शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

Eltyshevi - 10

अध्याय – 10


शादी के बाद, जैसे पारिवारिक जीवन की कोई महत्वपूर्ण चीज़ टूट गई थी. पहले भी धीरे-धीरे टूट ही रही थी: पहले छोटे बेटे को जेल में बन्द कर दिया, फिर आपराधिक केस चलाकर पति को नौकरी से हटा दिया, फिर क्वार्टर वापस ले लिया, और अब – अब आर्तेम भी, इतने लम्बे समय तक माँ-बाप से चिपका हुआ – काफ़ी लम्बे समय तक, एक असहाय बच्चा ही बना रहा - बस, निकल गया. छिटक गया. और वह भी ऐसे समय, जो इसके लिए सबसे ज़्यादा अनचाहा था.
वह बीबी के साथ त्यापोवों के यहाँ आउटहाऊस में रहने लगा. सर्दियों के लिए वह बेहद ठण्डा था, मगर मई से अक्तूबर तक उसमें आराम से रहा जा सकता था. ऊपर से रूम-हीटर भी था – पुराना, खड़खड़ाता  “बवण्डर”, जो जाली वाले छेद से गरम हवा का झोंका फेंकता था.
माँ-बाप के यहाँ आर्तेम शादी के बाद कभी-कभार ही आता था, और वह भी सिर्फ पैसों के लिए.
अठारह मई को ट्रैक्टर आया और आँगन खोद गया. उसे पचास रूबल्स और “ज़ेम्स्काया” ब्राण्ड की वोद्का की बोतल दी गई. ज़मीन भुरभुरी और सूखी निकली. आण्टी उसमें साल-दर-साल आलू बोती थी, मिट्टी में खाद डालना उसके बस की बात नहीं थी – सर्दियों में कुछ फसल निकाल लेती थी, जो उसके लिए पर्याप्त थी.
मवेशियों के परित्यक्त शेड्स में जाना पड़ा, बोरों में खाद भर-भरकर लाना पड़ा. (अच्छी मिल गई – काली, गीली खाद के ढेर के ढेर थे वहाँ, जिनमें झाड़ियाँ नहीं निकली थीं.) क्यारियों में थोड़ी थोड़ी डालने की सोची – कैसी भी हो, ज़मीन में ताकत आ जाएगी.
बगल से गुज़रता हुआ किसान रुक गया, गुस्से से पूछने लगा:
 “क्या गार्डन के लिए ले जा रहे हो?”
निकोलाय बोरे के ऊपर तनकर खड़ा हो गया. झगड़े के लिए तैयार हो गया:
 “क्या, यहाँ से लेना मना है?”
 “ले सकते हो. मगर वह नमकीन है – ज़्यादा बुरा कर रहे हो.” और उसने समझाया कि सामान्य गोबर और खाद कहाँ है.
बोरे खाली कर दिए, वहीं गए, जहाँ किसान ने बताया था.
 “अभी भी अच्छे लोग हैं,” वलेंतीना विक्तोरोव्ना फुसफुसाई, “उसका भला हो...”
दूसरे दिन आलू बोए. आर्तेम भी आया, उसने क्यारियाँ खोदीं, जिनमें वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने झुर्रियों वाले, अंकुर फूटे आलू डाले. निकोलाय खेत के दूसरे हिस्से में क्यारियाँ खोद रहा था, वह ख़ुद ही उनमें आलू डाल रहा था, मिट्टी से उन्हें दबा रहा था. कभी-कभी बेटे के काम पर नज़र डालता और गुस्सा करता:
 “तेरे पास आँखें हैं कि नहीं? क्या गड़बड़ कर रहा है? समान दूरी पर क्यारियाँ बना, पास-पास नहीं...”
आण्टी आँगन में बैठी थी, तहख़ाने से निकाले गए आलुओं को चुन रही थी, खाने के लिए बड़े-बड़े निकाल रही थी. अगस्त तक इसीसे काम चलाना पड़ेगा.
आलुओं का काम पूरा करके, बीबी के लिए खीरों की क्यारियाँ तैयार करके, एल्तिशेव फिर से घर बनाने में लग गया.
दस बाई दस का प्लॉट साफ़ किया, नींव के लिए जगह निश्चित की – तीन फ़ावड़े ज़मीन खोदी. ऐसा लगा कि वह मिट्टी बुआई के लिए एकदम उपयुक्त है, और निकोलाय मिखाइलोविच उसे गार्डन में ले गया. आगे रेत निकली.
खोदना आसान था, मगर बाल्टी वाला ट्रैक्टर ललचा रहा था: वाक़ई में ट्रैक्टर के लिए यहाँ सिर्फ आधे घंटे का ही काम था...
खारिन के पास गया, याद दिलाई.
 “हाँ, मैंने पता किया,” उसने गर्दन हिलाई. “उसने शनिवार का वादा किया है. एडवान्स मांगता है...डीज़ल के लिए.”
 “कितना?”
खारिन ने पीछे खड़ी बीबी पर नज़र डाली.
 “अम्...एक सौ.”
 “आपके यहाँ डीज़ल कोई सस्ता नहीं है,” एल्तिशेव मुस्कुराया, मगर कोई चारा नहीं था, पैसे दे दिए. “इंतज़ार कर रहा हूँ.”
 “हाँ-हाँ. शनिवार को.”
 “और लट्ठों के बारे में भी... मिलेंगे, या नहीं?”
खारिन, जैसे बुरा मान गया:
 “बिल्कुल मिलेंगे! मुझे याद है, उसी के लिए काम कर रहा हूँ...”
शनिवार के इंतज़ार में निकोलाय मिखाइलोविच शहर जाकर आया, बाज़ार में सिमेंट की पाँच बोरियाँ ख़रीदीं सत्यासी रूबल्स प्रति बोरी के भाव से. कीलें, बढ़िया फ़ावड़ा, धातु काटने की आरी, इलेक्ट्रिक ड्रिलिंग मशीन, कुछ रोज़मर्रा का सामान, शकर वगैरह खरीदा.
...शनिवार को ट्रैक्टर आया ही नहीं. अंधेरा होने पर, बेकार में दिन गँवाने के कारण बिफ़रा हुआ और थका हुआ एल्तिशेव फिर से खारिनों के यहाँ गया.
गेट एलेना ने खोला. हमेशा की तरह प्रसन्नता से मुस्कुराई.
 “क्या कोई परेशानी है, निकोलाय मिखाइलोविच?”
 “पति घर में है?”
 “नहीं, बाहर गया है.”
 “कहाँ गया है?”
एलेना ने मुस्कुराहट छुपा ली:
 “आपको उससे क्या मतलब?”
 “मुझे – बहुत बड़ा मतलब है.” एल्तिशेव थरथराने लगा. “उसने मुझे आज ट्रैक्टर लाकर देने का वादा किया था. तुम्हारे सामने ही किया था.”
 “आ, हाँ, हाँ, लगता है...”
 “तो फिर? कहाँ है ट्रैक्टर?”
खारिना ने आश्चर्य से होंठ टेढ़े किए:
 “ये आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? और ऐसी आवाज़ में?”
 “सुनिए...” निकोलाय मिखाइलोविच ने त्यौरियाँ चढ़ा लीं, प्रयत्नपूर्वक उसकी ओर देखते हुए बोला. “सुनिए, मैं आप लोगों को समझ नहीं पा रहा हूँ. पेट्रोल-आरी आप फरवरी से ला रहे हैं, लट्ठे – मार्च से. अब – ट्रैक्टर. आपने मुझे क्या, बेवकूफ़ समझ रखा है, जो लगे नचाने?!”
 “आप इस तरह बात मत कीजिए, प्लीज़,” खारिना को भी गुस्सा आ गया, “मेरे बच्चे आँगन में खेल रहे हैं.”
 “हाँ, जल्दी ही मैं सिर्फ बातें नहीं करूँगा. मैं पुलिस वाला हूँ – समझ में आया? – मुझसे मज़ाक करना महंगा पड़ेगा. मैं मज़ाक नहीं समझता.”
खारिन दूसरे दिन लंच के समय ट्रैक्टर ले आया. जानबूझकर एल्तिशेव से बात नहीं की; सारे सवाल, कहाँ खोदना है, कितनी गहराई तक, ट्रैक्टर वाला पूछता रहा.
वह निरा बेवकूफ़ था, धीरे-धीरे अपने “बेलारूस” ट्रैक्टर में आँगन के भीतर आ गया (निकोलाय ने पहले ही अपनी “मस्क्विच” सड़क पर रख दी थी, क्या पता ज़रूरत पड़ जाए), एल्तिशेव द्वारा खोदी गई मिट्टी पर बाल्टी घुमाता रहा, टेढ़े, जले हुए पाईप से घना धुआँ निकालता रहा...आख़िरकार बाल्टी को मिट्टी में कमज़ोर जगह मिल ही गई और वह मिट्टी बाहर निकालने लगा. मिट्टी को ट्रैक्टर ड्राईवर फूहड़पन से इधर-उधर फेंकता रहा, एल्तिशेव को कई बार बताना पड़ा कि मिट्टी कहाँ डालना है. उसने ‘हाँ’ में सिर हिलाया, मगर फिर से मिट्टी कभी दाएँ तो कभी बाएँ डालता रहा. गड्ढा भी टेढ़ा ही बना, ट्रैक्टर जैसी दीवार, क़रीब-क़रीब ढलान जैसा.
जब गहराई क़रीब तीन मीटर तक हो गई, तो निकोलाय मिखाइलोविच ने अपने हाथों को एक दूसरे पर रख कर इशारा किया : ठीक है. ट्रैक्टर वाले ने फ़ौरन पीछे हटना शुरू किया, जाते-जाते गेट के खंभे में पहिया घुसा दिया.              
 “अरे, क्या कर रहे हो?!” एल्तिशेव गरजा. “शैतान!”
ट्रैक्टर वाले ने “बेलारूस” को ज़रा सा मोड़ा, बाहर सड़क पर निकल गया. और बिना रुके, जैसे भाग रहा हो, ज़ाखोल्मोवो की दिशा में चला गया.
 “हिसाब कर लें?” खारिन पास में आया.
मुस्कुराकर, मन ही मन दाँत पीसते हुए, निकोलाय मिखाइलोविच ने जेब से सौ रूबल का नोट निकाला.
 “और एक?”
 “एक मैं पहले ही दे चुका हूँ.”
 “मुझे याद है. मगर दो सौ – ट्रैक्टरवाले को और सौ – मुझे.”
 “किसलिए?”
  “क्या, किसलिए?” खारिन को अचरज हुआ. “मैं तीन बार ज़ाखोल्मोवो गया, सौदा तय किया...”
एल्तिशेव आराम से, अपने आपको संयत किए, सिगरेट पीने लगा. खारिन की ओर देखकर बोला:
 “उसे यहाँ वापस ला, अपने ट्रैक्टर वाले को. मैं पूछूंगा, कि तूने उससे कितने का वादा किया था.”
“वो मेरा मामला है.”
 “समझ गया. अब अच्छी तरह समझ ले: मुझे तू और बेवकूफ़ नहीं बना सकता.” उसने खारिन के हाथ से नोट छीनकर अपनी जेब में डाल लिया. “जब लट्ठे आएँगे, जब पेट्रोल-आरी आएगी – तभी पैसे मिलेंगे. समझ में आया?”
 “हुम्... अब नहीं जानता, कि क्या करूँ.”
 “तू क्या नहीं जानता?”
 “”यही कि मुझे क्या करना चाहिए...ऐसे हालात में क्या करते हैं?” खारिन की आवाज़ धीमी हो गई. “घर में आया, बीबी को धमकाने लगा...तुम्हारे पुलिस वाले तौर-तरीके यहाँ नहीं चलेंगे, निकोलाय मिखाइलोविच. ये – गाँव है. ऐसे लोगों को कोई पसन्द नहीं करता.”
जब एल्तिशेव नौकरी करता था, तो ऐसे लब्ज़ों के लिए सीधे गिरेबान पकड़ लेता था. मगर, अब सब्र करना पड़ा. मगर मुक्के खुजला रहे थे, वाक़ई में खुजला रहे थे, जैसे मच्छरों ने काटा हो. उसने नाखून  जैकेट पर रगड़े. और साफ़-साफ़, रुक-रुक कर कहा:
 “लट्ठों की गाड़ी का और पेट्रोल-आरी का इंतज़ार कर रहा हूँ, जिसके लिए पहले ही पैसे दे चुका हूँ. जब वो मिल जाएंगे – आगे बात करेंगे. नहीं – तो अपना मुँह काला कर.”
”मस्क्विच” को आँगन में ले आया. गेट दुरुस्त करने लगा. खारिन खड़ा था और देख रहा था, कि एल्तिशेव कैसे मुड़े हुए खंभे को ठीक करता है, लटके हुए दरवाज़े को उठाकर हौले से लोहे की कड़ियों में फिट करता है... देखता रहा, कुछ–कुछ समझता रहा.
दो हफ़्तों तक तो निकोलाय मिखाइलोविच को लगता रहा कि खारिन वादे के मुताबिक सामान ले आएगा – आख़िर संबंध तोड़ना किसी के भी लिए ठीक नहीं है – हालाँकि, इस समय, सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं लट्ठे. गड्ढा काला हो रहा था, डरा रहा था, जैसे कोई खोदी हुई कब्र हो.
एल्तिशेव ने उस पर पुराने फट्टे और लट्ठे रख दिए, जिससे कि अकस्मात् कोई गिर न पड़े. वह अपने आप को विध्वंसक समझने लगा था, ख़ास कर जब तात्याना आण्टी की नज़रों से उसका सामना होता – बेबात ही आँगन का सत्यानाश कर दिया...
तेज़ हवा के बाद हुई बारिश के कारण गड्ढे के चारों ओर के ढेर हरे-हरे धब्बों से ढँक गए – उनमें कुछ-कुछ उगने लगा था.
आख़िरकार, उससे रहा नहीं गया, वह ज़ाखोल्मोवो की सॉ-मिल की ओर चल पड़ा.
उसका स्वागत उदासीनता से किया गया, शुरू में तो समझ ही नहीं पाए कि उसे क्या चाहिए.
 “लट्ठे हैं?” एल्तिशेव ने पूछा.
 “बेशक, हैं. ये, ढेर के ढेर हैं...”
 “क्या भाव है? मुझे क़रीब बीस चाहिए. फ़ौरन.”
 “लट्ठे...” आदमी एक दूसरे की ओर देखने लगे. “मगर हम बोर्ड बनाकर बेचते हैं.”
 “मुझे लट्ठे खरीदना है, ‘सेलार’ के लिए.”
 “ओह, वो तो डाईरेक्टर से पूछना पड़ेगा...”
 “कहाँ है डाईरेक्टर?”
 “वो, यहीं कहीं है...”
बड़ी देर ढूँढ़ने के बाद निकोलाय मिखाइलोविच को सॉ-मिल का डाईरेक्टर मिल गया, और वह भी बड़ी देर तक समझ नहीं पाया कि उससे किस बात की उम्मीद की जा रही है.
 “बोर्ड्स की तो हमारे पास काफ़ी वेरायटी है,” वह अडियलपन से गिनाता गया, “ स्लैब है, बीम है...”
 “मुझे लट्ठे चाहिए.”
 “लट्ठे तो हम नहीं बेचते...चीड़ का जंगल तो पास ही में है.”
 “और क्या,” एल्तिशेव नर्वस हो गया, “चीड़ के पेड़ तोड़ने जाना पड़ेगा?”
 “हाँ, किसी से, किसी फॉरेस्ट ऑफ़िसर से, बात करना पड़ेगी...इमारती लकड़ी बेचने से हमें कोई फ़ायदा नहीं है. हम – बोर्ड्स दे सकते हैं, स्लैब्स, बीम्स, लकड़ी की छीलन...”
शाम को, बेइन्तहा थका हुआ, शक्तिहीन निकोलाय मिखाइलोविच गार्डन में बैठा था. फॉरेस्ट ऑफ़िसर को वह ढूंढ़ नहीं पाया, लट्ठों वाली बात बनी नहीं और यूर्का से मिलने पर पहली बार वह उसे पीने के लिए बुला बैठा.
जब तक घर से खाने-पीने का सामान लिया, - बीबी से कह दिया कि पड़ोसी के साथ थोड़ी देर खुली हवा में बैठेगा, - यूर्का स्प्रिट लाने के लिए भागा.
स्प्रिट अब उतना ज़हरीला नहीं लग रहा था, बल्कि थकावट के कारण प्यारा ही लग रहा था. सौ ग्राम के बाद थोड़ा हल्कापन महसूस हुआ, मगर मूड ठीक नहीं हुआ. कड़वाहट भरी हताशा तीव्र होती गई.
“छह महीने से ज़्यादा हो गए यहाँ रहते हुए,” गहराते अंधेरे में चीड़ के पेड़ों के नीले पड़ते शिखरों की ओर देखते हुए एल्तिशेव ने बोलना शुरू किया, “मगर आदत ही नहीं हो रही है. लोगों की आदत नहीं डाल पा रहा. हालाँकि काफ़ी लोगों से मिल चुका हूँ. पहले तो बहुत बुरा लगता था, मगर अब ख़ुश हूँ – सोचता हूँ कि मुझे कम ही परेशानी उठानी पड़ी...मुझे बताओ,” वह यूर्का की ओर मुड़ा, “इन खारिनों को ज़रूरत क्या थी इतनी बेशरमी से मुझे ....” अपने आपको रोक लिया, माँ-बहन की गाली नहीं दी, “सताने की? पहले पेट्रोल-आरी का लालच दिया, जिसका शायद अस्तित्व ही नहीं है. उसके लिए ढाई हज़ार दिए. फिर – लट्ठे. करने को तो वादा कर दिया...हुम्, आदमी फॉरेस्ट-ऑफ़िसर है, हो सकता है महीने भर में किसी तरह...”
 “कौन फॉरेस्ट-ऑफ़िसर?” यूरा ने बात काटते हुए पूछा. “क्या खारिन?”
 “हाँ, उसने मुझसे मार्च के आरंभ में ही कहा था, कि वहाँ काम कर रहा है. लट्ठों का वादा किया, पैसे भी लिए...”
 “वो कोई फॉरेस्ट-ऑफिसर-वाफ़िसर नहीं है, मिखालिच! घर में बैठा रहता है. हो सकता है कि उससे वादा किया हो, मगर लिया नहीं.”
एल्तिशेव को यक़ीन नहीं हुआ:
 “उसने ख़ुद ने मुझे कई बार...पक्की बात है कि वो फॉरेस्ट-ऑफिसर नहीं है?”
 “बिल्कुल पक्की. मुझे तो मालूम है.” यूर्का ने जल्दी से जाम उछाला. “टकराएँ” – और जब पी चुके, तो फ़ौरन, बिना कुछ खाए, समझाने लगा: “उसकी हालत... समझ सकते हैं, कि वो ऐसा क्यों....आख़िर जियेगा कैसे? ऊपर से पाँच-पाँच बच्चे. मैं तो यहीं का हूँ, आधा गाँव रिश्तेदारों से भरा है, हर कोई कुछ न कुछ मदद कर देता है. मगर उनको, बाहर से आने वालों को...बच्चों को मिलने वाली मदद पर गुज़ारा करते हैं, खूब आलू खाते हैं. इसलिए करना पड़ता है...और यहाँ के ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं. मुझे, क्या सोचते हो, ये अच्छा लगता है?... मैं अभी तक पूरा जानवर नहीं बना हूँ. मगर – शरम आती है. सुबह उठता हूँ, और क्या? क्या करूँ? करने को है ही क्या? उनचालीस साल का हूँ, मुझे सब कुछ आता है, सब कुछ कर सकता हूँ, मगर फ़ायदा...गाँव में जिस चीज़ की ज़रूरत है, वह सब कर सकता हूँ. हर तरह का काम करके देख लिया. और हर जगह से, मालूम है, मिखालिच, मुझे क्यों निकाल दिया? इसलिए नहीं कि मैं घूमता-फिरता था बल्कि इसलिए कि – अपने गले पर हाथ फेरा,  वह जगह ख़त्म कर दी गई है.”
 “हूँ, बहस करना आसान है. जब मैं नशामुक्ति केन्द्र में काम करता था, तो ऐसे कई किस्से सुन चुका हूँ. मगर इन हालात में भी इन्सान बने रहना संभव है.”
 “मगर कैसे?” यूर्का उबल रहा था. “अगर मालूम है, तो बता. व्यापार करने के लिए ऊदबिलाव हमारे यहाँ हैं नहीं, मशरूम्स, लाल बिल्बेरीज़ बेचते हैं. आलू देते हैं ख़रीदारों को. मगर ये तो चिल्लर ही है. तो फिर...तो, फिर मैं बच्चों को कैसे पालूँ? हमारे यहाँ एक था, मुरूशूक नाम है, उसने फ़ैसला किया, जब संभव था, पूरी संजीदगी से फैसला किया कि कलहंस पालेगा. पाँच-पाँच दिन के क़रीब दो सौ ख़रीदे, उनको खिलाने के लिए न जाने कितने बोरे अनाज. उन्हें बड़ा किया, तालाब में ले जाने लगा. पूरा तालाब सफ़ेद हो गया था....तो, पहले साल तो सब ठीक रहा, ये सही है कि क़रीब दस कलहंस या तो चोरी चले गए, या कुछ और हो गया...मालूम नहीं. मगर, अमूमन, ठीक-ठाक चल रहा था. कलहंस बड़े हो गए. हमने सोचा, हमारे गाँव में बढ़िया किसान आ गया है...मगर अगले साल सारे के सारे कलहंस मर गए. बाद में उसने उन्हें अपने गार्डन में जला दिया. जलाता रहा- जलाता रहा और खलिहान को भी फूँक दिया. शायद नशे में था. खलिहान से – गैरेज में आग फैल गई, वहाँ कार थी...मतलब, सब कुछ खाक हो गया. दो साल स्नान-घर में रहा – स्नान-घर एक कोने में था, तालाब के पास, बस वही साबुत बचा, - बेहद पीने लगा, बीबी भाग गई. फिर उसे लकवा मार गया, इत्तेफ़ाक से लोगों ने देख लिया, वर्ना भूख से मर जाता. कहीं ले गए, मुझे मालूम नहीं...तो ऐसा था किसान हमारे यहाँ...और हाँ,” –यूर्का ने फिर से जाम भरे, “और, कुछ भी काम शुरू करने के लिए पैसा कहाँ से लाएँ? इन कलहंसों के लिए या कुछ और करने के लिए? यहाँ तो अगर सौ भी मिल जाएँ, तो बहुत है.”
 “और तू उसे फ़ौरन पी जाएगा,” एल्तिशेव ने जोड़ा.
यूर्का की आँखों में अपमान चमक उठा.
 “ठीक है, पीता हूँ, मान लो, मैं अक्सर मुफ़त की पीता हूँ. घर से कभी भी, कुछ भी नहीं लिया. तू बेकार ही में...” वह बोर्ड्स की गड्डी पर कसमसाया; निकोलाय मिखाइलोविच को लगा कि यूर्का जाना चाहता है, मगर इसके बदले उसने जाम लिया और पी गया.
एल्तिशेव ने भी अपना जाम पी लिया. सिगरेट पी. काफ़ी देर तक दोनों ख़ामोश रहे.
 “ठीक है, यूर्, मैं बुराई से नहीं कह रहा. मतलब बुराई से कह रहा हूँ, मगर तू इसमें कहीं नहीं है...” निकोलाय मिखाइलोविच के विचार गड्ड-मड्ड होने लगे, शब्द मुश्किल से ज़ुबान पर आ रहे थे. “मुझे बता: इस खारिन के साथ क्या करूँ? अपना पैसा कैसे वापस लूँ? तीन हज़ार हैं उस पर. पेट्रोल-आरी के लिए, लट्ठों के लिए.”
“म्-म्, आसान नहीं है...तूने पहले ही क्यों दे दिए?”
”भरोसा कर लिया.”
यूर्का खिखियाया, और एल्तिशेव को भी हास्यास्पद लगा, कि उसे, मंजे हुए मर्द को, किसी ने ऐसे धोखा दिया. एक नहीं, दो-दो बार.
 “क्या,” कड़वी प्रसन्नता से वह बोला, “लगता है कि धुनाई करनी पड़ेगी. सोचते हैं कि एक बेवकूफ़ मिल गया. न-हीं, मेरे साथ ये नहीं चलेगा.” और ये सोचकर वह ख़ुश हो गया कि उसने यूर्का के सामने ये कह दिया: जाकर बताने दो.

 “हाँ, पैसा तो वापस लेना ही होगा,” उसने सहमत होते हुए कहा, “ये बड़ी पवित्र चीज़ है. मगर, हो सकता है कि वो अपना वादा पूरा कर दे...आरी तो उनके पास है, सामान लाकर दे देंगे. गार्डन में कुछ बना तो रहे हैं.”

बुधवार, 28 जनवरी 2015

Eltyshevi - 09

अध्याय  - 9


ईस्टर के बाद, शादी से क़रीब डेढ़ हफ़्ता पहले, निकोलाय मिखाइलोविच ने अपने आप को मजबूर किया – बेटे के प्रति अपमान और कड़वाहट की भावना को दिल से निकाल दिया. क्या करें, अब कुछ भी बदलना संभव नहीं था – उसे शादी न करने पर मजबूर तो नहीं किया जा सकता. आख़िर बड़ा है लड़का. मगर रहेगा कहाँ, कैसे? और निकोलाय मिखाइलोविच घर बनाने के काम में जुट गया.
पैसों की हालत ‘टाईट’ थी, इसलिए गैरेज को बेचने का फ़ैसला किया. भाव का पता लगाया और थोड़े उदास हो गए – औसत क़ीमत तीस हज़ार से ऊपर नहीं थी.
शहर में वैसे भी दो बड़े-बड़े अण्डरग्राऊण्ड ब्यूटी-पार्लर्स बन रहे थे, जिनमें ‘हीटिंग’ का इंतज़ाम था; अब को-ऑपरेटिव के लिए ज़मीन पहले के मुक़ाबले ज़्यादा आसानी से मिल जाती थी, और धातु के सिंक भी उपलब्ध थे – उन्हें वे लोग लगवाते थे, जो यहाँ सिर्फ गर्मियों में आते थे: ख़ासतौर से औरतें.
 “क्या, बेच दें?” शहर से वापस लौटने के बाद एल्तिशेव ने पत्नी और बेटे से पूछा. “सत्ताईस हज़ार दे रहे हैं, और रजिस्ट्रेशन का खर्चा ख़ुद उठाएंगे.”
 “ओह,ओह, ओह,” बीबी ने गहरी साँस ली, “करना क्या है? उसे घसीट कर यहाँ तो नहीं ला सकते...तो फिर – लट्ठों का ऑर्डर देना पड़ेगा, सिमेंट ख़रीदना होगा.”
 “ठीक है-ठीक है,” निकोलाय मिखाइलोविच अभी से ‘प्लान्स’ के बारे में सुन-सुनकर थक गया था, और उसे सपने में भी “सिमेंट”, “लट्ठे”, “ईंट” - ये शब्द सुनाई देते. “मतलब, बेच देंगे. मैंने किसी से बात कर रखी है.”
 “बेचना तो – आसान है,” आण्टी बिसूरी, “मगर ख़रीदना...”
 “आण्टी तान्या, क्या हम आपस में फ़ैसला कर लें?!”
 “रुको,” निकोलाय मिखाइलोविच ने पत्नी की बात काटी, वह बुढ़िया से मुख़ातिब हुआ: “तो, आप क्या सलाह देती हैं? हाँ?” और उसने आँखें सिकोड़ लीं, जैसे वाक़ई में उससे किसी अकलमन्द सलाह की उम्मीद कर रहा हो, और हाँ, लग भी रहा था कि अपने दिल की गहराई में वाक़ई में वह उम्मीद कर रहा था.   
मगर आण्टी ने सिर्फ अपना सूखा हुआ, गठीला हाथ झटक दिया, और वह खिड़की में बैठ गई, जिसके पीछे उपेक्षित किचन-गार्डन में पिछले साल के, कंटीली झाड़ियों के ठूंठ दिखाई दे रहे थे.
 “और, तू क्या कहता है?” एल्तिशेव बेटे से मुख़ातिब हुआ.
 “मैं? मैं नहीं जानता...”
 “तू कुछ जानता भी है?! हुम्...ठीक है. मतलब, बेच देंगे और बनाना शुरू करेंगे. ठीक है?”
बीबी ने और आर्तेम ने सिर हिलाए.
  बुढ़िया की आलोचनात्मक-आहत नज़रों की ओर ध्यान न देने की कोशिश करते हुए, जो ड्योढ़ी के पास वाली बेंच पर बैठ गई थी, निकोलाय मिखाइलोविच ने बाईं तरफ़ के सबसे अंतिम ढाँचे को तोड़ दिया, जिसमें कभी, बहुत पहले, लगता है, कि सुअर रहते थे...
ढाँचा बेहद भुरभुरा था, और जैसे ही एल्तिशेव ने लकड़ी की पट्टियाँ खींची, भीतर की दीवारों से भरभराकर भूसा, मिटी, सड़े हुए पंख, घास-फूस बाहर निकले, और ज़मीन पर गिरकर बिखर गए, दमघोंटू धूल में बदल गए. “हर तरह के कचरे से बनाया गया था”, निकोलाय मिखाइलोविच के माथे पर बल पड़ गए, और दिमाग़ में अनचाहे ही पीले लठ्ठों की बनी, धूप में चमचमाती टीन की छत वाली चौकोर कॉटेज तैर गई. कबेलू की छत किसी काम की नहीं, आजकल लोहा अच्छा आ रहा है; टाईल्स के नीचे लगाएंगे.
बेटा मदद तो करता था, मगर – वैसे ही जैसे उसने ज़िन्दगी भर किया था, - मरियलपन से, फूहड़पन से. कीलों से टकरा गया, उंगलियाँ ज़ख़्मी कर लीं, आह, ओह करने लगा...लकड़ी के फट्टे भी ठीक तरह से नहीं रखे.
 “अरे, इसकी अभी ज़रूरत पड़ेगी, तू उसे कहाँ सड़ी हुई लकड़ियों के बीच रख रहा है?!” गुस्सा आ गया निकोलाय मिखाइलोविच को. “और कीलें बाहर निकाल, या उन्हें कम से कम मोड़ ही दे.”
सही में, काम से दिल बहल रहा था, और एल्तिशेव के मन से जैसे उदासी के बादल छंट गए, जोश भी प्रकट हो रहा था, जो, शारीरिक श्रम कम करने के कारण, काफ़ी दिनों से महसूस नहीं हो रहा था.
मगर ढाँचे को तोड़ने का काम बहुत धीरे-धीरे चल रहा था, और कुछ दिनों बाद जोश का स्थान बदहवासी ने ले लिया – अभी घर के लिए जगह साफ़ कर रहे हैं (अभी लकड़ियों वाली और कोयले वाली कोठरियाँ भी तोड़ना पड़ेंगी, मतलब – उन्हें किसी दूसरी जगह ले जाना होगा), इसके बाद नींव बनाने के लिए गढ़ा खोदना पड़ेगा, नींव भरनी पड़ेगी...हाँ, ऐसा लगता है कि अगर पूरा सामान भी आपके हाथ में हो तो भी गर्मियों के एक मौसम में घर नहीं बन सकता. क्या लोगों को बुलाऊँ? मगर किसे? यूर्का को...नहीं, लोग तो मिल जाएँगे, मगर उन्हें पैसा कहाँ से देंगे? मगर, मान लो, अगर पैसे हों भी, तो मदद कौन करेगा?
निकोलाय मिखाइलोविच अपने दिमाग़ में गाँव के किसानों के बारे में सोचने लगा. छह महीनों में उसने काफ़ी लोगों को नज़दीक से देखा था और उन्हें दो हिस्सों में बांट दिया था. बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का था जो किसी तरह जी रहे थे, जर्जर झोंपड़ियों में, हमेशा नशे में तर, अपने दिन या तो गेट के पास पड़ी बेंचों पर गुज़ारते, जैसे शक्तिहीन बूढ़े लोग हों, या गर्मियों में तालाब के किनारे पर, जिसके ऊपर जल चुके कारखाने के डरावने भग्नावशेष लटक रहे थे... छोटा हिस्सा मज़बूत, कई पीढ़ियों से चली आ रही कॉटेजेस में रहता था; ऐसे किसानों की इस्टेट ऊँची-ऊँची अपारदर्शी फेन्सिंग्स से घिरी हुई थीं, उनके आँगनों में ख़ामोश, मगर बेहद ख़तरनाक कुत्ते होते थे – अगर कोई वहाँ घुस भी जाता तो वे सिर्फ भौंकते नहीं थे, बल्कि आपको नोंच लेते थे.   
ये, छोटे वाले हिस्से के लोग, हमेशा अपने बागों में व्यस्त रहते, उनके पास सुअर थे, गाएँ थीं, ख़रगोश थे, वे कहीं-कहीं से बोरे भर-भर के चारा लाते थे, रास्तों पर जल्दी-जल्दी चलते थे, जैसे हमेशा जल्दी में हों. ऐसे लोग तो, चाहे कितने ही पैसे क्यों न दिए जाएँ, दूसरों के आँगन में खटने के लिए कभी नहीं आयेंगे, ज़्यादा से ज़्यादा, शहतीरें ऊपर से नीचे लुढ़का देंगे, मगर निकम्मे लोग तो शायद फ़ौरन तैयार हो जाएँ, मगर काम वो ऐसा करेंगे कि नुक्सान ही ज़्यादा करेंगे...
सड़ी हुई बल्लियों और फट्टोंको फ़ौरन छील छालकर भूसा बना दिया गया, और थोड़ी-बहुत मज़बूत लकड़ियों को वक़्त-ज़रूरत के लिए बचाकर रखा गया – जैसे, फ्रेम्स बनाने के लिए. पेट्रोल-आरी खारीन अब तक नहीं लाए थे – उनका कंटेनर आ ही नहीं पा रहा था. मगर कुछ भी किया नहीं जा सकता था, ऊपर से पति-खारिन  जंगल का अफ़सर बन गया था (कम से कम उसने ख़ुद ने ही ये ज़ाहिर किया था) और उसने खंभे, डण्डे, शहतीरें देने का वादा किया था: उसके प्लॉट में अग्निशामक भागों का पुनर्निर्माण शुरू हो गया था. “वहाँ काफ़ी चीड़ के पेड़ हैं.” निकोलाय मिखाइलोविच ने एडवान्स के तौर पर खारिन को पाँच सौ रूबल्स दिए – नींव के लिए ताज़ा शहतीरों की ज़रूरत थी, और वह अगले महीने में नींव बनाने वाला था.
नौ मई का दिन परिवार के साथ मनाया. ख़ामोशी से खाते, पीते रहे, तनाव महसूस कर रहे थे; इच्छा होने के बावजूद निकोलाय मिखाइलोविच मुस्कुरा नहीं पा रहा था, बेटे के कंधे को थपथपाकर कह नहीं पा रहा था : “चल, ठीक है, भाई, सब ठीक हो जाएगा!”
मौसम इस दिन साफ़ था, खूब गर्मी थी, बाहर रास्ते पर निकलने का मन हो रहा था. ढाँचा अब नहीं था – सिर्फ कूड़े-करकट की परत और पत्थर बन गई सुअर की लीद पड़ी थी. लकड़ियों वाली कोठरी बिना छत के खड़ी थी, मगर उसका भविष्य जैसे थम गया था – आण्टी दबी--दबी ज़िद से मजबूर कर रही थी कि पहले लकड़ियों वाली और कोयले की नई कोठरियाँ बनाई जाएं: “वर्ना बारिश आ जाएगी, और तब सूखा ईंधन कहाँ से लाएँगे?”
अपनी विवेक-बुद्धि से तो निकोलाय मिखाइलोविच उससे सहमत था, मगर दिल पुरानी चीज़ों को तोड़ना चाहता था, घर बनाना चाहता था. फिर लकड़ियों और कोयले की नई कोठरियाँ बनाने के लिए सामान भी नहीं था – मिट्टी से तो नहीं ना बना सकते...
 “कहीं पास ही में बनाना पड़ेगा,” और त्यौहार के लिए सजाई गई मेज़ पर ही बुढ़िया ने भुनभुनाना शुरू कर दिया. “मैं दूर तो नहीं जा सकती – मेरे पैर ठीक नहीं हैं...”
 “आप को कोयले के लिए जाने की ज़रूरत ही क्या है?” वलेंतीना आवेश से बोली. “कोल्या है, तेमा भी है.”
 “ए-ए...” आशाहीन, अविश्वास दिखाती गहरी साँस.
निकोलाय मिखाइलोविच और ज़्यादा उदास हो गया, उसने जाम भर दिए:
 “चलो, त्यौहार की ख़ुशी में...”
तात्याना आण्टी की मनोदशा उस तक भी पहुँच गई, उसे हर छोटी-छोटी चीज़ के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया, और बेटे की जल्दी होने वाली शादी के ख़याल रह रहकर अपने भारी पंजों से उसके दिल को दबाए जा रहे थे - आकस्मिक, जल्दबाज़ी की, ग़लत शादी के.
मजबूरन समधियों से कुछ बातें तय करनी पड़ीं, शादी कहाँ होगी – त्यापोवों के आँगन में. आँगन बड़ा है, समतल है; मेज़ें बाहर लानी पडेंगी, सबको बिठाना पड़ेगा (न जाने क्यों समधी सोच रहे थे कि मेहमान बहुत होंगे). कल सुबह शहर जाकर सामान खरीदना होगा, सामान की लिस्ट भी बना ली थी. नोट-बुक के दो पन्ने भर गए थे...
निकोलाय मिखाइलोविच ने गैरेज फ़ौरन बेच दिया, कागज़ात बनाने में क़रीब डेढ़ घण्टा लगा, और अब ड्रेसिंग टेबल की दराज़ में सत्ताईस हज़ार रूबल्स हैं. कल उनमें से कुछ खर्च हो जाएँगे. मगर क्या आज के हिसाब से ये कोई बहुत बड़ी रकम है? एक घनमीटर शहतीर की कीमत, एल्तिशेव ने पता लगाया था - क़रीब डेढ़ हज़ार है. घर के लिए कम से कम पन्द्रह की ज़रूरत पड़ेगी. एक-एक क्युबिक-मीटर की. डेढ़ हज़ार के हिसाब से पन्द्रह की कीमत हुई... बाईस हज़ार पाँच सौ...ठूंठों से लेना बेहतर होगा – सस्ता पड़ेगा. हालाँकि...लोगों से सलाह-मशविरा करना पड़ेगा.
सबसे ज़्यादा अप्रिय बात ये थी कि अब तक ये निश्चित नहीं कर पाए थे कि आर्तेम और उसकी बीबी रहेंगे कहाँ. दोनों पक्षों ने इस सवाल को अनदेखा कर दिया. हंगामा करने से डर रहे थे.
एल्तिशेवों के घर से दो आँगन छोड़कर एक परित्यक्त कॉटेज थी. निकोलाय मिखाइलोविच एक बार वहाँ गया, उसे ग़ौर से देखा, इस उम्मीद से कि उसकी मरम्मत कर लेगा, पहले उसे रहने के क़ाबिल बना लेगा, मगर आशा फ़ौरन ही मिट्टी में मिल गई – फ्रेम का एक कोना पूरी तरह सड़ चुका था और कॉटेज एक ओर को झुक गई थी, किसी तरह धूल मिट्टी पर टिकी थी.
बारह मई को सुबह निकोलाय मिखाइलोविच बेटे को दुल्हन के साथ ज़ाखोल्मोवो ले गया. वहाँ उन्होंने दस्तख़त किए. साथ में वलेंतीना की एक बहन थी, बड़ी उम्र की, पिलपिली-मोटी औरत जिसकी ठोढ़ी पर बाल थे. पूरे रास्ते एल्तिशेव अप्रसन्नता और उत्सुकता से उसकी ओर देख रहा था: “अच्छे रिश्तेदार दिए हैं ख़ुदा ने.” मगर, उसने ऐसा दिखाया नहीं – आख़िर समारोह जो था. मौसम भी ख़ुशगवार था. आसमान बसंत के अनुरूप ऊँचा और साफ़ था, पेड़ नर्म-नाज़ुक हरियाली से ढंक गए थे. गाँव के निकट के चरागाह में गायें जी भरके, महीनों की सूखी घास के बाद, अभी-अभी फूटी घास खा रही थीं. बगीचों में नम धरती को जोतते हुए, ट्रैक्टर चिंघाड़ रहे थे.
त्यापोवों के खुले गेट पर उनका इंतज़ार ही हो रहा था. क़रीब पन्द्रह आदमी थे. निकोलाय मिखाइलोविच की बीबी समधन के पास खड़ी थी, दोनों पूरा मुँह खोलकर मुस्कुरा रही थीं, मगर आँखों में उत्तेजना और चिंता नज़र आ रही थी. वलेंतीना का बाप, जो, स्पष्ट था कि पहली मई के बाद होश में आया ही नहीं था, अकॉर्डियन को ठीक करने में लगा था. उस झुण्ड में एल्तिशेव ने यूर्का को भी देखा, ढंग से कपड़े पहने हुए, ‘शेव’ किए हुए, बीबी के साथ – छोटी सी, सुघड़, जैसे उसने छह बच्चों को जनम ही नहीं दिया हो. अप्रत्याशित रूप से, खारिन परिवार भी था. बाकी लोगों को या तो वह बिल्कुल नहीं जानता था, या उनसे कभी रास्ते में मिला था. ख़ासकर, शायद, दुल्हन के रिश्तेदार थे और उसकी सहेलियाँ.
जैसे ही कार से उतरने लगे, त्यापोव ने अपना अकॉर्डियन बजाना शुरू कर दिया, वह नशीली आवाज़ में गाने लगा:
“उतरा है कोई–तो पहाड़ी से,
 आया है शायद, मेरा प्रीतम प्यारा!...”
और जल्दी से चुप हो गया – गाना उत्सव की भाग-दौड़ में बधाईयों में, चीख़ों में, आलिंगनों में बाधा डाल रहा था.
सब लोग खाने-पीने की चीज़ों और बोतलों से खचाखच भरी मेज़ के चारों तरफ़ बैठ गये. नवविवाहित जोड़ा संजीदा था, कुछ उदास भी. ख़ासतौर से आर्तेम – आँखें नीचे कर लेता था, माँ-बाप की आँखों से आँखें न मिलाने की कोशिश कर रहा था. मगर मेहमान तो दावत का भरपूर लुत्फ उठा रहे थे. हर बार बधाई का घूंट पीकर कोई न कोई मुँह बनाने की कोशिश करता:
 “आपका सॉसेज तो बेहद ती-ई-खा है!”
और बाकी लोग भी तरह तरह की आवाज़ें निकालते हुए उसका साथ देने लगते:
 “ती-ई-खा! ती-ई-खा!”
आर्तेम और वलेंतीना ने उठकर एक दूसरे का चुम्बन लिया. जैसे, कुछ सकुचाते हुए, मुश्किल से. जैसे एक दूसरे के लिए अनजान हों...
इस समय, दुल्हन के माँ-बाप को, उसकी बहनों को ठीक से देखना संभव होने के कारण, निकोलाय मिखाइलोविच उन सामान्य लक्षणों पर ध्यान दे रहा था, जो रिश्तेदारों को एक समान बनाते हैं. वलेंतीना के बाप की पलकें भारी, फूली-फूली थीं; पहले तो एल्तिशेव को लगा कि ये नशे के कारण है, मगर अब देखा कि – ये उनके परिवार में ही है. और गण्डास्थियाँ (गालों के ऊपर की हड्डियाँ) भी एक जैसी थीं – नुकीली, भारी. आदमी के लिए तो ये चल जाता है, मगर औरतों के चेहरे को ख़राब कर देता है. वलेंतीना की दोनों बड़ी बहनें भरी-पूरी, चौकोर सी थीं, माँ पर गईं थीं. वलेंतीना ने तो अपने ‘फिगर’ को बनाए रखा था, मगर ये, हद से हद, पहले बच्चे के जन्म तक ही रह पाएगा. लड़कियों की नाक भी माँ के समान थी – चौड़ी, हल्की मुड़ी हुई. जवानी में तो बड़ी प्यारी लग रही है, शायद, मगर चालीस की उम्र तक... “हुम्, रिश्तेदार, रिश्तेदार”, एल्तिशेव अपने ख़यालों में लगातार यही दुहरा रहा था, और इस समय अपनी बीबी और बेटे उसे असली कुलीनों जैसे प्रतीत हुए.
हर बार जाम पीने के बाद बाप-त्यापोव अकॉर्डियन बजाने लगता, उसे गिरा देता, गुस्सा करता, ख़ुद भी गिरने लगता. फिर वह कुर्सी से उठा, डगमगाते हुए, जैसे हवा में कोई टहनी डगमगाती है, निकोलाय मिखाइलोविच के पास आया.
“कहो, समधी, प्यारे,” कंधों से लिपट गया, “अब अपनी ज़िन्दगी जिएँगे? ऐह, आख़िरी लड़की की शादी कर रहा हूँ, उसे छोड़ रहा हूँ. पियेंगे?”
 “अब और कितना पियोगे?” बीबी ने उसे रोका. “जाओ, जाकर लेट जाओ.”
 “अरे-अरे! आख़िरी लड़की!...और फिर,” त्यापोव ने बीबी की कमर में उँगली गड़ाई, “फिर यहाँ रह जाऊँगा इसके साथ सड़ने के लिए. और इसकी माँ के साथ. बीस साल से मेरे पास रह रही है. मरने के लिए आई थी, मगर...”
बीबी ने अकॉर्डियन-वादक पति को झकझोरा:
 “बार-बार ये हथौड़ा चलाना बन्द करो! औरतें क्या कहेंगी...”
निकोलाय मिखाइलोविच ने सामने पड़े गिलासों में वोद्का डाल दी. जितना हो सकता था, उतने जोश में उसे बुलाया:
 “आ जा, गिओर्गी स्तेपानोविच, सुखद भविष्य के लिए! बच्चों का सब अच्छा ...”
 “व्व्वा-व्वा! ये सही है! बिल्कुल सही है!” और जाम टकराना भूलकर त्यापोव ने गिलास की सारी वोद्का मुँह में झोंक दी.
एल्तिशेव को, हमेशा की तरह, धीरे-धीरे नशा चढ़ रहा था. मगर आज जैसे नशा नहीं चढ़ा, बल्कि मन भारी हो गया. हर जाम के साथ ये मेज़ और ज़्यादा अप्रिय होती जा रही थी, मेहमान – मौक़ा-परस्त, अनावश्यक प्रतीत हो रहे थे. ये देखकर चिड़चिड़ाहट हो रही थी कि यूर्का कैसे लालची की तरह खा रहा है, बिना ब्रेड के, कैसे बाकी लोगों का इंतज़ार न करते हुए, किसी को पेश किए बगैर अपने गिलास में वोद्का डाले जा रहा है और गटक रहा है, गटक रहा है... “दिमाग़ सरक गया है”. मौसम के कारण पैदा हुई ख़ुशी चिड़चिड़ाहट पैदा कर रही थी:
 “कैसा अच्छा—आ मौसम है! ये अच्छा शगुन है: ख़ुदा हमारी शादी को धूप का आशिर्वाद दे रहा है!”
 “हाँ-हाँ! मौसम – लाजवाब है, क्या कहना!...”
निकोलाय मिखाइलोविच ने कोट की जेब में सिगरेट टटोली. वह गेट की ओर गया. लकड़ी के मोटे फट्टे से बन्द डिब्बे में कुत्ता गुरगुरा रहा था. “कुत्ता पालना चाहिए,” दिमाग़ में विचार कौंध गया, “रात को कार बिना निगरानी के रहती है. किसी दिन...”
मेज़ पर फिर से हंगामा होने लगा था:
 “ती-ई-खा! ती-ई-खा!”
आर्तेम और वलेंतीना थकावट से उठे, बिना आलिंगन किए, होठों के किनारों से एक दूसरे का चुम्बन लिया. मेहमानों ने तालियाँ बजाईं, गिलासों की खनखनाहट होने लगी. “शादी की पहली रात वे कहाँ बिताएँगे?...”
 “निकोलाय मिखाइलोविच,” खारिना का पति सामने खड़ा था, ऊँचा, सूखा-सड़ाक, बिल्कुल गाँव के आदमी जैसा नहीं लगता था, जिस पर चश्मा अच्छा लगता. (मगर, वह तो वाक़ई में शहर से है, एल्तिशेव को याद आया.) – “सिगरेट नहीं पिलायेंगे?”
एल्तिशेव ने सिगरेट पेश कर दी.
 “और लाईटर...”
“नंगे, कफ़ल्लक”, एल्तिशेव को याद आया कि ड्यूटी पर सार्जेंट्स अक्सर यही कहा करते थे.
 “वो, पॉवर-आरी का क्या हुआ?” उसने पूछ लिया.
 “वो कंटेनर आ ही नहीं पा रहा है!” खारिन फ़ौरन प्रतिरोध करने लगा. “हर रोज़ फोन करते हैं, झगड़ा करते हैं. कहीं खो न गया हो.”
 “मैं तो नींव खोदने ही वाला था. इन नौजवानों को रहने के लिए जगह तो देनी पड़ेगी ना....घर बना रहा हूँ.”
 “हाँ-हाँ, सही है. और आप क्या हाथों से खोदेंगे? मैं ट्रैक्टर वाले से बात कर लेता हूँ. ज़ाखोल्मोवो में मेरा एक दोस्त “बेलारूस” में काम करता है. हाँ? आधे घण्टे का काम है.”
 “कितने पैसे लगेंगे?”
खारिन ने ‘नर्वस’ होकर कंधे हिला दिए:

 “वैसे कह नहीं सकता. बात करेंगे...क़रीब दो सौ में, शायद, पटा लेंगे.”

सोमवार, 26 जनवरी 2015

Eltyshevi - 08

अध्याय – 8


आधा अप्रैल बीत चुका था. माँ-बाप आलू की बुआई करने में, गार्डन को ठीक-ठाक करने में व्यस्त थे, मगर तात्याना दादी ने कहा कि अभी ये बहुत जल्दी होगा, अभी और ठण्ड पड़ेगी, बर्फ़ भी पड़ेगी. माँ को विश्वास नहीं हुआ, उसने पड़ोसनों से बात की, उन्होंने भी इस बात की पुष्टि की: “ दस मई के आसपास बुआई करेंगे. खीरे, टमाटर तो और भी देर से – जून में...तू क्या, भूल गई?” माँ ने अनमनेपन से कंधे उचका दिए: “शहर में, शायद, कुछ जल्दी ही करते हैं...” “ऐह, शहर में!  शहर में सब दूसरी तरह से होता है.”
पिछले कुछ समय से आर्तेम माँ-बाप की नज़रों में कम ही पड़ने की कोशिश करता था. जब आर्तेम ने जल्दी शादी करने के बारे में बताया, तो दूसरे ही दिन माँ-बाप त्यापोवों से मिलने पहुँच गए. ऐसा लगता है कि माँ वलेंतीना के माँ-बाप को जानती थी – वे उससे कुछ ही बड़े थे, - मगर उनकी जान-पहचान, जो दसियों साल पहले छूट गई थी, दोस्ती की वजह न बन सकी. गेट के पास ही बातें करते रहे, ये निश्चित कर लिया कि वलेंतीना गर्भवती है, क़रीब तीसरा महीना चल रहा है. उन्होंने अपने सिर हिलाए, भारीपन से आर्तेम और उसकी दुल्हन की ओर देखा...
अंकल गोशा जो, बेशक, पीने का शौकीन था, चहका कि बैठना चाहिए, जान-पहचान के नाम पे पीना चाहिए, मगर उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. मतलब, ऐसा दिखाया, कि नहीं सुना.
 “रजिस्ट्रेशन कौन सी तारीख को है?” निकोलाय मिखाइलोविच ने पूछा.
आर्तेम ने वाल्या पर नज़र डाली, ख़ुद जवाब देने का ख़तरा नहीं मोल लेना चाहता था.
 “बारह मई को,” उसने कहा.
 “क्या तुम लोगों की अकल घास चरने गई है, जो मई में शादी करने चले?!” वलेंतीना विक्तोरोव्ना ने हाथ नचाए.
 “बात क्या है?” भावी समधन भड़क गई.
 “मई में शादी - ज़िन्दगी की बरबादी.”
 “चलो, सब ठीक है...”
 “क्या – ठीक है? क्या सब्र से नहीं शादी करवा सकते?...” वलेंतीना चीखी. “और जाँच भी करवानी पड़ेगी, किससे है ये...”
किसी चमत्कारवश ही झगड़ा होते-होते बचा.
आर्तेम माँ-बाप के पीछे-पीछे घिसट रहा था और सोच रहा था. उसके दिमाग़ में ठीक वैसे ही ख़याल आ रहे थे, जैसे गाँव में आने की पहली सुबह को आये थे, कि भाग जाए. कहीं भी, कैसे भी. इन दिनों कुछ ख़ौफ़नाक सा हो रहा है. मगर जाए कहाँ और इसके लिए पैसा कहाँ से लाए? शहर तक जाने के लिए बस के किराए के भी पैसे नहीं हैं...मगर, बेइन्तहा दिल चाह रहा था अपने कमरे में जाने के लिए, अकेले, अपने पलंग पर, जिसके पुर्जे अभी गर्मियों वाले किचन में बन्द पड़े हैं, धूल खा रहे हैं...
अकेले....नहीं, अब अकेला जाना संभव नहीं होगा. फँस गया. ख़ुद ही चाहता था, हालाँकि डरता भी था, और अब – फँस गया.
वाल्या के साथ वो पहली मुलाक़ातें, वो पहला डान्स... उसे एक एक बात याद है. क्रिसमस-ट्री पर लगाए गए रंगीन बल्बों की रोशनी में, जो संगीत के साथ अपना रंग बदल रहे थे, वह बड़ी प्यारी और जवान लग रही थी. आर्तेम ने उसे डान्स के लिए पूछा, उसे थोड़ा अचरज हुआ, और इस अचरज में सहमति भी थी और थी तत्परता, किसी बड़ी चीज़ के लिए...तब आर्तेम को इससे ख़ुशी हुई थी. और फिर, जब ठण्ड में, किसी गली में, एक दूसरे की बाँहों में उन्होंने एक दूसरे को चूमा तो वह अपने आप को भाग्यवान समझने लगा.
वलेंतीना गाँव की सीमा पर रहती थी, दो क्वार्टर्स वाले एक घर में, जो कुछ साल पहले जल गई सिलाई-कारख़ाने के मलबे से कुछ ही दूरी पर था. केन्द्र से काफ़ी दूर - जहाँ एल्तिशेव रहते थे. मगर उन नृत्यों और चुम्बनों के बाद आर्तेम क़रीब-क़रीब हर रोज़ वाल्या के घर के पास जाता, खिड़कियों के नीचे घूमता. ठिठुरन से ऐंठता, अपने पैरों की बर्फ बन चुकी उँगलियों को दबाता-खोलता. वाल्या को पुकारने की हिम्मत न करता, मगर कभी-कभी वह उसे देख लेती और निकलकर बाहर आती. गार्डन की फेन्सिंग के टूटे हुए फट्टों के पास खड़े रहते, किसी तनाव में बातें करते, एक दूसरे की आदत डालते, और आर्तेम की सर्दी भाग जाती. उल्टे, वह गर्मी से परेशान हो जाता.
वे क्लब में भी मिलते. (गाँव में कोई और जगह ही नहीं थी जाने के लिए.) लोगों के सामने वाल्या आर्तेम के साथ ऐसे पेश आती जैसे वह उसका प्रशंसक हो – उसका हाथ अपने हाथ में लेती, गर्माहट भरी मुस्कुराहट से उसकी ओर देखती, हमेशा उसके साथ डान्स करने के लिए तत्पर रहती. लड़के – बोल्त, वीत्सा, ग्लेबिच – आर्तेम को आँख मारते, अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराते.
जब वाल्या के बगैर एक बार पोर्च में मिले तो ग्लेबिच ने पूछा:
 “तो, लड़की पटाई या नहीं?”
आर्तेम को वाल्या की आदत हो गई थी, हो सकता है, वह उससे प्यार भी करता था. इसलिए ऐसे शब्दों से उसे अपमान लगा.
 “किस लिहाज़ से?”
 “अरे, उसने अपने आप को दिया या नहीं?” और ये देखकर कि आर्तेम का चेहरा कैसे विकृत हो गया है, ग्लेबिच ने अपना लहजा बदल दिया: “नहीं, वो लड़की नॉर्मल ही है. कमज़ोर है उस बात...ठीक है, त्यामा, चल, चलते हैं.”
मुड़े-तुड़े प्लैस्टिक के गिलासों में स्प्रिट डाला गया, लड़के इस बारे बहस कर रहे थे कि डान्स के बाद क्या किया जाए: “तालाब के पास अलाव जलाएँ, कुछ देर बैठेंगे”. – “चलो, बस आलुओं की ज़रूरत है.”  “हाँ, आलू भूने-एंगे!” और आर्तेम थोड़ा शांत हुआ. कुछ देर उनके साथ खड़ा रहा, थोड़ा सा स्प्रिट पिया और चुपचाप वापस क्लब में लौट आया.
आधे अँधेरे में वाल्या को निहारता रहा. वह बेंच पर बैठी हुई लड़कियों से बातें कर रही थी; उन्होंने उससे कुछ पूछा, वह हँस पड़ी और सिर हिलाया; सुनहरी घुंघराली लटें हिल रही थीं, उसने कुछ देर सोचा और  जवाब देने लगी. चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह किसी बात का समर्थन कर रही है. “कहीं मेरे बारे में तो नहीं?” आर्तेम ने सोचा, और उसका दिल डूबने लगा; जैसे उसने सुना कि वह उनके भेद खोल रही है. “खोलने जैसा है ही क्या?” उसने आप पर काबू किया. “कुछ नहीं.”
ख़ूबसूरत म्यूज़िक गूंज उठा, किसी औरत की भर्राई हुई आवाज़ अंग्रेज़ी में गा रही थी. कोई भी डान्स नहीं कर रहा था – गाँव में धीमे म्यूज़िक को कोई पसन्द नहीं करता, और वैसे भी आम तौर से डान्स करते समय लड़के लड़कियों से बातें क़रीब-क़रीब नहीं करते हैं, जैसे कि वे एक दूसरे को देख ही न रहे हों. मगर इसके बाद, जब क्लब बंद हो जाता है, तो वे जोड़ियाँ बना-बनाकर कहीं कहीं चले जाते हैं.
ऐसा ही इस शनिवार को भी हुआ. वाल्या और आर्तेम साथ-साथ चल पड़े. उसके घर की ओर. मौसम ठण्ड़ा था, सूरज की रोशनी में पिघल चुकी बर्फ, जो अब फिर से जम गई थी, पैरों के नीचे कर्-कर् कर रही थी; गेट के पीछे कुत्ते भौंकते, मगर फ़ौरन ही ये इत्मीनान करके कि लोग बगल से जा रहे हैं, फिर से ख़ामोश हो जाते.                  
 “वाल्,” आर्तेम से रहा न गया, उसने उसे रोक लिया, उसका मुँह अपनी ओर घुमाकर बोला, “मैं तुम्हारे साथ...तुम्हें हासिल करना चाहता हूँ.”
वह संजीदगी से मुस्कुराई.
 “थोड़ा रुको.”
 “रुको, मतलब?”
 “चलो, चलते हैं.”
आर्तेम फिर से उसे रोकना चाहता था, बाँहों में लेकर चूमना चाहता था, मगर उसने कुछ और का वादा किया था. और वह वाल्या के पीछे-पीछे चल पड़ा.
गेट के पास उसने कहा:
 “कुछ देर यहाँ रुको, मैं पता करती हूँ...”
“क्या पता करना है?” आर्तेम चिढ़कर पूछने ही वाला था. मगर नहीं पूछा, फेन्सिंग से टिककर ख़ामोशी से खड़ा हो गया, तालाब के सफ़ेद धब्बे के पीछे घरों के काले धब्बे, बीच-बीच में झलकती खिड़कियों की पीली और नीली चौखटें देखता रहा. चारों ओर ख़ामोशी और मुर्दनी छाई थी, और, ऐसा लग रहा था कि पूरी धरती पर ऐसा ही है – ठण्डा, ख़ामोश, निर्जन. कैसी पीड़ा...अगर लड़की से शीघ्र निकटता की संभावना की उम्मीद न होती, तो आर्तेम नीचे बैठकर बिसूरने लगता. फिर करवट के बल गिर जाता, आँखें बन्द कर लेता और हौले से, ख़यालों में गर्मियों की, शहर के किसी चौराहे की कल्पना करते हुए, जम जाता.
आँगन के भीतर कोई दरवाज़ा हौले से चरमराया, फिर सख़्त बन गई बर्फ करकराई, और वाल्या की फुसफुसाहट सुनाई दी:
 “जा, बूथ में जा! जा-जा जल्दी! अरे, त्रेज़र...” और उसी तरह फुसफुसाते हुए बोली, “आर्तेम, आ जाओ.”

वह भीतर गया, यह देखने की कोशिश करते हुए कि वाल्या कहाँ है, कुत्ते का बूथ कहाँ है...
 “ बाथ-हाऊस की तरफ़ जाओ,” उसने फुसफुसाहट भरी आज्ञा दी. “सीधे, वहीं दरवाज़ा है.”
आँगन में बर्फ की करकराहट हुई. पीछे-पीछे वाल्या के क़दम, जंजीर की खनखनाहट और कुत्ते की कूँ-कूँ.
 “खामोश, कहा न मैंने!...”
बाथ-हाऊस के ड्रेसिंग-रूम में काफ़ी गर्माहट थी, शैम्पू की, जली हुई बर्च की पत्तियों की, गीली लकड़ी की गंध आ रही थी...आर्तेम ने तीव्र उत्तेजना का अनुभव किया. खड़ा होना भी मुश्किल लग रहा था; उसने अंधेरे में टटोलकर बेंच ढूँढ़ी और बैठ गया...
वाल्या उछली, दरवाज़े की जंज़ीर लगा दी.
 “लाईट नहीं जलाएँगे,” उसने हौले से कहा, जैसे घर वाले उसकी बातें सुन लेंगे.
 “यहाँ कहीं मोमबत्ती है...अभी...तब तक कपड़े उतार दो...”
तब से यह ड्रेसिंग-रूम ही एक ऐसी जगह बन गई, जहाँ वे निकट आते. अक्सर तो उसमें ठण्डक रहती (बाथ-हाऊस को सप्ताह में एक बार गरम किया जाता था), इसलिए कपड़े नहीं उतारते थे. आर्तेम जीन्स उतार देता, और वाल्या स्कर्ट को सीने के पास इकट्ठा कर लेती...
मगर तब भी, जब ड्रेसिंग-रूम में गर्माहट होती और काफ़ी आरामदेह लगता, आर्तेम लड़की को निर्वस्त्र अवस्था में कभी न देख पाया – वह लाईट नहीं जलाती थी, सब कुछ छोटी सी मोमबत्ती की पीली लौ में होता.
दोनों के माँ-बाप की मुलाक़ात भी, जिसने उनकी दूल्हा-दुल्हन की भूमिका पर लगभग कानूनी मुहर लगा दी थी, उनकी मुलाक़ातों के तरीके को बदल नहीं पाई थी. ड्रेसिंग-रूम के अलावा और कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहाँ सिर्फ ‘सेक्स’ के लिए मिलना संभव था: वाल्या के बिना दरवाज़ों वाले तीन कमरों में चार लोग रहते थे – उसके अलावा माँ, बाप और अस्सी साल की दादी. गर्मियों में वाल्या की बहनें अपनी लड़कियों को लेकर आ जाती थीं, और वैसे वे ख़ुद भी अक्सर आती जाती रहती थीं; उस समय वाल्या को बरामदे में सोना पड़ता था. आर्तेम ने कभी उसे अपने घर ले जाने के बारे में कहा ही नहीं. वह, बेशक, गर्मियों वाले किचन को एक कमरे में बदलना चाहता था, उसे अपना कमरा बनाना चाहता था; मगर समझता था कि ये सिर्फ ख़्वाब है: वह ख़ुद न तो मरम्मत कर सकता था, न कुछ निर्माण कर सकता था और न ही किसी तरह के परिवर्तन कर सकता था, बाप तो, उसकी जल्दी ही होने वाली शादी के बारे में जानकर उदासीन हो गया था, आर्तेम की तरफ़ ज़रा भी ध्यान नहीं देता था. जैसे आर्तेम ने उसके साथ विश्वासघात किया है...
एक बार जल्दबाज़ी और सावधानीपूर्ण निकटता के बाद, जब वे बेंच पर एक दूसरे की बगल में बैठे थे, आर्तेम ने पूछ लिया...ये उसके माँ-बाप के त्यापोवों के घर आने के क़रीब पाँच दिन बाद की बात है...
 “वाल्या, क्या तेरे बहुत सारे दोस्त थे?”
 उसे न जाने क्यों विश्वास था कि वह इस सवाल का बुरा मान जाएगी, मगर उसे पूछे बिना वह रह नहीं पाया – छोकरों की व्यंग्यात्मक हिनहिनाहट और तात्याना दादी के चुभते हुए कमेन्ट्स उसे चैन नहीं लेने दे रहे थे.   
 “हाँ, बहुत सारे,” शांत आवाज़ में उसने कहा. “क्या तेरे कान भर दिए?”
 “हाँ...क़रीब-क़रीब...और, जानती हो...” शब्दों का चुनाव करते हुए आर्तेम की ज़ुबान लड़खड़ा गई, “जानना चाहता हूँ...जल्दी ही शादी है, और...हो सकता है, क्या शादी के बाद भी तेरा किसी और के साथ होगा ? या फिर,  कैसे? तुझसे मुलाक़ात होने तक मेरा तो किसी लड़की से लफ़ड़ा नहीं था...तो, होने को तो इत्तेफ़ाकन कुछ भी हो सकता है. और फिर वो...”
 “समझ सकते हो कि मेरे साथ भी इत्तेफ़ाक़न ही हुआ,” वाल्या ने उसकी बात काटी. “कई सारे इत्तेफ़ाक. शहर में उनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता, मगर यहाँ तो सब एकदम...चारों ओर बात फैल जाती है. लोग ‘बोर’ हो गए हैं, बस, नमक-मिर्च लगाकर दूसरों की बातें सुनाते हैं.” उसने वाशिंग मशीन से कोई चीथड़ा उठाया, अपने अंग को साफ़ किया; आर्तेम के माथे पर बल पड़ गए, उसने नज़रें दूसरी तरफ़ फेर लीं. “इसके बगैर कैसे? मुझे ‘सेक्स’ अच्छा लगता है, मैं अपना परिवार चाहती हूँ, बच्चा चाहती हूँ. और ये इत्तेफ़ाक...नहीं,” उसकी आवाज़ कठोर हो गई, “ये इत्तेफ़ाक नहीं हैं – मैंने झूठ बोला था. सब के साथ, जिनसे निकटता बढ़ाई, ज़िन्दगी भर के लिए जाने को तैयार थी. मगर...संक्षेप में, या तो उन्होंने मुझे छोड़ दिया, या वे जेल चले गए, या उन्हें मार डाला गया. हमारे यहाँ बहुत सारे लोगों को मार डालते हैं. ख़ास तौर से गर्मियों में. मेरे दो दोस्तों को मार डाला गया...कई चले भी जाते हैं. लड़कियाँ भी चली जाती हैं, कईयों की शादी हो जाती है. और यहाँ भी शादियाँ करते हैं, बल्कि, सब ठीक-ठाक ही हो जाता है. मगर मेरे साथ कुछ न हो सका. मैं कहीं गई भी नहीं, कोशिश तो की थी... बहनें शहर में बस गई हैं, मगर मेरी मदद... ख़ैर, उनके पति हैं, बच्चे,क्वार्टर्स छोटे-छोटे हैं...”
“आ-आ...” वाल्या ने चीथड़ा वापस फेंक दिया, मुस्कुराकर आर्तेम से बोली. “क्या, कपड़े पहन लें या और?”


किसी अतृप्त वासना से, ख़ामोशी से, आर्तेम उस पर चढ़ गया. दुल्हन पीठ के बल संकरी बेंच पर लेटी थी, उसने पैर समेट लिए.