शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

Eltyshevi - 21

अध्याय – 21


इस साल की पतझड़ वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को पिछले साल के मुक़ाबले ज़्यादा कठिन प्रतीत हो रही थी. पिछली पतझड़ में - भले ही दुर्बल, बात-बात में नाक घुसेड़ने वाली ही सही - मगर घर की मालकिन थी, तात्याना आण्टी. वह बताती रहती कि कब, क्या करना है, सर्दियों के लिए क्या-क्या तैयारियाँ करनी हैं, ख़ुद भी धीरे-धीरे बहुत सारे छोटे-छोटे काम कर लेती थी, जिनमें काफ़ी समय जाता था, मगर अब सब कुछ उस पर आ पड़ा है. ऊपर से ये लगातार की थकावट बेज़ार किए दे रही थी – ये थकावट काम से नहीं हो रही थी, बल्कि भीतरी, बीमार सी थकावट थी, जैसे पूरा जिस्म जीने से थक चुका था. दिमाग़ नित नई-नई समस्याओं से जूझते-जूझते, उनका हल निकालते-निकालते, कोई रास्ता ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गया था...

स्प्रिट के लिए आनेवालों से फ़ुर्सत नहीं थी. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने कई बार पति से कहना चाहा कि ये दुकान बन्द कर देते हैं. मगर हमेशा ऐन मौके पर ख़ुद को रोक लेती ये सवाल पूछकर: फिर कमाने का कोई और तरीक़ा है?   

आर्तेम की परिस्थिति में कोई स्थिरता नहीं थी – शहर में किसी मज़दूर की तरह रहता था, सिमेंट-कॉन्क्रीट का मिश्रण बनाता, ईंटें ढोता. भविष्य के लिए कोई मौक़े नहीं. और जब वह नवम्बर में गाँव वापस आ गया तो उसे आश्चर्य नहीं हुआ.
 “सर्दियों के लिए ब्रिगेड को छुट्टी दे दी है,” उसने नाक चढ़ाकर कहा.
 “ठीक है, क्या बहुत कमाई की है?”
 “बहुत कम.” बेटे की आवाज़ से डर झाँक रहा था कि उससे पैसे छीन लेंगे. “कुछ खाने में खर्च हो गए, कुछ रहने में...और कुछ इधर-उधर...”
 “हाँ, हाँ,” मुस्कुराते हुए निकोलाय ने सिर हिलाया. “और अब क्या करने का इरादा है?”
 “मालूम नहीं. बसंत में फिर से जाऊँगा. इतना इंतज़ार कर सकता हूँ...और वहाँ, हो सकता है, कुछ...”
निकोलाय ने फिर से सिर हिलाया, भट्टी के पास गया, ऊँगलियों में सिगरेट घुमाते हुए. उसका ये देर तक भट्टी के पास बैठना वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को डराता था. निकोलाय सिगरेट इतना नहीं पीता था, जितना, जैसे किसी चीज़ से परेशान था, या किसी ख़तरे से आशंकित था. वह इस तरह आधे घण्टे भी बैठ रहता था, घण्टा भर भी, और अगर इस समय गेट पर खटखट होती तो तेज़ी से उछलता, लगभग भागते हुए रास्ते तक जाता. और एक बार, वह ख़ाली बोतल के साथ नहीं, जिसके बदले में भरी हुई बोतल दे दे, बल्कि पुलिस ऑफ़िसर के साथ लौटा.  
 “लो, हो गया बिज़नेस,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने राहत की सांस ली, मगर उसकी टाँगें काँप रही थीं, वह जल्दी से तिपाई पर बैठ गई.
 “नमस्ते,” पुलिस ऑफ़िसर ने कुछ माफ़ी मांगती सी मुस्कुराहट से अपने होंठ फैला दिए, चारों ओर नज़र डाली; किचन में तो सब ठीक-ठाक था, स्प्रिट के कनस्तर, बोतलें, ख़ुदा का शुक्र है, सामने नहीं थीं. “मैं आपसे कुछेक सवाल पूछना चाहता हूँ. सड़क पर ही पूछ लेता, मगर ठण्ड है.”
 “हाँ, हाँ, बैठिए.”
 “आप, हुम्, बेशक, जानते हैं कि गेनादी खारिन  ग़ायब हो गया है...”
 “ये तो पुरानी बात है,” निकोलाय ने जवाब दिया. “हाँ, मतलब, सुना है. तो क्या?”
 “आज उसका मृत शरीर जंगल में मिला. मोटरसाईकल वहीं थी, लगता है, कुछ भी चोरी नहीं हुआ. वहाँ पर फ़ॉरेस्ट-ऑफ़िसर को छोड़कर आया हूँ, खोजी-टीम को बुलाया है, और तब तक सोचा कि लोगों से पूछताछ कर लूँ...” पुलिस ऑफिसर ने निकोलाय की ओर देखा. “आपने तो कुछ नहीं सुना? कौन मार सकता है?...आपके पास तो, हुम्, कई लोग आते हैं.”
निकोलाय ने कुछ देर सोचा, कंधे उचका दिए:
 “नहीं...मुझे भी ये खारिन, सच कहूँ, तो अच्छा नहीं लगता था.”
 “ऐसा क्यों?”
 पति कुछ कहे, इससे पहले ही वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने जवाब दिया:
 “उन्होंने हमें बड़ा धोखा दिया. वो और उसकी बीबी. बड़ी बेशर्मी से धोखा दिया. हम यहाँ आये-आये ही थे, और उसकी बीबी एलेना हमारे यहाँ आने लगी. इतनी ख़ुशमिजाज़...” फिर आगे उसने पेट्रोल-आरी के बारे में बताया, लकड़ियों के, लट्ठों के, घास के, सिमेंट के बारे में बताया. “मतलब, पक्के बदमाश हैं वो लोग!”
 “हाँ-“ पुलिस ऑफ़िसर ने गहरी सांस ली, “मैंने इन संदेहास्पद बातों के बारे में सुना है. उन्होंने कईयों को इस तरह से बेवकूफ़ बनाया, ख़ास तौर से बाहर से आने वालों को.”
 “तो, अगर आपने सुना था तो आप कहाँ देखते रहे?”
पुलिस ऑफ़िसर ने परेशानी से वलेन्तीना विक्तोरोव्ना की ओर देखा:
 “मुझे किसी ने लिखकर ही नहीं दिया. और आप ने भी, मुमकिन है, उससे किसी तरह की कोई रसीद नहीं ली होगी. हाँ? तो फिर...” वह उठ गया. “उम्मीद है कि ये मामला खोलेंगे. हो सकता है, कोई दुर्घटना हुई हो.” अर्थपूर्ण ढंग से खांसा. “किसी नुक्सान के, किसी तरह की हाथा-पाई के निशान मुझे नहीं मिले. मोटरसाईकल बिल्कुल ठीक है. अच्छा, फिर मिलेंगे.”

उदास, हिमरहित सर्दियों-पूर्व के मौसम के बदले असली सर्दियों का मौसम आ गया. और, पहले ही की तरह, बड़े आत्मविश्वास के साथ बसंत के मौसम तक के लिए पसरी हुई बर्फ ने पहले तो ख़ुश कर दिया – गाँव ज़्यादा ख़ूबसूरत लगने लगा, आसपास ज़्यादा रोशनी हो गई – मगर फिर वह मन पर बोझ डालने लगी.

दिन का ज़्यादातर समय घर पर ही बिताते, खूब सोते थे, मगर नींद से ताज़गी नहीं मिलती थी, ताक़त लौटकर नहीं आती थी. जब सोना असंभव हो जाता, तो टी.वी. के बुरे प्रोग्राम देखने लगते, चिड़चिड़ाहट से लकड़ी के फर्श को चरमराते, तंग कॉटेज में इधर-उधर घूमते.

इन सर्दियों में खूब पीते रहे. यंत्रवत्, जैसे कोई पुराना मरीज़ निश्चित समय के बाद दवा के डोज़ लेता है, वैसे ही अलमारी के पास जाते, बोतल निकालते, क़रीब सत्तर ग्राम जाम में डालते, गटक जाते. पन्द्रह-बीस मिनट के लिए सर्दियों के इस मृतप्राय वक़्त को गुज़ारना कुछ आसान हो जाता, और इसके बाद फिर से पी लेते. धीरे-धीरे नशा चढ़ने लगता, ऊँघने लगते, फ्रिज में से निकालकर कुछ खा लेते, फिर से एक जाम पीते... वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के पास अलग-अलग तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाने की ताक़त ही नहीं थी, और दिल भी नहीं चाहता था – “किसलिए?” तसले में पानी बदल-बदल कर दिन में तीन-तीन बार बर्तन धोना बर्दाश्त नहीं होता था, और कभी-कभी तो वह वाश-बेसिन को, गरम पानी के नल को याद करके ख़ामोशी से आँसू बहाने लगती थी...

आर्तेम दिखाई ही नहीं देता था, मतलब, वह भी उसी तरह दिन बिताता, जैसे माँ-बाप बिताते थे. वह भी बड़ी देर तक पलंग पर पड़ा रहता, टी.वी. के धब्बेदार स्क्रीन पर कुछ देखने की कोशिश करता, वैसे ही अलमारी की तरफ़ जाता और अपने लिए जाम भर लेता; जब गेट पर खटखट होती, तो उसे थोड़ा जोश आ जाता, वह बाप की मदद करने की तैयारी दिखाता. कई बार उसने स्प्रिट बेचा. घर के कामकाज में हाथ बँटाया – दुकान में जाता, पानी लाता, आँगन की बर्फ खोदकर दूर करता, लकड़ियाँ लाता.

वे आम तौर से ख़ामोश रहते थे. तीनों को मालूम था कि अगर वे किसी बात पर विचार-विमर्श करेंगे, पुराने दिनों को याद करेंगे, तो ये सब चीख-चिल्लाहट से ही ख़तम होगा. विचार-विमर्श करने लायक कुछ था ही नहीं, और पुरानी बातों को याद करना – बेहद तकलीफ़देह...

नये साल का स्वागत बड़ी सादगी से किया,  प्रसन्नता से और एक दूसरे को “सर्वोत्तम शुभकामनाएँ” देने से डरते हुए. शैम्पेन भी नहीं ख़रीदी. स्प्रिट ही पिया, सॉसेज और तली हुई मुर्गी चबाते रहे और रात के क़रीब एक बजे सो गए. पूरा गाँव भी शांत ही था – सिर्फ कुछ पटाखे फूटे, कहीं से इक्का-दुका, नशे में तर चीख़ सुनाई दे रही थी: “हु-र् रे- र्रे!”

क्लब को फिर से नहीं बनाया गया, जले हुए लकड़ी के फट्टों और लट्ठों को ईंधन के लिए खींच-खींचकर लोग अपने-अपने आँगन में ले गए, लोहे और एस्बेस्टस के बड़े बड़े टुकड़े – घर में ले गए.
फरवरी के अंत में वलेन्तीना विक्तोरोव्ना छोटे बेटे से मिलने जा रही थी. ये अंतिम मुलाक़ात होने वाली थी – डेनिस को अब सिर्फ साढ़े छह महीने ही जेल में गुज़ारने थे...

डेनिस के वापस लौटने को वह ज़िन्दगी के कुछ ठीक-ठाक होने की उम्मीद से जोड़ रही थी. काफ़ी पहले से जोड़ रही थी, उसकी राह देखते-देखते थक गई थी, दिन में कई-कई बार कैलेंडर देखती और अफ़सोस करती कि वक़्त कितना धीरे-धीरे गुज़र रहा है, और बड़े-बड़े अंकों वाले इस भूरे पन्ने को फाडना संभव नहीं है. उसे मसल देना चाहिए, भट्टी में फेंक देना चाहिए. इस अलग-अलग पन्नों वाले कैलेंडर को ख़रीदकर उसने ख़ास तौर से किचन में मेज़ के ऊपर लटकाया था, इस उम्मीद से कि अगर दिनों के गुज़रने को ग़ौर से देखा जाए, नज़र से उनके सामने जल्दी मचाई जाए, तो वे ज़्यादा तेज़ी से भागेंगे. मगर दिन तो लम्बे खिंच रहे थे, रेंग रहे थे, वक़्त जैसे बार-बार जम जाता था, जैसे चिढ़ा रहा हो. और अपने लिए कुछ अनुपयोगी कामों को सोचते हुए उसे आगे की ओर धकेलना पड़ता था.

ठीक-ठाक पहुँच गई. डेनिस बिल्कुल भी क़ैदी जैसा नहीं लग रहा था, बस यूनिफॉर्म जेल की थी और बाल छोटे-छोटे; अधिकारियों की उसके बारे में कोई ख़ास शिकायत नहीं थी: बोले कि, आम तौर से, सुधर रहा है. वह रो रही थी और बेटे को मना रही थी कि जल्दी घर आ जाए –“वर्ना हम मर जाएँगे.” उसने सिर हिलाया, उसकी पीठ को सहलाया, और जब अपने गालों को पोंछते हुए वलेन्तीना विक्तोरोव्ना चुप हुई तो हौले से, सहानुभूति से पूछा:
 “पीने लगी हो, मम्मा?”
 “आँ?”
 “क्या अक्सर पीती हो?”
वह झटका खा गई:
 “तूने कैसे पहचाना?!”
 “दिखाई दे रहा है. चेहरा, आवाज़....ऐसे लोग समझ में आ जाते हैं.”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना झल्लाना चाहती थी, उसे यक़ीन दिलाना चाहती थी कि हालाँकि, बेशक, पीते हैं, मगर कभी-कभार, त्यौहारों पे, थकावट के कारण...डेनिस ने उसे रोका:
 “खूब ज़्यादा मत पियो. सब्र करो. सब ठीक हो जाएगा. हम फिर से उठेंगे.”

वापस लौटी पक्का इरादा लेकर, कि अपने मर्दों को समझाएगी, घर बनाने पर मजबूर करेगी – ‘पहले तो कठोर ज़मीन वाले तायगा में भी घर बनते ही थे!’ – उन्हें काम ढूँढ़ने पर मजबूर करेगी. ‘कहीं उत्तर की ओर जाकर किसी निगरानी दल में नाम लिखाने दो. कोई रास्ता निकालने दो. वर्ना, यहाँ तो हम सबका दम घुट जाएगा, इस दलदल में हम ख़त्म हो जाएँगे!’

आसपास का वातावरण जैसे तहे दिल से उसके निर्णय को बढ़ावा दे रहा था: सूरज खुलकर, तेज़ी से चमक रहा था, बर्फ चकाचौंध की हद तक चमक रही थी, मगर अब वह स्थिर हो चुकी थी, चीड़ के पेड़ों और क्रिसमस-ट्री के काँटे बेहद ख़ुशनुमा, ज़िन्दगी से सराबोर लग रहे थे; कम्पार्टमेन्ट में लोग भी जैसे चुन-चुनकर भेजे गए थे – मिलनसार और दोस्ताना, रिज़र्व्ड- कम्पार्टमेंट की खिड़की के ऊपर लगे स्पीकर से निरंतर उसकी जवानी के दिनों के लोकप्रिय गाने सुनाई दे रहे थे, और समाचार बुलेटिन के दौरान प्रेसिडेंट की जोशीली, जवान और हर लहज़े में निर्णायक आवाज़ सुनाई दे रही थी:
 “रूस – वो देश है जिसने जनता की मर्ज़ी से अपने लिए प्रजातांत्रिक प्रणाली का चुनाव किया है. वह ख़ुद ही इस राह पर आया है, और सभी प्रचलित प्रजातांत्रिक नियमों का पालन करते हुए, ख़ुद ही यह फ़ैसला करेगा कि किस प्रकार से – अपनी ऐतिहासिक, भू-राजनैतिक और अन्य विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए – स्वतंत्रता और प्रजातंत्र के सिद्धांतों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करना चाहिए...”

मगर जैसे ही गाँव पहुँच कर बस से उतरी, मूड ख़राब होने लगा: उनींदे लोग, काली, टेढ़ी कॉटेजेस, दुकान की हरे रंग की पोपड़े पड़ी दीवार, न जाने किसलिए जीते हुए गंदे, भद्दे कुत्ते, जो किसी की रखवाली नहीं करते...

घर में अंधेरा था, उमस थी, ठण्ड थी. मेज़ पर – गन्दे बर्तनों का ढेर लगा था.
 “कोल्, तेम,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने देहलीज़ से ही पुकारा.
कमरे से दयनीय, भर्राई हुई कराह सुनाई दी, वहाँ कुछ सरसराहट हुई, काँच की कोई चीज़ गिरी, मगर ख़ुदा का शुक्र है कि टूटी नहीं.
 “क्या बात है?! निकोलाय!”
ऐसा उसने पति को कभी नहीं देखा था. बेशक, कभी-कभार ऐसा होता था कि बेहद पी लेने के बाद उसके पैर लड़खड़ाने लगते, सिर एक ओर को झुक जाता, मगर इस हद तक...पीने की एक ही शाम में इस हद तक नहीं जा सकते.

निकोलाय दीवान पे बैठा था, कराहते हुए, कुछ बुदबुदाते हुए, हाथों में सिर पकड़ के झूल रहा था. बाल उलझे हुए, चेहरे पर घनी भूरी दाढ़ी, पूरा शरीर काँप रहा था, टेढ़ा हुआ जा रहा था...ये समझते हुए कि अब उसे डाँटने से, उसकी बेइज़्ज़ती करने से कोई फ़ायदा नहीं होगा, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना किचन में चली गई. धीरे-धीरे, जैसे उसके पास बैठने से डर रही हो, वह स्टूल पर बैठ गई. कुछ देर बैठी, इधर-उधर देखा, समझ में आ गया कि उसी जगह पे बैठी है, जहाँ अक्सर आण्टी बैठा करती थी. उछलकर दूसरी जगह बैठ गई.       

नशे में नहीं, बल्कि अत्यंत दुर्बलता से लड़खड़ाते हुए निकोलाय भीतर आया, अलमारी की ओर झुका, बोतल निकाली, दाँतों से प्लॅस्टीसिन का कॉर्क निकाला, जाम में उँडेली. बाएँ हाथ से बोतल पकड़े हुए, दाएँ हाथ से जाम उठाया और पी गया. ज़ोर की डकार ली. कुछ देर खड़ा रहा. बोतल को मेज़ पर रखा. सुराही से पानी का घूँट पिया. पलंग पे गिर पड़ा, मगर फ़ौरन जिस्म को सीधा किया, दीवार की तरफ़ गिर गया.

 “आर्तेम कहाँ है?” शांतिपूर्वक बोलने की कोशिश करते हुए वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा; सवाल इसलिए नहीं पूछा था कि वह वाक़ई में बेटे के बारे में जानना चाहती थी, बल्कि इसलिए पूछा जिससे वह ख़ामोश न रहे – ख़ामोश रहना ख़तरनाक था.
 “वो?...” पति खाँसा. “वो फिर उसके पास चला गया. चार दिन से नहीं आया. जैसे ही तुम गईं...वहीं जम गया...”
निकोलाय उठा, बोतल ली.
 “मेरे लिए भी डालो,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने कहा. डेनिस की बात याद आई, मगर ख़यालों में ही अपने आप का समर्थन करने लगी: “क्या करें? अब करें भी तो क्या?”
 “उसने, ऐसा लगता है कि अब तक उससे तलाक़ नहीं लिया है,” स्प्रिट पीने के बाद गहरी साँस लेकर निकोलाय ने कहा. “कहता तो था, मगर पता चला...”
 “हो सकता है, उनके बीच सब ठीक हो गया हो?”
“कौन ठीक करने वाला है! क्या कह रही है तू?!” निकोलाय की आँखें गोल हो गईं, सफ़ेद पड़ गईं, और वलेन्तीना विक्तोरोव्ना चीख़कर जवाब देने वाली थी, मगर उसने अपने आप पर काबू किया, सुनती रही. “तू क्या, वाल्, बिल्कुल नहीं समझती है? वो जानबूझकर ये सब करता है! जैसे ही बसंत का मौसम आता है, कुछ सोच लेता है. कभी उसकी शादी करवाओ, कभी वो...आता है – जाता है. बिल्कुल चला जाता है. ये घर, क्या मुझे चाहिए? आँ?! उसीको तो... मुझे तो यहाँ पे मरने में भी कोई परेशानी नहीं है.”

मगर, शायद, ये याद करके वह यह बात बीसवीं बार कह रहा है, निकोलाय चुप हो गया. हथेली में बोतल पकड़ ली.
 “मत पियो, कोल्,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने नर्मी से कहा. “और डेनिस ने भी कहा है कि ज़्यादा न...अब जल्दी ही आने वाला है वो. हाथ बटाएगा.”
“ हाथ बटाएगा...मैं नहीं सोचता.” पति ने जाम में स्प्रिट उँडेला, मगर बिल्कुल थोड़ा. “ऐसे...इस सब के बाद उसकी यहाँ कैसे निभेगी? नहीं रहेगा वह यहाँ...महीना भर रहेगा, मज़े से खायेगा-पियेगा और...क्या तू सोचती है कि पाँच साल जेल में बिताने के बाद, इन्सान गाँव में टिक पायेगा?”
 “मगर वह कहता है...”
 “”अभी उसे कुछ भी कहने दो. अभी, वहाँ, वह जो जी में आए, कह सकता है. समझ ले...”
 “मैं कुछ भी समझना नहीं चाहती!” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने उसकी बात काटी. “मैं बस एक बात जानना चाहती हूँ – आप लोग – मर्द, यहाँ कब इन्सानों जैसी ज़िन्दगी बनाओगे? तीसरा साल शुरू हो गया है. दो गर्मियाँ!”

यहाँ आकर इन कुछ ही मिनटों में वह बेहद कमज़ोर महसूस कर रही थी, मगर साथ ही, पीने के बाद, सुनने के बाद, उत्तेजित भी हो रही थी. और अब वो बोले जा रही थी, बोले जा रही थी, पति पर और बेटों पर अपमानजनक शब्दों की बौछार किए जा रही थी, जिनमें से हरेक ने उसे मुसीबत में डाल दिया है और जो, उसे लगा. कि यहीं कहीं बैठे हैं. कायरता से छुप गए हैं.

बसंत का मौसम जल्दी आ गया, ख़ुशनुमा था मौसम. मार्च के मध्य से ही बर्फ पिघलने लगी थी; लोगों को पाले का डर था, जिन्होंने सब्ज़ियाँ और फल बोये थे, उन्होंने घास से, चीड़ और देवदार की टहनियों से उन्हें ढाँक दिया. मगर कोई ख़ास पाला नहीं पड़ा – दिन और रात एक जैसे लम्बे थे, ज़िन्दगी से भरपूर. घास काफ़ी जल्दी निकल आई. ये सच है, कि लोगों ने अभी आँगन खोदने का इरादा नहीं किया था, और जैसे ही ज़मीन कुछ सूखी, लोग, अपने आप को मनाते हुए बुदबुदाने लगे: “सर्दियाँ एक बार फिर लौटेंगी, लौ-टें-गी.”

एल्तिशेव अपनी गहरी उदासीनता से बाहर न आ सके. खिड़कियों की सिलों पर लगे हुए पौधे एक दूसरे का दम घोंट रहे थी, मगर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना में उनकी छँटाई करने की ताक़त ही नहीं थी, मामूली सा खाना बनाने के लिए भी अपने आप को मजबूर करना पड़ता था; निकोलाय सर्दियों की ही भाँति भट्टी के पास बैठा रहता, सिगरेट पीता रहता, किसी चीज़ के बारे में सोचता रहता, ऐसा लगता था कि उसे किसी चीज़ का इंतज़ार है; थोड़ी-थोड़ी देर बाद स्प्रिट का जाम भरता और गटक लेता.

मार्च के आरंभ में बाथ-हाऊस के लिए पतझड़ में ही ‘बुक’ करवाई गई लोहे की भट्टी आई, और जैसे उसे भीतर घसीटा था, वैसे ही वह पड़ी रही, ड्योढ़ी के पास – निकोलाय को उसे ‘फिक्स’ करने की कोई जल्दी नहीं थी, और वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को कोई फ़रक नहीं पड़ता था. कभी-कभी ही नहाते थे – महीने में दो बार – और वह भी नाम के वास्ते, बिना किसी प्रसन्नता के.

बसंत में स्प्रिट के लिए लोग कम आने लगे. या तो पैसे नहीं थे, या फिर, जिस पर यक़ीन नहीं होता था, कि लोगों ने पीना कम कर दिया है. शायद, पैसों के अभाव ने ‘बिज़नेस’ कम कर दिया – बसंत में गाँव वालों को हमेशा पैसों की तंगी हो जाती थी. और इसकी पुष्टी की बूढ़ी औरतों के बढ़ते हुए आगमन ने, जो एल्तिशेवों के यहाँ से स्प्रिट की दो-तीन बोतलें ख़रीदा करती थीं, जिससे जुताई के लिए, सर्दियों के बाद की घरों की मरम्मत के लिए, दरारें भरने के लिए मेहनताना दे सकें...

अप्रैल में उस जगह पर, जहाँ पहले क्लब था, एक ब्रिगेड आई, ज़ाहिर था, कि ज़ाखोल्मोवो से आई है, और अग्निकांड का जायज़ा लेने लगी. ट्रकों में पाईप्स, लकड़ी के झुलसे हुए ठूंठ जिन्हें लोग खींचकर नहीं ले गए थे, क्लब के बॉयलर-रूम से बॉयलर्स, टूटी-फूटी ईंटे लादकर ले गए. लोग कह रहे थे कि जल्दी ही बड़ा, सिमेंट-कॉन्क्रीट का, बड़ी-बड़ी - फर्श से छत तक ऊँची - खिड़कियों वाला- नया क्लब बनाना शुरू करेंगे. मगर उसी समय स्थानीय आस्तिक लोग – कुछ बूढ़ियाँ – एक दरख़्वास्त लेकर उस पर हस्ताक्षर करवाने के घर-घर जाने लगे, जिसमें यह लिखा था कि उस टीले पर, जहाँ क्लब था, ऑर्थोडॉक्स चर्च बनाया जाए.
 “पहले वहाँ चर्च ही था,” वे सफ़ाई देते. “सन् बासठ में उसे तोड़ दिया गया. हमारे यहाँ तो वहाँ की प्रतिमाएँ भी संभालकर रखी हैं.”

एल्तिशेवों के यहाँ भी आए. निकोलाय ने ख़ामोशी से उनकी बात  सुनी और हस्ताक्षर कर दिए, मगर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा:
 “तो फिर क्लब कहाँ बनाएंगे?”
 “क्या उसके लिए जगह नहीं मिलेगी?” उनमें से एक बुढ़िया ने धृष्ठता से भौंहे चढ़ाकर कहा. “कित्ती जगह पड़ी है.”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने उसे पहचान लिया – कभी यह बुढ़िया, तब मध्यम उम्र की, मारिया दाव्चेन्को, कृषि-सोवियत में काम करती थी और सिर पर लाल रूमाल बांधती थी. सभाओं में बढ़-चढ़ कर बोलती थी.
 “और ये इत्ते सारे हस्ताक्षर लेकर तुम लोग कहाँ जाओगी?”
 “शहर में ले जाएँगे. हर दफ़्तर में जाएँगे.”
 “ठीक है...” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने अपना पता लिखा, हस्ताक्षर घसीटे. उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था – उस चर्च की, जो क्लब वाली जगह पर पहले हुआ करता था, धुंधली सी याद बाकी है. उसकी ओर, जिसे बीस के दशक में बन्द कर दिया गया था, और जो धीरे-धीरे अपने आप नष्ट हो रहा था, और गाँव वालों द्वारा भी नष्ट किया जा रहा था (कोई लोहे की चादर खींच कर ले जाता था, कोई लकड़ी के समतल बोर्ड, किसी को पत्थर की ज़रूरत थी), कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया जाता था. उसे गिराने की घटना के प्रति भी उदासीन ही रहे, जैसे किसी पुराने मवेशीख़ाने को तोड़ रहे हों.
शहर में कभी के बने पाँच चर्चों में से सिर्फ एक बचा था, शहर की सीमा पर, छोटा सा, सफ़ेद, किसी भी तरह से लोगों का ध्यान नहीं खींचता था. जिला केन्द्र के चर्चों की उसे याद नहीं थी – वहाँ भी बीस से साठ के दशकों में उन्हें गिरा दिया गया था; एनिसेय के मुहाने पर घंटाघर था, मगर उसे कोई भी कोई धार्मिक इमारत नहीं मानता था, बल्कि शहर का ऐतिहासिक स्मारक समझा जाता था. 
 “ख़ुदा आपको सलामत रखे,” उससे दरख़्वात लेते हुए बूढ़ियाँ फुसफुसाईं, “ख़ुदा सलामत रखे...”

एक मई को आर्तेम प्रकट हुआ. सजा धजा, थोड़ा सा पिए हुए, वाक़ई में बहुत ख़ुश. ड्योढ़ी के पास पड़ी भट्टी को तौलती हुई नज़रों से देखा:
 “बाथ-हाऊस के लिए? फिट करना चाहिए.”
निकोलाय भी, जिसने सुबह-सुबह दो सौ ग्राम्स ली थी, इसके विपरीत, बुरे मूड में था:
 “चल, मैं मदद करता हूँ.”

बेटा कुछ देर भट्टी के पास खड़ा रहा, फिर घर के अन्दर आया. वहाँ हुए और न हुए परिवर्तनों पर नज़र डाली. मेज़ के पास बैठा.
 “तो, आप लोग कैसे हैं?” मुश्किल से वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा; उसे आर्तेम को देखे हुए दो महीने हो गए थे, जब से वह डेनिस से मिलने गई थी. कई बार त्यापोवों के यहाँ जाने का मन हुआ, मगर उन पर और बेटे पर नाराज़ी ने उसे रोक दिया.
 “बस, ठीक हैं...जी रहे हैं.”
 “रोदिक कैसा है?”
 “वो भी...बड़ा हो रहा है.”

आर्तेम बड़ी बेदिली से जवाब दे रहा था, जैसे उसके मन में कुछ और चल रहा था या फिर ख़ुद ही सवाल पूछना चाहता था. कठिन, गंभीर, अप्रिय.
 “कैसे आया है?” काफ़ी लम्बी और बोझिल ख़ामोशी के बाद निकोलाय ने पूछा.
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना उसके लहज़े से थर्रा गई – किसी दुश्मन की तरह पूछा था. मगर वह भी बेटे से यही सवाल पूछना चाह रही थी.
 “बस, यूँ ही. आप लोगों को देखने.”
 “म्-म्, थैंक्यू...”
कुछ देर चुप रहे.
 “ क्या सेलेब्रेट करें?” आर्तेम ने सुझाव दिया. “आज वैसे भी त्यौहार है.”
 “त्यौहार, हाँ...दो हफ़्ते पहले माँ का जन्म दिन था. तेरा इंतज़ार करते रहे – नहीं आया तू.”
बेटा थोड़े से आपराधिक भाव से, और ज़्यादा परेशानी से खाँसा, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना की ओर देखा.
 “मैं बिल्कुल ही भूल गया. और फिर वहाँ रोद्का भी बीमार था.”
 “मगर हम तो यहाँ, हो सकता है, मर भी गए हों,” निकोलाय कुड़कुड़ाते हुए बोला. “और तुझे, लगता है, कोई मतलब ही नहीं है.”
वह अलमारी के पास गया, स्प्रिट की खुली हुई बोतल निकाली. बोला:
 “वाल्या, हमें खाने के लिए कुछ दे. बेटा ख़ाली हाथ आया है. मेहमाननवाज़ी करो, प्लीज़...”
जो कुछ अभी हो रहा था, हर बात, जो बोली जा रही थी, नज़रें, हाव-भाव यह सब वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के लिए नया नहीं था. नफ़रत की हद तक वह इस सबसे अच्छी तरह परिचित थी: पिछले दो सालों में, हर दो-तीन महीनों में इस तरह के नाटक दुहराए जाते थे. बल्कि अक्सर यही होता था.
 “हमें शहर में शिफ्ट होना ही पड़ेगा,” भरपेट खाने पीने के बाद आर्तेम ने कहा.
 “ये – हम, मतलब कौन?” पति ने निराशापूर्ण सतर्कता से पूछा, मगर उसकी आवाज़ से थोड़ी सी आशा भी झाँक रही थी.
 “मतलब...मतलब, मुझे और वाल्या को, बेटे के साथ.”
 “ठीक है, हो जाओ शिफ्ट.”
बेटे ने गहरी सांस ली. निकोलाय ने और भी निराश होते हुए जाम भर दिए.
 “चलो?”
 मरियलपन से जाम टकराए और पी लिए. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना कुछ खाना चाहती थी, मगर खाने की ओर देखते ही उसे मितली आने लगी. पेट में हो रही जलन को थोड़ा बर्दाश्त किया, बोलने लगी:
 “अच्छी बात है, बेटा, शिफ्ट हो जाना चाहिए. तुम्हें भी जाना चाहिए, और हमें भी जाना ही चाहिए. हम भी, जैसा कि तुम जानते हो, अपनी मर्ज़ी से थोड़े ही यहाँ टिके हैं. तो, चलो, सब मिलकर फ़ैसला करें कि कैसे करें. क्या क्वार्टर किराए पे लें? मगर ये अस्थाई इंतज़ाम होगा. एक साल, दो साल, फिर आगे? और तुझे भी समझना चाहिए, कि बारबार क्वार्टर बदलना अच्छी बात नहीं है...हमारे पास सामान भी इतना सारा है. तेरी तरह हमें भी यहाँ रहना बर्दाश्त नहीं होता, और हम भी शहर जाना चाहते हैं."
 “फिर करें तो क्या करें?” आर्तेम ने जैसे मांग करते हुए पूछा. “हमने इस बारे में इतना...मगर, वैसे ही चल रहा है. मालूम नहीं कि हम सब कैसे जा पाएंगे – मैं सिर्फ अपने बारे में कह रहा हूँ: मैं यहाँ नहीं रह सकता. न-हीं रह स-क-ता! आपकी तो बर्दाश्त से बाहर है, मगर मुझे उससे भी ज़्यादा...मैं शहर में पैदा हुआ, पूरी ज़िन्दगी वहीं रहा, तो फिर अब मैं यहाँ क्यों रहूँ?!”
 “फिर से वही – ढाक के तीन पात,” कराहते हुए निकोलाय ने गहरी साँस ली, जल्दी से जामों में स्प्रिट छलकाया, औरों से बिना कहे, पी गया. “तो, ये बात है. आख़िरी बार कह रहा हूँ...” उसने बेटे की आँखों में देखा. “मैंने तुझसे हज़ार बार कहा था: शहर में रहना चाहता है – जा और रहने लग.”
 “मगर, वहाँ रहूँ कैसे, डैम इट?! क्या भीख मांगूँ?”
 “काम ढूँढ, घर किराए पे ले. हॉस्टेल में कमरा ढूँढ़. क्वार्टर्स की लाईन में लग जा, पैसे जमा कर.”
 “थैंक्यू!” आर्तेम हिनहिनाया. “अनमोल सलाह है!”
 “सु-सुन...” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने महसूस किया कि निकोलाय कैसे खिंच गया है, ऐंठ गया है, मगर उसकी आवाज़ थरथराने लगी.”
 “सुन-तो, तू हमसे क्या चाहता है? तू जल्दी ही तीस साल का होने वाला है. तेरी उमर में मैं...”
 “ये सब मैं सुन चुका हूँ. ये भी सुन चुका हूँ कि मुझे भी मिलिशिया में जाना चाहिए.”
 “मगर, कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा, ना!” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना चिल्लाई. “अब तू सिर्फ अपने अकेले के लिए ज़िम्मेदार नहीं है – तेरा अपना परिवार है, बच्चा है. ज़िन्दगी खुद बनाओ.”
 “और कैसे? मेरा सब कुछ छीन लिया, यहाँ खींच लाए, और अब!...” आर्तेम भी लगभग चिल्लाने लगा था; निकोलाय जैसे जम गया, एकटक उसकी ओर देखने लगा. “पिछली गर्मियों में जुताई की, बेवकूफ़ जैसे, और एक पैसा भी नहीं. सौ रूबल्स थे जेब में. और ज़्यादा, डैम इट, नहीं चाहता. मुझे अपना कमरा चाहिए, बाथ-हाऊस भी, सब कुछ, जो मेरे पास था.”
 “आलसी है, तू,” शांति से, मगर बिना किसी दयामाया के निकोलाय ने ज़ोर देते हुए कहा.” “आलसी और पैरेसाईट. तूने तो किसी काम को ऊँगली भी नहीं लगाई, जिससे कि हम यहाँ सामान्य ज़िन्दगी जी सकें...”
 “ हाँ, मुझे यहाँ कुछ नहीं चाहिए! मैं वहीं जाना चाहता हूँ, जहाँ रहता था, जहाँ...”
“तो जा, और अपने लिए क्वार्टर हासिल कर, जैसे मैंने किया था.”
 “बस. नशे में धुत शराबियों को लूटा-खसोटा......”
निकोलाय उछल पड़ा, बेटे का गिरेबान पकड़ा और उसे सड़क पर ले गया. आर्तेम कुछ भर्राया. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना चुंधियाई आँखों से मेज़ की ओर देखती रही. मगर दिमाग़ में ख़यालों का बवण्डर मचा था, ख़याल भी नहीं, बल्कि ख़यालों की झिलमिलाहट; उसने इस झिलमिलाहट से असली ख़याल-स्पष्ट ख़याल को पकड़ने की कोशिश की, जिससे सब कुछ बदल जाएगा. सब कुछ प्रकाशमान हो जाएगा...नहीं, कुछ भी नहीं, सिर्फ, अनुपयोगी, चेतना को कुंद करती चमक...   
आँगन से चीख़ने की, कुछ मार-पीट की आवाज़ आई. हल्की, मगर डरावने रूप से स्पष्ट.
 “आपस में निपट लेने दो,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने अपने आप से कहा. “गुण्डा-बदमाश है, सचमुच में...”

मगर उसने अपने आप को ज़बर्दस्ती उठने पर मजबूर किया और ड्योढ़ी में आई.

पति को तो नहीं देखा, मगर लोहे की भट्टी के पास आर्तेम पड़ा था और, वलेन्तीना को लगा कि वह ख़यालों में खोया हुआ आसमान की ओर देख रहा है. पहले तो वह समझ ही नहीं पाई कि क्या हुआ है. परेशानी से सोचने लगी : “अब ये यहाँ पड़ा-पड़ा क्या कर रहा है?!”

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

Eltyshevi - 20

अध्याय 20
    

मई के अंत में, आलू की बुवाई होने के बाद, निकोलाय मिखाइलोविच घर बनाने में जुट गया. नींव पूरी भर दी, पाँच क्यूबिक मीटर्स बीम ख़रीदी और घरेलू क्रेन से पाँच फ्रेम्स लगाईं. भविष्य के बड़े घर का ख़ाका नज़र आने लगा.
पैसों के अभाव में आगे का काम रुक गया.

घर को बगैर देख-रेख के छोड़कर फिर से बीबी के साथ मधुमालती चुनने जाने लगा. हर बार, वापस आते हुए ये आशंका सताती थी कि घर का दरवाज़ा टूटा हुआ मिलेगा, कॉटेज की सारी चीज़ें इधर-उधर फ़िंकी होंगी, स्प्रिट का स्टॉक ख़त्म हो चुका होगा...मगर, ज़ाहिर था कि लोग एल्तिशेव से डरते थे – किसी ने घर में घुसने की हिम्मत नहीं की.

बेटा शहर में रहता था, काम कर रहा था. कभी-कभार आता था – नहाने के लिए, सूप पीने के लिए...शहर में वह एक ब्रिगेड़ में काम कर रहा था जो रिहाइशी मकानों की पहली मंज़िलों को दुकानों में बदलने का काम करती थी. म्यूज़िक कॉलेज के हॉस्टेल में रहता था – ब्रिगेड ने वहाँ कमरा लिया था: तीन बन्क-बेड्स रखवाए थे.
 “तो, वहाँ तुम छह लोग हो?” अचरज और परेशानी से वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा, जब आर्तेम ने अपने बारे में बताया.
 “आँ-हाँ.” और माँ-बाप की ओर इस तरह से देखा कि उन्होंने आगे कोई सवाल पूछे ही नहीं – ऐसा लगा, कि वह ख़ुद ही अभी सवाल पूछने लगेगा. और फिर से सब कुछ झगड़े के साथ ख़तम होगा.
निकोलाय मिखाइलोविच अक्सर उससे बात करने से बचता था. बहस करने की इच्छा ही नहीं होती थी, और अगर बहस करने लगो तो सब कुछ सिर्फ बहस से ही ख़त्म नहीं होगा – इन दो महीनों में आर्तेम काफ़ी बदल गया था. ये बात नहीं कि वह ताक़तवर हो गया था, मगर उसकी नज़रों में, उसके हाव-भाव में, उन गिने-चुने वाक्यों में जो वह कहता था, एक आह्वान, एक ललकार महसूस होती थी. अपनी वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति का तमाशा बना रहा था (उनके ब्रिगेड में, उसके अलावा बाकी सब भूतपूर्व कैदी ही थे, बेघर, अट्टल पियक्कड़) और अपनी वेष-भूषा से यह दिखाने की कोशिश कर रहा था: “देखो, क्या बन गया हूँ मैं. और ये सिर्फ तुम लोगों की वजह से. उसके अन्दर कुछ ऐसी चीज़ आ गई जैसी डेनिस में दिखाई देती थी, जब वह फ़ौज से लौटा था – मग़रूरियत आ गई थी.
माँ-बाप के यहाँ आने पर अब वह पैसे नहीं मांगता था, ऐसा दिखाता था कि उसके पास पर्याप्त पैसे हैं. मगर खाता खूब था, लालची की तरह, पीता भी खूब था, बिना किसी लिहाज़ के. अगर घर के काम में मदद करने को नहीं कहते, तो वह किचन में पडे पलंग पर लेट जाता और शाम की बस का समय होने तक सोता रहता.
उसके पारिवारिक जीवन के बारे में बात नहीं करते थे. मगर एक बार माँ से रहा न गया:
 “वहाँ क्या हाल है? अब रोद्या का क्या?”
आर्तेम खिंच गया:
 “मालूम नहीं. तलाक ले लूँगा – और बस. भाड़ में जाएँ वे...”

ये तो अच्छा हुआ कि इन गर्मियों में वह गाँव में बहुत कम बार आया, और आने के बाद भी, क्लब या तालाब की ओर नहीं गया. जून के पहले सप्ताह में कई नौजवान गाँव में आए थे – टीन-एजर्स; लड़कियाँ भी आई थीं, अपने दादा-दादियों के पास (पिछली गर्मियों में इतने सारे नहीं आए थे); हर रात क्लब के पास ज़िन्दगी मचलती थी, वे चिल्लाते, चीख़ते, मोटरसाइकल्स खड़खड़ाते. हमेशा एल्तिशेवों के यहाँ स्प्रिट के लिए आते रहते, अक्सर उधार मांगते, निकोलाय मिखाइलोविच मना कर देता. आवाज़ चढ़ाकर बात करना पड़ता, गेट से ही भगाना पड़ता, ज़्यादा ज़िद्दी छोकरों को ब्लैक-लिस्ट में डाल देने की धमकी भी देनी पड़ती.

गाँव में एक बुरी घटना हुई, और पतझड़ के आते-आते उसमें कुछ और घटनाएँ भी जुड़ गईं.
पहले तो इस ओलेगजान ने, जिससे आर्तेम को डर था, शराब पीते हुए अपने हमप्याला शराबी को मार डाला. पूरा हफ़्ता उसे ढूँढ़ते रहे – घर-घर गए, जंगल छान मारा, मगर मरियलपन से, बिना किसी जोश के.
 “एक कुत्ता होना चाहिए,” एक बार निकोलाय मिखाइलोविच ने रास्ते पर भटकते हुए खोजकर्ताओं को सलाह दी.
वे मुँह टेढ़ा करके मुस्कुराए – मतलब, कुत्ता कहाँ से... 
ओलेगजान सितम्बर में शहर में पकड़ा गया – वह फिर से दिन-रात चलने वाली दुकान को लूटने की कोशिश कर रहा था; इत्तेफ़ाकन पुलिस-फोर्स पास ही में थी, पकड़ लिया.

दूसरी घटना भी हत्या की ही थी. सीधे क्लब में, डान्स करते समय स्थानीय छोकरे ने ज़ाखोल्मोवो से आये लड़के को कुल्हाड़ी से मार डाला. लड़की के कारण – अठारह साल की पोती बूढ़े दाद-दादी के यहाँ आई और लगी नख़रे दिखाने. ये दोनों उसे बाँटना नहीं चाहते थे. लड़की को घर भेज दिया गया – क़ातिल को – शहर की जेल में, और गाँव में सबको ज़ाखोल्मोवो के छोकरों के हमले का डर सताने लगा. बूढ़ी औरतें थरथराकर कहतीं: “जला देंगे हम सबको, ज-ला दें-गे,”- और वे याद करने लगीं कि कैसे कभी गाँव-गाँव में लड़ाई हुई थी, हत्याओं का बदला आग लगाकर लिया गया. “बीस घर जल गए थे!”
आग का डर सही साबित हुआ. ख़ुदा का शुक्र है कि कॉटेजेस को नहीं जलाया, बल्कि क्लब में आग लगा दी. हो सकता है, ज़ाखोल्मोवो के छोकरों ने ना भी जलाया हो – हो सकता है, वे स्थानीय छोकरे हों; हो सकता है यूँ ही आग लग गई हो, मगर क्लब फ़ौरन पूरी तरह जल गया, पूरे सामान समेत, लाईब्रेरी भी जल गई.

आग लगने के समय निकोलाय मिखाइलोविच अपने गेट के पास पहरा दे रहा था, उड़कर आती हुई लाल-लाल चिंगारियों को कॉटेज से दूर भगा रहा था. और उसी समय, अगस्त के अंत में, एक और घटना हुई...इस आदमी को वह लगभग नहीं जानता था, तीन-चार बार सड़क पर आमना-सामना हुआ था. कम ऊँचा, दुबला-पतला, जल्दी-जल्दी, फ़िकर में डूबा चलता था, जैसे उसे कहीं पहुँचने में देर हो रही हो. लोग उसे  वालेर्का कहते थे (मगर इस ‘वालेर्का’ में नफ़रत का भाव नहीं था, बल्कि सहानुभूति का पुट था), वह दूसरे गाँव का था – लुगाव्स्कोए का, जो बड़ा गाँव था और कहते थे कि काफ़ी समृद्ध भी था. लुगाव्स्कोए में वालेर्का का परिवार था – बीबी और बेटा, मगर वह यहाँ रहता था - मनचली, पियक्कड़, कई बच्चों वाली लेन्का के साथ. तात्याना आण्टी अक्सर इस बारे में बात करती थी (समझ में नहीं आता कि उसे कहाँ से ख़बरें मिलती थीं – बाहर तो वह सिर्फ अंतिम कुछ हफ़्तों से ही जाने लगी थी), उसे वालेर्का पर दया आती थी: “अच्छा आदमी है, बेहद मेहनती है, और देखो तो किससे जुड़ गया. ढूँढ़ी भी तो कौन...”

मगर जब एल्तिशेव ने इस लेन्का को देखा तो समझ गया कि क्यों “अच्छा” वालेर्का उससे जुड़ गया था. वह मज़बूत, लेकिन छरहरे बदन की थी, बाल काले, घने, चेहरा हालाँकि सूजा हुआ था, मगर उसकी सुन्दरता नज़र आती थी और शराब के कारण उसकी चमक फीकी नहीं हुई थी. उसके अन्दर कुछ ऐसी बात थी जो किसी भी सामान्य आदमी को अपनी ओर खींचती थी – ऐसा महसूस होता था कि यह वास्तविक मादी है, सेक्सी, जिसे प्रकृति ने इसलिए बनाया है कि आदमियों को ख़ुशी दे. कितनी भी वोद्का, कितने भी बच्चे उसके भीतर की इस बात को ख़त्म नहीं कर सकते.

कहते थे, कि वालेर्का उसके साथ क़रीब तीन साल रहा. मगर कैसे रहा – बस, तड़पता रहा. वह मवेशी पालन का काम करता था. जब तक उसकी फर्म पूरी तरह से बन्द नहीं हो गई, वह सुबह घर से निकल जाता, और लेन्का के पास फ़ौरन शराब पीने वाले आ जाते. शाम को वापस लौटता, उन्हें बाहर निकालता, कभी-कभी तो मार-पीट तक की नौबत आ जाती थी, उसकी कई बार जमकर पिटाई हुई थी. उसने एक बार एक बछिया ख़रीदी, उसके लिए घास ख़रीदी, सानी तैयार की, मगर एक महीने बाद बीबी और उसके हमप्याला साथियों ने कौड़ियों के दाम इस बछिया को बेच दिया – पीने के लिए पैसों की ज़रूरत थी; वालेर्का पता ही नहीं लगा पाया कि किसको बेची थी.
सिर्फ वालेर्का की बदौलत ही लेन्का के बच्चे स्कूल जाते थे, भूखे नहीं रहते थे. और लेन्का का पीना दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता था, ज़रा ज़रा सी बात पर वह वालेर्का को घर से निकाल देती थी, अपने दोस्तों को उसके पीछे लगा देती थी. वह उसे बेहद प्यार करता था – उसे छोड़कर नहीं गया, कभी कभी बाथ-हाऊस में बेंच पर सोता; मगर अब उसके सामने कोई चारा ही नहीं था...और इस पतझड़ में उससे बर्दाश्त नहीं हुआ – अपनी पुरानी कार के पेट्रोल-टैंक से बचा-खुचा पेट्रोल निकाला, आँगन में अपने ऊपर छिड़क लिया और आग लगा ली. किसी की भी नज़र नहीं गई – सिर्फ लेन्का के बच्चों ने दूसरे दिन देखा, कम्पाऊण्डर के पास भागे, उसने “एम्बुलेंस” बुलाई, मगर देर हो चुकी थी – वह बुरी तरह जल चुका था, ख़ून भी संक्रमित हो चुका था. कुछ दिनों के बाद मर गया.

एल्तिशेव ने लगभग उदासीनता से हत्याओं और आत्महत्याओं के किस्से सुने, सड़क के उस पार क्लब को जलते हुए देखा भी था. बेशक, उस अग्निकांड के समय अपने घर के लिए डरा भी था, मगर नौजवान लोगों की मौत का उसे कोई अफ़सोस नहीं हुआ. उनकी ज़िन्दगी बिना किसी मक़सद के और बेकार ही में बर्बाद हो रही थी, उनके शौक और उनके प्यार के किस्से बेवकूफ़ी भरे थे, उनकी मौत भी बेवकूफ़ी भरी ही थी. हाँ, और अपनी तथा अपने परिवार की ज़िन्दगी में भी इस अर्थहीनता और बेकारी का एहसास निरंतर बढ़ता जाता था. बेशक, कुछ तो था, कुछ सफ़लताएँ भी मिली थीं, कुछ आशा नज़र आती थी, मगर अंधेरा धीरे-धीरे और निरंतर गहरा होता जा रहा था. आशा का स्थान दुख और कड़वाहट ने ले लिया था. इनसे कोई राहत नहीं थी.                          

इन गर्मियों में भी घर नहीं बन पाया, बेटे की ज़िन्दगी, ज़ाहिर है, पूरी तरह ‘सेटल’ नहीं हो पाई, उसकी बीबी, चाहे जैसी भी हो, मगर वयस्क है – बच्चा है – अब न जाने किन परिस्थितियों में वह काम कर रहा है; वह और वलेन्तीना – स्प्रिट के मशहूर व्यापारी बन गए हैं, और न जाने स्थानीय शराबियों की कितनी अभागी बीबियाँ उन्हें कोसती होंगी. शराबी या फिर वो लोग, जो अभी-अभी शराबी बने हैं, चौबीसों घंटे आते रहते: ऐसा लगता है कि मुरानोवो के सभी वयस्क लोग उनके पास बार-बार आते रहते थे. एल्तिशेवों के गेट के पास. ये बात समझ में आती थी कि कोई सिर्फ त्यौहार के अवसर पर स्प्रिट ख़रीदता था, क्योंकि दुकान से वोद्का लाना संभव नहीं था; किसी बुढ़िया को आधा लिटर की ज़रूरत थी, जिससे लकड़ियों का, बुआई का हिसाब चुका सके. मगर फिर भी लोग आते रहते-आते रहते, पीते रहते-पीते रहते; दिन में भी और रात में भी गेट पर टकटक करते. कुछ लोग उदासीनता से और बदतमीज़ी से  पैसे आगे करते, जैसे कोई अमीर ग्राहक घृणित दुकानदार को देता है, कुछ लोग फ़ौरन, चोरी से, इधर-उधर देखते हुए – कि कहीं अचानक दौड़कर बीबी न आ जाए, कुछ और लोग पैसों के बदले अपने औज़ार, कपड़े थमा देते, या फिर मीट, जल्दी-जल्दी में पकड़े गए कलहंस का, थरथराते हुए कहते: “एक घूँट दे दे इसके बदले, मिखाइलिच. मर जाऊँगा.” चीज़ें लेने से तो एल्तिशेव साफ़ इनकार कर देता था, मगर मीट के सामने, ख़ासकर ताज़ा मटन या मुर्गियों के लिए खाने के सामने वह टिक नहीं पाता था. ईमानदारी से अदला-बदली करता था, उन्हें चूसता नहीं था. मगर ऐसी अदला-बदली के बाद दूसरे शराबी चैन नहीं लेने देते: “ये ले, मटन ताज़ा है...बीज बढ़िया हैं, अंकल कोल्. ले-ले!”

गेट के पास हर रोज़ हो रहे युद्ध के दो दिन बाद (मारपीट तक तो नौबत नहीं पहुँची थी, मगर धक्कामुक्की ज़रूर हो रही थी) दीन्गा बीमार हो गई. डेढ़ साल में वह काफ़ी मज़बूत हो गई थी...मज़बूत गर्दन, सामने वाले तीक्ष्ण पंजे जो एस्किमो कुत्ते की ख़ासियत है. बेकार में नहीं भौंकती थी, मगर, जब ये महसूस करती थी कि मालिक ख़तरे में है, तो वह दुश्मन पे हमला कर देती थी. दो बार उसने चीख़ने-चिल्लाने वालों को पकड़ लिया था, जो बाद में निपटने की बात कह रहे थे. एल्तिशेव ने दीन्गा को आँगन में पड़ी हड्डियों और सड़क पर पड़े ब्रेड के टुकड़ों को न उठाने की ट्रेनिंग दी थी, जिन्हें वह ख़ुद ही चुपके से फेंक देता था – डरता था कि कोई उसे ज़हर न दे दे. और वह भी एल्तिशेव की बात मानती थी. खाने की चीज़ पड़ी देखती तो मालिक को बुलाती, जैसे कोई शिकारी कुत्ता करता है; निकोलाय मिखाइलोविच उसे उठा लेता और बदले में दीन्गा को कोई ज़्यादा स्वादिष्ट चीज़ खिलाता – सॉसेज या बिस्कुट.

और अचानक वह निढ़ाल रहने लगी. ड्योढ़ी के पास पड़ी रहती, धीरे-धीरे सिर घुमाकर चारों ओर आँसू भरी आँखों से देखती, मानो बिदा ले रही हो. काले लट्ठे, अधबने घर की पीली शहतीर, पिछले आँगन में बागड़ के पीछे घूमती मुर्गियाँ. ये उसकी छोटी सी दुनिया थी जिसे वह प्यार करती थी...निकोलाय मिखाइलोविच ने उसे दूध पिलाया – एक डंडी से उसके दाँत खोलकर ज़बर्दस्ती उसके जबड़े में डाला, मगर कुछ फ़ायदा नहीं हुआ – तीन दिन वह उदास रही और फिर गायब हो गई. बाद में आँगन के दूर वाले कोने में पड़ी मिली. बागड़ में घुस गई थी, सिकुड़ गई थी, लकड़ी जैसी सख़्त हो चुकी थी...

एल्तिशेव हर ग्राहक को स्प्रिट के बदले मुँह पे झापड़ देना चाहता था – किसी ने भी उसे ज़हर दे दिया होगा. इस डर से कि वह गिर पड़ेगा, अक्सर बीबी को गेट के पास भेजता था. एक बार भूतपूर्व वेटर्नरी डॉक्टर आया. उसे पता चला कि दीन्गा मर चुकी है, उसने सहानुभूति से सिर हिलाया:
 “हाँ, इन गर्मियों में प्लेग तो खूब फैल रहा है – गली के कुत्तों को भी अपनी चपेट में ले रहा है.”
 “प्लेग?!” वाक़ई में एल्तिशेव कुत्तों की बीमारियों के बारे में बिल्कुल भूल गया था, ये भूल गया था कि उन्हें टीका लगवाना पड़ता है. मगर, अपने आप को दोष देते हुए, पछताते हुए भी उसे सौ प्रतिशत यक़ीन था कि दीन्गा की मौत प्लेग से नहीं हुई. संभव है कि उसे ज़हर भी दे दिया गया हो. बिल्कुल संभव है...उसके बहुत सारे दुश्मन थे – छुपे हुए, सामने आने से डरते हुए, मगर नीच काम करने वाले...वे, शायद, निकोलाय मिखाइलोविच की कमज़ोरी का, उसके बुढ़ापे का या बीमारी का इंतज़ार ही कर रहे थे, जिससे उस पर हमला कर सकें. बड़ा बेटा भी, अगर हर लिहाज़ से सोचा जाए तो, उनमें से ही एक था.

सितम्बर के आरंभ में बारिश हो गई. पिछले साल की ही तरह हल्की, रुक-रुककर, कभी-कभी पनीली धूल में बदल जाती, मगर देर तक, बिना रुके चलती, शरीर की पूरी ऊर्जा बहा ले जाती. फिर कुछ दिन आसमान खुला रहा, जिनमें लोगों को आलू खोदकर निकालना था, मूली, चुकन्दर, गाजर, प्याज़, लहसुन उखाड़ना था, उन्हें सुखाकर तहख़ाने में ले जाना था या बक्सों में बन्द करके भट्टी के पीछे रखना था. इन साफ़ दिनों और ठण्डी रातों के बाद पाला पड़ने लगा. हर चीज़ जो अब तक हरी थी, काली हो गई, पीप की तरह, मरी हुई घास के रस की तरह बह गई.  

लोग अपने आँगनों में इन सब डंठलों से और पत्तों से, सूरजमुखी की टहनियों से, टमाटर के गूदे से, हर तरह के कचरे से छोटे-छोटे अलाव जलाते; स्वादिष्ट और उदासी भरी ख़ुशबू आती. और तो और, कौए भी, जो गर्मियों भर एस्पेन के पेड़ों में ख़ामोशी से रहे, अब हर शाम को छतों के ऊपर चक्कर लगाने लगे, दर्द भरी कर्कश आवाज़ में परेशानी से चीखने लगे. उनकी चीख़ें आँखों में आँसू भर देतीं. लोग ठहरकर उनकी ओर देखते; कुछ लोग तो हौले से और भयानक दुख से भी उन्हें गालियाँ देने लगते...

जैसे ही रास्ते सूखे, निकोलाय मिखाइलोविच लकड़ियों के लिए जंगल में जाने लगा. पिछले साल की कुछ लकड़ियाँ बची थीं, और फिर गर्मियों में भी थोड़ी बहुत बच गई थीं, मगर ये सब सिर्फ दिसम्बर तक के लिए ही पर्याप्त था. लकड़ियाँ लाते ही रहना होगा. इसलिए भी कि कोयला, जो तात्याना आण्टी को युद्धकालीन कर्मचारी होने के कारण भेजा जाता था, ज़ाहिर है, उसकी मृत्यु के बाद आना बन्द हो गया. ये सच है कि कोयला काफ़ी पड़ा था, इसलिए उसे ख़रीदने की ज़रूरत नहीं पड़ी. ऊपर से महंगा भी बहुत था – सात सौ रूबल्स प्रति टन.
 “बेहतर है, बसंत में लट्ठों पर खर्च करेंगे.”

गाँव के पास वाला जंगल पूरी तरह साफ़ हो चुका था, इसलिए एल्तिशेव को दूर जाना पड़ता था. वह सूखे पेड़ों को काटता, गिरे हुए तने को आरी से छीलकर ज़रूरत के मुताबिक लट्ठे बनाता, उन्हें गाड़ी में भर देता, छत के ऊपर वाले लगेज-रैक पर लाद देता. गाड़ी के बॉटम का पहियों के बीच वाला हिस्सा रास्ते के ऊबड़-खाबड़ टीलों से घिसता जाता, और एल्तिशेव गाँव की ओर निकल पड़ता.

एक-दो बार फॉरेस्ट-गार्ड ने चेकिंग की – कहीं हरे पेड़ काटकर तो नहीं ले जा रहा है. पिछले कुछ महीनों से इस बारे में काफ़ी कड़ाई बरती जा रही थी: काटे हुए एक तने के लिए जुर्माना लगा सकते थे. अगर पैसे नहीं होते तो शहर में ले जाते, बड़ी देर तक वहाँ पूछताछ होती रहती. फॉरेस्ट-गार्ड स्थानीय नौजवान था, मगर गंभीर और कम बोलने वाला था; निकोलाय मिखाइलोविच उससे लट्ठों के बारे में बात करना चाहता था – “फ़ेन्सिंग को दुबारा बनाना है, बाथ-हाऊस भी,” मगर उसने पूरी बात सुने बिना जवाब दिया,  “मुझे इसका अधिकार नहीं है.”
हो सकता है कि फॉरेस्ट-गार्ड वाक़ई में इतना ईमानदार और सही था, मगर इससे जंगल की सुरक्षा में कोई मदद नहीं मिलती थी. अकेले इन्हीं गर्मियों में दो जगहों पर जंगल की कटाई की गई, चीड़ के पेड़ थोक में काटे गए, नीचे वाली हरियाली कुचल दी गई.
निकोलाय मिखाइलोविच को पता चला कि जंगल कटाई का ये काम किसी नीलामी करने वाली सोसाइटी द्वारा किया गया है, लाइसेन्स लेकर. कटाई वाली साईट पर वह सस्ते में पहिए वाली मशीन खरीदना चाहता था, मगर वहाँ का अनुशासन कठोर था, उसे डाईरेक्टर के पास भेजा गया जो रीजनल-सेन्टर में तैनात था.

यह जंगल जिसका कुछ हिस्सा प्राकृतिक था, और कुछ मानव निर्मित, गाँव को तीन ओर से घेरता था. चौथी, दक्षिण-पश्चिम दिशा में टीलों वाली स्तेपी थी, ये सच है कि पिछले कुछ दशकों में वह ख़ूब हरी-भरी हो गई थी – वहाँ समर कॉटेजेस के लिए प्लॉट्स दिए जा रहे थे, इनके मालिक काली मिट्टी लाते, फलों के पेड़ लगाते, जिनसे आश्चर्यजनक रूप से खूब पैदावार होती थी. और अब एल्तिशेव अक्सर पछताता था कि उसने इन छह सौ प्लॉट्स में से कोई प्लॉट हासिल क्यों नहीं किया, यहाँ घर नहीं बनाया (यह संभव तो था). आराम से शहर से कुछ ही किलोमीटर्स की दूरी पर रहते होते; अब समर-कॉटेज के लिए इजाज़त देते हैं. समर कॉटेज से ही काम पर जाया करते, शाम को – वापस. मगर यहाँ – एक तरफ़ से देखा जाए तो सैंकड़ों झंझट हैं: किराए में ही आधी तनख़्वाह निकल जाएगी, और फिर रोज़-रोज़ जाने आने की ताक़त कहाँ से आयेगी...

एक बार, जब वह हाथों में कुल्हाडी और छोटी सी आरी लिए जंगल में ख़ूबसूरत चटख़-लाल चीड़ के पेड़ों के बीच में मरे हुए या हवा से गिर गए पेड़ों की तलाश में भटक रहा था तो निकोलाय मिखाइलोविच खारिन से टकरा गया. वह दो साल पहले, ज़ाहिर है, जब कटाई हो रही थी, काटे गए घास फूस के ढेर को खंगाल रहा था, कुछ एक जैसी और मज़बूत डंडियों को मोटर साइकल से निकाले गए झूले के प्लेटफॉर्म पर रख रहा था.            
“क्या, पड़ोसी, लट्ठों की ज़रूरत पड़ गई?” बिना विशेष अप्रसन्नता के, मगर मुस्कुराते हुए निकोलाय मिखाइलोविच ने पूछा; मन ही मन उसने वापस न लौटाए गए उधार से समझौता कर लिया था.
खारिन ने ढेर से अगली डंडी निकालते हुए ‘हुम्’ कहा.
उसके पास से जाते-जाते निकोलाय मिखाइलोविच ने इन अलग निकाली हुई लकड़ियों में कुछ ताज़ा लकड़ियों को देखा, उनके सिरों के कांटे भी साबुत थे.
 “क्या तुझे डर नहीं लगता कि फ़ाईन लगायेंगे? या फिर तू, हमेशा की तरह, सारा इंतज़ाम करके आया है?”
 “क्या?” खारिन ने अकस्मात् नफ़रत से, तिरस्कार से उसकी ओर देखा और एल्तिशेव का गुस्सा एकदम भड़क उठा.
 “और क्या? तू तो हमारे गाँव में सिमेंट का, और लकड़ियों का स्पेशलिस्ट है. और पेट्रोल-आरी के तो तेरे पास कंटेनर के कंटेनर हैं. है ना?”
 “सुनिये...” खारिन ने ज़मीन से कुल्हाड़ी उठा ली, पता नहीं, टहनियाँ काटने के लिए या अपने संभावित बचाव के लिए. “सुनिये, मुझे चैन से रहने दीजिए. मुझे और मेरे परिवार को. और...और आप जाईये.”
 “हुम्, तुझे चैन से कैसे रहने दूँ, जब तुझे मेरे पैसे देना हैं. और इन दो सालों में उनकी कीमत कितनी बढ़ गई है. इसलिए, ज़्यादा ही चुकाना होगा.”

एल्तिशेव लड़खड़ाया, आगे जाने लगा – डरा दिया, और इतना ही काफ़ी है, - मगर खारिन चिंघाड़ा, कुछ औरतों जैसी पतली और उन्मादयुक्त आवाज़ में, बड़बड़ाया:
“मैं कुछ भी नहीं दूंगा! मुझ पर आपका कोई उधार नहीं है! समझ में आया?! चाहो, तो अदालत में ले जाओ, मगर मैं कुछ भी वापस नहीं लौटाऊँगा! बस!”
 “ऐसे कैसे नहीं देगा?” निकोलाय मिखाइलोविच पर वहशीपन सवार हो गया था; ऐसा वहशीपन उस पर पहले भी सवार होता था, जब वह मिलिशिया में था और उससे दादागिरी की जाती थी. “कैसे नहीं देगा? आँ?” वह धीरे-धीरे खारिन की ओर बढ़ने लगा.
 “पास मत आना!” खारिन ने कुल्हाड़ी तान ली. “मैं!...आ गए, हरामी!”
 “कौन हरामी? तेरे होश तो ठिकाने हैं? तू मोटरसाईकल बेचकर मेरे पैसे लौटा दे. परसों लाकर दे दे.”
बिना कुछ कहे, यंत्रवत्, जैसा कभी सिखाया गया था, एल्तिशेव ने, अपनी कुल्हाड़ी और आरी फेंककर, बाएँ हाथ से हमला करने वाले खारिन का हाथ पकड़ लिया, और दाएँ हाथ से उसकी गर्दन पकड़ ली. दबाई, उसकी पसलियों पर हल्के से मार पड़ी (खारिन ने बाएँ हाथ से वार किया था); और ज़ोर से दबाई, अचानक ज़ोर का झटका दिया. खारिन की रीढ़ की हड्डियाँ टूट गईं, और वह, सूखी डकार लेकर, लूला पड़ गया. काफ़ी भारी हो गया...एल्तिशेव ने हाथ सीधा किया, खारिन ज़मीन पर गिर पड़ा. हाथ में अभी भी कुल्हाड़ी पकड़े था...

निकोलाय मिखाइलोविच कुछ देर खड़ा रहा, ये उम्मीद करते हुए कि उसका विरोधी कुछ हलचल करेगा, उठने लगेगा और तब उसके बाल पकड़कर ऐसा घूँसा लगाना पड़ेगा कि फिर से हाथ न उठाए; मगर वह चुपचाप पड़ा रहा, पड़ा ही रहा. पेट के बल, चेहरा एक ओर को मुड़ा था, आँखें नहीं दिखाई दे रही थीं. क्या वे खुली हैं, या बन्द हैं?...कोई ज़रूरत नहीं है देखने की...

एल्तिशेव ने अपने औज़ार उठाए, कार की ओर चला. कुछ क़दम जाने के बाद रुका, इधर-उधर देखा. याद करने की कोशिश करने लगा कि कहीं उसने किसी चीज़ को ऊँगलियों से छू तो नहीं लिया. शायद, नहीं छुआ. सिर्फ खारिन की आस्तीन को ही ...ठीक है, थूक देंगे.

कुछ दूर गया, लकड़ियाँ इकट्ठी कीं. लगभग उतने ही समय में, जितना उसने सोचा था, घर वापस आ गया. ‘मस्क्विच’ को आँगन में घुसाया, सामान उतारा. बड़ी देर तक, पानी का ख़याल न करते हुए नहाता रहा. बीबी के साथ एक बोतल स्प्रिट पिया. इस बार ज़्यादा ही पतला बनाया, पचपन डिग्री तक. टॉयलेट में जाते हुए, ग़ौर किया कि हल्की-हल्की बारिश होने लगी है. हल्की है, मगर बिना रुके हो रही है. ठण्डी...कोई और समय होता तो वह परेशान हो जाता – काम तो इतने सारे पड़े हैं – मगर अभी कुछ देर खड़ा रहा, बूंदों को मुँह से पकड़ा. गहरी साँस ली:

 “ठी-क है...”