रविवार, 18 जनवरी 2015

Eltyshevy - 05

अध्याय 5

नवम्बर के पहले सप्ताह में वाक़ई कड़ाके की ठण्ड पड़ने लगी. तापमान -200  तक गिर गया. बर्फ से असुरक्षित ज़मीन पर बीजों और अंकुरों को पाला मार गया. दिन अंधेरे, बेहद उदास थे, लोग उम्मीद भरी निगाहों से आसमान की ओर ताकते, इस उम्मीद में कि अब बर्फ के फ़ाहे गिरेंगे. मगर आसमान में सिर्फ भूरी धुंध थी, जिसके नीचे से हौले-हौले लाल, आँखों को चकाचौंध न करने वाला सूरज का गोला बाहर आता.
नौ तारीख़ को मरियल, मगर बर्फीली हवा चलने लगी, ख़ूब गर्माए गए घरों पर भी इसकी मार पड़ी; एक उम्मीद के साथ, मुर्दा हवा के इस एकसार झोंके को बर्दाश्त करने की कोशिश में हर ज़िन्दा चीज़ छुप गई, ठिठुर गई. और दो दिन की यातना के बाद वातावरण में कुछ गर्मी आई, और इसके बाद घनी, भारी बर्फ गिरने लगी.
पूरा दिन और पूरी रात बर्फ गिरती रही; फिर उसने कुछ देर रुक कर साँस ली, और झोपड़ियों को बर्फ के ढेर में बदलते हुए, पेड़ों की कमज़ोर टहनियों को तोड़ते हुए, गली हुई बागड़ को गिराते हुए, कच्ची छतों की शहतीरों को टेढ़ा करते हुए फिर से शुरू हो गई.
लोग गालियाँ देते हुए, दलदल जैसे बर्फ के ढेरों से संघर्ष करते हुए दुकानों में, दफ़्तर में जाते और वहाँ इस अभूतपूर्व बर्फबारी के परिणामों पर चर्चा करते. डर रहे थे, कि बिजली के तार टूट जाएँगे, शहर की ओर जाने वाला रास्ता बन्द हो जाएगा. “रोशनी के बिना, भूख से मर जाएँगे!...” मगर फिर भी चारों तरफ़ प्रसन्नता का उल्लास का वातावरण था. आख़िरकार सर्दियाँ आ ही गई थीं.
बर्फबारी के कारण वलेंतीना विक्तोरोव्ना का नौकरी ढूँढ़ने का काम रुक गया. ऐसा लग रहा था कि ज़िन्दगी का नया दौर शुरू करने की राह में वही एक रोड़ा है, और उसे अब रुक जाना चाहिए; स्कूल, क्लब, दफ़्तर जाने वाली पगडंडियों का दिखाई देना बहुत ज़रूरी है, तब वलेंतीना विक्तोरोव्ना आराम से पहुँचेगी, बात करेगी, अपनी सर्विस-बुक देगी और सब कुछ फिर से स्थिर हो जाएगा, भरोसे लायक हो जाएगा.       
गर्मियों के अंत में और शरद ऋतु में, जब यहाँ शिफ्ट होने की तैयारी कर रही थी तब उसने यहाँ काम करने की संभावना पर विशेष ध्यान नहीं दिया था. पूछना शुरू करेगी, जानकारी हासिल करेगी, प्रार्थना-पत्र देगी, हर जगह से इनकार मिलेगा – और शिफ्ट होना मुश्किल हो जाएगा. कहाँ शिफ्ट होना चाहिए? मगर फिर भी ...फिर भी उम्मीद बनी रही.
आरंभ में तो कुछ ढूँढ़ने का सवाल ही नहीं था – यही सोचते-सोचते दिमाग़ ख़राब होने की नौबत आ गई थी कि चीज़ों को ठण्ड से कैसे बचाया जाए, उन्हें कहाँ-कहाँ और कैसे रखा जाए, ताकि कॉटेज, जो वैसे भी छोटी थी, किसी ठसाठस भरे गोदाम में न बदल जाए.
फिर वह शहर गई, अपना बचा हुआ पैसा लिया, सहकर्मियों से बिदा ली. वे इस बात से ख़ुश लग रहे थे कि वलेंतीना विक्तोरोव्ना स्वेच्छा से रिटायर हो रही है. कम से कम, उन्होंने उससे रुक जाने के लिए नहीं कहा...शहर से लौटने के बाद भी स्थानीय दफ़्तरों में जाने के विचार को टालती रही, अपने-आप को ये यक़ीन दिलाते हुए कि उसके पास दूसरे ज़्यादा ज़रूरी काम हैं, और जिन्हें टाला नहीं जा सकता – असल में उतने काम थे नहीं. इसके बाद, बर्फ गिरने लगी.
चौदह की सुबह को उसने आख़िरकार फ़ैसला कर ही लिया. अपना बेहतरीन सूट पहना – हल्के गुलाबी-जामुनी रंग की प्राकृतिक ऊन की स्कर्ट और ब्लाउज़, छुट्टियों वाला ओवरकोट और ऊदबिलाव की टोपी. सावधानी से, ताकि छिछोरापन न दिखे, आँखों का मेक-अप किया, होठों पर लिपस्टिक लगाई...पति नीची स्टूल पर बैठा सिगरेट पी रहा था और भट्टी में धुँआ छोड़ रहा था, जहाँ लकड़ियाँ चटक रही थीं. तात्याना आण्टी मेज़ और अलमारी के बीच अपने कोने में बैठी-बैठी झूल रही थी. बेटा वहीं, किचन में आण्टी के पलंग पर अधलेटा किसी किताब के पन्ने पलट रहा था.
 “अच्छा, मैं निकल रही हूँ,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने कहा.
पति ने अपनी भारी, लाल-लाल आँखें (कल डिनर के साथ बहुत पी गया था) उठाकर उसकी ओर देखा और सिर हिला दिया:
“हुँ, चल...और मैं बर्फ हटाऊँगा...हटाना पड़ेगा.”
आण्टी और बेटे ने कुछ भी नहीं कहा. “क्या, मुझे ही सबसे ज़्यादा ज़रूरत है?!” – उत्तेजना सिर उठाने लगी, और वलेंतीना विक्तोरोव्ना जल्दी से दरवाज़े से निकल गई, जिससे कमरे में वापस न आए, औरों की तरह बैठी न रहे...वापस आकर कुछ खाने का मन कर रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि इस सैर से कुछ लाभ नहीं होने वाला है, और अब ताक़त भी नहीं बची, सारी ताक़त तो तनाव में और दुख उठाने में खर्च हो गई, जब निकोलाय को अदालत में घसीटा जाता था; और फिर इस शिफ्टिंग में... डेनिस के बारे में याद न करने की कोशिश करती, वर्ना तो बिल्कुल ही...उसने सितम्बर में उसे लिखा था कि उनके साथ क्या-क्या हुआ था, ख़तों के लिए नया पता दिया था. उससे मुलाक़ात को अभी दो महीने बाकी थे...
सबसे पहले उस दफ़्तर में गई, जहाँ गाँव का प्रमुख व्यक्ति था – मैनेजर.
लम्बे, खलिहान जैसे घर में एक कॉरीडोर था, जिसके दोनों ओर कमरे थे. अकाऊंट्स-ऑफिस, कृषि-विशेषज्ञ, पोस्ट-ऑफ़िस, डिस्ट्रिक्ट-पुलिस ऑफ़िसर, “पेन्शन-निधि”, “ज़ाखोल्मोव्स्काया ग्राम-प्रशासन की शाखा”.... मैनेजर का कमरा कॉरीडोर की ठीक गहराई में था. जैसे वह छुप कर बैठा हो. मगर जब वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने दरवाज़ा खटखटाया तो काफ़ी जोशीली आवाज़ आई:
 “यस?”
उसने भीतर झाँका, मुस्कुराते हुए पूछा:
 “क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ?” भीतर गई.
लिखने की मेज़ के पीछे, जिसकी वार्निश जगह जगह से उख़ड़ गई थी, क़रीब पैंतालीस साल का एक आदमी बैठा था. एकदम सलीकेदार. सूट भी पहने था. उसके सामने - अख़बार था.
 “नमस्ते,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने कुर्सी पर नज़र डाली मगर बैठने का फ़ैसला नहीं कर पाई. “मैं आपके  पास...मेरा नाम एल्तिशेवा वलेंतीना...”
 “अच्छा, अच्छा,” मैनेजर ने बीच ही में उसकी बात काटते हुए कहा. “हाल ही में शिफ्ट हुई हैं.”
 “मैंने रजिस्ट्रेशन करवा लिया है. सब कुछ ठीक-ठाक है...मैं, वो, ये जानना चाहती थी...”
 “बैठिए.”
 “थैंक्यू.” वलेंतीना विक्तोरोव्ना बैठ गई. मैं काम के बारे में जानना चाहती थी.”
 “अम्-म्...म्-हाँ...” मैनेजर का जोश एकदम हवा हो गया, यहाँ तक कि पलकें भी भारी होकर आँखों को दबाने लगीं. “किस लिहाज़ से?” वह अभी भी अप्रिय बातचीत से बचने की कोशिश कर रहा था.
“क्या आप मेरे लायक कोई काम दे सकते हैं? मैंने लाईब्रेरी साईन्स की ट्रेनिंग ली है, क़रीब तीस साल तक लाईब्रेरियन के रूप में काम किया है, पाँच साल – डाईरेक्टर भी रही हूँ.”
“अम्-म्...हमारे यहाँ, बेशक लाईब्रेरी तो है. आप वहाँ नहीं गईं?...मगर वहाँ फ़ाईना काम कर रही है. संभाल लेती है. बच्चों के लिए एक ‘सर्कल’ भी चलाती है.”
 “मगर क्या वह क्वालिफ़ाईड है?”
 “मालूम नहीं. मैंने उसे नहीं रखा था – ये काम कल्चरल डिपार्टमेंट करता है. स्कूल से संबंधित काम – लोक शिक्षा विभाग देखता है.”
 “क्या आपके क्षेत्र में कुछ है...” वलेंतीना विक्तोरोव्ना की ज़ुबान लड़खड़ाई, उसने कुछ शरीफ़ाना अन्दाज़ में अपनी बात रखने का फ़ैसला किया: “क्या कोई खाली जगह है?” मगर वह पीठ में हल्की-सी ठण्डक महसूस करने लगी थी; उसे यक़ीन हो चला था कि उसे काम नहीं मिलेगा, मगर वह नहीं चाहती थी कि ऐसा हो.
मैनेजर ने कंधे उचका दिए. वह मानो जम गया. उसने ऐसा दिखाया मानो कुछ सोच रहा हो. वलेंतीना विक्तोरोव्ना इंतज़ार कर रही थी. मैनेजर ने गहरी साँस ली, पैकेट से सिगरेट निकाली, माचिस सुलगाई. कुछ देर कश लेता रहा, फिर धुआँ भीतर खींचा और एक ओर को देखते हुए फिर से जम गया.
“तो फिर, क्या?” वलेंतीना विक्तोरोव्ना से रहा नहीं गया. “है? कहीं च...चपरासी ...या सफ़ाई कर्मचारी. हाँ?”
 “नहीं, मेरे पास कोई जगह नहीं है. यहाँ कुछ भी नहीं बचा है...”
 “और, मर्दों के लिए?” अपनी बदहवासी पर काबू पाने के लिए वलेंटीना विक्तोरोव्ना ने उसे बीच में रोकते हुए पूछा. “मेरा बेटा है – पच्चीस साल का...और पति की उम्र है – पचास. मगर वह...उसने तीस साल पुलिस में काम किया है...कैप्टेन था.”
“कुछ भी नहीं है,” मैनेजर मुड़ा, उसने वलेंतीना विक्तोरोव्ना पर नज़र गड़ा दी. “मेरे यहाँ स्थानीय लोग ही बेकार बैठे हैं. किसान भी, और दूसरे भी. चरवाहे, मैकेनिक, दूध दुहने वाले, ट्रैक्टर ड्राईवर्स, रसोईये...पिछले साल तक तो फ़र्म थी, मगर अब – कुछ भी नहीं है. कहीं भी, कुछ भी नहीं है.”
 “फिर...फिर यहाँ जियें कैसे?” धीरे धीरे, रुक-रुककर इन छोटे छोटे शब्दों को तौलते हुए वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने पूछा.
 “शैतान ले ...कोई पेन्शन पे जीता है, किसी को अपाहिज होकर...कर्ता पुरुष के निधन पर बच्चों के लिए सुविधाएँ...किसी को रिश्तेदार मदद कर देते हैं, कोई चला जाता है, शहर में, या जिले में नौकरी कर लेता है...ओ-ओह-ह...” मैनेजर ने सावधानी से, जिससे वह फट नहीं जाए, आधी पी हुई सिगरेट बुझा दी. “मालूम नहीं. यहाँ नौकरी करते हुए, पाँच साल से बैठा-बैठा मैनेजरी कर रहा हूँ. मैं ख़ुद एनिसैस्क से हूँ...क़िस्मत अच्छी थी, जो यहाँ भेज दिया. मगर करना क्या है – शैतान ही जानता है. अगर यहाँ सामूहिक-फार्म होता, तो हो सकता है, कुछ कर सकते थे, वर्ना तो...जैसे, तिग्रित्स्कोए में लोग रहते हैं किसी तरह इंतज़ाम कर लेते हैं, मगर वो अपना-अपना करते हैं . मगर हम – एक ही पेड़ की शाख़ाएँ हैं. हेड-ऑफ़िस ज़ाखोल्मोवो में है, पूरी टेक्नोलॉजी वहीं पर है...”
 “इस पूरी सिस्टम के बारे में मैं अच्छी तरह जानती हूँ,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने उसकी बात काटते हुए कहा, “मैं ख़ुद भी यहीं की हूँ. याद है कि कैसे सामुहिक फार्मों को सोवियत फार्म में मिला दिया गया था,
लोग कैसे नाख़ुश थे. मगर, ये सच है कि मैं शहर में काफ़ी अर्से तक रही...और अब ढलती उम्र में...पता चलता है, कि मेरी ज़रूरत नहीं है...” वलेंतीना का रोने को मन कर रहा था, मगर मैनेजर की शिकायतों ने आँसुओं को रोक दिया.
 “आख़िरी तीस गायों को उस साल ज़ाखोल्मोवो भगा दिया. फर्म में, कहते हैं कि कभी सौ से ज़्यादा लोग काम किया करते थे, मगर अब सिर्फ दो चौकीदार बचे हैं – गोशाला की चौकीदारी करते हैं, जिससे कोई खपरैल खींच कर न ले जाए...सिलाई-कारखाना था – बोरे सिलते थे. जल गया. खेत ऐसे थे, गेहूँ तक पैदा होता था...कुछ भी नहीं बचा...बिना किसी भावना के यहाँ बैठा-बैठा सोचता रहता हूँ.”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना उठकर दफ़्तर से बाहर आ गई.
सड़क पर नज़र दौड़ाई. कॉटेजेस सड़क के किनारे-किनारे बनी थी, खिड़कियों तक बर्फ से लदी हुई, जैसे उन्हें छोड़ दिया गया हो. मगर पाईप से धुआँ निकल रहा था, मतलब वहाँ लोग रहते हैं, वहाँ खाना बनाया जाता है, किन्हीं कपड़ों में वे ढँके हुए हैं, शायद, उनके पास, चाहे एक हफ़्ते में ही सही, सूरज की रोशनी आयेगी, मतलब, भविष्य में. मगर उसके पास? उसके परिवार के पास? कुछ थोड़ी बहुत पूंजी है, जिससे मुश्किल से महीने भर काम चल जाएगा, मगर आगे?... निकोलाय को पेन्शन के लिए भेजना होगा. इतने साल की नौकरी का हक बनता है...और उसे भी कुछ-न-कुछ मिलेगा...क़ानूनन पेन्शन के लिए दो साल बचे थे, पचास की उम्र तक. दो दुर्भाग्यपूर्ण साल. मगर उन्हें कैसे काटें?
लाईब्रेरी में जाना चाहती थी, मगर नहीं गई. फ़ायदा क्या है? वहाँ फाईना है – मैनेजर के लब्ज़ों में अच्छी कर्मचारी  है. सर्कल...स्कूल की ओर बढ़ गई.
दोमंज़िला, पत्थर की इमारत, जो पिछली से पिछली सदी में बनाई गई थी. भीतर से बहुत आरामदेह – बड़ी-बड़ी, अर्धगोलाकार खिड़कियाँ, उजली दीवारें, बच्चों के बनाए हुए चित्र टंगे थे. कोटू के पॉरिज की ख़ुशबू आ रही थी.
 “आपको कहाँ जाना है?” संदेह से आँखों को सिकोड़ते हुए नीले गाऊन वाली बुढ़िया बेंच से थोड़ा सा उठी.
 “मुझे – डाइरेक्टर के पास.”
 “किसलिए?”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने होंठ टेढ़े कर लिए:
 “प्राइवेट काम है. परिचय के लिए.”
 “अच्छा?...और आप कहाँ से हैं?”
 “आपको इससे क्या फ़रक पड़ता है?”
 “ये क्या बात हुई – ‘क्या फ़रक पड़ता है’? मेरी ड्यूटी ही है हर चीज़ पर नज़र रखना. अगर कुछ हो जाता है,” कहते हुए बुढ़िया हौले से चलकर कॉरीडोर को घेरते हुए खड़ी हो गई, “अगर कुछ हो जाता है, तो कौन जवाब देगा?”
“मैं...मैं डाइरेक्टर से सिर्फ मिलना चाहती हूँ! हुम्...” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने स्वयँ पर काबू किया, मुँह से फूटने वाली चीख को रोका. “समझ रही हैं, मैं कई साल पहले इस स्कूल में पढ़ती थी, जिला केन्द्र में लाईब्रेरी का कोर्स पूरा किया, लम्बे समय तक शहर में रही, अब लौटकर वापस आई हूँ और डाइरेक्टर से मिलना चाहती हूँ. मेरा नाम वलेंतीना विक्तोरोव्ना है, शादी से पहले का उपनाम है – कन्दाऊरोवा. मेरे माँ-बाप यहाँ के जाने-माने लोगों में से थे. आण्टी, आण्टी तान्या मतासोवा, अब तक ज़िन्दा है, यहीं बगल में, दो कदम की दूरी पे.”
 “मगर बुढ़िया पर इस पारिवारिक इतिहास का कोई असर न हुआ:
“तो क्या? क्लास चल रही है, स्कूल में ऐसे घूमना मना है. डाइरेक्टर भी क्लास में है. जब घण्टी बजेगी, तब जाने दूँगी.”
 “समझ गई...”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना को अचानक भीषण थकान महसूस हुई, इस, गाऊन वाली का, गुस्सा भी चला गया. बच्चों वाली छोटी बेंच पर बैठ गई. बुढ़िया कुछ देर खड़ी रही, फिर वह भी बैठ गई.
 “और आप, क्या यहाँ की नहीं हैं?” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने पूछा; कन्दाऊरोवा उपनाम पर, जो क़रीब चालीस पहले आधे गाँव का होता था, हर स्थानीय व्यक्ति की कुछ न कुछ प्रतिक्रिया ज़रूर होती.
  “मैं? मैं तूवा की हूँ.”  बुढ़िया ने लम्बी. गहरी साँस ली. “सन् 93 में यहाँ आ गए. दस साल बस यूँ ही...वहाँ, मेझेगे गाँव में भी हम रहे. नाम नहीं सुना?”
 “नहीं.”
तूवा, जहाँ हर विशेषज्ञ जाना चाहता था (तनख़्वाह अच्छी थी, तरक्की जल्दी जल्दी होती थी, कई तरह की छूट मिलती थी, क्वार्टर की वेटिंग लिस्ट जल्दी जल्दी सरकती थी), दक्षिण की ओर, सायान्स्की पर्वतों की दूसरी ओर स्थित था. मगर अस्सी के दशक के अंत में, सोवियत संघ के अन्य गणराज्यों की ही तरह, तूवा में भी प्रांतीय झगड़े शुरू हो गए, और उक्राइनी, ग्रूज़िनी, रूसी – याने कि आम तौर से, वे जो यहाँ के मूल निवासी नहीं थे, वहाँ से बाहर निकलने लगे. स्तेपी के गाँवों और देहातों के कुछ लोग तो जान से मारने की, ज़िन्दा जला देने की धमकियों से घबराकर, अपना माल-असबाब छोड़-छोड़कर भागे...ज़्यादातर लोग उस शहर में बस गए जहाँ एल्तिशेव रहते थे, और एक ऐसा भी समय आया, सन् 93 में, जब वे काम की तलाश में सभी दफ़्तर छान रहे थे. वलेंतीना विक्तोरोव्ना के पास भी कुछ महिलाएँ आईं थीं, आँखों में याचना लिए. “क्या आप मुझे नहीं लेंगी? मैं जिला-लाईब्रेरी में प्रमुख थी...मैं स्कूल की लाईब्रेरी में बीस साल काम कर चुकी हूँ...”
“बड़ी अच्छी ज़िन्दगी थी,” बुढ़िया बता रही थी, “ आराम से रहते थे. बाज़ू में ही चीड़ का जंगल था, और, यहाँ जैसा सूखा नहीं, बल्कि खूब भरा-पूरा था. दूधिया-मशरूमों को हँसियों से काट-काटकर, ड्रमों में भर-भरके नमक लगाके रखते. एक तह दूधिया-मश्रूमों की, दूसरी नारंगी मश्रूमों की, फिर भूरे लहरियेदार मश्रूमों की, फिर वापस दूधिया-मश्रूमों की.... और लाल बिल्बेरीज़, और मधुमालती. ख़रगोश इत्ते सारे. मेरा  आदमी फंदा लगा देता, हमेशा छोटे ख़रगोश के पिल्ले ही फंसते. ये तूवा वाले, क़रीब–क़रीब थे ही नहीं, जो भी थे, बड़े ख़ामोश-तबियत, कामकाजी... और कॉटेज कैसी-कैसी बनाते थे! पत्तों की लुगदी से, दो सौ साल तक उन्हें कुछ नहीं हो सकता था... शेड्स, गुसलखाने – कैबिन्स. बगल में ही चीड़ के पेड़, मगर जानबूझकर पत्ते सायान से लाते थे, जिससे वे सड़ न जाएँ...मगर जैसे ही ये हड़कम्प शुरू हुआ, हमारे यहाँ भी शुरूआत हो गई. पहले तो रातों में घोड़ों पर आते थे, जो भी चीज़ मिलती उसे घसीटते हुए ले जाते थे, इसके बाद तो सीधे-सीधे लूट-मार पे उतर आए. आख़िर-आख़िर में तो लोग कपड़े पहनकर सोते थे...
बुढ़िया लगातार बोले जा रही थी, उसे इससे कोई मतलब नहीं था कि कोई उसकी बात सुन रहा है या नहीं, और इस एकसार- दयनीय आवाज़ के बोझ तले वलेंतीना विक्तोरोव्ना अपनी ज़िन्दगी की गांठें  खोल रही थी और ये याद करने की कोशिश कर रही थी कि क्या पिछली ज़िन्दगी में विश्वसनीयता के कोई ऐसे पल थे, जो असली थे, जिन पर कोई ग्रहण नहीं लगा था, जब कल की फिक्र से परेशानी नहीं होती थी...नहीं, बेशक, ऐसे दौर थे तो सही, और कई सालों के थे, मगर अब वे याद नहीं आ रहे थे. सही-सही कहें तो – विश्वसनीयता के ऐसे किसी एहसास की याद बाक़ी नहीं थी.
 “....और हमने वहाँ से चले जाने का फ़ैसला कर लिया. पूरे गाँव के साथ मिलकर फ़ैसला किया. सैंकड़ों घर थे. माल-असबाब ले जाने के लिए गाड़ियाँ कम पड़ रही थीं, अगर किसी को कुछ बेचना भी हो तो किसे बेचें? कहाँ? सभी जा रहे हैं...मेरे पास बेटा था अपने परिवार के साथ, और बेटी कब से उनकी राजधानी में, कीज़िल में रहती थी. अब शूशेन्स्कोए में है. तो पहले हम उसके यहाँ गए, वहाँ से फिर किसी तरह यहाँ आए. बेटे को यहाँ एक छोड़ा हुआ घर मिल गया, ग्राम-सोवियत से उसे ख़रीद लिया. थोड़ी सी मरम्मत कर ली...किसी तरह रहने लगे. धीरे धीरे नया घर बसाया. अब कोई बात नहीं है, मगर शुरू में तो कितनी मुसीबत उठानी पड़ी थी...यहाँ भी पहले हमें लूटा ही गया, मोटरसाईकल उठाकर ले गए. सीधे आँगन से. मिली ही नहीं. बेटा रोया...और मेरा मरद तो पड़ा है मेझेगेय में. वो सन् 88 में ही मर गया, हमारी तकलीफ़ों को उसने नहीं देखा. ओ-ओह...उसकी क़ब्र का क्या हाल है, पता नहीं. क़रीब-क़रीब हर रात गाँव मेरे सपने में आता है. चीड़ का जंगल, और पहाड़, और सभी कुछ...यहाँ की हर चीज़ बिल्कुल अलग है...
बुढ़िया की बातों में से वलेंतीना विक्तोरोव्ना के दिमाग़ में दो शब्द रह गए – “कार” और “चुरा ली”... निकोलाय से कार के बारे में बात करनी होगी – क्या उसे रखना है, या नहीं रखना है? और गैरेज का क्या करना है? क्या उसे भी बेच दिया जाए, और कार को भी, या फिर क्या करना है? कुछ न कुछ तो निश्चित करना ही होगा. और चोरियाँ...आण्टी भी कई बार कह चुकी हैं : ख़तरनाक चोरियाँ करते हैं. ख़ुदा की मेहेरबानी से, अब तक उन्हें नहीं छुआ है, मगर, यदि कार भगा ले गए तो – बिल्कुल ले जा सकते हैं...
बुढ़िया ने दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा और गहरी साँस लेते हुए उठी. घंटी दबाई; घुटी-घुटी, जैसे अल्युमिनियम की होती है, घण्टी टिरटिराई.
 “दूसरी मंज़िल पे जाईये,” उसने वलेंतीना विक्तोरोव्ना से कहा, “और वहाँ बाएँ हाथ पे पहला दरवाज़ा. उसका नाम है ओल्गा पेत्रोव्ना.”
 ओल्गा पेत्रोव्ना ऊँची, हट्टी-कट्टी, जवान औरत थी. रोबदार.
उसने वलेंतीना विक्तोरोव्ना का प्यारी सी मुस्कुराहट से स्वागत किया, जिससे उसके सामने के दाँतों पर लगी धातु की पट्टी दिखाई देने लगी. बिठाया, चाय के बारे में पूछा.
नर्मी से, धन्यवाद देते हुए वलेंटीना विक्तोरोव्ना ने इनकार किया, स्कूल की तारीफ़ करने लगी – कितना आरामदेह, गर्माहट भरा, ख़ूब रोशनी वाला है. बताया कि वह जन्म से यहीं से है, मगर रहती शहर में थी. और फिर, हिम्मत करके, पूछा कि क्या उनके पास कोई खाली जगह है, यह भी जोड़ा: तीस साल लाईब्रेरी में काम कर चुकी है, जिनमें से पाँच साल लाईब्रेरी-प्रमुख रही है, रूसी साहित्य अच्छी तरह जानती है...
ओल्गा पेत्रोव्ना के चेहरे पर उकताहट के भाव आ गए, मुस्कुराहट की जगह कड़वाहट ने ले ली, होठों के किनारे खिंच गए, गालों के नीचे गढ़े पड़ गए.
 “अफ़सोस है कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकती,” उसने कहा. “केमिस्ट हमारे पास नहीं है, मगर आप केमिस्ट नहीं है...और इन सब लिन्क्स के बारे में मैं कुछ नहीं समझती...नहीं, सभी सरकारी स्थान भरे हुए हैं. अगर आप तीन साल पहले...तब हमारे पास क़रीब-क़रीब कोई भी नहीं था, मुझ अकेली को ही इतिहास भी पढ़ाना पड़ता था, और भूगोल भी, और प्रैक्टिकल-वर्क भी. मगर अब लोग समझ गए हैं कि इससे बेहतर कोई और जगह उन्हें नहीं मिलेगी – हालाँकि तनख़्वाह दो हज़ार है, मगर, कुछ न होने से तो बेहतर है...ज़ाखोल्मोवा से एक महिला रोज़ आती है, फ़िज़िक्स-टीचर है, जबकि यहाँ से एक तरफ़ की ही दूरी तीस किलोमीटर्स है. मगर, बेचारी, भटक रही है...
फिर से घंटी बजी. डाईरेक्टर फ़ौरन उछली:
 “माफ़ कीजिए, मुझे क्लास में जाना है. सातवीं क्लास. किसी ख़ौफ़नाक सपने जैसा है – हर बार युद्ध का मैदान.”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना, सिर हिलाते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ी. डाईरेक्टर उसके पीछे-पीछे ही चल रही थी, अफ़सोस से बोली:
 “कंट्रोल करना एकदम असंभव है. किसी भी चीज़ का उन पर असर नहीं होता. मैं कहती हूँ, आप लोग अभी ज़िन्दगी की नींव रख रहे हो, आगे कोई तुम्हारी देखभाल नहीं करेगा...कोई असर नहीं! लड़कियाँ तो लड़कों से भी ज़्यादा बुरी हैं. आठवीं और नौवीं क्लास में थोड़ा बहुत समझने लगते हैं, मगर तब तक, अक्सर देर हो चुकती है...हमारा स्कूल तो नौंवी तक है. सात साल पहले ये परिवर्तन हुआ है. ऐसा होता है कि कोई मिडल-क्लास तक की शिक्षा प्राप्त करना चाहता है – या शहर चला जाता है अपने रिश्तेदारों के पास, या ज़ाखोल्मोवो. दो-तीन को हम पूरी शिक्षा दे सके – दूरस्थ विधि से, सही कहें तो. जिले से कमिटी आई थी. इम्तिहान ऐसे – कि सीधे मॉस्को विश्वविद्यालय में जा सकते हैं. मगर कुछ नहीं हुआ, बच्चों ने नीचा नहीं दिखाया, पास हो गए. मगर अब, सही में, यहीं हैं. एडमिशन के लिए पैसे ही नहीं हैं... और काम के बारे में देखें तो...मालूम नहीं मैं आपको क्या सलाह दूँ. हमारे यहाँ हालत बेहद ख़राब है. मगर, अगर अचानक कोई जगह निकल आती है, तो मैं, बेशक...”
घर लौटी – निढ़ाल, टूटी हुई. जैसे किसी ने लाठियाँ मार-मार के भगाया हो. दीवान पर पड़ कर सोने का, सोते रहने का मन कर रहा था.
मगर घर पे आई हुई थी एक मेहमान. बैठी थी सजी-धजी, क़रीब चालीस साल की एक महिला, हल्के भूरे वालों वाली, आकर्षक चेहरा. अपनी उस दयनीय अवस्था में भी वलेंतीना विक्तोरोव्ना को उस से सहानुभूति महसूस हुई. या वह महसूस करना चाहती थी. हो सकता है, ये सहानुभूति ख़ास उससे नहीं, बल्कि उस विश्वासनीयता से थी, जो उस से बिखरी जा रही थी.
  
मेहमान चाय के लिए सजाई गई मेज़ पर बैठी थी, उसके सामने – निकोलाय था. बेटा किचन में नहीं था, आण्टी, हमेशा की तरह अपनी कुर्सी में झूल रही थी, वह मेहमान की ओर लगातार देखे जा रही थी, समझना मुश्किल था कि वह उसे दिलचस्पी से देख रही है, या शत्रुता के भाव से.
 “ओ, ये रही वाल्या!” पति ने कुछ आश्वस्तता के भाव से ख़ुश होते हुए कहा. “उसके साथ बात करनी पड़ेगी...”
मेहमान ने वलेंतीना विक्तोरोव्ना पर फ़ौरन एक पैनी नज़र डाली, एक पल में उसे पूरा देख लिया, भाँप लिया और मुस्कुराने लगी. थोड़ा उठकर बोली:
 “नम-स्ते, वलेंतीना!” – उसने हाथ आगे बढ़ाया.
वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने अनाड़ीपन से उससे हाथ मिलाया – हाथ मिलाकर अभिवादन करने की उसे आदत नहीं थी. वह दरवाज़े पर वापस लौटी, ठकठकाकर जूतों से बर्फ़ निकाली. ओवरकोट उतारने लगी.
 “ये है हमारी पडोसन,” निकोलाय बोलने लगा. “एलेना...म...म?”
 “बिना पिता के नाम के भी बुला सकते हैं.”
 “एलेना ख़ारिना. ये अपने पति के साथ बगल वाली रोड़ पर रहती है...”
 “हमारे पाँच बच्चे हैं,” मेहमान ने उसकी बात को पकड़ते हुए कहा. “बड़ा है पन्द्रह साल का और सबसे छोटी अन्यूता - साढ़े तीन साल की.”
 “और सब कहते हैं कि प्रजोत्पादकता की दर घट रही है.” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने चाय की केटली का स्विच ऑन किया. “आपके पाँच बच्चे हैं, यूरी के – छह. और, मैंने सुना है कि, और लोगों के भी बहुत सारे हैं...क्या आप लोग स्थानीय हैं?”
 “ओह, न-हीं, क्या कह रही हैं! ब्रात्स्क से आए हैं. आधा सामान अभी भी वहाँ है.”
 “समझ गई. सारे बाहर से आए हुए ही हैं. मैनेजर, और स्कूल की टेक्निशियन...”
मेहमान ने सहमति में सिर हिलाया:
 “बाहरी आदमी बहुत सारे हैं. मैं कल्पना कर सकती हूँ कि फ़िलहाल आपको कैसा लग रहा होगा. हम ख़ुद भी ऐसा ही...आपकी तो दादी यहाँ है.” आण्टी तान्या की ओर संक्षिप्त मुस्कुराहट फेंकते हुए आगे बोली, “हमारे कोई परिचित भी नहीं थे. किसी ने उँगली उठाई, और हम निकल पड़े. हमारी जड़ें – मेरी, और मेरे पति की – यूराल में हैं. माँ-बाप वहीं के हैं. कोम्सोमोल्स्क के टिकट पर इलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन का निर्माण करने चले आए. मगर, हम, अब वहाँ से निकल रहे हैं. बिल्कुल वहीं...कोई सभ्यता नहीं, कुछ भी नहीं.”
चाय की केतली उबलकर खट् से बन्द हो गई. वलेंतीना विक्तोरोव्ना मुश्किल से उठी.
 “चाय पिएँगी?”
 “मैं पी चुकी हूँ. ख़ैर, डालिए थोड़ी सी. आपके निकोलाय बढ़िया चाय बनाते हैं...”
 “और आर्तेम कहाँ है?” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने पति से पूछा.
 “चला गया. कहा कि घूमने जा रहा है.”
  “मैं इसलिए आई हूँ,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना के वापस मेज़ पर बैठ जाने के बाद एलेना ने अपनी बात शुरू की. “बेशक, आपसे पहचान करने, और मदद की पेशकश करने. हम समझते हैं कि शून्य से आरंभ करना क्या होता है... मैं आपके पति से बात कर रही थी...आप कुछ कंस्ट्रक्शन तो करेंगी ही. आख़िर आप सब लोग यहाँ कैसे...उसने संकरे, कम ऊँचे किचन पर नज़र डाली.  “कुछ पैसा, बस पहली बार देना पड़ेगा. तो ऐसी बात है. ज़ाखोल्मोवो में जंगल की लकड़ी-कटाई का डाईरेक्टर हमारा दोस्त है. लकड़ी के बोर्ड्स, बीम्स, स्लैब्स... सब कुछ क्रय-मूल्य पर दे देगा. सिमेंट वालों से भी संबंध है. सिमेंट की कीमत तो पागल की तरह बढ़ रही है! मगर हमारे पास दूसरे रास्ते हैं...पेट्रोल वाली आरी, निकोलाय बता रहा था, आपके पास नहीं है. गाँव में उसके बगैर क्या करेंगे? हम अपनी वाली दे सकते हैं. हमारे पास दो हैं. दूसरी कंटेनर से फरवरी में आ जाएगी. दोस्ती की ख़ातिर दे देंगे. हाँ? और शायद ....सुअर तो पालेंगे ही, गाय भी, शायद, पालेंगे. यहाँ अपने मवेशियों के बिना काम नहीं चलेगा. चारे के इंतज़ाम में भी मदद कर देंगे. वैसे तो ये काम मुश्किल है, मगर हमने सम्पर्क बना लिए हैं. पता नहीं, अगर सब कुछ मार्केट-रेट पर ख़रीदना पड़ता, तो हम यहाँ कैसे ज़िन्दा रहते...

वलेंतीना विक्तोरोव्ना में मेहमान की बकबक सुनने की ताक़त नहीं बची थी – उसके दिमाग़ पर आज दिन भर ऐसे एकालापों की लगातार बरसात होती रही थी. दिन बहुत भारी रहा था, - मगर इस बात से उसे ख़ुशी हुई कि एक अनजान व्यक्ति अचानक आकर अपनी मदद की पेशकश करे, चाहे किसी स्वार्थवश ही सही. दिल में गर्माहट महसूस हुई, सामने रोशनी की किरण नज़र आई. कोई बात नहीं, ये आरंभिक दिन भी गुज़र ही जाएँगे, सब कुछ ठीक हो जाएगा, कुछ कर सकते हैं...उसने हाथ आगे बढ़ाकर पति की मुट्ठी पर रखा. उत्साह पूर्वक दबाया.

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