अध्याय – 26
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना एल्तिशेवा इस पते
पर रहती है: गाँव मुरानोवो, सेंट्रल स्ट्रीट, हाऊस नं. 28. अकेली रहती है, किसीसे
बात नहीं करती, मगर पूरे-पूरे दिन गेट के पास वाले ठूँठ पर बैठी रहती है. ये ठूँठ ही उसके
लिए बेंच का काम करता है. सुबह सड़क पर आ जाती है, शाम को आँगन के भीतर लौट आती है.
वह लम्बे-लम्बे, खाली दिन कैसे काटती है,
क्या सोचती रहती है, किसलिए जीती है, शायद, किसी को इसमें दिलचस्पी नहीं है. हाँ, उसके
अलावा भी गाँव में बहुत सारी वैसी ही अकेली बूढ़ी औरतें हैं. कुछ तो उमर में उतनी
बूढ़ी नहीं हैं, मगर उनका जीने का तरीक़ा बिल्कुल बुढ़ियों जैसा है. गेट के पास बैठी
रहती हैं, सामने की ओर देखती रहती हैं, या तो अपने विगत को याद करती हैं, या फिर
अपने अंत का इंतज़ार करती हैं.
महीने में एक बार पोस्टमैन आकर पेन्शन दे
जाता है. पेन्शन की राशि धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, मगर ये सच है कि वलेन्तीना
विक्तोरोव्ना को इससे ख़ुशी नहीं होती है. हाँ, और दुकानों में हर चीज़ की कीमत बढ़ती
जाती है. खाने-पीने का सामान लाने के लिए वह कभी-कभार ही निकलती है, दालें ब्रेड,
डिब्बा बन्द चीज़ें ख़रीदती है; सेल्स-गर्ल्स को मालूम है कि उसे मिल्क-चॉकलेट बहुत
पसन्द है. उसका गार्डन क़रीब-क़रीब पूरा जंगली घास-फूस से भरा है, सिर्फ कॉटेज की ओर
के एक छोटे से पट्टॆ में आलू बोए हैं और दो-तीन क्यारियाँ हैं. वलेन्तीना
विक्तोरोव्ना का पति छोटे बेटे की मौत के छह महीने बाद चल बसा. मौत से पहले शिकायत
करता रहता था कि सिर में भिनभिनाहट हो रही है. “जानती हो,” वह कहता, “जैसे खम्भे
में करन्ट बह रही हो. बचपन में सुना करते थे...” वह मार्च के आरंभ में मर गया.
ड्योढ़ी में निकला, कुछ देर खड़ा रहा और ज़मीन पर गिर पड़ा. वहीं, जहाँ साल भर पहले
बड़ा बेटा गिरा था. फ़ौरन मर गया...शहर में नहीं ले गए, पोस्टमॉर्टम नहीं किया.
मैनेजर की सहायता से दूसरे दिन दफ़ना दिया. बिना किसी मेमोरियल सर्विस के.
कार वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने एक स्थानीय
निवासी को उसी बसंत में बेच दी, जिसके पास भी उसी मॉडॆल की ‘मस्क्विच’ ही थी.
“अब ये बनाते नहीं हैं,” उसने ख़रीदने का कारण
समझाते हुए कहा, “स्पेयर-पार्ट्स के लिए काम आएगी.” अपनी गाड़ी के पीछे बांधकर
खींचते हुए घर ले गया.
उसी शाम को वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के पास
क़रीब बीस साल के छोकरे आए, पाँच हज़ार माँगने लगे (उसने कार दस हज़ार में बेची थी).
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना गुस्सा हो गई.
“देखो, आण्टी,” छोकरे बोले, “बिना पैसे के और
बिना कॉटेज के रह जाएगी.”
देना ही पड़ा...इसके बाद भी कई बार आते
रहे, पेन्शन वाले दिन आ जाते, पैसे ले लेते, मगर थोड़े ही लेते – सिर्फ बोतल के
लिए.
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना स्प्रिट नहीं
बेचती – अब, ऐसा लगता है, कि किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है. अगर उसका बस चलता, तो
वह जल्दी से मर जाती. मगर ऐसा कर नहीं सकती, इसलिए जिए जाती है...
गाँव में रोज़गार की हालत बेहतर हो गई – कई
सारे तजिक लोग आए और निर्वासित खेतों को लीज़ पर ले लिया. उन्हें जोता, उनमें आलू
बोए. इसके लिए स्थानीय मज़दूर किराए पर रखे. फिर मुंडेरें बनाने के लिए, रखवाली
करने के लिए रखे. अगस्त में – खोदने के लिए. पैसे ठीक-ठाक ही देते थे. ये सच है कि
कुछेक मज़दूरों का थोड़े दिनों बाद हिसाब कर देते थे – “आलसी लोग नहीं चाहिए”, वे
बुरा मान जाते, भद्दी गालियों से धमकाते. मगर बड़े पैमाने पर अप्रिय घटनाएँ नहीं
हुईं. अधिकांश लोगों के लिए खेतों में काम करना जीने का सहारा बन गया – कई सालों
में पहली बार हाथों में कुछ ढंग का पैसा आया था. आलू को तजिक लोग अपने साथ
तजिकिस्तान ले गए. वहाँ, कहते हैं कि आलू की पैदावार अच्छी नहीं होती, ऊपर से वो
महंगा भी होता है...अगले साल फिर से खेतों को लीज़ पर लिया.
मगर, आम तौर से, गाँव वैसा का वैसा ही रहा
– उनींदा, निर्धन, जैसे कि अभी बस मिट्टी के ढेर में बदलने ही वाला है, ग़ायब होने
वाला है, मगर किसी करिश्मे की बदौलत ही अपने अस्तित्व को बनाए हुए है.
क्लब पूरा बन ही नहीं पाया. कई बार मशीनें
लाई गईं, सामान लाया गया, दो-तीन दिन ज़ोर-शोर से काम चलता, मगर फिर – फिर से ख़ामोशी,
और शाम को नज़र आतीं चलती-फिरती परछाईयाँ, ये ढूँढ़ती हुई, कि कोई उपयोगी चीज़ मिल
जाए तो ले जाएँ.
पिछले से पिछले साल की सर्दियाँ बेहद
बर्फ़ीली रहीं, कॉटेजेस छत तक बर्फ में दब गईं, सड़क पर यातायात बार-बार प्रभावित
होता रहता, बर्फ को ग्रेडर से साफ़ करना पड़ता.
मौसम विभाग ने बसंत का मौसम ख़ुशनुमा होने
का वादा किया था, और, बाढ़ के ख़तरे को देखते हुए (कम से कम, यही स्पष्टीकरण दिया
गया), तालाब को ख़ाली करने का फ़ैसला किया गया. किसी किसी ने विरोध प्रकट किया, मगर बिल्कुल
मरियल अन्दाज़ में, क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनकी बात सुनी नहीं जाएगी.
मार्च के मध्य में, जैसे ही बर्फ पिघलने
लगी, बांध तोड़ दिया गया. फ़ौरन मर्द, बच्चे, और कुछ औरतें भी बाल्टियाँ, जालियाँ,
सब्बल ले-लेकर तालाब की ओर भागे. कुछ लोग बांध के नीचे मछलियाँ ढूढ़ रहे थे, कुछ और
लोग झरनों के ऊपर जमी बर्फ तोडकर हटा रहे थे – वहाँ हमेशा उसकी पतली परत होती थी,
मछलियों को जालियों में या फिर हाथों में ही पकड़ने की कोशिश कर रहे थे. मछलियाँ
पकड़ने की ये प्रक्रिया क़रीब महीना भर चलती, हालाँकि इसमें ज़्यादा कुछ हासिल नहीं
होता था, इसके बाद, जब छिछला पानी, मुरान्का नदी का मुहाना, खुल जाता, तो
छोटी-छोटी मछलियों को बोरों में भर-भरकर ले जाने लगे. उन्हें खाया, फ्रिज में,
आईस-बॉक्सेस में ठण्डा किया, और ज़्यादतर बेच दिया.
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के पास भी मछली
बेचने के लिए आए. पहली बार तो उसने मना कर दिया, फिर इशारों-इशारों में उससे बोले:
बेहतर है कि ख़रीद लो, अपमानित न करो, क्या पता क्या कर दें. पीने के लिए तो करना
ही पड़ता है. उसने एक बार ख़रीदी, फिर और भी...
गर्मियाँ आते-आते तालाब किनारों तक भर
गया, मगर अगले साल घास-पात से, सरकंडों से लबालब भर गया. मछली बिल्कुल भी नहीं बची
– आदमियों ने जाल लगाए, उसमें दो-एक छोटी मछलियाँ फँसीं, मगर बन्सी से तो कोई भी
नहीं हिलगी.
“कोई बात नहीं, होता है,” ख़ाली हाथ घर लौटते हुए
मछुआरे कहते, और पिछली साल के मछलियों के बोरों को याद करके मिठास भरे दुख से गहरी
साँस छोड़ते.
ऐसा लगता था कि वलेन्तीना विक्तोरोव्ना की
ज़िन्दगी एकदम ख़ाली थी. ऐसा दूर से देखने पर प्रतीत होता था. कभी-कभी गेट के पास
बैठी वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के पास पडोसनें आ जाती थीं, परिचित, जवानी के दिनों
की सहेलियाँ, बात करने की कोशिश करतीं, ज़्यादातर बोरियत के मारे, न कि सहानुभूति
के कारण, उसके बेटों के दुर्भाग्य पर दुख प्रकट करतीं और साथ ही, रूखेपन से, पति
के बारे में भी, जिसे वे पसन्द नहीं करती थीं. कई बार खारिन की विधवा भी उसके पास
आकर रुकी, हिचकियाँ लेते लेते फुसफुसाई:
“बै-ठी-हो? बैठ-बैठ...मुझे मालूम है कि मेरे
मर्द को जंगल में किसने मार डाला. मा-लू-म है. देखो, बदला मिल गया. अब ख़ुश हो जा.
मेरे आँसुओं ने बदला ले लिया...”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना न तो सहानुभूति
पर, न ही दोषारोपण पर ध्यान देती थी. अपने सामने किसी अदृश्य चीज़ को देखती रहती.
मगर दिमाग़ में निरंतर, ख़ास तौर से शाम को,
जब सोने की कोशिश करती, कैसेट की तरह, ज़िन्दगी खुलती जाती. बिल्कुल बचपन से, जब
काँच की गोलियों से खेला करती थी यहीं पर, जहाँ अभी बैठी है, उस पतझड़ तक जब सीने
में लोहे का चाकू घुसे डेनिस को पड़ा देखा था. इसके बाद हर चीज़ ग़ैर ज़रूरी हो गई, हर
चीज़ ने अपना विचार और मतलब खो दिया. पति की मौत पर भी उसे लगभग ईर्ष्या ही हुई –
उसकी पीड़ा तो ख़त्म हो गई, मगर मुझे तो ये घृणास्पद बोझ न जाने और कब तक ढोना है...
उसे पता नहीं था कि निकोलाय भी कुछ दिन पहले मर चुके लोगों से ऐसी ही ईर्ष्या करता
था...
वह मौत की राह देख रही थी, उसे बुला रही
थी, मगर साथ ही नियमित रूप से इन्जेक्शंस भी ले रही थी, जब समय पर इन्सुलिन नहीं
लाते थे तो गुस्सा भी करती थी: उसने यह सुविधा प्राप्त कर ली थी कि अकेली डिसेबल्ड
होने के कारण दवाएँ उसे घर पर पहुँचाई जाएँ. अपने आप पर गुस्सा करती, कड़वाहट से
मुस्कुराती – जीना चा-हती है” – मगर फिर भी अब अनावश्यक हो चुकी ज़िन्दगी को बढ़ाए
जाती. दिमाग़ में किन्हीं चिन्हों को, किन्हीं झरोखों को ढूँढ़ने की कोशिश करती, जो
उसके धरती पर होने की सार्थकता को लौटा सकें.
अपनी बहू और पोते के पास वह नहीं जाती थी.
आर्तेम के उनसे दूर होने और अपने परिवार के टूटने में वह त्यापोवों को ही पहले की
तरह प्रमुख दोषी मानती थी; रोदिओन, हालाँकि पोता है, एल्तिशेव परिवार का अंतिम
चिराग है (हो सकता है, कहीं, कोई और भी हो, मगर उनसे क्या लेना देना?), मगर...वलेन्तीना
विक्तोरोव्ना दिल से इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती थी कि वह – उनका है, कि वह –
उसका अपना नन्हा इन्सान है.
ख़यालों में उसी बात को दुहराती जिसे
दसियों बार अपने आप से और और औरों के सामने भी दुहरा चुकी थी: वलेन्तीना का
पेटर्निटी-टेस्ट करवाना कहीं संभव नहीं हुआ, गाँव के सारे छोकरों के साथ सो चुकी
थी, और ताज़ा-तरीन, अपने क्वार्टर के छिन जाने से, इस अंधेरी कॉटेज में आगमन से ख़ौफ़
खाए हुए आर्तेम को फाँस लिया. और क्या, ऐसी औरत, एक पति के मिल जाने पर ख़ामोश बैठ
सकती है? कोई भी पुराना यार गली में मिल जाए, उसकी स्कर्ट खींचे, तो वह बिछ
जाएगी...आर्तेम ख़ुद भी कहता था, कि उस पर शक करने की वजह तो थी, वह भाग कर कहीं
चली जाती, उसके साथ सोने से इन्कार करती. इसीलिए उसने संबंध तोड़ लिए थे, यहाँ लौट
आया था, मगर फिर से...
ऐख़, आर्तेम, आर्तेम, ख़ुद भी उलझ गया, और
उन्हें भी परेशान किया, दुख दिया. सब उलट-पुलट हो गया, और अब एल्तिशेव परिवार का
नामोनिशान ही नहीं बचा...तीन मर्द – और वो भी कैसे मर्द! – साल भर में...
एक दिन किसी पड़ोसन से, किस पड़ोसन से, याद
नहीं रहा, और उसने ध्यान भी नहीं दिया, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने सुना कि उसकी
समधन मर गई है. “दफ़न-विधि कल है. मैं ताबूत के पास थोड़ी देर बैठी थी – पहचानी नहीं
जा रही थी” – आवाज़ भिनभिना रही थी. “सूख कर एकदम ठूँठ हो गई थी. क्या करें,
कैन्सर...”
ऊपर से तो वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने यह
समाचार उदासीनता से सुना, अनमनी नज़रों से कहीं दूर देखते हुए, सिर्फ सिर हिला
दिया. मगर उस पल से उसके भीतर वहाँ जाकर पोते को देखने की इच्छा बढ़ने लगी. जैसे
किसी बन्द दरवाज़े का ताला खुल गया था. इस इच्छा से लड़ती रही, मन में बहू के प्रति
कड़वाहट की आग को हवा देती रही, त्यापोवों द्वारा किए गए अपमानों को याद करती रही –
कितनी शत्रुता के भाव से नन्हे रोदिक को कुछ देर खिलाने की इजाज़त देते थे, जैसे
मेहेरबानी कर रहे हों; कैसे आर्तेम को उनके पास, शायद, पैसों के लिए, भेजते थे –
“ख़ुद काम नहीं करता है ना, तेरे माँ-बाप को मदद करनी चाहिए”. कितनी सारी बातें याद
आईं, मगर जितना ज़्यादा सोचती रही, उनके यहाँ जाने की इच्छा उतनी ही तीव्र होती गई.
दो दिन वह छुट्टियों वाली ड्रेस पहनकर
तैयार होती रही, होठों पर लिपस्टिक भी लगाई, मगर अपने आप को रोक लिया. तीसरे दिन
गई. सुबह. रास्ते में दुकान से ‘असोर्ती’ चॉकलेट्स का डिब्बा ख़रीदा.
रास्ता बहुत लम्बा और कठिन लग रहा था.
पहले तो वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने सोचा कि ऐसा इसलिए लग रहा है, क्योंकि उसे अब
चलने की आदत नहीं रही – कितने ही दिनों से दुकान से आगे कहीं गई ही नहीं थी – मगर
फ़िर उसने ग़ौर किया कि उसके क़दम भी छोटे-छोटे पड़ रहे हैं, बिल्कुल बुढ़ियों जैसे.
शक्तिहीन क़दम.
शायद डर गई, और फ़ौरन आह्वान-सा देते हुए
अपने आप से पूछा: “और, ये क्या है? इस सब के बाद तू आख़िर चाहती क्या है?!”
डैम पार कर लिया, डैम के ऊपर बने पुल से
गुज़री. पहाड़ी पर चढ़ी, और ये रहे सामने शीशा जड़े बरामदे वाले दो-दो क्वार्टर्स की
बिल्डिंग्स. बाएँ हाथ पर दूसरा – उनका क्वार्टर है...
कुछ देर खड़े होकर सांस की रफ़्तार को
सामान्य किया, साफ़ रूमाल से माथे का पसीना पोंछा...धीरे-धीरे आगे बढ़ी, अपने आप को
यह सफ़ाई देते हुए कि तबियत ठीक नहीं है, मगर असल में दरवाज़ा खटखटाने से डर रही थी.
वह समझ रही थी कि आगे क्या होने वाला है, मगर फिर भी उसे उम्मीद थी.
आख़िरकार, हिम्मत करके अंतिम कुछ क़दम आगे
बढ़ाए. जैसे ही हाथ ऊपर उठाया, अचानक बेहद नज़दीक, गेट के ठीक पीछे, भारी आवाज़ में
कुत्ता भौंकने लगा. इस अचानक हमले से वलेन्तीना विक्तोरोव्ना लड़खड़ा गई.
“फू,
त्रेज़र!” आँगन के भीतर किसी औरत की आवाज़ सुनाई दी. “फू, कहा ना!”
मगर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने गेट
खटखटाया, कुत्ता और तैश से भौंकने लगा.
दरवाज़े का कुंदा खुला, और बहू सामने आई. बदसूरत-सी,
चेहरा एकदम सूखा, आँख़ें थकी हुई, चुभती हुईं. सास को देखा, एक पल को, शायद डर गई,
मगर तभी चेहरे पर धृष्ठ-गंभीरता के भाव ले आई.
“नमस्ते, वाल्या,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने
कहा.
बहू ख़ामोश रही. उसके पीछे कुत्ता भौंकता
रहा, ज़ंजीर से छूटने की कोशिश करता रहा.
“वाल्या, तुम्हारी माँ गुज़र गई?” ये समझ न पाते
हुए कि क्या कहे, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा, उसे जवाब नहीं मिला, बहू ने सिर
भी नहीं हिलाया. “मैं...मैं वो, क्या है...रोद्या को देखने चली आई. मिलने चली आई.
चॉकलेट्स...”
बहू ने फिर भी कुछ नहीं कहा. पथराई नज़र से
देखती रही.
“क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ?” ये जानते हुए भी
कि कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना बोलती रही. “पोते को...”
“कोई पोता नहीं है आपका,” बहू ने शब्दों के
मर्मांतक घाव देते हुए दो टूक जवाब दिया.
“ऐसे कैसे नहीं है? उसे क्या हुआ है?”
“कुछ नहीं. बस, आपका कोई पोता नहीं है. और, बस.”
“वाल्या...” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने महसूस
किया कि गालों पर आँसू बह रहे हैं - पिछले कई महीनों में पहली बार. “वाल्या, चल, झगड़ा नहीं करेंगे. अब, किसी को
बांटने के लिए हमारे पास रह ही क्या गया है? क्या बांटेंगे? मुझे माफ़ कर दे...” आँसू
बोलने नहीं दे रहे थे; रूमाल के बारे में भूलकर, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना हथेलियों
से ही उन्हें पोंछती रही. “माफ़ करना, कि उस समय सर्टिफिकेट के बारे में
मैंने...माफ़ कर, और चल...हमें एक दूसरे को सहारा देना होगा.”
“क्या हो रहा है?” किसी मर्द की अप्रसन्न और
जवान आवाज़ सुनाई दी. “भौंक-भौंक कर परेशान कर दिया. वाल्या, वहाँ क्या है?”
उसने आँगन में देखा:
“कुछ नहीं, साशा, अभी आई.” और वह गेट बन्द करने
लगी.
“वा-ल्या...” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने कराहते
हुए कहा.
कुंदा खड़खड़ाया.
“चल, हो गया, हो गया, त्रेज़र. बस कर. ख़ामोश हो
जा...”
इस घटना ने काफ़ी दिनों तक परेशान किया.
नींद बिल्कुल नहीं आती थी, चरमराते दीवान पर करवटें बदलती रहती, कोशिश करती कि इस
बारे में न सोचे, मगर ख़याल पीछा ही नहीं छोड़ते थे, अप्रिय, तनावभरे विचार;
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को ऐसा महसूस होता कि ये विचार उसके दिल को चीरे जा रहे
हैं.
फिर से पतझड़ का मौसम आया, तनहाई वाला
तीसरा पतझड़. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को अचरज हुआ कि अपने लोगों की मौत के बाद वह
इतने साल कैसे ज़िन्दा रही, याद करने की कोशिश करती कि तनहाई के इस लम्बे वक़्त में
क्या क्या हुआ. कुछ भी याद नहीं आ रहा था. सिर्फ गेट के पास ठूँठ पर बैठे रहना,
बार-बार आधे खाली फ्रिज को खोलना और बन्द करना, इन्जेक्शंस...” जल्दी ही, बस
जल्दी...” अचानक बगल में, जैसे उसे शांत करती हुई, आश्वासक आवाज़ स्पष्ट सुनाई दी.
आँखें खोलीं, दीवान पर बैठ गई. चारों ओर
नज़र दौड़ाई. अंधेरा था, और निपट ख़ामोशी छाई थी, ऐसी कि सुई गिरने की आवाज़ भी सुनाई
दे. पूछने का मन हुआ: “कौन है?” मगर इस ख़ामोशी को तोड़ने में भी डर लग रहा था.
धीरे-धीरे, दीवान की स्प्रिंग की चरमराहट न होने देते हुए, कपड़ों की सरसराहट न
करते हुए, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना फिर से लेट गई. और उसे याद आया, कि अभी तक उसने,
शायद, सबसे ज़रूरी काम तो किया ही नहीं है – कब्रों पर स्मारक नहीं लगाया. पति और
बेटे पास-पास पड़े थे – सबके लिए एक ही बनवा सकती है. और तीनों कब्रों के चारों ओर
बागड़ लगवा दी जाए.
“मर जाऊँगी, वाक़ई में, सलीबें गिर जाएँगी,
ख़ुदा न करे”...उसने शहर जाने का फ़ैसला कर लिया. सेंट्रल मार्केट के पास एक वर्कशॉप
थी...
सुबह फोटो वाला
एल्बम निकाला, पलटने लगी. माँ, स्कूल, वही सेंट्रल-स्ट्रीट उन्हीं कॉटेजेस के साथ,
शादी, आर्तेम किंडर-गार्डन में, डेनिस झूले में...आँसू अपने आप बहने लगे;
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने तीन उचित फोटो चुने, एल्बम को वापस दराज़ में रख दिया.
सारे पैसे साथ
नहीं लिए. स्टोर-रूम की एक गुप्त जगह से, जो लोगों से और चूहों से लोहे की पतली
चादर डालकर सुरक्षित की गई थी, पाँच हज़ार निकाले. दरवाज़े पर ताला लगाया, उसे खींच
कर देखा और कड़वाहट से मुस्कुराई: “जिसे ज़रूरत है, वह ताला तोड़कर अन्दर घुस जाएगा.
और, जो चाहिए, सब ले जाएगा.”
...संगमरमर का
स्मृतिचिह्न बहुत महंगा था. संगमरमर का एक छोटा सा स्तम्भ ख़रीदा जा सकता था, मगर
तीन कब्रों के ऊपर एक ही स्तम्भ बिल्कुल बेकार लगता. ग्रेनाईट का भी महंगा ही था.
कारीगरों से सलाह करके, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने धातु का स्तम्भ ख़रीदने का फ़ैसला
किया.
“पचास साल तक आराम से खड़ा रहेगा,” उसे भरोसा
दिलाया गया. “ख़ास बात ये है कि दो-तीन सालों में एक बार पेन्ट करवा लीजिए, जिससे
ज़ंग न लगे.”
“मगर इसपे फोटो कैसे चिपकेंगे? और ऊपर वाली
इबारत?”
“इबारत संगमरमर की छोटी सी पट्टी पर लिखी जा
सकती है. ख़ूबसूरत लगेगी.”
“उसे चिपकाएँगे कैसे?”
“स्क्रू लगाकर फिट कर देंगे. भरोसेमन्द रहेगी.
और फोटो भी.”
“अच्छा...मैं आप पर यक़ीन कर लेती हूँ.”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना का गला फिर से आँसुओं के कारण रुंध गया.
फ़ेन्सिंग के
बारे में भी बात पक्की कर ली. सही-सही माप तो उसे मालूम नहीं थी, कारीगरों से
विचार-विनिमय करने के बाद वे समझ गए कि फेन्सिंग कितनी होनी चाहिए. पति और बेटों
के नाम वाला कागज़ उन्हें दे दिया, अपना पता भी दिया.
“ठीक है, अगले सोमवार को ले आएँगे. तीन हज़ार
एडवान्स, प्लीज़.”
पैसे देकर रसीद
ली, बगल वाले फोटो-स्टूडियो में गई.
“म्-म्” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना की बात सुनकर
काऊंटर पे खड़े आदमी ने अफ़सोस से सिर हिलाया. “एक्सिडेंट
में?”
“क्या?”
“क्या एक्सिडेंट में मर गए?”
“नहीं... दूसरी वजह...”
“क्या पोर्ट्रेट्स पर फ्रेम बना दूँ?”
“कैसे ज़्यादा अच्छा रहेगा?”
उस आदमी ने गहरी साँस ली:
“फ्रेम वाली तस्वीरें बेहतर ही होती हैं, मगर,
आप समझ रही हैं, कि उन्हें लोग निकाल लेते हैं. फ्रेम्स एल्युमिनियम की होती है,
कई ग्राम्स एल्युमिनियम होता है, और...लोगों के लिए कोई भी चीज़ पवित्र नहीं रह गई
है.”
“तो फिर, बिना फ्रेम की. और एक बात,” वलेन्तीना
विक्तोरोव्ना ने पीड़ा से खांसते हुए कहा, “मैं गाँव से आई हूँ, बार-बार आना-जाना
मेरे बस की बात नहीं है...क्या आप काम पूरा होने पर तैयार फोटो इस वर्कशॉप में दे
देंगे. यहाँ...”
“हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ.”
“बस, सोमवार से पहले दे दीजिए. ये लोग सोमवार को
स्मारक वहाँ लाएंगे, फ़ेन्सिंग भी...”
“अच्छा.”
“और, आपसे
विनती है कि मुझे धोखा न दीजिए, प्लीज़...”
पैसे दिए, रसीद
ले ली. स्मारकों वाले वर्कशॉप में वापस आई, उन्हें सूचित किया कि उनके पास तीन
पोर्ट्रेट्स लाने वाले हैं.
“इधर-उधर मत कर देना, ख़ुदा के लिए. और...मैंने
वहाँ लिस्ट रखी है. एल्तिशेव – निकोलाय मिखाइलोविच, आर्तेमी निकोलायेविच, डेनिस
निकोलायेविच...गड़बड़ न कर देना, प्लीज़!”
वे लोग उस पर
थोड़े गुस्सा भी होने लगे, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना बस-स्टैण्ड की तरफ चल पड़ी. मगर,
घड़ी पर नज़र डाली तो उसे समझ में आया कि बस छूटने में अभी तीन घण्टे हैं.
खड़े-खड़े कुछ
देर सोचती रही, कि ये तीन घण्टे कैसे बिताए. मन हुआ कि शहर का चक्कर लगाए, उन
जगहों को देखे जहाँ रहती थी, काम करती थी – “हो सकता है , ये मेरा आख़िरी चक्कर
हो”, लाइब्रेरी में जाना चाहती थी. मगर फ़ैसला न कर पाई – इस ख़याल से कि वह अपनी
प्रिय और हमेशा के लिए खो गई जगहों को देखेगी, दिल में चुभन होने लगी, गले में कोई
कड़वी चीज़ फंस गई. और तब क्या होगा, जब वाक़ई में ये सब देखेगी, परिचितों से बातें
करेगी, जिनकी ज़िन्दगी में सब कुछ अच्छा है...बाज़ार में थोड़ा सा सॉसेज खरीदा, मीट,
चीज़ और – अपने आप को रोक नहीं पाई – एक छोटा सा सुनहरा खरबूज़ भी खरीद लिया.
धीरे-धीरे बस स्टॉप तक आई, बेंच पर बैठ गई. आसपास के लोगों को न देखने की कोशिश
करते हुए, ये भूल जाने की कोशिश करते हुए कि वह उस जगह पर है, जहाँ इतने साल
बिताए, जहाँ उसके बेटे पैदा हुए, बस का इंतज़ार करती रही.
फ़ौरन ड्राईवर
की कैबिन के पास बैठ गई – वहाँ कम दचके लगते थे – और फिर से अपने आप में खो गई,
कौन आ रहा है, कौन उसकी बगल में बैठ रहा है – कुछ भी नहीं देखा. सिर्फ जब कण्डक्टर
ने पैसे मांगे, तो उसने खिड़की पर पड़े धब्बे से नज़र हटाई, उसकी ओर चालीस रूबल्स बढ़ा
दिए. वलेन्तीना ने मुफ़्त वाले टिकट के लिए फॉर्म नहीं भरा था, जो उस जैसे पेन्शनर
को दिया जाता है: अलग अलग दफ़्तरों में जाने की, पेपर्स इकट्ठा करने की, उन्हें
दिखाने की, लम्बी-लम्बी लाईनों में खड़े होने की ताक़त ही नहीं थी...
दिन बड़ा
सुहावना था. साफ़, गर्म, कुछ प्यारा सा. चारों ओर की प्रकृति, जर्जर इमारतें भी,
बढ़िया चमक रही थीं, जैसे वाटर-कलर्स की पेंटिंग में हों. आत्मा को कोई विशेष दुख
कचोटने लगा – बेहद चुभने वाला दुख. इससे तो बेहतर होता कि बारिश आ जाती, हवा चलती,
कीचड़...
बस-स्टॉप से घर
की ओर जाने वाले रास्ते पर बच्चों की किलकारियाँ सुनीं. फ़ौरन समझ नहीं पाई कि ये
आवाज़ें किंडर-गार्डन से आ रही हैं – शायद, बच्चों को घुमाने के लिए लाए हैं.
भारी पर्स लिए
हुए वह उस पेडों वाले रास्ते की तरफ़ मुड़ गई. किंडर-गार्डन की तरफ़ चल दी. वह वहीं
था, पास ही में, क़रीब दो सौ मीटर्स दूर...चल रही थी और महसूस कर रही थी कि आँखों
से धीरे धीरे आँसू बह रहे हैं, झुर्रियों के जंगल से होते हुए ठोड़ी की तरफ़ जा रहे
हैं, नीचे गिर रहे हैं...किलकारियाँ और चीख़ें, पास में ही खिलखिलाहट भी सुनाई दे
रही थी. कम ऊँची – सीने तक की – लकड़ी की पट्टियों से बनी बागड़. उसके पीछे लोहे का
रॉकेट, मशरूम्स, स्लाईड, छोटा सा पहाड़. भागते हुए बच्चे. दो जवान केयर-टेकर्स
स्टूलों पर बैठी हैं, आपस में बातें कर रही हैं.
वलेन्तीना
विक्तोरोव्ना ने बच्चों की तरफ़ देखा, ख़ास तौर से किसी एक पर ध्यान दिए बिना वह
सबको देख रही थी, ख़ुश हो रही थी. ख़ुश हो रही थी, और दुखी भी हो रही थी. और तभी
जैसे एक झटका लगा – उसकी आँखें एक पाँच साल के बच्चे पर टिक गईं, जो ख़तरनाक तौर से
डेनिस से मिलता जुलता था. वो, बिल्कुल वैसे ही, जैसे डेनिस बचपन में करता था, दो
बच्चों को हाथ पकड़कर ले जा रहा था, उसी तरह से हाथ झटक रहा था, वैसे ही अप्रसन्नता
से भौंहे चढ़ा रहा था.
उसे फ़ौरन समझ
में नहीं आया, कि ये उसका पोता है.
“रोद्या,” उसने हौले से पुकारा, इस बात की
उम्मीद किए बिना कि वह सुन लेगा, मगर बुलाए बिना रह न सकी. “रोदिच्का.”
बच्चा मुड़ा,
उसने वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को देखा. उसकी आँखों में कोई चीज़ तैर गई, और ये ‘कोई
चीज़’ कह रही थी कि वह बच्चे को अपने पास बुलाए.
“रोदिच्का, इधर आ, मेरे अपने.”
वह उसके पास
आया; दूसरे बच्चे ख़ुश हो गए कि अब कोई उन्हें हाथ पकड़ कर नहीं ले जा रहा है. वे
रॉकेट के भीतर घुस गए.
“रोदिच्का, मैं...” गहरी साँस लेते हुए
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना कहने लगी, “मैं तेरी दादी हूँ. क्या तुझे मेरी याद है?”
“याद नहीं है.”
“और पापा की...तेरे पापा का नाम आर्तेम था...
याद है?”
बच्चे ने फिर
से नाक-भौंह चढ़ा लिए.
“मेरे पापा का नाम - साशा है. मम्मा का नाम –
वइन्तीना.”
“तेरे पापा का नाम आर्तेम था. आर्तेम
निकोलायेविच एल्तिशेव.” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना हौले से, मगर साफ़-साफ़, पूरे
विश्वास के साथ कह रही थी. “याद रख. आर्तेम एल्तिशेव. और तेरा नाम है – रोदिओन
आर्तेमेविच एल्तिशेव.”
“मैं एय... नहीं हूँ. मैं – पेतूनिन हूँ.”
“तेरा उपनाम है – एल्तिशेव!” ये महसूस करते हुए
कि उसका सिर घूम रहा है, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना चीख़ पड़ी. – “एल-ति-शेव.”
“मैं - ओदिओन पेतूनिन हूँ,” बच्चे ने दृढ़ता से जवाब दिया.
“मेला घल है – ज़ाएत्स्नाया स्त्लीत, मकान नं. सात...”
“तू एल्तिशेव है. ज़िन्दगी भर के लिए याद रख ले!”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने उसकी बात काटते हे कहा. “एल्तिशेव! तू मेरा आख़िरी चिराग़
है!” उसने बच्चे के कंधे पकड़ लिए, उसे झकझोरा. “याद रख!...मैं अदालत में ले
जाऊँगी...ऐह, तू भी!...”
केयर टेकर्स
दौड़ती हुई आईं. एक ने बच्चे को खींचा, दूसरी वलेन्तीना विक्तोरोव्ना पर पिल पड़ी. दूसरी
उसे कम्पाऊण्ड से बाहर धकेलते हुए ज़ोर से चिल्लाई... वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने
पर्स गिरा दिया, उसने केयर टॆकर के बाल पकड़ लिए.
“वो एल्तिशेव है! समझ में आया?! एल्तिशेव...वो
मेरा है!”
“नीना!” उसकी पकड़ से छूट कर केयर-टेकर चिल्लाई.
“नीन, भाग, पुलिस ऑफ़िसर को बुला! बच्चों, फ़ौरन इकट्ठे हो जाओ!”
वलेन्तीना
विक्तोरोव्ना धीरे धीरे बागड़ से फिसलती हुई ज़मीन पर गिर पड़ी. ज़ोर से, हिचकियाँ ले
लेकर बिसूरने लगी...थोड़ी देर बाद, कुछ होश में आकर उसने उठने की कोशिश की, मगर उठ न
सकी. पैर सुन्न हो गए थे, हाथ बागड़ से छूट गए.
किंडर गार्डन
का ग्राऊण्ड, गली खाली थी. उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था.