अध्याय - 9
ईस्टर के बाद, शादी से
क़रीब डेढ़ हफ़्ता पहले, निकोलाय मिखाइलोविच ने अपने आप को मजबूर किया – बेटे के
प्रति अपमान और कड़वाहट की भावना को दिल से निकाल दिया. क्या करें, अब कुछ भी बदलना
संभव नहीं था – उसे शादी न करने पर मजबूर तो नहीं किया जा सकता. आख़िर बड़ा है लड़का.
मगर रहेगा कहाँ, कैसे? और निकोलाय मिखाइलोविच घर बनाने के काम में जुट गया.
पैसों की हालत ‘टाईट’ थी, इसलिए गैरेज को
बेचने का फ़ैसला किया. भाव का पता लगाया और थोड़े उदास हो गए – औसत क़ीमत तीस हज़ार से
ऊपर नहीं थी.
शहर में वैसे भी दो बड़े-बड़े अण्डरग्राऊण्ड
ब्यूटी-पार्लर्स बन रहे थे, जिनमें ‘हीटिंग’ का इंतज़ाम था; अब को-ऑपरेटिव के लिए
ज़मीन पहले के मुक़ाबले ज़्यादा आसानी से मिल जाती थी, और धातु के सिंक भी उपलब्ध थे –
उन्हें वे लोग लगवाते थे, जो यहाँ सिर्फ गर्मियों में आते थे: ख़ासतौर से औरतें.
“क्या, बेच दें?” शहर से वापस लौटने के बाद
एल्तिशेव ने पत्नी और बेटे से पूछा. “सत्ताईस हज़ार दे रहे हैं, और रजिस्ट्रेशन का
खर्चा ख़ुद उठाएंगे.”
“ओह,ओह, ओह,” बीबी ने गहरी साँस ली, “करना क्या
है? उसे घसीट कर यहाँ तो नहीं ला सकते...तो फिर – लट्ठों का ऑर्डर देना पड़ेगा,
सिमेंट ख़रीदना होगा.”
“ठीक है-ठीक है,” निकोलाय मिखाइलोविच अभी से
‘प्लान्स’ के बारे में सुन-सुनकर थक गया था, और उसे सपने में भी “सिमेंट”,
“लट्ठे”, “ईंट” - ये शब्द सुनाई देते. “मतलब, बेच देंगे. मैंने किसी से बात कर रखी
है.”
“बेचना तो – आसान है,” आण्टी बिसूरी, “मगर
ख़रीदना...”
“आण्टी तान्या, क्या हम आपस में फ़ैसला कर लें?!”
“रुको,” निकोलाय मिखाइलोविच ने पत्नी की बात
काटी, वह बुढ़िया से मुख़ातिब हुआ: “तो, आप क्या सलाह देती हैं? हाँ?” और उसने आँखें
सिकोड़ लीं, जैसे वाक़ई में उससे किसी अकलमन्द सलाह की उम्मीद कर रहा हो, और हाँ, लग
भी रहा था कि अपने दिल की गहराई में वाक़ई में वह उम्मीद कर रहा था.
मगर आण्टी ने सिर्फ अपना सूखा हुआ, गठीला हाथ
झटक दिया, और वह खिड़की में बैठ गई, जिसके पीछे उपेक्षित किचन-गार्डन में पिछले साल
के, कंटीली झाड़ियों के ठूंठ दिखाई दे रहे थे.
“और, तू क्या कहता है?” एल्तिशेव बेटे से
मुख़ातिब हुआ.
“मैं? मैं नहीं जानता...”
“तू कुछ जानता भी है?! हुम्...ठीक है. मतलब, बेच
देंगे और बनाना शुरू करेंगे. ठीक है?”
बीबी ने और आर्तेम ने सिर हिलाए.
बुढ़िया की आलोचनात्मक-आहत नज़रों की ओर ध्यान न देने की कोशिश करते हुए, जो
ड्योढ़ी के पास वाली बेंच पर बैठ गई थी, निकोलाय मिखाइलोविच ने बाईं तरफ़ के सबसे
अंतिम ढाँचे को तोड़ दिया, जिसमें कभी, बहुत पहले, लगता है, कि सुअर रहते थे...
ढाँचा बेहद भुरभुरा था, और जैसे ही
एल्तिशेव ने लकड़ी की पट्टियाँ खींची, भीतर की दीवारों से भरभराकर भूसा, मिटी, सड़े
हुए पंख, घास-फूस बाहर निकले, और ज़मीन पर गिरकर बिखर गए, दमघोंटू धूल में बदल गए.
“हर तरह के कचरे से बनाया गया था”, निकोलाय मिखाइलोविच के माथे पर बल पड़ गए, और
दिमाग़ में अनचाहे ही पीले लठ्ठों की बनी, धूप में चमचमाती टीन की छत वाली चौकोर
कॉटेज तैर गई. कबेलू की छत किसी काम की नहीं, आजकल लोहा अच्छा आ रहा है; टाईल्स के
नीचे लगाएंगे.
बेटा मदद तो करता था, मगर – वैसे ही जैसे उसने
ज़िन्दगी भर किया था, - मरियलपन से, फूहड़पन से. कीलों से टकरा गया, उंगलियाँ ज़ख़्मी
कर लीं, आह, ओह करने लगा...लकड़ी के फट्टे भी ठीक तरह से नहीं रखे.
“अरे, इसकी अभी ज़रूरत पड़ेगी, तू उसे कहाँ सड़ी
हुई लकड़ियों के बीच रख रहा है?!” गुस्सा आ गया निकोलाय मिखाइलोविच को. “और कीलें
बाहर निकाल, या उन्हें कम से कम मोड़ ही दे.”
सही में, काम से दिल बहल रहा था, और
एल्तिशेव के मन से जैसे उदासी के बादल छंट गए, जोश भी प्रकट हो रहा था, जो,
शारीरिक श्रम कम करने के कारण, काफ़ी दिनों से महसूस नहीं हो रहा था.
मगर ढाँचे को तोड़ने का काम बहुत धीरे-धीरे
चल रहा था, और कुछ दिनों बाद जोश का स्थान बदहवासी ने ले लिया – अभी घर के लिए जगह
साफ़ कर रहे हैं (अभी लकड़ियों वाली और कोयले वाली कोठरियाँ भी तोड़ना पड़ेंगी, मतलब –
उन्हें किसी दूसरी जगह ले जाना होगा), इसके बाद नींव बनाने के लिए गढ़ा खोदना
पड़ेगा, नींव भरनी पड़ेगी...हाँ, ऐसा लगता है कि अगर पूरा सामान भी आपके हाथ में हो
तो भी गर्मियों के एक मौसम में घर नहीं बन सकता. क्या लोगों को बुलाऊँ? मगर किसे?
यूर्का को...नहीं, लोग तो मिल जाएँगे, मगर उन्हें पैसा कहाँ से देंगे? मगर, मान
लो, अगर पैसे हों भी, तो मदद कौन करेगा?
निकोलाय मिखाइलोविच अपने दिमाग़ में गाँव
के किसानों के बारे में सोचने लगा. छह महीनों में उसने काफ़ी लोगों को नज़दीक से
देखा था और उन्हें दो हिस्सों में बांट दिया था. बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का था जो
किसी तरह जी रहे थे, जर्जर झोंपड़ियों में, हमेशा नशे में तर, अपने दिन या तो गेट
के पास पड़ी बेंचों पर गुज़ारते, जैसे शक्तिहीन बूढ़े लोग हों, या गर्मियों में तालाब
के किनारे पर, जिसके ऊपर जल चुके कारखाने के डरावने भग्नावशेष लटक रहे थे... छोटा
हिस्सा मज़बूत, कई पीढ़ियों से चली आ रही कॉटेजेस में रहता था; ऐसे किसानों की
इस्टेट ऊँची-ऊँची अपारदर्शी फेन्सिंग्स से घिरी हुई थीं, उनके आँगनों में ख़ामोश,
मगर बेहद ख़तरनाक कुत्ते होते थे – अगर कोई वहाँ घुस भी जाता तो वे सिर्फ भौंकते
नहीं थे, बल्कि आपको नोंच लेते थे.
ये, छोटे वाले हिस्से के लोग, हमेशा अपने
बागों में व्यस्त रहते, उनके पास सुअर थे, गाएँ थीं, ख़रगोश थे, वे कहीं-कहीं से
बोरे भर-भर के चारा लाते थे, रास्तों पर जल्दी-जल्दी चलते थे, जैसे हमेशा जल्दी
में हों. ऐसे लोग तो, चाहे कितने ही पैसे क्यों न दिए जाएँ, दूसरों के आँगन में
खटने के लिए कभी नहीं आयेंगे, ज़्यादा से ज़्यादा, शहतीरें ऊपर से नीचे लुढ़का देंगे,
मगर निकम्मे लोग तो शायद फ़ौरन तैयार हो जाएँ, मगर काम वो ऐसा करेंगे कि नुक्सान ही
ज़्यादा करेंगे...
सड़ी हुई बल्लियों और फट्टोंको फ़ौरन छील
छालकर भूसा बना दिया गया, और थोड़ी-बहुत मज़बूत लकड़ियों को वक़्त-ज़रूरत के लिए बचाकर
रखा गया – जैसे, फ्रेम्स बनाने के लिए. पेट्रोल-आरी खारीन अब तक नहीं लाए थे –
उनका कंटेनर आ ही नहीं पा रहा था. मगर कुछ भी किया नहीं जा सकता था, ऊपर से
पति-खारिन जंगल का अफ़सर बन गया था (कम से
कम उसने ख़ुद ने ही ये ज़ाहिर किया था) और उसने खंभे, डण्डे, शहतीरें देने का वादा
किया था: उसके प्लॉट में अग्निशामक भागों का पुनर्निर्माण शुरू हो गया था. “वहाँ
काफ़ी चीड़ के पेड़ हैं.” निकोलाय मिखाइलोविच ने एडवान्स के तौर पर खारिन को पाँच सौ
रूबल्स दिए – नींव के लिए ताज़ा शहतीरों की ज़रूरत थी, और वह अगले महीने में नींव
बनाने वाला था.
नौ मई का दिन परिवार के साथ मनाया. ख़ामोशी
से खाते, पीते रहे, तनाव महसूस कर रहे थे; इच्छा होने के बावजूद निकोलाय मिखाइलोविच
मुस्कुरा नहीं पा रहा था, बेटे के कंधे को थपथपाकर कह नहीं पा रहा था : “चल, ठीक
है, भाई, सब ठीक हो जाएगा!”
मौसम इस दिन साफ़ था, खूब गर्मी थी, बाहर
रास्ते पर निकलने का मन हो रहा था. ढाँचा अब नहीं था – सिर्फ कूड़े-करकट की परत और
पत्थर बन गई सुअर की लीद पड़ी थी. लकड़ियों वाली कोठरी बिना छत के खड़ी थी, मगर उसका
भविष्य जैसे थम गया था – आण्टी दबी--दबी ज़िद से मजबूर कर रही थी कि पहले लकड़ियों
वाली और कोयले की नई कोठरियाँ बनाई जाएं: “वर्ना बारिश आ जाएगी, और तब सूखा ईंधन
कहाँ से लाएँगे?”
अपनी विवेक-बुद्धि से तो निकोलाय मिखाइलोविच
उससे सहमत था, मगर दिल पुरानी चीज़ों को तोड़ना चाहता था, घर बनाना चाहता था. फिर
लकड़ियों और कोयले की नई कोठरियाँ बनाने के लिए सामान भी नहीं था – मिट्टी से तो
नहीं ना बना सकते...
“कहीं पास ही में बनाना पड़ेगा,” और त्यौहार के
लिए सजाई गई मेज़ पर ही बुढ़िया ने भुनभुनाना शुरू कर दिया. “मैं दूर तो नहीं जा
सकती – मेरे पैर ठीक नहीं हैं...”
“आप को कोयले के लिए जाने की ज़रूरत ही क्या है?”
वलेंतीना आवेश से बोली. “कोल्या है, तेमा भी है.”
“ए-ए...” आशाहीन, अविश्वास दिखाती गहरी साँस.
निकोलाय मिखाइलोविच और ज़्यादा उदास हो
गया, उसने जाम भर दिए:
“चलो, त्यौहार की ख़ुशी में...”
तात्याना आण्टी की मनोदशा उस तक भी पहुँच
गई, उसे हर छोटी-छोटी चीज़ के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया, और बेटे की जल्दी
होने वाली शादी के ख़याल रह रहकर अपने भारी पंजों से उसके दिल को दबाए जा रहे थे - आकस्मिक,
जल्दबाज़ी की, ग़लत शादी के.
मजबूरन समधियों से कुछ बातें तय करनी
पड़ीं, शादी कहाँ होगी – त्यापोवों के आँगन में. आँगन बड़ा है, समतल है; मेज़ें बाहर
लानी पडेंगी, सबको बिठाना पड़ेगा (न जाने क्यों समधी सोच रहे थे कि मेहमान बहुत
होंगे). कल सुबह शहर जाकर सामान खरीदना होगा, सामान की लिस्ट भी बना ली थी.
नोट-बुक के दो पन्ने भर गए थे...
निकोलाय मिखाइलोविच ने गैरेज फ़ौरन बेच
दिया, कागज़ात बनाने में क़रीब डेढ़ घण्टा लगा, और अब ड्रेसिंग टेबल की दराज़ में
सत्ताईस हज़ार रूबल्स हैं. कल उनमें से कुछ खर्च हो जाएँगे. मगर क्या आज के हिसाब
से ये कोई बहुत बड़ी रकम है? एक घनमीटर शहतीर की कीमत, एल्तिशेव ने पता लगाया था - क़रीब
डेढ़ हज़ार है. घर के लिए कम से कम पन्द्रह की ज़रूरत पड़ेगी. एक-एक क्युबिक-मीटर की.
डेढ़ हज़ार के हिसाब से पन्द्रह की कीमत हुई... बाईस हज़ार पाँच सौ...ठूंठों से लेना
बेहतर होगा – सस्ता पड़ेगा. हालाँकि...लोगों से सलाह-मशविरा करना पड़ेगा.
सबसे ज़्यादा अप्रिय बात ये थी कि अब तक ये
निश्चित नहीं कर पाए थे कि आर्तेम और उसकी बीबी रहेंगे कहाँ. दोनों पक्षों ने इस
सवाल को अनदेखा कर दिया. हंगामा करने से डर रहे थे.
एल्तिशेवों के घर से दो आँगन छोड़कर एक परित्यक्त
कॉटेज थी. निकोलाय मिखाइलोविच एक बार वहाँ गया, उसे ग़ौर से देखा, इस उम्मीद से कि
उसकी मरम्मत कर लेगा, पहले उसे रहने के क़ाबिल बना लेगा, मगर आशा फ़ौरन ही मिट्टी
में मिल गई – फ्रेम का एक कोना पूरी तरह सड़ चुका था और कॉटेज एक ओर को झुक गई थी,
किसी तरह धूल मिट्टी पर टिकी थी.
बारह मई को सुबह निकोलाय मिखाइलोविच बेटे
को दुल्हन के साथ ज़ाखोल्मोवो ले गया. वहाँ उन्होंने दस्तख़त किए. साथ में वलेंतीना
की एक बहन थी, बड़ी उम्र की, पिलपिली-मोटी औरत जिसकी ठोढ़ी पर बाल थे. पूरे रास्ते
एल्तिशेव अप्रसन्नता और उत्सुकता से उसकी ओर देख रहा था: “अच्छे रिश्तेदार दिए हैं
ख़ुदा ने.” मगर, उसने ऐसा दिखाया नहीं – आख़िर समारोह जो था. मौसम भी ख़ुशगवार था.
आसमान बसंत के अनुरूप ऊँचा और साफ़ था, पेड़ नर्म-नाज़ुक हरियाली से ढंक गए थे. गाँव
के निकट के चरागाह में गायें जी भरके, महीनों की सूखी घास के बाद, अभी-अभी फूटी
घास खा रही थीं. बगीचों में नम धरती को जोतते हुए, ट्रैक्टर चिंघाड़ रहे थे.
त्यापोवों के खुले गेट पर उनका इंतज़ार ही
हो रहा था. क़रीब पन्द्रह आदमी थे. निकोलाय मिखाइलोविच की बीबी समधन के पास खड़ी थी,
दोनों पूरा मुँह खोलकर मुस्कुरा रही थीं, मगर आँखों में उत्तेजना और चिंता नज़र आ
रही थी. वलेंतीना का बाप, जो, स्पष्ट था कि पहली मई के बाद होश में आया ही नहीं
था, अकॉर्डियन को ठीक करने में लगा था. उस झुण्ड में एल्तिशेव ने यूर्का को भी
देखा, ढंग से कपड़े पहने हुए, ‘शेव’ किए हुए, बीबी के साथ – छोटी सी, सुघड़, जैसे
उसने छह बच्चों को जनम ही नहीं दिया हो. अप्रत्याशित रूप से, खारिन परिवार भी था.
बाकी लोगों को या तो वह बिल्कुल नहीं जानता था, या उनसे कभी रास्ते में मिला था.
ख़ासकर, शायद, दुल्हन के रिश्तेदार थे और उसकी सहेलियाँ.
जैसे ही कार से उतरने लगे, त्यापोव ने अपना
अकॉर्डियन बजाना शुरू कर दिया, वह नशीली आवाज़ में गाने लगा:
“उतरा है कोई–तो पहाड़ी
से,
आया है शायद, मेरा प्रीतम प्यारा!...”
और जल्दी से चुप हो गया – गाना उत्सव की
भाग-दौड़ में बधाईयों में, चीख़ों में, आलिंगनों में बाधा डाल रहा था.
सब लोग खाने-पीने की चीज़ों और बोतलों से
खचाखच भरी मेज़ के चारों तरफ़ बैठ गये. नवविवाहित जोड़ा संजीदा था, कुछ उदास भी.
ख़ासतौर से आर्तेम – आँखें नीचे कर लेता था, माँ-बाप की आँखों से आँखें न मिलाने की
कोशिश कर रहा था. मगर मेहमान तो दावत का भरपूर लुत्फ उठा रहे थे. हर बार बधाई का
घूंट पीकर कोई न कोई मुँह बनाने की कोशिश करता:
“आपका सॉसेज तो बेहद ती-ई-खा है!”
और बाकी लोग भी तरह
तरह की आवाज़ें निकालते हुए उसका साथ देने लगते:
“ती-ई-खा! ती-ई-खा!”
आर्तेम और वलेंतीना ने
उठकर एक दूसरे का चुम्बन लिया. जैसे, कुछ सकुचाते हुए, मुश्किल से. जैसे एक दूसरे
के लिए अनजान हों...
इस समय, दुल्हन के
माँ-बाप को, उसकी बहनों को ठीक से देखना संभव होने के कारण, निकोलाय मिखाइलोविच उन
सामान्य लक्षणों पर ध्यान दे रहा था, जो रिश्तेदारों को एक समान बनाते हैं.
वलेंतीना के बाप की पलकें भारी, फूली-फूली थीं; पहले तो एल्तिशेव को लगा कि ये नशे
के कारण है, मगर अब देखा कि – ये उनके परिवार में ही है. और गण्डास्थियाँ (गालों के
ऊपर की हड्डियाँ) भी एक जैसी थीं – नुकीली, भारी. आदमी के लिए तो ये चल जाता है,
मगर औरतों के चेहरे को ख़राब कर देता है. वलेंतीना की दोनों बड़ी बहनें भरी-पूरी,
चौकोर सी थीं, माँ पर गईं थीं. वलेंतीना ने तो अपने ‘फिगर’ को बनाए रखा था, मगर
ये, हद से हद, पहले बच्चे के जन्म तक ही रह पाएगा. लड़कियों की नाक भी माँ के समान
थी – चौड़ी, हल्की मुड़ी हुई. जवानी में तो बड़ी प्यारी लग रही है, शायद, मगर चालीस
की उम्र तक... “हुम्, रिश्तेदार, रिश्तेदार”, एल्तिशेव अपने ख़यालों में लगातार यही
दुहरा रहा था, और इस समय अपनी बीबी और बेटे उसे असली कुलीनों जैसे प्रतीत हुए.
हर बार जाम पीने के
बाद बाप-त्यापोव अकॉर्डियन बजाने लगता, उसे गिरा देता, गुस्सा करता, ख़ुद भी गिरने
लगता. फिर वह कुर्सी से उठा, डगमगाते हुए, जैसे हवा में कोई टहनी डगमगाती है,
निकोलाय मिखाइलोविच के पास आया.
“कहो, समधी, प्यारे,”
कंधों से लिपट गया, “अब अपनी ज़िन्दगी जिएँगे? ऐह, आख़िरी लड़की की शादी कर रहा हूँ,
उसे छोड़ रहा हूँ. पियेंगे?”
“अब और कितना पियोगे?” बीबी ने उसे रोका. “जाओ,
जाकर लेट जाओ.”
“अरे-अरे! आख़िरी लड़की!...और फिर,” त्यापोव ने
बीबी की कमर में उँगली गड़ाई, “फिर यहाँ रह जाऊँगा इसके साथ सड़ने के लिए. और इसकी
माँ के साथ. बीस साल से मेरे पास रह रही है. मरने के लिए आई थी, मगर...”
बीबी ने
अकॉर्डियन-वादक पति को झकझोरा:
“बार-बार ये हथौड़ा चलाना बन्द करो! औरतें क्या
कहेंगी...”
निकोलाय मिखाइलोविच ने
सामने पड़े गिलासों में वोद्का डाल दी. जितना हो सकता था, उतने जोश में उसे बुलाया:
“आ जा, गिओर्गी स्तेपानोविच, सुखद भविष्य के
लिए! बच्चों का सब अच्छा ...”
“व्व्वा-व्वा! ये सही है! बिल्कुल सही है!” और
जाम टकराना भूलकर त्यापोव ने गिलास की सारी वोद्का मुँह में झोंक दी.
एल्तिशेव को, हमेशा की
तरह, धीरे-धीरे नशा चढ़ रहा था. मगर आज जैसे नशा नहीं चढ़ा, बल्कि मन भारी हो गया.
हर जाम के साथ ये मेज़ और ज़्यादा अप्रिय होती जा रही थी, मेहमान – मौक़ा-परस्त,
अनावश्यक प्रतीत हो रहे थे. ये देखकर चिड़चिड़ाहट हो रही थी कि यूर्का कैसे लालची की
तरह खा रहा है, बिना ब्रेड के, कैसे बाकी लोगों का इंतज़ार न करते हुए, किसी को पेश
किए बगैर अपने गिलास में वोद्का डाले जा रहा है और गटक रहा है, गटक रहा है...
“दिमाग़ सरक गया है”. मौसम के कारण पैदा हुई ख़ुशी चिड़चिड़ाहट पैदा कर रही थी:
“कैसा अच्छा—आ मौसम है! ये अच्छा शगुन है: ख़ुदा
हमारी शादी को धूप का आशिर्वाद दे रहा है!”
“हाँ-हाँ! मौसम – लाजवाब है, क्या कहना!...”
निकोलाय मिखाइलोविच ने
कोट की जेब में सिगरेट टटोली. वह गेट की ओर गया. लकड़ी के मोटे फट्टे से बन्द
डिब्बे में कुत्ता गुरगुरा रहा था. “कुत्ता पालना चाहिए,” दिमाग़ में विचार कौंध
गया, “रात को कार बिना निगरानी के रहती है. किसी दिन...”
मेज़ पर फिर से हंगामा
होने लगा था:
“ती-ई-खा! ती-ई-खा!”
आर्तेम और वलेंतीना
थकावट से उठे, बिना आलिंगन किए, होठों के किनारों से एक दूसरे का चुम्बन लिया.
मेहमानों ने तालियाँ बजाईं, गिलासों की खनखनाहट होने लगी. “शादी की पहली रात वे
कहाँ बिताएँगे?...”
“निकोलाय मिखाइलोविच,” खारिना का पति सामने खड़ा
था, ऊँचा, सूखा-सड़ाक, बिल्कुल गाँव के आदमी जैसा नहीं लगता था, जिस पर चश्मा अच्छा
लगता. (मगर, वह तो वाक़ई में शहर से है, एल्तिशेव को याद आया.) – “सिगरेट नहीं
पिलायेंगे?”
एल्तिशेव ने सिगरेट
पेश कर दी.
“और लाईटर...”
“नंगे, कफ़ल्लक”,
एल्तिशेव को याद आया कि ड्यूटी पर सार्जेंट्स अक्सर यही कहा करते थे.
“वो, पॉवर-आरी का क्या हुआ?” उसने पूछ लिया.
“वो कंटेनर आ ही नहीं पा रहा है!” खारिन फ़ौरन
प्रतिरोध करने लगा. “हर रोज़ फोन करते हैं, झगड़ा करते हैं. कहीं खो न गया हो.”
“मैं तो नींव खोदने ही वाला था. इन नौजवानों को
रहने के लिए जगह तो देनी पड़ेगी ना....घर बना रहा हूँ.”
“हाँ-हाँ, सही है. और आप क्या हाथों से खोदेंगे?
मैं ट्रैक्टर वाले से बात कर लेता हूँ. ज़ाखोल्मोवो में मेरा एक दोस्त “बेलारूस”
में काम करता है. हाँ? आधे घण्टे का काम है.”
“कितने पैसे लगेंगे?”
खारिन ने ‘नर्वस’ होकर
कंधे हिला दिए:
“वैसे कह नहीं सकता. बात करेंगे...क़रीब दो सौ
में, शायद, पटा लेंगे.”
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