अध्याय – 10
शादी के बाद, जैसे
पारिवारिक जीवन की कोई महत्वपूर्ण चीज़ टूट गई थी. पहले भी धीरे-धीरे टूट ही रही
थी: पहले छोटे बेटे को जेल में बन्द कर दिया, फिर आपराधिक केस चलाकर पति को नौकरी
से हटा दिया, फिर क्वार्टर वापस ले लिया, और अब – अब आर्तेम भी, इतने लम्बे समय तक
माँ-बाप से चिपका हुआ – काफ़ी लम्बे समय तक, एक असहाय बच्चा ही बना रहा - बस, निकल
गया. छिटक गया. और वह भी ऐसे समय, जो इसके लिए सबसे ज़्यादा अनचाहा था.
वह बीबी के साथ
त्यापोवों के यहाँ आउटहाऊस में रहने लगा. सर्दियों के लिए वह बेहद ठण्डा था, मगर
मई से अक्तूबर तक उसमें आराम से रहा जा सकता था. ऊपर से रूम-हीटर भी था – पुराना, खड़खड़ाता
“बवण्डर”, जो जाली वाले छेद से गरम हवा का
झोंका फेंकता था.
माँ-बाप के यहाँ
आर्तेम शादी के बाद कभी-कभार ही आता था, और वह भी सिर्फ पैसों के लिए.
अठारह मई को ट्रैक्टर
आया और आँगन खोद गया. उसे पचास रूबल्स और “ज़ेम्स्काया” ब्राण्ड की वोद्का की बोतल
दी गई. ज़मीन भुरभुरी और सूखी निकली. आण्टी उसमें साल-दर-साल आलू बोती थी, मिट्टी
में खाद डालना उसके बस की बात नहीं थी – सर्दियों में कुछ फसल निकाल लेती थी, जो
उसके लिए पर्याप्त थी.
मवेशियों के परित्यक्त
शेड्स में जाना पड़ा, बोरों में खाद भर-भरकर लाना पड़ा. (अच्छी मिल गई – काली, गीली
खाद के ढेर के ढेर थे वहाँ, जिनमें झाड़ियाँ नहीं निकली थीं.) क्यारियों में थोड़ी
थोड़ी डालने की सोची – कैसी भी हो, ज़मीन में ताकत आ जाएगी.
बगल से गुज़रता हुआ
किसान रुक गया, गुस्से से पूछने लगा:
“क्या गार्डन के लिए ले जा रहे हो?”
निकोलाय बोरे के ऊपर
तनकर खड़ा हो गया. झगड़े के लिए तैयार हो गया:
“क्या, यहाँ से लेना मना है?”
“ले सकते हो. मगर वह नमकीन है – ज़्यादा बुरा कर
रहे हो.” और उसने समझाया कि सामान्य गोबर और खाद कहाँ है.
बोरे खाली कर दिए,
वहीं गए, जहाँ किसान ने बताया था.
“अभी भी अच्छे लोग हैं,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना
फुसफुसाई, “उसका भला हो...”
दूसरे दिन आलू बोए.
आर्तेम भी आया, उसने क्यारियाँ खोदीं, जिनमें वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने झुर्रियों
वाले, अंकुर फूटे आलू डाले. निकोलाय खेत के दूसरे हिस्से में क्यारियाँ खोद रहा
था, वह ख़ुद ही उनमें आलू डाल रहा था, मिट्टी से उन्हें दबा रहा था. कभी-कभी बेटे
के काम पर नज़र डालता और गुस्सा करता:
“तेरे पास आँखें हैं कि नहीं? क्या गड़बड़ कर रहा
है? समान दूरी पर क्यारियाँ बना, पास-पास नहीं...”
आण्टी आँगन में बैठी
थी, तहख़ाने से निकाले गए आलुओं को चुन रही थी, खाने के लिए बड़े-बड़े निकाल रही थी.
अगस्त तक इसीसे काम चलाना पड़ेगा.
आलुओं का काम पूरा
करके, बीबी के लिए खीरों की क्यारियाँ तैयार करके, एल्तिशेव फिर से घर बनाने में
लग गया.
दस बाई दस का प्लॉट
साफ़ किया, नींव के लिए जगह निश्चित की – तीन फ़ावड़े ज़मीन खोदी. ऐसा लगा कि वह मिट्टी
बुआई के लिए एकदम उपयुक्त है, और निकोलाय मिखाइलोविच उसे गार्डन में ले गया. आगे
रेत निकली.
खोदना आसान था, मगर
बाल्टी वाला ट्रैक्टर ललचा रहा था: वाक़ई में ट्रैक्टर के लिए यहाँ सिर्फ आधे घंटे
का ही काम था...
खारिन के पास गया, याद
दिलाई.
“हाँ, मैंने पता किया,” उसने गर्दन हिलाई. “उसने
शनिवार का वादा किया है. एडवान्स मांगता है...डीज़ल के लिए.”
“कितना?”
खारिन ने पीछे खड़ी
बीबी पर नज़र डाली.
“अम्...एक सौ.”
“आपके यहाँ डीज़ल कोई सस्ता नहीं है,” एल्तिशेव
मुस्कुराया, मगर कोई चारा नहीं था, पैसे दे दिए. “इंतज़ार कर रहा हूँ.”
“हाँ-हाँ. शनिवार को.”
“और लट्ठों के बारे में भी... मिलेंगे, या
नहीं?”
खारिन, जैसे बुरा मान
गया:
“बिल्कुल मिलेंगे! मुझे याद है, उसी के लिए काम
कर रहा हूँ...”
शनिवार के इंतज़ार में
निकोलाय मिखाइलोविच शहर जाकर आया, बाज़ार में सिमेंट की पाँच बोरियाँ ख़रीदीं
सत्यासी रूबल्स प्रति बोरी के भाव से. कीलें, बढ़िया फ़ावड़ा, धातु काटने की आरी,
इलेक्ट्रिक ड्रिलिंग मशीन, कुछ रोज़मर्रा का सामान, शकर वगैरह खरीदा.
...शनिवार को ट्रैक्टर
आया ही नहीं. अंधेरा होने पर, बेकार में दिन गँवाने के कारण बिफ़रा हुआ और थका हुआ
एल्तिशेव फिर से खारिनों के यहाँ गया.
गेट एलेना ने खोला.
हमेशा की तरह प्रसन्नता से मुस्कुराई.
“क्या कोई परेशानी है, निकोलाय मिखाइलोविच?”
“पति घर में है?”
“नहीं, बाहर गया है.”
“कहाँ गया है?”
एलेना ने मुस्कुराहट
छुपा ली:
“आपको उससे क्या मतलब?”
“मुझे – बहुत बड़ा मतलब है.” एल्तिशेव थरथराने
लगा. “उसने मुझे आज ट्रैक्टर लाकर देने का वादा किया था. तुम्हारे सामने ही किया
था.”
“आ, हाँ, हाँ, लगता है...”
“तो फिर? कहाँ है ट्रैक्टर?”
खारिना ने आश्चर्य से
होंठ टेढ़े किए:
“ये आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? और ऐसी आवाज़
में?”
“सुनिए...” निकोलाय मिखाइलोविच ने त्यौरियाँ चढ़ा
लीं, प्रयत्नपूर्वक उसकी ओर देखते हुए बोला. “सुनिए, मैं आप लोगों को समझ नहीं पा
रहा हूँ. पेट्रोल-आरी आप फरवरी से ला रहे हैं, लट्ठे – मार्च से. अब – ट्रैक्टर.
आपने मुझे क्या, बेवकूफ़ समझ रखा है, जो लगे नचाने?!”
“आप इस तरह बात मत कीजिए, प्लीज़,” खारिना को भी
गुस्सा आ गया, “मेरे बच्चे आँगन में खेल रहे हैं.”
“हाँ, जल्दी ही मैं सिर्फ बातें नहीं करूँगा.
मैं पुलिस वाला हूँ – समझ में आया? – मुझसे मज़ाक करना महंगा पड़ेगा. मैं मज़ाक नहीं
समझता.”
खारिन दूसरे दिन लंच
के समय ट्रैक्टर ले आया. जानबूझकर एल्तिशेव से बात नहीं की; सारे सवाल, कहाँ खोदना
है, कितनी गहराई तक, ट्रैक्टर वाला पूछता रहा.
वह निरा बेवकूफ़ था,
धीरे-धीरे अपने “बेलारूस” ट्रैक्टर में आँगन के भीतर आ गया (निकोलाय ने पहले ही
अपनी “मस्क्विच” सड़क पर रख दी थी, क्या पता ज़रूरत पड़ जाए), एल्तिशेव द्वारा खोदी
गई मिट्टी पर बाल्टी घुमाता रहा, टेढ़े, जले हुए पाईप से घना धुआँ निकालता
रहा...आख़िरकार बाल्टी को मिट्टी में कमज़ोर जगह मिल ही गई और वह मिट्टी बाहर
निकालने लगा. मिट्टी को ट्रैक्टर ड्राईवर फूहड़पन से इधर-उधर फेंकता रहा, एल्तिशेव
को कई बार बताना पड़ा कि मिट्टी कहाँ डालना है. उसने ‘हाँ’ में सिर हिलाया, मगर फिर
से मिट्टी कभी दाएँ तो कभी बाएँ डालता रहा. गड्ढा भी टेढ़ा ही बना, ट्रैक्टर जैसी
दीवार, क़रीब-क़रीब ढलान जैसा.
जब गहराई क़रीब तीन
मीटर तक हो गई, तो निकोलाय मिखाइलोविच ने अपने हाथों को एक दूसरे पर रख कर इशारा
किया : ठीक है. ट्रैक्टर वाले ने फ़ौरन पीछे हटना शुरू किया, जाते-जाते गेट के खंभे
में पहिया घुसा दिया.
“अरे, क्या कर रहे हो?!” एल्तिशेव गरजा.
“शैतान!”
ट्रैक्टर वाले ने
“बेलारूस” को ज़रा सा मोड़ा, बाहर सड़क पर निकल गया. और बिना रुके, जैसे भाग रहा हो,
ज़ाखोल्मोवो की दिशा में चला गया.
“हिसाब कर लें?” खारिन पास में आया.
मुस्कुराकर, मन ही मन
दाँत पीसते हुए, निकोलाय मिखाइलोविच ने जेब से सौ रूबल का नोट निकाला.
“और एक?”
“एक मैं पहले ही दे चुका हूँ.”
“मुझे याद है. मगर दो सौ – ट्रैक्टरवाले को और
सौ – मुझे.”
“किसलिए?”
“क्या, किसलिए?” खारिन को अचरज हुआ. “मैं तीन
बार ज़ाखोल्मोवो गया, सौदा तय किया...”
एल्तिशेव आराम से,
अपने आपको संयत किए, सिगरेट पीने लगा. खारिन की ओर देखकर बोला:
“उसे यहाँ वापस ला, अपने ट्रैक्टर वाले को. मैं
पूछूंगा, कि तूने उससे कितने का वादा किया था.”
“वो मेरा मामला है.”
“समझ गया. अब अच्छी तरह समझ ले: मुझे तू और
बेवकूफ़ नहीं बना सकता.” उसने खारिन के हाथ से नोट छीनकर अपनी जेब में डाल लिया.
“जब लट्ठे आएँगे, जब पेट्रोल-आरी आएगी – तभी पैसे मिलेंगे. समझ में आया?”
“हुम्... अब नहीं जानता, कि क्या करूँ.”
“तू क्या नहीं जानता?”
“”यही कि मुझे क्या करना चाहिए...ऐसे हालात में
क्या करते हैं?” खारिन की आवाज़ धीमी हो गई. “घर में आया, बीबी को धमकाने लगा...तुम्हारे
पुलिस वाले तौर-तरीके यहाँ नहीं चलेंगे, निकोलाय मिखाइलोविच. ये – गाँव है. ऐसे
लोगों को कोई पसन्द नहीं करता.”
जब एल्तिशेव नौकरी
करता था, तो ऐसे लब्ज़ों के लिए सीधे गिरेबान पकड़ लेता था. मगर, अब सब्र करना पड़ा.
मगर मुक्के खुजला रहे थे, वाक़ई में खुजला रहे थे, जैसे मच्छरों ने काटा हो. उसने
नाखून जैकेट पर रगड़े. और साफ़-साफ़, रुक-रुक
कर कहा:
“लट्ठों की गाड़ी का और पेट्रोल-आरी का इंतज़ार कर
रहा हूँ, जिसके लिए पहले ही पैसे दे चुका हूँ. जब वो मिल जाएंगे – आगे बात करेंगे.
नहीं – तो अपना मुँह काला कर.”
”मस्क्विच” को आँगन
में ले आया. गेट दुरुस्त करने लगा. खारिन खड़ा था और देख रहा था, कि एल्तिशेव कैसे
मुड़े हुए खंभे को ठीक करता है, लटके हुए दरवाज़े को उठाकर हौले से लोहे की कड़ियों
में फिट करता है... देखता रहा, कुछ–कुछ समझता रहा.
दो हफ़्तों तक तो
निकोलाय मिखाइलोविच को लगता रहा कि खारिन वादे के मुताबिक सामान ले आएगा – आख़िर
संबंध तोड़ना किसी के भी लिए ठीक नहीं है – हालाँकि, इस समय, सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं
लट्ठे. गड्ढा काला हो रहा था, डरा रहा था, जैसे कोई खोदी हुई कब्र हो.
एल्तिशेव ने उस पर
पुराने फट्टे और लट्ठे रख दिए, जिससे कि अकस्मात् कोई गिर न पड़े. वह अपने आप को
विध्वंसक समझने लगा था, ख़ास कर जब तात्याना आण्टी की नज़रों से उसका सामना होता –
बेबात ही आँगन का सत्यानाश कर दिया...
तेज़ हवा के बाद हुई
बारिश के कारण गड्ढे के चारों ओर के ढेर हरे-हरे धब्बों से ढँक गए – उनमें कुछ-कुछ
उगने लगा था.
आख़िरकार, उससे रहा
नहीं गया, वह ज़ाखोल्मोवो की सॉ-मिल की ओर चल पड़ा.
उसका स्वागत उदासीनता
से किया गया, शुरू में तो समझ ही नहीं पाए कि उसे क्या चाहिए.
“लट्ठे हैं?” एल्तिशेव ने पूछा.
“बेशक, हैं. ये, ढेर के ढेर हैं...”
“क्या भाव है? मुझे क़रीब बीस चाहिए. फ़ौरन.”
“लट्ठे...” आदमी एक दूसरे की ओर देखने लगे. “मगर
हम बोर्ड बनाकर बेचते हैं.”
“मुझे लट्ठे खरीदना है, ‘सेलार’ के लिए.”
“ओह, वो तो डाईरेक्टर से पूछना पड़ेगा...”
“कहाँ है डाईरेक्टर?”
“वो, यहीं कहीं है...”
बड़ी देर ढूँढ़ने के बाद
निकोलाय मिखाइलोविच को सॉ-मिल का डाईरेक्टर मिल गया, और वह भी बड़ी देर तक समझ नहीं
पाया कि उससे किस बात की उम्मीद की जा रही है.
“बोर्ड्स की तो हमारे पास काफ़ी वेरायटी है,” वह
अडियलपन से गिनाता गया, “ स्लैब है, बीम है...”
“मुझे लट्ठे चाहिए.”
“लट्ठे तो हम नहीं बेचते...चीड़ का जंगल तो पास
ही में है.”
“और क्या,” एल्तिशेव नर्वस हो गया, “चीड़ के पेड़
तोड़ने जाना पड़ेगा?”
“हाँ, किसी से, किसी फॉरेस्ट ऑफ़िसर से, बात करना
पड़ेगी...इमारती लकड़ी बेचने से हमें कोई फ़ायदा नहीं है. हम – बोर्ड्स दे सकते हैं,
स्लैब्स, बीम्स, लकड़ी की छीलन...”
शाम को, बेइन्तहा थका
हुआ, शक्तिहीन निकोलाय मिखाइलोविच गार्डन में बैठा था. फॉरेस्ट ऑफ़िसर को वह ढूंढ़
नहीं पाया, लट्ठों वाली बात बनी नहीं और यूर्का से मिलने पर पहली बार वह उसे पीने
के लिए बुला बैठा.
जब तक घर से खाने-पीने
का सामान लिया, - बीबी से कह दिया कि पड़ोसी के साथ थोड़ी देर खुली हवा में बैठेगा,
- यूर्का स्प्रिट लाने के लिए भागा.
स्प्रिट अब उतना
ज़हरीला नहीं लग रहा था, बल्कि थकावट के कारण प्यारा ही लग रहा था. सौ ग्राम के बाद
थोड़ा हल्कापन महसूस हुआ, मगर मूड ठीक नहीं हुआ. कड़वाहट भरी हताशा तीव्र होती गई.
“छह महीने से ज़्यादा
हो गए यहाँ रहते हुए,” गहराते अंधेरे में चीड़ के पेड़ों के नीले पड़ते शिखरों की ओर
देखते हुए एल्तिशेव ने बोलना शुरू किया, “मगर आदत ही नहीं हो रही है. लोगों की आदत
नहीं डाल पा रहा. हालाँकि काफ़ी लोगों से मिल चुका हूँ. पहले तो बहुत बुरा लगता था,
मगर अब ख़ुश हूँ – सोचता हूँ कि मुझे कम ही परेशानी उठानी पड़ी...मुझे बताओ,” वह
यूर्का की ओर मुड़ा, “इन खारिनों को ज़रूरत क्या थी इतनी बेशरमी से मुझे ....” अपने
आपको रोक लिया, माँ-बहन की गाली नहीं दी, “सताने की? पहले पेट्रोल-आरी का लालच
दिया, जिसका शायद अस्तित्व ही नहीं है. उसके लिए ढाई हज़ार दिए. फिर – लट्ठे. करने
को तो वादा कर दिया...हुम्, आदमी फॉरेस्ट-ऑफ़िसर है, हो सकता है महीने भर में किसी
तरह...”
“कौन फॉरेस्ट-ऑफ़िसर?” यूरा ने बात काटते हुए
पूछा. “क्या खारिन?”
“हाँ, उसने मुझसे मार्च के आरंभ में ही कहा था,
कि वहाँ काम कर रहा है. लट्ठों का वादा किया, पैसे भी लिए...”
“वो कोई फॉरेस्ट-ऑफिसर-वाफ़िसर नहीं है, मिखालिच!
घर में बैठा रहता है. हो सकता है कि उससे वादा किया हो, मगर लिया नहीं.”
एल्तिशेव को यक़ीन नहीं
हुआ:
“उसने ख़ुद ने मुझे कई बार...पक्की बात है कि वो
फॉरेस्ट-ऑफिसर नहीं है?”
“बिल्कुल पक्की. मुझे तो मालूम है.” यूर्का ने
जल्दी से जाम उछाला. “टकराएँ” – और जब पी चुके, तो फ़ौरन, बिना कुछ खाए, समझाने
लगा: “उसकी हालत... समझ सकते हैं, कि वो ऐसा क्यों....आख़िर जियेगा कैसे? ऊपर से
पाँच-पाँच बच्चे. मैं तो यहीं का हूँ, आधा गाँव रिश्तेदारों से भरा है, हर कोई कुछ
न कुछ मदद कर देता है. मगर उनको, बाहर से आने वालों को...बच्चों को मिलने वाली मदद
पर गुज़ारा करते हैं, खूब आलू खाते हैं. इसलिए करना पड़ता है...और यहाँ के ज़्यादातर
लोग ऐसे ही हैं. मुझे, क्या सोचते हो, ये अच्छा लगता है?... मैं अभी तक पूरा जानवर
नहीं बना हूँ. मगर – शरम आती है. सुबह उठता हूँ, और क्या? क्या करूँ? करने को है
ही क्या? उनचालीस साल का हूँ, मुझे सब कुछ आता है, सब कुछ कर सकता हूँ, मगर
फ़ायदा...गाँव में जिस चीज़ की ज़रूरत है, वह सब कर सकता हूँ. हर तरह का काम करके देख
लिया. और हर जगह से, मालूम है, मिखालिच, मुझे क्यों निकाल दिया? इसलिए नहीं कि मैं
घूमता-फिरता था बल्कि इसलिए कि – अपने गले पर हाथ फेरा, वह जगह ख़त्म कर दी गई है.”
“हूँ, बहस करना आसान है. जब मैं नशामुक्ति
केन्द्र में काम करता था, तो ऐसे कई किस्से सुन चुका हूँ. मगर इन हालात में भी
इन्सान बने रहना संभव है.”
“मगर कैसे?” यूर्का उबल रहा था. “अगर मालूम है,
तो बता. व्यापार करने के लिए ऊदबिलाव हमारे यहाँ हैं नहीं, मशरूम्स, लाल बिल्बेरीज़
बेचते हैं. आलू देते हैं ख़रीदारों को. मगर ये तो चिल्लर ही है. तो फिर...तो, फिर
मैं बच्चों को कैसे पालूँ? हमारे यहाँ एक था, मुरूशूक नाम है, उसने फ़ैसला किया, जब
संभव था, पूरी संजीदगी से फैसला किया कि कलहंस पालेगा. पाँच-पाँच दिन के क़रीब दो
सौ ख़रीदे, उनको खिलाने के लिए न जाने कितने बोरे अनाज. उन्हें बड़ा किया, तालाब में
ले जाने लगा. पूरा तालाब सफ़ेद हो गया था....तो, पहले साल तो सब ठीक रहा, ये सही है
कि क़रीब दस कलहंस या तो चोरी चले गए, या कुछ और हो गया...मालूम नहीं. मगर, अमूमन, ठीक-ठाक
चल रहा था. कलहंस बड़े हो गए. हमने सोचा, हमारे गाँव में बढ़िया किसान आ गया
है...मगर अगले साल सारे के सारे कलहंस मर गए. बाद में उसने उन्हें अपने गार्डन में
जला दिया. जलाता रहा- जलाता रहा और खलिहान को भी फूँक दिया. शायद नशे में था.
खलिहान से – गैरेज में आग फैल गई, वहाँ कार थी...मतलब, सब कुछ खाक हो गया. दो साल
स्नान-घर में रहा – स्नान-घर एक कोने में था, तालाब के पास, बस वही साबुत बचा, -
बेहद पीने लगा, बीबी भाग गई. फिर उसे लकवा मार गया, इत्तेफ़ाक से लोगों ने देख
लिया, वर्ना भूख से मर जाता. कहीं ले गए, मुझे मालूम नहीं...तो ऐसा था किसान हमारे
यहाँ...और हाँ,” –यूर्का ने फिर से जाम भरे, “और, कुछ भी काम शुरू करने के लिए
पैसा कहाँ से लाएँ? इन कलहंसों के लिए या कुछ और करने के लिए? यहाँ तो अगर सौ भी
मिल जाएँ, तो बहुत है.”
“और तू उसे फ़ौरन पी जाएगा,” एल्तिशेव ने जोड़ा.
यूर्का की आँखों में
अपमान चमक उठा.
“ठीक है, पीता हूँ, मान लो, मैं अक्सर मुफ़त की
पीता हूँ. घर से कभी भी, कुछ भी नहीं लिया. तू बेकार ही में...” वह बोर्ड्स की
गड्डी पर कसमसाया; निकोलाय मिखाइलोविच को लगा कि यूर्का जाना चाहता है, मगर इसके
बदले उसने जाम लिया और पी गया.
एल्तिशेव ने भी अपना
जाम पी लिया. सिगरेट पी. काफ़ी देर तक दोनों ख़ामोश रहे.
“ठीक है, यूर्, मैं बुराई से नहीं कह रहा. मतलब
बुराई से कह रहा हूँ, मगर तू इसमें कहीं नहीं है...” निकोलाय मिखाइलोविच के विचार
गड्ड-मड्ड होने लगे, शब्द मुश्किल से ज़ुबान पर आ रहे थे. “मुझे बता: इस खारिन के
साथ क्या करूँ? अपना पैसा कैसे वापस लूँ? तीन हज़ार हैं उस पर. पेट्रोल-आरी के लिए,
लट्ठों के लिए.”
“म्-म्, आसान नहीं
है...तूने पहले ही क्यों दे दिए?”
”भरोसा कर लिया.”
यूर्का खिखियाया, और
एल्तिशेव को भी हास्यास्पद लगा, कि उसे, मंजे हुए मर्द को, किसी ने ऐसे धोखा दिया.
एक नहीं, दो-दो बार.
“क्या,” कड़वी प्रसन्नता से वह बोला, “लगता है कि
धुनाई करनी पड़ेगी. सोचते हैं कि एक बेवकूफ़ मिल गया. न-हीं, मेरे साथ ये नहीं
चलेगा.” और ये सोचकर वह ख़ुश हो गया कि उसने यूर्का के सामने ये कह दिया: जाकर
बताने दो.
“हाँ, पैसा तो वापस लेना ही होगा,” उसने सहमत
होते हुए कहा, “ये बड़ी पवित्र चीज़ है. मगर, हो सकता है कि वो अपना वादा पूरा कर
दे...आरी तो उनके पास है, सामान लाकर दे देंगे. गार्डन में कुछ बना तो रहे हैं.”