहिर हैं. कुछ कम-ज़्यादा हो जाए तो...”

 “मतलब?” एल्तिशेव ने बुरी तरह से आँखें सिकोड़ीं. “आँ?”

 “मतलब, कुछ भी हो सकता है,” पुलिस-ऑफ़िसर एक सीधे-सादे लेफ्टिनेंट की तरह मिमियाने लगा, जो, हालाँकि भूतपूर्व, मगर फिर भी, कैप्टन के सामने खड़ा था. “होता है...आग लगा देते हैं, और...मैं आपको समझता हूँ, और पहले भी समझ रहा था...हुम्...मगर फिर भी...”

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें