शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

Eltyshevi - 15

अध्याय 15

हाँ, एल्तिशेवों को यहाँ आये हुए साल भर हो गया था. उस पल से लेकर, जब कन्टेनर से चीज़ें निकालकर उन्हें छत के नीचे रख दिया और यहाँ मेज़ पर पहली बार खाने के लिए बैठे, अब तक उनकी ज़िन्दगी में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए थे. नहीं, बाहरी तौर पर, बेशक, कुछ कम परिवर्तन नहीं हुए थे: आर्तेम की शादी हो गई और उसका बच्चा भी हो गया, निकोलाय मिखाइलोविच और वलेन्तीना विक्तोरोव्ना जल्दबाज़ी में किए गए स्थानांतरण के शॉक से बाहर निकल आए; घर का निर्माण शुरू हुआ...मगर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में कोई राहत महसूस नहीं हुई. या, हुई? इस बात के कि आर्तेम अपनी बीबी के परिवार में रहता था फ़ायदे और नुक्सान थे. नुक्सान – वह रोज़मर्रा के कामों में कोई मदद नहीं करता था, कभी-कभी आ जाता, जिसके कारण नया घर बहुत धीरे-धीरे बन रहा था, जितनी तेज़ी से बनना चाहिए था, नहीं बन रहा था. और फ़ायदे – अब इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती थी कि वे तीनों अब तक एक ही कमरे में सोते हैं, जहाँ वैसे भी मुड़ना तक मुश्किल होता है. वो पहले कुछ महीने, बेशक, भयानक थे...मगर, अभी भी – हालात कुछ ठीक तो नहीं हुए हैं. नहीं, बिल्कुल ही नहीं सुधरे. किसान वे वैसे भी नहीं बन पाए, और हर रोज़ – एक यातना जैसा प्रतीत होता है. ऊपर से आण्टी भी अजीब तरह से बर्ताव कर रही है, पागल हो रही है. और दूसरों को भी बना रही है...

पिछले साल ही की तरह इस बार भी काफ़ी देर तक बर्फ नहीं पड़ी. पाला धरती को तंग कर रहा था, इतना कि उसमें दरारें पड़ रही थीं; आसमान कत्थई-भूरा था, दोपहर को भी ये समझ पाना मुश्किल था कि सूरज कहाँ है. चारों ओर जैसे मुर्दनी छाई थी, हर चीज़ बीमार-जैसी थी, छोटी से छोटी बात को भी बड़ी मुश्किल से करना पड़ रहा था – हर चीज़ दम घोंट रही थी, मानो वे ‘धरती’ नाम के ग्रह पर नहीं, बल्कि किसी काल्पनिक ‘प्लूटो’ पर हैं. “अलेक्सेइ टॉल्स्टॉय का कोई ऐसा उपन्यास है?” – वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने अपने लाइब्रेरी वाले भूतकाल को याद करने की कोशिश की. “या वेल्स का है?...”

निकोलाय अक्सर जंगल में चला जाता, कार की डिक्की में, छत पर और भीतर भी गिरे हुए पेड़ और सूखी लकड़ियाँ भरके लाता. जब आर्तेम आता – वे आरी से उसके छोटे-छोटे टुकड़े करते, फिर लकड़ियाँ काटते. पहले तो बेटे को लकड़ियाँ काटना अच्छा लगता, मगर, जब से उसने पैर पर हथौड़ा गिरा लिया, वह इस काम के प्रति भी ठण्डा पड़ गया. लकड़ियाँ काफ़ी थीं, ऊपर से तात्याना आण्टी के लिए एक गाड़ी भरके कोयले भेजे जाते थे, क्योंकि वह सेना की चँदावल में मज़दूर रह चुकी थी; निकोलाय लाता रहता, लाता रहता, छीलता (जब आर्तेम नहीं था, तो अकेले ही छीला, धातु काटने की आरी से), काटता, सलीके से गड्डी बनाकर रखता. जैसे इसी बहाने पीड़ा और बदहवासी से मुक्ति पा रहा हो. मगर पीड़ा तो बगल में ही डोलती रहती और मौक़ा मिलते ही, जैसे ही वह ख़यालों में खो जाता, पुरानी यादों से बेबस हो जाता, वह उस पर हावी हो जातीं, दम घोंटने लगतीं, बची-खुची ताक़त को चूस लेतीं.

वलेन्तीना विक्तोरोव्ना भी अपने आप को व्यस्त रखने की कोशिश करती, जब कोई काम न होता, तब भी. सिलाई करने की कोशिश की, हालाँकि पहले इस काम को वह शौक से ज़्यादा नहीं समझती थी. अब वह अपने आपको यक़ीन दिलाती, कि सिलाई करना ज़रूरी है – पोते के लिए छोटी-छोटी कमीज़ें, तकिए के गिलाफ़, छोटे-छोटे रूमाल. मगर ये याद करते ही, कि आर्तेम और डेनिस कितने छोटे थे, कैसे छोटे-छोटे थे उनके कपड़े, चादरें-तकिये, खिलौने और अपने आप को न रोक पाई, रोने लगी. ख़ामोशी से रो रही थी, बिना हिचकियों के, इस बात से डरते हुए कि उसकी मनोदशा का असर पति पर न पड़े. और – फिर क्या होगा? सबको रोना पड़ेगा, बाल नोंचना पड़ेगा, फंदा लगाके लटक जाना होगा?...

इस साल वह डेनिस से सिर्फ एक बार मिलने गई थी – मुलाक़ात चूक गई, - हालाँकि वह ज़्यादा दूर नहीं था, रेल में चौबीस घण्टे से कम ही लगते हैं. बुरी परिस्थितियों से रोज़-रोज़ का ये संघर्ष, आर्तेम की शादी, बेरीज़ और मशरूम्स को इकट्ठा करना, उन्हें बेचना, पोते के आने का इंतज़ार, और अपना ख़ुद का स्वास्थ्य.... इस अजीब सी कमज़ोरी की वजह सिर्फ ज़िन्दगी के हालात और उदास पतझड़ ही नहीं थे. उसके शरीर में कुछ हो रहा था – हर वक़्त प्यास लगती थी, मगर पानी पीने से जी मिचलाता था, गले में ख़राश थी और दबाव महसूस हो रहा था, पूरे बदन में भी बेचैनी थी, वह तड़प रहा था, मदद मांग रहा था...वह इस बात को स्वीकार करने डर रही थी कि बीमार हो गई है, इसी डर के मारे जाँच करवाने भी नहीं जा रही थी. उम्मीद कर रही थी कि अपने आप ठीक हो जाएगा. एक दिन सुबह उठेगी और उसे ताज़गी महसूस होगी, सब कुछ अच्छा हो जाएगा. उसके साथ भी और उसके निकटतम लोगों के साथ भी.

बेटे को पार्सल, मनीऑर्डर भेजा करते थे. पिछली मुलाक़ात में डेनिस ने कहा था, कि उसका आचरण अच्छा है, वह काम भी करता है, मगर समय-पूर्व आज़ादी के बारे में वे सोचें भी नहीं – प्रशासन हर छोटी-छोटी बात में मीन-मेख निकालता है, ज़रा-ज़रा सी बात पर अलग-थलग कमरे में बन्द कर देते हैं. उनके स्थानांतरण की बात को, शायद, समझदारी से लिया. बोला, “ख़त्म नहीं हो जाएँगे.” पिछले कुछ समय में वह जैसे बड़ा हो गया था, डेनिस वलेन्तीना विक्तोरोव्ना की जवानी के दिनों के उन भरोसेमन्द मर्दों के समान हो गया था – जिनमें से कई युद्ध पर गए थे. आजकल के मरियल नौजवानों का तो डेनिस से किसी भी बात में मुकाबला नहीं किया जा सकता था.

हो सकता है, वह वाक़ई में कुछ ऐसा करे कि उनका सब कुछ ठीक हो जाए? आयेगा, सब कुछ देखेगा, आस्तीनें ऊपर करेगा, बाप को और आर्तेम को प्रेरणा देगा...अभी तो बड़ा लम्बा इंतज़ार है, क़रीब दो साल हैं. हालाँकि दो साल होते ही कितने हैं? उन्हें यहाँ आए एक तो हो ही चुका है, और – ऐसा लगा जैसे सिर्फ महीना भर ही हुआ हो. एक-से मुश्किल दिनों की एक कड़ी. आगे वे और जल्दी गुज़र जाएँगे.

शुरू में तो त्यापोवों के यहाँ क़रीब-क़रीब हर रोज़ जाते थे. पोते को देखते, पुचकारते, उसे गिफ्ट्स देते. मगर हर बात में बहस होने लगती थी, नामकरण से लेकर (एल्तिशेवों को रोदिओन नाम पसन्द नहीं था, मगर समधी तो ये ही नाम रखना चाहते थे – उनके घर में ये मर्द का परंपरागत नाम था); इस बात पर भी बहस करते कि उसे लंगोट कैसे पहनाना चाहिए, क्या खिलाना चाहिए, छोटी-मोटी शिकायतों से कैसे निबटा जाए...
हार हमेशा  एल्तिशेवों की होती थी: वे मेहमान थे, पोता वाल्या के माँ-बाप के घर में रहता था, आर्तेम तो जैसे किसी आश्रित की तरह था -  किचन में निरुद्देश्य समय बिताया करता था (आऊट-हाऊस तो जम गया था, और रूम-हीटर किसी काम का नहीं रह गया था), कभी-कभी कुछ काम कर देता. या तो पानी लाता, या लकड़ियाँ, या तसला उठाकर देता, बोतल गरम कर देता. ऊपर से वाल्या और उसकी माँ बच्चे की देखभाल में ऐसे लगी रहतीं, जैसे वो कोई चूज़ा हो. एल्तिशेवों को उनकी पीठ के पीछे से ही झूले में देखना पड़ता.

धीरे-धीरे वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के मन में गाँव के दूसरे छोर पर जाने की इच्छा कम होने लगी, मनचाहे तरीक़े से पोते की देखभाल करने की संभावना न होने के कारण उसके पास बैठने की ख़ुशी भी कम-कम होने लगी.

....काली, बिना बर्फ़ की धरती को, कंकालों जैसे पेड़ों को देखना चाहे कितना ही उदास क्यों न लगता था, मगर बर्फ पड़ने पर ये उदासी और भी बढ़ गई. सर्दियाँ आ टपकीं, मन पर बोझ डालती रहीं, निरंतर सोने का मन करता, मगर नींद आती नहीं थी, ठीक भी तो है, कोई दिनभर में बारह घण्टे कैसे सो सकता है. टी.वी. बस, झिलमिल करता, आवाज़ ग़ायब हो जाती – देखने से दिल तो नहीं बहलता था, बस एक सज़ा जैसा लगता. कह रहे थे कि प्रसारण की लिंक टूट गई है, उसे सुधारने के लिए कोई तैयार नहीं था; दुकान के पास बोर्ड पर एक इश्तेहार चिपका था, कि यहाँ डिश-टी.वी. का कनेक्शन ले सकते हैं, जो 72 चैनल्स दिखाता है. कीमत – तीन हज़ार से कुछ ज़्यादा, इन्स्टालेशन और सेट-टॉप बॉक्स के लिए...एल्तिशेवों की इतनी हैसियत नहीं थी. पैसा पानी की तरह बह रहा था. हमेशा की तरह, पैसा बस बह रहा था, पता ही नहीं चलता था कि किस पर खर्च हो गया है. छोटे बच्चे पर, बेशक कुछ खर्च हुआ था, उसके लिए खाने-पीने की चीज़ें ख़रीदीं, पेट्रोल, सर्दियों में कोई ड्रेस. मगर फिर भी – बार-बार गिनते और हैरान हो जाते...

बर्फ़ ने जंगल में जाने वाले रास्तों को ढाँक दिया, लकड़ियाँ लाना असंभव हो गया. पति घर में बैठा रहता, किन्हीं पुराने अख़बारों को पलटता रहता, घरेलू लाइब्रेरी की किताबों के पन्ने पलटता, भट्टी के पास बैठे-बैठे देर तक सिगरेट पीता रहता. हफ़्ते में तीन-चार बार पतले स्प्रिट की बोतल लाता और अकेले बैठकर धीरे-धीरे पीता रहता, फिर दीवान पे चला जाता.

एक बार खाली, उकताने वाले दिन के अंत में निकोलाय, जो बड़ी देर तक किचन में इधर से उधर चक्कर लगा रहा था, पलंग पे पड़ी बुढ़िया के सामने रुका, जो लगातार दूसरे दिन सो रही थी.
 “सुनिए,” निकोलाय ने गुस्से और चिड़चिड़ाहट से, मगर साथ ही, जैसा कि वलेंतीना विक्तोरोव्ना को लगा, सहानुभूति से कहना शुरू किया, “सुनिए, मैं आपको अस्पताल ले चलता हूँ. इस तरह हमें और अपने आपको सताने से क्या फ़ायदा? वहाँ आपका इलाज करेंगे, विटामिन्स देंगे. कोई न कोई फ़ैसला तो करना पड़ेगा. कोई कितना बर्दाश्त करे? कैसी हो गई है ज़िन्दगी – जैसे निरंतर मुर्दे के साथ...”
आण्टी ने मानो उठने की कोशिश की. लड़खड़ाई और शांत हो गई. फिर कमज़ोर आवाज़ में बोली:
 “मुझे तो अच्छा लगता...मगर उठ ही नहीं सकती. मैं भी...”
”तो, अस्पताल में इलाज कर देंगे.”
 “कोल्या, कुछ देर और सब्र कर ले. मैं यहीं पे मरना चाहती हूँ. सारी ज़िन्दगी यहीं गुज़ारी, यहीं से मुझे ले जाने दो.”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने बगल वाले कमरे से सुन रही थी, उसने दख़ल नहीं दी. सिर्फ डर के मारे साँस रोक ली.
 “इसमें क्या है,” पति की आवाज़ आई, “कभी न कभी सब को ले जाएँगे. चलो, सब लोग लेट जायेंगे और इंतज़ार करेंगे.”
आण्टी बगैर आँसुओं के, किकियाते हुए रोने लगी:
 “क्या ये मेरा क़ुसूर है कि मैं उठ नहीं सकती? आँ? न तो जी सकती हूँ, न मर सकती हूँ...”
 “ये क्या मौत-मौत लगा रखा है?! बाहर निकलिये, ताज़ा हवा में साँस लीजिए, बर्फ़ की सुगंध महसूस कीजिए. अपनी तिपाई पे बैठिये. हमेशा हाथ मोड़कर क्यों लेटना है?”
आण्टी ने जवाब नहीं दिया, सिर्फ सूखी सिसकी ली, जैसे गले में अटकी कोई चीज़ निगल रही हो.
निकोलाय उसकी ओर पीठ करके मेज़ पर बैठ गया. वह अपनी मुट्ठियाँ खोल कर बन्द कर रहा था, ऊँगलियों को मोड़ रहा था, खुरदुरे प्लास्टर की पतली-पतली दरारों वाली दीवार की ओर देख रहा था.        
फिर वह उठा, फ्रीज से बोतल निकाली, कैबेज और सॉसेज के बचे हुए टुकड़ों वाली प्लेट निकाली.
 “ठी-क है,” वह कुछ समझौते के, कुछ धमकाते सुर में बुदबुदाया, “ठी-क है...”

दूसरे दिन आण्टी उठी. उसने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया, टॉयलेट के लिए भी नहीं निकली. निरंतर डोलते हुए अपनी जगह पे बैठी रही. अंधेरा होने से पहले, गरम कपड़े पहनकर कॉटेज से बाहर जाने लगी. कमज़ोरी के कारण दरवाज़ा एकदम नहीं खोल पाई.
 “आप कहाँ चलीं फिर से?” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने उसे रोका.
 “न्यूरा के पास जाना है...सिम्योनोवा के पास. कुछ बात करना है.”
 “बर्फ है वहाँ,” निकोलाय ने सूचित किया. “घुटनों तक बर्फ है. लड़खड़ा जाएंगी, गिर जाएंगी.”
 “वो, मैं जैसे तैसे...पहुँच जाऊँगी.”
 “क्या मैं आपको छोड़ आऊँ?” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने अपने ओवरकोट की ओर हाथ बढ़ाया. “ख़ुदा...”
 “रुक जा,” अचानक पति उछला, “बेहतर है कि मैं ही छोड़ आऊँ.”
 “अच्छा, ठीक है, तुम क्या...”
 “मैं छोड़ आऊँगा.” निकोलाय की आवाज़ में कुछ ऐसी बात थी जिसने वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को हैंगर से दूर हटने पर मजबूर कर दिया.
जब तक उसने अपने जूते पहने, पुराना पुलिस का कोट बदन पे डाला, आण्टी जा चुकी थी – उसके पैरों के नीचे सूखे बर्फ की चरमराहट सुनाई दे रही थी. बड़ी अजीब तरह की चरमराहट थी...
 “ओय, पकड़ उसको,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने जल्दी मचाई. “सचमुच में गिर जाएगी.”
 “और क्या? तुझे ये सब अच्छा लगता है? रोज़-रोज़ का ड्रामा...” निकोलाय मुड़ा, अंधेरी ड्योढ़ी में गया. दरवाज़ा इतनी ज़ोर से बन्द किया कि बर्फीली भाप का बादल फर्श पर घिसटता चला आया.

वलेन्तीना विक्तोरोव्ना किचन में गई. आण्टी के पलंग का कंबल ठीक किया. मेज़ के पास बैठी. दिल में अजीब सी हलचल हो रही थी, जिसे सुनते हुए वह मानो निश्चल हो गई: कुछ उत्तेजना, कुछ डर, कुछ प्रसन्नता सी महसूस हो रही थी. ऐसा उसके साथ बचपन में होता था नये साल के पहले की शामों में – क़रीब तीस तारीख़ को, जब क्रिसमस ट्री सजाई जा चुकती है, किसी शीघ्र चमत्कार की आशा होती है, सोने को खूब मन करता है, मगर नींद उड़ जाती है, और दिमाग़ में सब गड्ड्मड्ड होने लगता है, और तुम आख़ों के कोनों से देखते हो (सीधे देखने में – डर लगता है), कि बिल्कुल निकट, कोने में या परदे के पीछे, कोई छुपकर खड़ा है. या तो वह सांताक्लाज़ है, या जंगल का राक्षस. और किसी भी पल या तो कोई चमत्कार हो सकता है, या कोई भयानक हादसा...            
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने अफ़सोस से सिर हिलाया, और वह शब्द कहा जिसे जवानी में दुहराना उसे अच्छा लगता था, जब उस हालत के लिए, जिसमें वह इस समय थी, कोई और वजह नहीं नज़र आती थी:
 “मानसिक तनाव.”

वह उठी, बर्तनों वाली अलमारी से दवाईयों का डिब्बा निकाला, कोर्वालोल ढूँढ़ा, प्याले में डालकर उसमें पानी मिलाया. पी गई. कमरे में गई और टी.वी. चालू कर दिया.
 “अगर आपकी ज़िन्दगी में सुख नहीं है,” टी.वी. के स्क्रीन से एकटक देखती हुई, कंधों पर ओरेनबुर्ग का रूमाल डाले, अधेड़ उम्र की लाल गालों वाली औरत भावुक स्वर में कह रही थी – “तो, मेंढ़क को पकड़िये, उसे हथेली में इस तरह रखिए कि उसके पिछले पैर आपकी ओर रहें, उसकी पीठ पर तीन बार थूकिए और उसे सामने की ओर फेंक दीजिए. सारी मुसीबतें मेंढ़क के साथ ही चली जाएँगी.”
वलेंतीना विक्तोरोव्ना मुस्कुरा दी:
 “थैंक्यू!” उसने प्रोग्राम बदल दिया, मगर वहाँ, और अगली सभी चैनल्स पर सिर्फ बकवास आ रही थी.

टी.वी. बन्द कर दिया, किचन में वापस आ गई. हो सकता है, गन्दे बर्तन पड़े हों? अपना ध्यान दूसरी ओर लगाना चाहिए...नहीं, भट्टी के पीछे वाली छोटी सी मेज़ खाली थी. आण्टी के स्टूल पर बैठ गई. धूल भरी दीवार-घड़ी चिड़चिड़ाते हुए टिक-टिक कर रही थी, पेण्डुलम एक समान गति से इधर-उधर डोल रहा था. ये घड़ी महाप्रलय के ज़माने की क्यों है? टिक-टुक,टिक-टुक...जब आसपास लोग होते हैं, या आप कुछ और कर रहे होते हो, तो उसकी आवाज़ सुनाई नहीं देती, मगर अभी – जैसे दिमाग़ पे हथौड़े पड़ रहे हैं.

निकोलाय क़रीब चालीस मिनट बाद लौटा. ज़ोर से नाक से आवाज़ करते हुए, उसने गरम कपड़े उतारे, जेब से स्प्रिट की बोतल और डिब्बा-बन्द मछली निकाली. उसे मेज़ के बीचोंबीच रखा, हाथ पोंछे.
“चल, अच्छी नींद के लिए पीते हैं. अचार है क्या? अच्छा, चल, मैं तहख़ाने में देख आता हूँ.”

वलेंन्तीना विक्तोरोव्ना को उसकी प्रसन्नता भरे अंदाज़ से उतना अचरज नहीं हुआ, जितना उसके कुछ मालिकाना अंदाज़ से हुआ, उसने फ्रिज खोला:
“खीरे हैं. कैबेज...आण्टी को छोड़ आये?”
 “हूँ.”
 “कहाँ गई वो रात के समय? मुसीबत में पड़ जाएगी.”
 “ठीक है, छो-ड़.” निकोलाय ने सिगरेट पीना शुरू किया, मगर हमेशा की तरह, भट्टी के पास नहीं, बल्कि मेज़ पे बैठकर.
 “अब उसके पास ज़्यादा वक़्त नहीं है. थोड़ा बरदाश्त कर लेंगे. जो कुछ भी है, सब ले आ. भूख लगी है. शायद ठण्ड की वजह से. और बर्फ, खू-ब गि-र रही है!...”
कुछ देर वे दोनों अच्छे से बैठे. हो सकता है, पिछले साल इस तरह बैठे ही नहीं थे, पूरी तरह से आराम के मूड में; और यादों ने इस बार परेशान नहीं किया, बल्कि उल्टे – वे उनकी मदद कर रही थीं, सहारा दे रही थीं.
जब वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने घड़ी की ओर देखा तो दस बज चुके थे.
 “आण्टी तो अब तक...” वह परेशान होने लगी. “कहीं कुछ हो तो नहीं गया? चलें, जाकर देखें?”
 “बैठ.” निकोलाय ने स्प्रिट डाली, गिलास लगभग पूरा भर गया. “आ जाएगी, जाएगी कहाँ? अगर कुछ हो गया होगा तो लोग भागकर आएँगे...चल, वाल्, हमारा सब कुछ अच्छा हो जाए, इस ख़्वाहिश से पियें.  धीरे-धीरे ही सही, मगर ज़िन्दगी आगे बढ़ ही रही है.” उन्होंने अपने-अपने जाम टकराए.

...नशा अचानक चढ़ गया, बस उठने भर की देर थी. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना अपनी हालत से शरमाती हुई, हौले से मुस्कुराई, मुश्किल से दीवान के पास पहुँची, और बिना कपड़े उतारे लेट गई. फ़ौरन पति भी बगल में लेट गया, उसे बाँहों में लिया, अपनी ओर खींचा.

 “सब कुछ ठीक हो जाएगा,” नर्म-मुलायम आवाज़ में फुसफुसाया, “सब ठीक...” 

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