अध्याय 12
क़रीब दस जुलै से गाँव
के अधिकांश लोग पूरे-पूरे दिन चीड़ के जंगल में बिताते. पहले तंग घाटियों में पके
हुए मधुमालती के फूल चुनते. वो, जिनके पास मोटरसाईकल्स और कारें थीं या जो
ट्रैक्टर्स लेकर आते थे, आगे बढ़ जाते, सायान पर्वत शाखाओं की ओर, जहाँ से तायगा
शुरू हो जाता था. वहाँ, पहाड़ी नदियों के किनारे-किनारे मधुमालती के बड़े-बड़े, घने
फूल होते थे. दो घंटों में बालटी भर फूल चुने जा सकते थे.
शाम को ख़रीदार, सिग्नल
देते हुए, रास्तों से गुज़रते, एक बालटी के लिए सौ या एक सौ बीस रूबल्स देने की
पेशकश करते. कई लोग वहीं पर बेच देते, बाकी के शहर के मार्केट में बेरीज़ ले जाते,
वहाँ उनका व्यापार करते, एक सौ पचास – एक सौ सत्तर रूबल्स के भाव से... ( ये सच है
कि दिन भर में पूरा माल बेचना संभव नहीं हो पाता था, बेरीज़ काफ़ी मात्रा में थीं).
मधुमालती के कुछ ही
बाद मशरूम्स निकलते. पहले सूखे-सूखे – उनकी कीमत ज़्यादा नहीं मिलती थी, मगर वे अनगिनत
मात्रा में शैवाल से निकलते थीं, उन्हें लोग ख़ुशी-ख़ुशी चुन लेते थे: बेचो – न
बेचो, सर्दियों में ख़ुद के ही खाने के काम आ जाते थे. नमक लगा के डिब्बों में या
टबों में भर देते थे; ऐसे भी परिवार थे, जिनके पास खाने के लिए मशरूम्स के सिवा
कुछ नहीं होता था. सूखे मशरूम्स के बाद असली मशरूम्स और नारंगी टोपी वाले
कुकुरमुत्तों के प्रकट होने का समय आता. इनकी बाज़ार में बहुत मांग थी, और ख़रीदार
उनके पीछे पड़े रहते. मशरूम्स के मौसम में दुकान की बगल में स्थित मार्केट-यार्ड का
शेड खोल दिया जाता था, मगर वहाँ सस्ते मे ख़रीदते थे, तौल के हिसाब से (सात रूबल्स
प्रति किलोग्राम के हिसाब से), और कीड़े लगे और टूटे-फूटे भी ले लेते. मार्केटयार्ड
में ख़ासकर स्थानीय शराबी जाते थे, जिससे आधे लिटर के लिए कुछ पैसा कमा सकें या फिर
अकेली बूढ़ी औरतें.
सितम्बर में तो
लाल-बिल्बेरीज़ पकने लगीं थीं – जंगल में वे बहुत ही छोटी-छोटी, विरल थीं, जिन्हें
हाथों में समेटना पड़ता था, मगर तायगा में पेड़ों के बीच वाले खुले मैदानों में –
खूब घेरदार, कुछ लम्बी, मटर के दाने जितनी बड़ी होती थीं. इन्हें चुनने के लिए लगभग
हरेक के पास एक चप्पू जैसा पंजा तैयार रहता था : हत्थे वाला प्लायवुड या टीन का
पंजा, जिसके सिरे पर बहुत पास-पास लोहे के दाँते होते हैं, जो थोड़े से ऊपर को मुड़े
होते हैं. इस पंजे से बिलबेरीज़ को छान-छनकर निकाला जाता था – बेरीज़ और कुछ
पत्तियाँ ट्रे में गिर जातीं, डंठल दांतों के बीच में से बाहर फिसल जाते. पंजे की
सहायता से बाल्टी देखते-देखते भर जाती.
वलेंतीना विक्तोरोव्ना
को याद था कि कैसे पहले बिल्बेरीज़ चुनने के लिए जाया करते थे. उस ज़माने में लगभग किसी
के भी पास कोई वाहन नहीं होता था, सोवियत फार्म के ट्रैक्टर्स का और घोड़ों का
इस्तेमाल करने से डरते थे, इसलिए पैदल ही निकल पड़ते थे. पीठ पर बेंत के बड़े बड़े
बोरे लादते, अपने साथ दरी और तिरपाल लेते, खाने-पीने का सामान रख लेते. तीन दिनों
के लिए, पाँच दिनों के लिए जाते. उस ज़माने में बिल्बेरीज़ पैसे कमाने का अच्छा साधन
था, पर अब, शायद गरीबी से बचाने का बड़ा साधन था. मगर तायगा में जाने की हिम्मत
करने वाले लोग अब बहुत कम रह गए थे, इनमें उस समय ट्रेनिंग पाए बूढ़ लोग ही ज़्यादा थे.
वे, जो कुछ जवान थे, या तो इस अभियान पर जाते ही नहीं थे (मशरूम्स को छोड़कर – जिन्हें
फ़सल आने पर जल्दी और आसानी से इकट्ठा कर सकते थे) या फिर अपने आप को चीड़ के जंगल
तक ही सीमित रखते थे.
गाँव के पीछे वाली
पहाड़ियों पर स्ट्राबेरीज़ लगती थीं, मगर उन्हें ख़ास तौर से अपने लिए ही इकट्ठा करते
थे – उनकी संख्या कम होती थी, फिर ऊँची-ऊँची घास के कारण वे ठीक तरह से पकती नहीं
थीं: हरी-हरी, पनीली, जल्दी खट्टी होने वाली – ऐसी स्ट्राबेरीज़ को मार्केट नहीं ले
जा सकते. उसे उबाल कर मुरब्बा बना लेते थे, या, जिसके पास शकर नहीं होती थी, वे
उन्हें सुखा लेते थे जिससे बाद में चाय में डाल सकें, या भरवाँ पकवान बना सकें.
मगर इन पकवानों की बड़ी क़द्र की जाती थी, इन्हें बेचा जा सकता था.
मधुमालती की बहार को
एल्तिशेवों ने लगभग खो ही दिया था. तहख़ाना बनाने में लगे रहे, नींव भरने की तैयारी
करते रहे. आर्तेम ने दो-एक बार कहा भी कि वाल्या के माँ-बाप मधुमालती चुनने जाने
वाले हैं; कहते हैं कि इस बार मधुमालती की फसल बड़ी अच्छी आई है, मगर उसकी बातों पर
उन्होंने ध्यान नहीं दिया. इसके लिए फुर्सत नहीं थी...
फिर समधी आया, गिओर्गी
स्तेपानोविच, पूरे होश में, क्लीन-शेव, गोल चांद के चारों ओर सफ़ेद बाल करीने से
बनाए हुए. आँगन में वलेंतीना विक्तोरोव्ना और निकोलाय को देखकर मुस्कुराया:
“नमस्ते!” और
‘मस्क्विच’ के पास से गुज़रते हुए उस पर अपना खुरदुरा हाथ फेरा. “क्या हाल है?
शू...बिच्छू-बूटी,” जूतों पर लपकती दीन्गा
को दूर हटाते हुए बोला.
“हूँ, बस यूँ ही...”
निकोलाय इस समय फ्रेम
बना रहा था, वलेंतीना विक्तोरोव्ना बोर्ड को पकड़े हुए उसकी मदद कर रही थी; इस समय
आर्तेम घर में नहीं था.
“अम्,” समधी ने अर्थपूर्ण ढंग से सिर हिलाया,
जैसे कोई महत्वपूर्ण जवाब सुन लिया हो. “अगर किसी तरह की मदद की ज़रूरत हो, तो
बेझिझक बताना. आख़िर हम रिश्तेदार हैं,” तहख़ाने के बोर्ड्स और घासफूस से ढंके
तहख़ाने वाले गड्ढे की ओर देखा. “गह-रा-आ है. सही है...मैं वो, ये कहने वाला था.
बेरीज़ निकल आई हैं. सुना?”
“सुना,” उसीके लहज़े में निकोलाय ने जवाब दिया.
“तो फिर कैसे? जाने वाले हैं? इस साल मधुमालती
बढ़िया हुई है. मैं वहाँ बीबी के साथ गया था – दो बाल्टियाँ खींच लीं. अम्? मगर
सायान में झाड़ियाँ सब नीली-नीली हैं – नहीं लेना चाहता.”
और, धीरे-धीरे, जैसे किसी खम्भे को हिला रहा हो,
वह एल्तिशेवों को तायगा में जाने के लिए मनाने लगा.
”दिन भर में तीन-तीन
बाल्टियाँ लपक लेंगे. एक हिस्सा अपने लिए – शकर मिलाकर पका लेंगे, बचा हुआ – बेच
देंगे. दस लीटर की बाल्टी के एक सौ सत्तर मिलते हैं. इतना अच्छा कहाँ मिलेगा!”
निकोलाय ने ईमानदारी
से कहा कि कार में पेट्रोल बिल्कुल टैंक की तली तक पहुँच गया है. सिर्फ ज़ाखोल्मोवो
तक ही जा सकते हैं (मुरानोवो में पेट्रोल पम्प नहीं था.)
“अच्छा?” समधी ने संदेह से नाक-भौंह चढ़ा लिए.
“ठीक है, चल. इंतज़ाम कर लेंगे. और कल सुबह – निकल पड़ेंगे. इंतज़ार किसका करना है – मौसम
तो देखो कैसा बढ़िया है, गरम...मधुमालती खतम हो गई तो न बेरीज़ मिलेंगी, न पैसे.”
एल्तिशेव राज़ी हो गए.
सुबह-सुबह – जैसे ही
सूरज निकला – चारों चल पड़े. नौजवान घर में रह गए.
“सोने दो उन्हें,” समधी ने उबासी ली, मगर उसकी
बीबी हमेशा की तरह फ़ौरन उससे बहस करने लगी:
“मैं ख़बर लूँगी – सोने दो! और गाय कौन दुहेगा?
सोने दो... उस दुनिया में पूरी कर लेंगे नींद.”
“वाल्या की तबियत कैसी है?” वलेंतीना
विक्तोरोव्ना ने उसकी बात काटते हुए सवाल पूछा.
“हाँ, ठीक है. कोई कम्प्लेन्ट नहीं है.”
“म्-म्...”
मिलावट वाले पेट्रोल
के कारण ‘मस्क्विच’ जैसे छींक रही थी, कहीं कुछ ‘फुस्’ हो जाता, और वलेंतीना
विक्तोरोव्ना थमते हुए दिल से डर रही थी, कि अभी कोई ज़ोर की ‘फुस्’ होगी और - कार
बन्द पड़ जाएगी. एक बार का किस्सा वह भूल नहीं सकती – क़रीब पाँच साल पहले वे दोनों
शहर से बाहर गए. साथ में मीट और कबाब की सींके ले गए, छोटी-सी पिकनिक करने का
इरादा था, जवानी के दिनों की याद ताज़ा करना चाहते थे. मगर इसके बदले में एक सुनसान
जगह पर कार्बुरेटर सुधारना पड़ा. और मच्छरों के – झुण्ड के झुण्ड – निकोलाय कार के
नीचे घुसा था, और वह रूमाल से उसके ऊपर हवा करती रही.
शुरू में तो रास्ता
हालाँकि गड्ढ़ों वाला था, मगर था तारकोल का; फिर, एक छोटे से, तारकोल-पेपर की छतों
वाली क़रीब दस-बीस नीची झोंपड़ियों वाले देहात के बाद – जिसका नाम था ‘मुस्कुराते
झरने’, कच्चा रास्ता शुरू हो गया. अब चीड़
के पेड़ों के बदले फर और देवदार के पेड़ दिखाई देने लगे थे, ‘मस्क्विच’ का इंजिन
खड़खडाने लगा था. पहाड़ तो नहीं थे, मगर ज़मीन की सतह लगातार ऊँची-ऊँची होती जा रही
थी.
“व्वो-व्वो!” तीखे सुर में, जैसे डरा रहा हो,
त्यापोव चिल्लाया. “अब दाईं ओर को एक मोड़ आएगा! छोड़ मत देना.”
निकोलाय ने कार धीमी
की.
“अब... मोड़ ले.”
रास्ते पर लगी घनी
झाड़ियों के बीच मुश्किल से पगडंडी दिखाई दी.
“एक और किलोमीटर, और –
मेरी जगह,” समधी ने ऐसे कहा जैसे बहुत बड़ा भेद खोला हो.
मगर एक किलोमीटर नहीं
गए – लगभग उसी समय पत्थर, नालियाँ, अज्ञात गहराई के पानी के डबरे शुरू हो गए.
“यहाँ
सिर्फ SUV में ही जा सकते हैं,” निकोलाय ने फ़ैसला कर लिया और, हौले से
पगडंडी से दूर होकर इंजिन बन्द कर दिया.
“रास्ता अच्छा ही है, मिखाइलिच, आगे जा सकते
हैं. हम यहाँ विताल्का के साथ “यूराल” में आए थे...”
“मुक़ाबला भी किसका किया – “मस्क्विच” और
“यूराल”. मैं झाड़ियों को रौंदते हुए नहीं जाना चाहता. पैदल जाएँगे.”
ज़मीन से बड़े-बड़े काई
से ढंके गोल पत्थर बाहर निकले थे, और उनके बीच में घिचपिच करते, जैसे तंग कॉरीडोर
में लोग भरे हों, मरियल फर के वृक्ष, सूखे देवदार और मधुमालती की झाड़ियाँ झाँक रही
थीं. बेरीज़ के तो वाक़ई में गुच्छे के गुच्छे थे, ये सही है कि उन्हें चुनना आसान
नहीं था – काई के नीचे की दलदल पैरों को धीरे-धीरे नीचे खींच रही थी, और एक-एक
मिनट में पैर बदलना पड़ रहा था. ये तो अच्छा था कि उन्होंने घुटनों तक लम्बे जूते
पहने थे, वर्ना...
गिओर्गी स्तेपानोविच
जोश से काम में लग गया, एक ही साथ दोनों हाथों की सभी उँगलियों से झाड़ियाँ पकड़
लेता और उनसे बेरीज़ को नोंच लेता. हथेलियों से पैरों के बीच दबाई हुई बाल्टी में
फेंकता जाता.
उसने बड़ी जल्दी बाल्टी
भर बेरीज़ चुन लीं – नोंच लीं और कार की ओर चल पड़ा. रास्ते में फुसफुसाकर, मगर
वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने सुन लिया, निकोलाय से बोला:
“चल, थोड़ा ठहर जाएं, सौ-सौ ग्राम्स हो जाए? मेरे
पास है.”
निकोलाय ने इनकार कर
दिया.
त्यापोव फिर लौटकर
नहीं आया. उसकी बीबी पहले तो ख़ुद से ही बड़बड़ाती रही, फिर एल्तिशेवों से बोली:
“शैतान उसे कहाँ ले गए? हमेशा ऐसे ही करता है –
शुरू करता है और बीच में ही छोड़ देता है.”
दो-दो बाल्टियाँ
इकट्ठा करने के बाद कैम्प की तरफ़ चल पड़े. गिओर्गी स्तेपानोविच “मस्क्विच” की बगल
में सूखी घास पे लेटा था. बगल में – खाली बोतल, किनारों से खाई हुई ब्रेड पड़ी थी.
“ये क्या हो रहा है?!” त्यापोवा को फ़ौरन गुस्सा
आ गया. “तूने फिर से क्या खा लिया?! ईडियट...”
और, बाल्टियाँ फेंककर,
- अच्छा हुआ कि वे गिरी नहीं, “वह पति को झकझोरने लगी, बालों से पकड़ कर ऊपर की ओर
खींचने लगी. गिओर्गी स्तेपानोविच मिमियाया और उसने हाथ झटक दिए.
“चलो, सोने दो उसे!” वलेंतीना विक्तोरोव्ना से
रहा नहीं गया. “अब उठकर करेगा भी क्या...”
”ऊ-ऊ, बदनसीब ईडियट.”
और त्यापोवा ने उसके सिर पे मुट्ठी से वार किया; गिओर्गी स्तेपानोविच फिर से घास
पे गिर गया.
कुल मिलाकर उनके हाथ
सफ़लता ही लगी थी. अगर समधी को, जो होश में आया ही नहीं, नहीं गिना जाए, तो हरेक ने
चार-चार बाल्टियाँ इकट्ठा कर ली थीं. उजाला रहते ही गाँव में वापस लौट आए.
अगली सुबह, जैसे ही
मधुमालती चुनने बैठे, फिर से गिओर्गी स्तेपानोविच आ गया. जोश में, फुर्तीला.
“तो, क्या तय किया?”
“किस बारे में?”
“इसके बारे में,” बेरीज़ की ओर देखकर सिर हिलाया.
“शकर मिलाकर रख देंगे.”
“इतनी सारी कैसे रखोगे?! सर्दियों में दस लिटर्स
काफ़ी हो जाएगी. ये कोई आलू थोड़े ही है...चलो, मिखाइलिच, ले चलो, बेच देंगे. आँ?”
त्यापोव ने दोस्ताना अंदाज़ में निकोलाय को धकेला. “कैसा भी हो, है तो पैसा.”
एल्तिशेव विरोध करने
ही वाले थे, विक्रेता के रूप में मार्केट जाना उन्हें ओछा काम लग रहा था, मगर
त्यापोव उन्हें मनाता रहा और आख़िरकार मना ही लिया. कुछ भी हो, तीन सौ रूबल्स – मतलब सिमेंट की
चार बोरियाँ...
निकोलाय कार निकालने
गया. वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने अपना छुट्टियों वाला सूट पहना.
...बाद में, जब कुछ भी
वापस लौटाना, बदलना संभव नहीं रह गया था, वह अक्सर सोच में पड़ जाती, ये सुनिश्चित
करने की कोशिश करती कि किस घड़ी में ज़िन्दगी का अधोपतन शुरू हुआ, बाहरी नहीं (बाहरी
तौर से तो काफ़ी पहले से शुरू हो गया था, डेनिस की गिरफ़्तारी के साथ), बल्कि भीतरी;
कब से नैतिकता के धागे एक के बाद एक टूटना शुरू हो गए और जिस काम को करने की पहले अनुमति
नहीं थी, उसकी अनुमति कब मिल गई और बाद में हर चीज़ की अनुमति मिलती गई?...हाँ,
इसकी शुरूआत उस दिन हुई थी. कम से कम उसके लिए.
निकोलाय की कार
स्टार्ट नहीं हो रही थी, और वह, चाभी को इग्निशन में घुमाता, कैबिन से बार-बार
बाहर आकर कुछ दुरुस्त करता, कभी स्क्रू-ड्राइवर से कार्बोरेटर साफ़ करता, कभी
स्टार्टर के साथ कुछ करता, पहली बार बाहरी आदमियों का लिहाज़ न करते हुए गालियाँ दे
रहा था. फिर त्यापोव आए, उन्हें पता चला कि “मस्क्विच” नहीं चल रही है, बस में
जाने का फ़ैसला किया. वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने पति की आँखों में क्षमा-याचना देखी,
बोली: “कोई बात नहीं, मैं इनके साथ चली जाती हूँ.” बाल्टियों को तकियों के खोलों
में लपेटा, और वे भागे.
बस-स्टॉप पर क़रीब बीस
लोग थे. ख़ास तौर से औरतें, बाल्टियाँ लिए. पति ने उसे बस के भीतर घुसने में मदद की,
सिरों के ऊपर से बेरीज़ की बाल्टियाँ थमाईं. वलेंतीना विक्तोरोव्ना को औरतों की
बदतमीज़ी, उनके धक्के गुस्सा नहीं दिला रहे थे, जैसे सब कुछ नींद में हो रहा था.
धक्कामुक्की में हर
औरत अपनी-अपनी बाल्टियाँ संभाल रही थी, शहर तक पहुँच गए. जैसे ही बस के दरवाज़े
खुले – सब तेज़ी से मार्केट की ओर भागे.
शहर में मार्केट तो कई
थे, मगर आदत के मुताबिक ज़्यादातर लोग सेंट्रल-मार्केट में ही खरीदारी किया करते
थे, जो बस-स्टैण्ड और टी.वी. केन्द्र के बीच में था. व्यापार करने वाले वहीं भागते
थे.
प्राइवेट व्यापारियों
के लिए लोहे के काऊन्टर्स की कुछ कतारें थीं. सर्दियों में और आरंभिक बसंत में ये
काऊन्टर्स खाली पड़े रहते थे या फिर खिलौने, मोज़े, बिजली के छोटे-मोटे उपकरण बेचने
वाले यहाँ आ जाते, मगर गर्मियों में काऊन्टर के एक-एक सेंटीमीटर के लिए सचमुच का
युद्ध होता था. गालियाँ देते, खिसकने को मजबूर करते, अपने दोस्तों के लिए जगह
घेरते, किनारे वाली जगह पकड़ने की कोशिश करते, जिससे ज़्यादा से ज़्यादा खरीदार माल
देख सकें.
वलेंतीना विक्तोरोव्ना
मार्केट में दो बाल्टियों समेत नौ बजे के बाद पहुँची – तब तक दुकानदार सारी जगहें
घेर चुके थे, अपने माल को आकर्षक ढंग से सजा चुके थे, शाम तक के लिए यहाँ जम चुके
थे. फोल्डिंग कुर्सियों पर, डिब्बों पर बैठे थे या खड़े थे, मूली के, पहली ककड़ियों
के, सरसों के ढेर लगा रहे थे, बोतलों से उन पर पानी छिड़क रहे थे, जिससे वे चमकते
रहें, अपने बदतमीज़ पड़ोसियों से अलसाई हुई आवाज़ में गाली-गलौज कर रहे थे. हर नए आने
वाले दुकानदार को दोस्ताना अंदाज़ से कहते:
“यहाँ कोई जगह नहीं है! कहीं नहीं! वहाँ
ढूँढ़िए.” और न जाने किस तरफ हाथ हिलाकर इशारा करते.
“तो, ऐसा है...” वलेंतीना विक्तोरोव्ना परेशान
हो गई. “कहाँ?...”
समधन ने मदद की, जो
ऐसे हालात से पहले भी गुज़र चुकी थी, वह उसे काऊन्टर्स की कतारों के आगे ले गई.
वहाँ जंगली प्रकृति के
उपहारों के विक्रेताओं की लम्बी लाईन लगी थी – कुछ लोगों के पास मधुमालती, किशमिश,
ब्लैकबेरीज़, ब्लूबेरीज़, स्ट्राबेरीज़, मशरूम्स की बाल्टियाँ थीं, दूसरों के पास –
ऊँचे स्टैण्ड पर रखे प्लायवुड के बक्से थे, जिनमें यही सब कुछ था, मगर ज़्यादा ललचा
रहा था. बिक्री बाल्टियों के भाव से भी हो रही थी, और गिलासों के, छोटे डिब्बों के
भाव से भी, तौल के हिसाब से भी बेच रहे थे...
“चल, यहाँ,” समधन ने वलेंतीना विक्तोरोव्ना को
लाईन की एक खाली जगह पे ज़ोर से धकेला; इस उजड्डपन से एल्तिशेवा पल भर को तिलमिला
गई, मगर अप्रसन्नता दिखाने का समय नहीं था और यह जगह भी उसके लिए ठीक नहीं थी;
वहाँ घुसकर उन्होंने फर्श पर अपनी बाल्टियाँ रखीं, गहरे नीले रस के धब्बे वाले
प्लैस्टिक पेपर को खींच कर निकाल दिया.
उनके घर से एक ही चौक
दूर स्थित इस मार्केट में वलेंतीना विक्तोरोव्ना सैंकड़ों बार आ चुकी थी. सैंकड़ों
बार इन स्टाल्स के बीच से गुज़र चुकी थी, इन बाल्टियों वाले, टोकरियों वाले, बक्सों
वाले विक्रेताओं के सामने से गुज़र चुकी थी. बेशक, कुछ माल ख़रीदती, मोल-भाव करती,
चख कर देखती, अगर खट्टी या सड़ी हुई बेरीज़ देते तो माथे पर बल डालती, उन लोगों से
मुँह फेर लेती जो ज़िद्दीपन से अपना सामान उसे बेचने की कोशिश करते...ख़रीदारी करते
समय वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने कभी नहीं सोचा कि ये लोग कौन हैं, ये यहाँ पहुँचते
कैसे हैं, यहाँ आए कैसे, अपना दिन कैसे बिताते हैं, जब इस तरह से घंटे, दो घंटे,
तीन घंटे खड़े रहते हैं तो उनके दिमाग में क्या-क्या ख़याल आते होंगे. तब उसके लिए
वे सिर्फ विक्रेता थे, बेनाम के, क़रीब-क़रीब निर्जीव ‘वस्तुएँ’, जिनकी सहायता से,
अगर पास में पैसा हो तो चीज़ों से बैग्स भरी जा सकती थीं.
और अचानक वह ख़ुद
इन्हीं ‘वस्तुओं’ के बीच में खड़ी थी. सामने से अपने आप में मगन सुखी ख़रीदार गुज़र
रहे थे, और उनमें से एक भी उसकी बाल्टियों की ओर ध्यान नहीं दे रहा था. धूप तेज़
होती जा रही थी, सिर को ढाँकने के लिए स्कार्फ था नहीं; वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने
स्कार्फ के बदले प्लैस्टिक के एक टुकड़े से काम चला लिया.
मधुमालती का लाल-नीला
रंग फीका पड़ता जा रहा था, वो पनीली हो रही थी, किसी गीले-गीले मकड़-जाले जैसी हो
रही थी. तब वह अन्य लोगों की तरह खरीदारों को मनाने लगी, दयनीयता से, मिन्नत करने
लगी:
“मधुमालती. तायगा वाली मधुमालती. ले लो, सस्ते
में दे रही हूँ...”
“वलेंतीना?” अचरज भरी आवाज़ सुनाई दी. “वाल्,
तू?”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना
एकदम समझ नहीं पाई कि उससे कुछ कह रहे हैं, उसने गर्मी से भारी हो गई आँखों से
देखा.
उसके बिल्कुल सामने,
मगर दुकानदारों के बीच की संकरी जगह पर दसियों धकियाते लोगों के बीच में उसकी
लाइब्रेरी की सहकर्मी खड़ी थी. नतालिया. काफ़ी साल साथ में काम किया, उनके बीच संबंध
घनिष्ठ तो नहीं थे, मगर अब वे एक दूसरे को देखकर ख़ुश हो गईं.
“कैसी है तू? तबियत कैसी है?” नतालिया ने पूछा.
“हाँ-आ,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना हाथ झटक देना
चाहती थी, मगर फिर कुछ उत्साह से बोली: “धीरे-धीरे वहाँ एडजस्ट हो रहे हैं. घर
बनाना शुरू कर दिया है.”
“शाबाश...आपके लिए अच्छा है – गाँव, ताज़ी हवा,
और यहाँ इस डामर में दम घुटा जा रहा है...” नतालिया ने मधुमालती की ओर देखा: “ये
तेरे पास क्या मधुमालती है?”
“मधुमालती.”
“हूँ-! ख़ुद चुन कर लाई हो?”
“बेशक!” वलेंतीना को इस सवाल का बुरा भी
लगा. “कल पूरा दिन हम तायगा में थे.”
“कैसे दोगी?”
“तुझे डेढ़ सौ में
दूँगी. वैसे – एक सौ सत्तर की है.”
नतालिया ने परखते हुए
होंठ दबाए. और फ़ैसला कर लिया:
“चल, दे दे! बिना मुरब्बे के मुश्किल हो रही
है... कहाँ रख दिया?”
”कहाँ...” वलेंतीना
विक्तोरोव्ना ने परेशानी से देखा, कि नतालिया कैसे थैले में हाथ डालकर देर तक उसे
खंगालती रही; ख़ुदा का शुक्र है, बड़ा करकराता पैकेट मिल गया, ध्यान से देखा, और
बोली “छेद तो नहीं हैं.” छेद नहीं थे.
“इसमें उँडेल दे. फटेगा तो नहीं?”
“नहीं संभा—ल लेगा!”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने बाल्टी उठाई, उसे झुकाने लगी. चिपकी हुई बेरीज़ के ढेले
खड़खड़ाते हुए पैकेट की तली में गिरने लगे.
“रुक ज़रा, रुक!” नतालिया की घबराई हुई आवाज़, और
पैकेट खींच लिया गया. “क्या तेरी बेरीज़ में कचरा है?”
कैसा कचरा?...”
“नहीं वाल्, मुझे ऐसी वाली नहीं चाहिए. इसे साफ़
करते-करते पूरी शाम निकल जाएगी. फिर ये नरम भी हो गई है, उसका रस निकल रहा है.
वापस डाल ले.”
“ओह, नता-आ-शा...” बुरा मानने का, चिड़चिड़ाने का
साहस न करते हुए, वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने मिन्नत के सुर में कहा, मगर भूतपूर्व
सहयोगी उसके बारे में भूल कर दूसरे दुकानदार की बेरीज़ देखने लगी थी, और वह तारीफ़
किए जा रहा था:
“अमील से लाया हूँ मधुमालती. सबसे ज़्यादा नैसर्गिक.
साफ़ की हुई. ली-जिए, डेढ़ सौ में. सर्दियों के लिए बेहतरीन विटामिन!...”
बस के समय से आधा घंटा
पहले समधन ने एक ग्राहक ढूँढ़ा, जो एक बाल्टी के लिए एक सौ दस देने को तैयार था.
इससे ज़्यादा में कोई ले नहीं रहा था. देना ही पड़ा.”
कुछ सामान ख़रीदकर,
बस-स्टैण्ड की ओर भागीं. वलेंतीना विक्तोरोव्ना को ऐसा महसूस हो रहा था कि उसके
जिस्म से कोई गन्दी, सड़ी हुई चीज़ चिपट गई है, जिसे धोया नहीं जा सकता, अपने जिस्म
से हटाया नहीं जा सकता. “मैंने चोरी का माल तो नहीं बेचा,” वह अपने आप को समझाने
लगी, “चोरी का नहीं, अपना माल बेचा है”. मगर इससे कोई फ़ायदा नहीं हुआ.
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