शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

Eltyshevi - 19

अध्याय – 19


जब भी आर्तेम ‘कायर’ शब्द सुनता, उसके भीतर कोई चीज़ थरथरा जाती, तन जाती थी, जैसे उसीके बारे में बात हो रही हो. मगर वह अपने आपको कायर नहीं समझता था – गुण्डों से पिटने के डर से उसने किसी के साथ विश्वासघात नहीं किया, अपनी प्रिय लड़की को छोड़कर कभी नहीं भागा (ये सच है कि ऐसी परिस्थितियाँ कभी पैदा ही नहीं हुई). वह सतर्क रहता था, गुण्डागर्दी नहीं करता था, अपनी बहादुरी और ताक़त का ढिंढोरा नहीं पीटता था.

उसके इतने सारे दोस्त और परिचित बेवकूफ़ी के कारण या तो मर गए, या जेल चले गए, कि जब वह अपने मुहल्ले के लड़कों की किस्मत को याद करता, तो उसका दिल भर आता था. क़रीब-क़रीब आधे ऐसे थे, या हो सकता है, और भी ज़्यादा हों.

उसने तेरह साल की उम्र में पागलपन में की गई एक हत्या को देखा था. चौक में सारे दोस्त बैठे थे – सब एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे, एक ही स्कूल में पढ़ते थे. एक बड़े लड़के वोलोद्का ईगोरोव ने (उसकी उम्र सत्रह साल की थी), बातों बातों में दूसरे बड़े लड़के जैक ज़्वेरेव से कहा, “...में जा”. मतलब, उसे भेजा-वेजा नहीं, मगर उसका मतलब था, “देख लूँगा”. जैक बेंच से उछल पड़ा: “तूने क्या कहा, गलीज़?!” और उनके बीच गाली-गलौज के साथ लब्ज़ों की लड़ाई शुरू हो गई, “ज़रा इधर तो आ”. और फिर जैक ने अपनी जेब से एक स्क्रू-ड्राईवर निकाला और वोलोद्का के सीने में घुसेड़ दिया.

आर्तेम ऐसी परिस्थितियों से दूर रहने की कोशिश करता था. उनमें तो तुम्हारा नाश हो जाएगा...
शहर से गाँव में जाने के ख़याल से, बेशक, डर लगता था. वहाँ किसी न किसी से तो बातचीत करनी ही होगी, अपने आपकी एक पोज़िशन बनानी होगी, कमज़ोर नहीं दिखना है. मगर कमज़ोर और डरपोक लड़कों के बीच आसानी से फँस सकते हो. ग्लेबिच, वीत्सा और बाकी के छोकरों के साथ मुलाक़ात और दोस्ती को आर्तेम ठीक ही समझता था. उसके ऊपर कोई हावी नहीं होता था, उससे ज़बर्दस्ती पैसे नहीं छीनते थे, और अगर कभी मज़ाक भी करते तो उसमें कोई कड़वाहट नहीं होती थी, उसे अपने में से ही एक समझते थे. मगर, पता चला कि वह मुसीबत में फंस गया है. और अब वो छोकरे, जिन्होंने ख़ुद ही उसे वाल्या के पास धकेला था, उसकी ओर सहानुभूति और दिलचस्पी से देख रहे थे : अब क्या होगा, अब आर्तेम क्या करेगा? आख़िर, वाल्या का छोड़ा हुआ दोस्त ओलेग पोतापोव, ओलेगजान, कहीं से बस आने ही वाला है. वह पक्का डाकू है. रात वाली दुकान को लूटने के जुर्म में जेल गया, और कई गाँवों और शहर में भी उसने बड़े कारनामे किए थे.

आर्तेम ने बीबी से बात करने की, ये समझने की कोशिश की, कि उसका ओलेगजान के साथ क्या लफ़ड़ा था – वाक़ई में ये गंभीर बात थी या कुछ और. उसने उत्तेजित होकर कड़वाहट से हाथ झटक दिया: “तू ये बेवकूफ़ी का ख़याल छोड़ दे! लोग कान भरते हैं, और ये यक़ीन कर लेता है.” मगर, ऐसा लगता है कि ओलेगजान के छूटने की ख़बर के बाद वह कुछ बदलने लगी – उसने फिर से अपने बाल रंग लिए, दुबले होने का फ़ैसला कर लिया, टाँगों के, बगलों के बाल साफ़ कर दिए... आर्तेम से ज़्यादा ही प्यार जताने लगी, शाम को ख़ुद ही उसे घसीट कर बाथ-हाऊस ले जाती, हवस के साथ संबंध बनाती, मगर फिर भी कुछ अलिप्त-सी रहती, जैसे वह आर्तेम के साथ नहीं, बल्कि किसी और के साथ हो.

उस दिन वह माँ-बाप के घर से लौटा. मूड बहुत अच्छा था – थोड़ी बहुत पी थी, ‘पोते’ के लिए दो सौ रूबल्स मिले थे. सूरज तप रहा था, अभी बेहद गर्म तो नहीं हुआ था, मगर ख़ालिस बसंत का सूरज था; पंछी चीं-चीं कर रहे थे, नई घास की सोंधी-सोंधी ख़ुशबू आ रही थी.
 “कोई बात नहीं, सब ठीक है,” आर्तेम ने अपने आप से कहा. “सब बढ़िया है”. मगर भीतर कोई चीज़ थरथरा रही थी, खाये जा रही थी, जैसे वह बिना होमवर्क किए स्कूल जा रहा हो और उसे ये मालूम है कि उससे ज़रूर सवाल पूछे जाएंगे, और शाम को ड्यूटी के बाद थका हुआ और चिड़चिडा बाप बेल्ट से मारेगा.

 वह सलेटी-लाल भूरी छतों के ऊपर से चीड़ के जंगल की ताज़ी हरियाली को, इक्का-दुक्का बादलों वाले ऊँचे, नीले, आसमान की ओर देख रहा था. अगर ज़िन्दगी में से वह छोटी सी चीज़ निकाल दी जाए जो ख़ुशी को ग़म में बदल देती है, तो वह वाक़ई में बड़ी ख़ुशनुमा लग रही थी. सिर्फ कोई फ़ैसला करना था, कुछ मेहनत करनी थी – और, चल पड़ो. आख़िर ऐसे लोग भी हैं जो इस ‘छोटी सी, ज़िन्दगी को ज़हर बनाने वाली चीज़’ के बिना रहते हैं. वह, आर्तेम, ऐसे लोगों से लोगों से मिलता था जो हमेशा ख़ुश रहते हैं, ज़िन्दगी को हल्के से लेते हैं. वह ख़ुद भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता?...

वाल्या के साथ ज़िन्दगी में सब कुछ ठीक हो सकता है. बढ़िया हो सकता है! हो सकता है...अगर वे स्वतंत्र रूप से रहते होते, या कम से कम – उसकी माँ के बगैर रह सकते. आर्तेम से वह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होती थी – इस भरी-पूरी, भारी-भरकम, जो किसी वारन्ट-ऑफ़िसर की याद दिलाती थी (पति ने भी उसका नाम रखा था  – ‘री-एम्प्लोयड’), आर्तेम के मन में इच्छा हुई कि कहीं छुप जाए, किसी गहरी, भरोसेमन्द ट्रेंच में घुस जाए. हाँ, वाल्या के साथ कहीं चला जाए...पहले नौजवान लोग ट्रेन में बैठकर बाम (बायकाल-अमूर हाईवे-अनु.) और बाकी बहुत सारे निर्माण कार्यों के लिए जाते ही थे. ऐसा नहीं है कि सिर्फ इसीलिए जाते थे, कि इलेक्ट्रिक-पॉवरस्टेशन बनाएँ, देश की अर्थव्यवस्था को सुधारें, बल्कि इसलिए कि अपनी मर्ज़ी से जी सकें. मगर अब कहाँ जाएँ? कहाँ किसीका इंतज़ार है?
 “नमस्ते, तेमिच!” सामने से वीत्सा आ रहा था.
 “नमस्ते.”
एक दूसरे से हाथ मिलाया. एकदम चले नहीं गए.
 “ये, वो, वोही,” वीत्सा के चेहरे पर रहस्यमयी उत्तेजना के भाव दिखाई दिए, “ओलेगजान आ गया है. कल शाम को.”
 “म्-म्”  आर्तेम ने उदासीनता दिखाने की कोशिश की. “तो क्या?”
 “घर में बैठा है, धूम मचा रहा है. हाल-चाल जान रहा है.”
 “समझ गया.”
कुछ देर और खड़े रहे. वीत्सा आर्तेम की ओर देख रहा था, मगर आर्तेम एक किनारे की ओर देख रहा था. जंगल की ओर. उसे मालूम था कि जंगल के पीछे, उस ओर, खेत हैं, और उसके आगे – शहर.
 “अच्छा, ठीक है,” वीत्सा ने कहा, “जाता हूँ. और, तेम, तेरे पास सिगरेट है?”
सिगरेट्स थीं. आर्तेम हमेशा अपने साथ एक पैकेट रखने की कोशिश करता था, क्या पता, कब ज़रूरत पड़ जाए – दो-एक बार तो बाप को शांत करने के लिए, झट् से उसके हाथ में सिगरेट थमा दी थी.

वीत्सा की ख़बर के बाद मूड, बेशक, ख़राब हो गया. कुछ और हो ही नहीं सकता था – वह ख़तरा, जो कहीं दूर था, जिसका वास्तविक रूप में अस्तित्व लगभग था ही नहीं, अचानक बगल में आकर खड़ा हो गया. अब वोद्का का असर भी कुछ और होने लगा – अब वह जिस्म को हल्का नहीं बना रही थी, अपनी ज़िन्दगी को बदलने का भरोसा नहीं दे रही थी, बल्कि बोझ डाल रही थी, सिर को घुमा रही थी, दम घोंट रही थी. सूरज जैसे भूनने लगा, सारी शक्ति को भाप बनाने लगा, हवा नम और चिपचिपी लगने लगी. मन होने लगा कि चीड़ के जंगल में जाकर बड़ी देर तक घास में सो जाए. और जब उठे, तो बिल्कुल दूसरा बन जाए, दूसरी जगह पर नज़र आए, पुरानी बातों को भूल जाए... जैसे कि फैन्टेसी फिल्मों में होता है – आप किसी और ही सतह पर नज़र आते हो....
ज़बर्दस्ती आँगन में घुसा और फ़ौरन सास की गुस्से से थरथराती आवाज़ सुनी:
”शू-, भागो यहाँ से! हैरान कर दिया है! सारी कैबेज पे चोंचें मार दी.” शायद वह मुर्गियों को आँगन से बाहर भगा रही थी.
आर्तेम आऊट-हाऊस की ओर बढ़ा, मगर सास ने उसे पकड़ लिया:
 “आ--, आख़िर आ ही गए! जा, वहाँ रोद्का चिल्ला रहा है. उसके साथ बैठ. मुझे खाना बनाना है.”
 “और वाल्या कहाँ है?”
 “चली गई...कम्पाऊण्डर के पास, शायद. हमेशा उसे वहाँ जाना ही पड़ता है... एक बीमार है, हमारे घर में.”                

आर्तेम घर के भीतर गया. बरामदे में, बड़े-भारी सन्दूक पे बुढ़िया बैठी थी और मरियलपन से पतला तौलिया हिला रही थी. उसने आर्तेम की तरफ़ ध्यान नहीं दिया. ससुर अपने पलंग पर रुक-रुककर खर्राटे ले रहा था, जैसे उसका दम घुट रहा हो.

जिस कमरे में बच्चा लेटा था, उसके दरवाज़े बन्द थे, मगर खिड़कियों के पल्ले खुले हुए थे, मगर फिर भी बेहद गर्मी थी और ऊमस थी. कुछ खट्टी-खट्टी बास आ रही थी. मक्खियाँ थकी हुई आवाज़ में लगातार भिनभिना रही थीं, और उसी तरह थकी हुई आवाज़ में अपने छोटे से पलंग पर बच्चा भी भुनभुना रहा था.
 “तू क्या कर रहा है?” आर्तेम उसके ऊपर झुका. “अब क्या हो गया?”
 इन्सान को देखकर रोदिक ख़ुश हो गया, वह हाथ-पाँव हिलाने लगा; भुनभुनाहट और ज़ोर से होने लगी.
आर्तेम को यह देखकर ख़ुशी नहीं हुई कि बच्चे कितने धीरे-धीरे बढ़ते हैं. बेटा सात महीने का है, मगर नवजात शिशु में और इसमें ज़्यादा फ़र्क नहीं है. हो सकता है, कि सिर्फ चमड़ी थोड़ी सफ़ेद हो गई हो, बाल कुछ बड़े हो गए हैं, झुर्रियाँ ख़त्म हो गई हैं या उनके बल पड़ गए हों. हाँ, और, सबसे ख़ास बात, ज़ोर ज़ोर से चिल्लाना सीख लिया है. आर्तेम उसे डरते हुए नहीं बल्कि सावधानी से उठाता था – अब तक उसे महसूस नहीं हुआ था कि ये उसका बेटा है, बल्कि लगता था कि ये बस बच्चा है: रोद्का किसी जानवर की याद दिलाता था, जो सही तरीके से न छूने पर काट सकता था, किसी चीज़ से संक्रमित कर सकता था.

ये सही है कि कभी-कभी बेटा उसके सपनों में आता था, मगर सपने में वह बड़ा नज़र आता था – क़रीब पाँच-सात साल का. वे मछलियाँ पकड़ रहे होते, लड़ाई का खेल खेलते, प्लॅस्टिलिन के सैनिक बनाते...
 “तू चिल्ला मत, ...” आर्तेम ने विनती की. “जल्दी ही मम्मा आयेगी, उसके साथ खेलना.”
पलंग के ऊपर लटके हुए झुनझुने को बजाया; मगर बेटा उस तरफ़ ध्यान दिए बिना, और ज़ोर से पैर मारने लगा, चीख़ने लगा. और तभी आर्तेम के दिमाग़ कुछ ख़याल उभरकर गड्डमड्ड हो गए – ओलेगजान का आगमन, वाल्या की घर में  अनुपस्थिति, पिछले कुछ दिनों में उसका सुन्दर दिखना. सही कहें तो वह कोशिश कर रहा था कि ये ख़याल न उभरें, मगर बच्चे के रोने ने उसे चिड़चिड़ाने पर मजबूर कर दिया, और चिड़चिड़ेपन ने अंतर्मन में चल रहे इस खेल को तोड़-मरोड कर समझ से परे कर दिया.
 “तू उठा भी उसको!” पीठ के पीछे सास प्रकट हुई; ज़ोर से नाक के भीतर हवा खींची. “क्या समझ में नहीं आ रहा है कि वो गन्दा हो गया है! पैम्पर्स उतार, उसे धोकर साफ़ कर.”
 “ख़ुद ही उतारिए और धोईये,” कहना चाहता था. आर्तेम ने अपने आप पर काबू रखा, सावधानी से बेटे को उठाया, पैम्पर्स खींचने लगा. “ये तू कैसे कर रहा है!...” सास तैश में आ गई. “अब सब इधर उधर फैल जाएगा. ऐ ख़ुदा! चल, बड़े पापा बने हैं...”

आर्तेम मुँह लटकाए बगल में खड़ा था, रह देख रहा था कि सास कब पैम्पर्स बदलती है, और फिर धीरे से बाहर जाने लगा.
 “और इसे खिलायेगा कौन?!” बेहद उत्तेजित चीख़ सुनाई दी. “इसका खाना गरम कर. केतली में गरम पानी है.”
इन अनजान, अप्रिय कामों को करते हुए, आर्तेम और ज़्यादा बिखरता जा रहा था – मन ही मन बीबी को संबोधित करते हुए वह बड़े-बड़े गुस्से भरे वाक्य कह रहा था, उसे दोष दे रहा था, गालियाँ दे रहा था. यहाँ वो बेवकूफ़ की तरह बोतल गरम कर रहा है, और वह...और वह किसी गन्दे, एड्स के, टी.बी. के मरीज़ के साथ रंगरेलियाँ मना रही है...

और जब वाल्या वापस आई, तो वह उबल रहा था. वे सैंकड़ों शब्द जो दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे, एकदम भूल गया और क्रोध से थरथराते हुए बार-बार कहने लगा:
 “कहाँ गई थी?...कहाँ थी तू?! कहाँ आँ?!”
एक सेकण्ड के लिए बीबी के चेहरे पर बदहवासी और अपराधी भाव आया, मगर फिर उसने फ़ौरन कड़वाहट से मुँह बनाया.
 “तू चिल्ला क्यों रहा है?! पाँच मिनट भी बच्चे को संभाल नहीं सकता?...”
 “ तू कहाँ गई थी, मैं पूछ रहा हूँ?!”
बच्चा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा; वाल्या ने उसे पकड़ा और ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगी. साथ ही चिल्लाकर आर्तेम की बात का जवाब दिया:
 “जहाँ जाना चाहिए था! ईडियट! अस्पताल में गई थी – फिर से दूध पिलाने वाली! फिर से, शायद, बच्चा दिया है तूने – और ऊपर से चिल्ला रहा है.”
 “आह, किसने दिया है? ओलेगजान ने?”    
“भाड में जा! वाक़ई में ईडियट...
 “तू ही ईडियट है!” आर्तेम को इस तरह गला फ़ाडकर चिल्लाने में बड़ा मज़ा आ रहा था, थरथराहट भी ग़ायब हो गई, रोद्का की चीख़ें भी डरा नहीं रही थीं, नहीं रोक रही थीं.
“छिनाल! कहाँ गई थी, पूछ रहा हूँ? उस ओलेगजान के साथ सोई थी क्या?”
आर्तेम को सिर के दाएँ हिस्से में कुछ चुभने का एहसास हुआ. ये वार नहीं था, चुटकी भी नहीं थी, बल्कि चुभन थी. वह काँप गया, इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो सास को देखा, जिसने फिर से अपना हाथ उठाया था, बीच वाली ऊँगली को गोल करके स्क्रू-ड्राईवर की तरह बाहर निकाले हुए. वह अक्सर अपने पियक्कड़ पति के सिर पर इसी तरह मारती थी.
“क्-क्य-आ!”  आर्तेम ने उसका हाथ पकड़ लिया, उसे तोड़ने की कोशिश करने लगा, मगर नहीं तोड़ पाया – सास ताक़तवर थी, और उसके चेहरे पर थप्पड़ मारने की हिम्मत न हुई. सास ख़ामोशी से लड़ती रही, सिर्फ तनावभरी सिसकारियाँ भर लेती थी, पूरी कोशिश कर रही थी कि अपनी ऊँगली के कड़ाही-स्क्रू-ड्राईवर से वार करे. ऊपर से वलेन्तीना लगातार चिल्लाए जा रही थी. आर्तेम ये तो सुन नहीं रहा था कि वह क्या बक रही है, मगर वो कोई अपमानजनक बात थी: कि वह यहाँ से दफ़ा हो जाए, उसे ऐसे पति की कोई ज़रूरत नहीं है, ईडियट, एहसान फ़रामोश हरामी...
ये देखकर कि सास जीत रही है, आर्तेम अपने आप को रोक न सका और उसकी भरी-पूरी छाती पर घूँसा जड़ दिया.
 “आह तू, ह-रा-मी!” और सास एकदम भालू के समान उसके ऊपर चढ़ गई; अब कमरे में ससुर भी आ गया और बिना सोचे-समझे बीबी की मदद करने लगा.
मुड़ते हुए आर्तेम ने अलमारी के ऊपर कैंची देखी. वह आसानी से कैंची उठा सकता था...”ऐसे ही लोग एक-दूसरे को मार डालते हैं,” उसके दिमाग़ में ख़याल आया, और इस ख़याल से वह, जैसे होश में आ गया, उसने प्रतिकार करना बंद कर दिया, और जब उसे महसूस हुआ कि उस पर हमला करने वाले भी कमज़ोर पड़ गए हैं, वह छिटक कर भागा.

आँगन में नज़र दौड़ाई, जैसे पहली बार यहाँ आया हो. दाईं ओर गेट है, बाईं ओर आऊट-हाऊस...आऊट-हाऊस में अलमारी और दीवार के बीच में सर्दियों से ही तीन सौ रूबल्स छुपाकर रखे हैं. उछल कर अन्दर गया – गिरते गिरते बचा – अलमारी हटाई, पैसे ले लिए.
सास और ससुर की चीखों और घूँसों से छूटकर वह गेट के बाहर भागा.

चारों ओर नज़र दौड़ाई, ऐंठते और थरथराते हुए घुटी-घुटी आवाज़ में चीख़ा:
 “बदज़ात कुत्ते! घिनौने राक्षस!”
यंत्रवत् उस दिशा में चलने लगा, जहाँ माँ-बाप का घर था. रुका, “क्या? वहाँ क्या है?” और ज़िन्दगी में पहली बार उसे महसूस हुआ कि वह निपट अकेला है, बेघर है...शायद, ऐसे ही बेघर लोग सड़क के बीचोंबीच खड़े रहते हैं. पहली रात से पहले...

कंपकंपाते हाथ से फिल्टर वाली “प्रीमा” सिगरेट का पैकेट निकाला, सिगरेट बाहर खींची. किसी तरह कश लगाए, कई बार गहरे-गहरे कश लिए. मुँह का स्वाद कड़वा हो रहा था, उबकाई आने लगी, जैसे मुँह में कोई रस्सी का टुकड़ा जल रहा हो. सिगरेट का कोना काटकर फेंक दिया, बचा हुआ लम्बा टुकड़ा वापस पैकेट में रख दिया. ज़रूरत पड़ेगी...

तालाब के किनारे के पास गया, घास पे बैठ गया. जेबों के पैसे निकाल कर गिने. पाँच सौ रूबल्स थे. बढ़िया है. इतने पैसों से फिर से शुरूआत की जा सकती है...उठकर गाँव के प्रवेश के पास वाले बस-स्टॉप की ओर चल पड़ा. वह जल्दी-जल्दी चल रहा था, हालाँकि बस छूटने में अभी घंटे भर से ज़्यादा समय था; पूरी शिद्दत से अपने आपको यक़ीन दिला रहा था, कि अब कभी घिनौनी बीबी से नहीं मिलेगा, न ही अपने माँ-बाप से, जो उसे यहाँ, इस गड्ढ़े में खींचकर लाए थे.  किसी ओलेगजान से भी नहीं मिलेगा, किसी से भी नहीं...

 “ठेंगे से.” निर्णायक सुर में, कड़वाहट से बुदबुदाया, “ठेंगे से. सड़ो यहाँ पर, और मुझे...मुझे ठेंगे से भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं है!...”

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें