गुरुवार, 12 मार्च 2015

Eltyshevi - 26

अध्याय – 26


वलेन्तीना विक्तोरोव्ना एल्तिशेवा इस पते पर रहती है: गाँव मुरानोवो, सेंट्रल स्ट्रीट, हाऊस नं. 28. अकेली रहती है, किसीसे बात नहीं करती, मगर पूरे-पूरे दिन गेट के पास वाले ठूँठ पर बैठी रहती है.  ये ठूँठ ही उसके लिए बेंच का काम करता है. सुबह सड़क पर आ जाती है, शाम को आँगन के भीतर लौट आती है.

वह लम्बे-लम्बे, खाली दिन कैसे काटती है, क्या सोचती रहती है, किसलिए जीती है, शायद, किसी को इसमें दिलचस्पी नहीं है. हाँ, उसके अलावा भी गाँव में बहुत सारी वैसी ही अकेली बूढ़ी औरतें हैं. कुछ तो उमर में उतनी बूढ़ी नहीं हैं, मगर उनका जीने का तरीक़ा बिल्कुल बुढ़ियों जैसा है. गेट के पास बैठी रहती हैं, सामने की ओर देखती रहती हैं, या तो अपने विगत को याद करती हैं, या फिर अपने अंत का इंतज़ार करती हैं.

महीने में एक बार पोस्टमैन आकर पेन्शन दे जाता है. पेन्शन की राशि धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, मगर ये सच है कि वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को इससे ख़ुशी नहीं होती है. हाँ, और दुकानों में हर चीज़ की कीमत बढ़ती जाती है. खाने-पीने का सामान लाने के लिए वह कभी-कभार ही निकलती है, दालें ब्रेड, डिब्बा बन्द चीज़ें ख़रीदती है; सेल्स-गर्ल्स को मालूम है कि उसे मिल्क-चॉकलेट बहुत पसन्द है. उसका गार्डन क़रीब-क़रीब पूरा जंगली घास-फूस से भरा है, सिर्फ कॉटेज की ओर के एक छोटे से पट्टॆ में आलू बोए हैं और दो-तीन क्यारियाँ हैं. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना का पति छोटे बेटे की मौत के छह महीने बाद चल बसा. मौत से पहले शिकायत करता रहता था कि सिर में भिनभिनाहट हो रही है. “जानती हो,” वह कहता, “जैसे खम्भे में करन्ट बह रही हो. बचपन में सुना करते थे...” वह मार्च के आरंभ में मर गया. ड्योढ़ी में निकला, कुछ देर खड़ा रहा और ज़मीन पर गिर पड़ा. वहीं, जहाँ साल भर पहले बड़ा बेटा गिरा था. फ़ौरन मर गया...शहर में नहीं ले गए, पोस्टमॉर्टम नहीं किया. मैनेजर की सहायता से दूसरे दिन दफ़ना दिया. बिना किसी मेमोरियल सर्विस के.

कार वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने एक स्थानीय निवासी को उसी बसंत में बेच दी, जिसके पास भी उसी मॉडॆल की ‘मस्क्विच’ ही थी.
 “अब ये बनाते नहीं हैं,” उसने ख़रीदने का कारण समझाते हुए कहा, “स्पेयर-पार्ट्स के लिए काम आएगी.” अपनी गाड़ी के पीछे बांधकर खींचते हुए घर ले गया.
उसी शाम को वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के पास क़रीब बीस साल के छोकरे आए, पाँच हज़ार माँगने लगे (उसने कार दस हज़ार में बेची थी). वलेन्तीना विक्तोरोव्ना गुस्सा हो गई.
 “देखो, आण्टी,” छोकरे बोले, “बिना पैसे के और बिना कॉटेज के रह जाएगी.”
देना ही पड़ा...इसके बाद भी कई बार आते रहे, पेन्शन वाले दिन आ जाते, पैसे ले लेते, मगर थोड़े ही लेते – सिर्फ बोतल के लिए.

वलेन्तीना विक्तोरोव्ना स्प्रिट नहीं बेचती – अब, ऐसा लगता है, कि किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है. अगर उसका बस चलता, तो वह जल्दी से मर जाती. मगर ऐसा कर नहीं सकती, इसलिए जिए जाती है...

गाँव में रोज़गार की हालत बेहतर हो गई – कई सारे तजिक लोग आए और निर्वासित खेतों को लीज़ पर ले लिया. उन्हें जोता, उनमें आलू बोए. इसके लिए स्थानीय मज़दूर किराए पर रखे. फिर मुंडेरें बनाने के लिए, रखवाली करने के लिए रखे. अगस्त में – खोदने के लिए. पैसे ठीक-ठाक ही देते थे. ये सच है कि कुछेक मज़दूरों का थोड़े दिनों बाद हिसाब कर देते थे – “आलसी लोग नहीं चाहिए”, वे बुरा मान जाते, भद्दी गालियों से धमकाते. मगर बड़े पैमाने पर अप्रिय घटनाएँ नहीं हुईं. अधिकांश लोगों के लिए खेतों में काम करना जीने का सहारा बन गया – कई सालों में पहली बार हाथों में कुछ ढंग का पैसा आया था. आलू को तजिक लोग अपने साथ तजिकिस्तान ले गए. वहाँ, कहते हैं कि आलू की पैदावार अच्छी नहीं होती, ऊपर से वो महंगा भी होता है...अगले साल फिर से खेतों को लीज़ पर लिया.

मगर, आम तौर से, गाँव वैसा का वैसा ही रहा – उनींदा, निर्धन, जैसे कि अभी बस मिट्टी के ढेर में बदलने ही वाला है, ग़ायब होने वाला है, मगर किसी करिश्मे की बदौलत ही अपने अस्तित्व को बनाए हुए है.

क्लब पूरा बन ही नहीं पाया. कई बार मशीनें लाई गईं, सामान लाया गया, दो-तीन दिन ज़ोर-शोर से काम चलता, मगर फिर – फिर से ख़ामोशी, और शाम को नज़र आतीं चलती-फिरती परछाईयाँ, ये ढूँढ़ती हुई, कि कोई उपयोगी चीज़ मिल जाए तो ले जाएँ.

पिछले से पिछले साल की सर्दियाँ बेहद बर्फ़ीली रहीं, कॉटेजेस छत तक बर्फ में दब गईं, सड़क पर यातायात बार-बार प्रभावित होता रहता, बर्फ को ग्रेडर से साफ़ करना पड़ता.

मौसम विभाग ने बसंत का मौसम ख़ुशनुमा होने का वादा किया था, और, बाढ़ के ख़तरे को देखते हुए (कम से कम, यही स्पष्टीकरण दिया गया), तालाब को ख़ाली करने का फ़ैसला किया गया. किसी किसी ने विरोध प्रकट किया, मगर बिल्कुल मरियल अन्दाज़ में, क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनकी बात सुनी नहीं जाएगी.

मार्च के मध्य में, जैसे ही बर्फ पिघलने लगी, बांध तोड़ दिया गया. फ़ौरन मर्द, बच्चे, और कुछ औरतें भी बाल्टियाँ, जालियाँ, सब्बल ले-लेकर तालाब की ओर भागे. कुछ लोग बांध के नीचे मछलियाँ ढूढ़ रहे थे, कुछ और लोग झरनों के ऊपर जमी बर्फ तोडकर हटा रहे थे – वहाँ हमेशा उसकी पतली परत होती थी, मछलियों को जालियों में या फिर हाथों में ही पकड़ने की कोशिश कर रहे थे. मछलियाँ पकड़ने की ये प्रक्रिया क़रीब महीना भर चलती, हालाँकि इसमें ज़्यादा कुछ हासिल नहीं होता था, इसके बाद, जब छिछला पानी, मुरान्का नदी का मुहाना, खुल जाता, तो छोटी-छोटी मछलियों को बोरों में भर-भरकर ले जाने लगे. उन्हें खाया, फ्रिज में, आईस-बॉक्सेस में ठण्डा किया, और ज़्यादतर बेच दिया.

वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के पास भी मछली बेचने के लिए आए. पहली बार तो उसने मना कर दिया, फिर इशारों-इशारों में उससे बोले: बेहतर है कि ख़रीद लो, अपमानित न करो, क्या पता क्या कर दें. पीने के लिए तो करना ही पड़ता है. उसने एक बार ख़रीदी, फिर और भी...

गर्मियाँ आते-आते तालाब किनारों तक भर गया, मगर अगले साल घास-पात से, सरकंडों से लबालब भर गया. मछली बिल्कुल भी नहीं बची – आदमियों ने जाल लगाए, उसमें दो-एक छोटी मछलियाँ फँसीं, मगर बन्सी से तो कोई भी नहीं हिलगी.
 “कोई बात नहीं, होता है,” ख़ाली हाथ घर लौटते हुए मछुआरे कहते, और पिछली साल के मछलियों के बोरों को याद करके मिठास भरे दुख से गहरी साँस छोड़ते.

ऐसा लगता था कि वलेन्तीना विक्तोरोव्ना की ज़िन्दगी एकदम ख़ाली थी. ऐसा दूर से देखने पर प्रतीत होता था. कभी-कभी गेट के पास बैठी वलेन्तीना विक्तोरोव्ना के पास पडोसनें आ जाती थीं, परिचित, जवानी के दिनों की सहेलियाँ, बात करने की कोशिश करतीं, ज़्यादातर बोरियत के मारे, न कि सहानुभूति के कारण, उसके बेटों के दुर्भाग्य पर दुख प्रकट करतीं और साथ ही, रूखेपन से, पति के बारे में भी, जिसे वे पसन्द नहीं करती थीं. कई बार खारिन की विधवा भी उसके पास आकर रुकी, हिचकियाँ लेते लेते फुसफुसाई:
 “बै-ठी-हो? बैठ-बैठ...मुझे मालूम है कि मेरे मर्द को जंगल में किसने मार डाला. मा-लू-म है. देखो, बदला मिल गया. अब ख़ुश हो जा. मेरे आँसुओं ने बदला ले लिया...”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना न तो सहानुभूति पर, न ही दोषारोपण पर ध्यान देती थी. अपने सामने किसी अदृश्य चीज़ को देखती रहती.

मगर दिमाग़ में निरंतर, ख़ास तौर से शाम को, जब सोने की कोशिश करती, कैसेट की तरह, ज़िन्दगी खुलती जाती. बिल्कुल बचपन से, जब काँच की गोलियों से खेला करती थी यहीं पर, जहाँ अभी बैठी है, उस पतझड़ तक जब सीने में लोहे का चाकू घुसे डेनिस को पड़ा देखा था. इसके बाद हर चीज़ ग़ैर ज़रूरी हो गई, हर चीज़ ने अपना विचार और मतलब खो दिया. पति की मौत पर भी उसे लगभग ईर्ष्या ही हुई – उसकी पीड़ा तो ख़त्म हो गई, मगर मुझे तो ये घृणास्पद बोझ न जाने और कब तक ढोना है... उसे पता नहीं था कि निकोलाय भी कुछ दिन पहले मर चुके लोगों से ऐसी ही ईर्ष्या करता था...

वह मौत की राह देख रही थी, उसे बुला रही थी, मगर साथ ही नियमित रूप से इन्जेक्शंस भी ले रही थी, जब समय पर इन्सुलिन नहीं लाते थे तो गुस्सा भी करती थी: उसने यह सुविधा प्राप्त कर ली थी कि अकेली डिसेबल्ड होने के कारण दवाएँ उसे घर पर पहुँचाई जाएँ. अपने आप पर गुस्सा करती, कड़वाहट से मुस्कुराती – जीना चा-हती है” – मगर फिर भी अब अनावश्यक हो चुकी ज़िन्दगी को बढ़ाए जाती. दिमाग़ में किन्हीं चिन्हों को, किन्हीं झरोखों को ढूँढ़ने की कोशिश करती, जो उसके धरती पर होने की सार्थकता को लौटा सकें.                  

अपनी बहू और पोते के पास वह नहीं जाती थी. आर्तेम के उनसे दूर होने और अपने परिवार के टूटने में वह त्यापोवों को ही पहले की तरह प्रमुख दोषी मानती थी; रोदिओन, हालाँकि पोता है, एल्तिशेव परिवार का अंतिम चिराग है (हो सकता है, कहीं, कोई और भी हो, मगर उनसे क्या लेना देना?), मगर...वलेन्तीना विक्तोरोव्ना दिल से इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती थी कि वह – उनका है, कि वह – उसका अपना नन्हा इन्सान है.

ख़यालों में उसी बात को दुहराती जिसे दसियों बार अपने आप से और और औरों के सामने भी दुहरा चुकी थी: वलेन्तीना का पेटर्निटी-टेस्ट करवाना कहीं संभव नहीं हुआ, गाँव के सारे छोकरों के साथ सो चुकी थी, और ताज़ा-तरीन, अपने क्वार्टर के छिन जाने से, इस अंधेरी कॉटेज में आगमन से ख़ौफ़ खाए हुए आर्तेम को फाँस लिया. और क्या, ऐसी औरत, एक पति के मिल जाने पर ख़ामोश बैठ सकती है? कोई भी पुराना यार गली में मिल जाए, उसकी स्कर्ट खींचे, तो वह बिछ जाएगी...आर्तेम ख़ुद भी कहता था, कि उस पर शक करने की वजह तो थी, वह भाग कर कहीं चली जाती, उसके साथ सोने से इन्कार करती. इसीलिए उसने संबंध तोड़ लिए थे, यहाँ लौट आया था, मगर फिर से...
ऐख़, आर्तेम, आर्तेम, ख़ुद भी उलझ गया, और उन्हें भी परेशान किया, दुख दिया. सब उलट-पुलट हो गया, और अब एल्तिशेव परिवार का नामोनिशान ही नहीं बचा...तीन मर्द – और वो भी कैसे मर्द! – साल भर में...

एक दिन किसी पड़ोसन से, किस पड़ोसन से, याद नहीं रहा, और उसने ध्यान भी नहीं दिया, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने सुना कि उसकी समधन मर गई है. “दफ़न-विधि कल है. मैं ताबूत के पास थोड़ी देर बैठी थी – पहचानी नहीं जा रही थी” – आवाज़ भिनभिना रही थी. “सूख कर एकदम ठूँठ हो गई थी. क्या करें, कैन्सर...”

ऊपर से तो वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने यह समाचार उदासीनता से सुना, अनमनी नज़रों से कहीं दूर देखते हुए, सिर्फ सिर हिला दिया. मगर उस पल से उसके भीतर वहाँ जाकर पोते को देखने की इच्छा बढ़ने लगी. जैसे किसी बन्द दरवाज़े का ताला खुल गया था. इस इच्छा से लड़ती रही, मन में बहू के प्रति कड़वाहट की आग को हवा देती रही, त्यापोवों द्वारा किए गए अपमानों को याद करती रही – कितनी शत्रुता के भाव से नन्हे रोदिक को कुछ देर खिलाने की इजाज़त देते थे, जैसे मेहेरबानी कर रहे हों; कैसे आर्तेम को उनके पास, शायद, पैसों के लिए, भेजते थे – “ख़ुद काम नहीं करता है ना, तेरे माँ-बाप को मदद करनी चाहिए”. कितनी सारी बातें याद आईं, मगर जितना ज़्यादा सोचती रही, उनके यहाँ जाने की इच्छा उतनी ही तीव्र होती गई.

दो दिन वह छुट्टियों वाली ड्रेस पहनकर तैयार होती रही, होठों पर लिपस्टिक भी लगाई, मगर अपने आप को रोक लिया. तीसरे दिन गई. सुबह. रास्ते में दुकान से ‘असोर्ती’ चॉकलेट्स का डिब्बा ख़रीदा.
रास्ता बहुत लम्बा और कठिन लग रहा था. पहले तो वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने सोचा कि ऐसा इसलिए लग रहा है, क्योंकि उसे अब चलने की आदत नहीं रही – कितने ही दिनों से दुकान से आगे कहीं गई ही नहीं थी – मगर फ़िर उसने ग़ौर किया कि उसके क़दम भी छोटे-छोटे पड़ रहे हैं, बिल्कुल बुढ़ियों जैसे. शक्तिहीन क़दम.            
शायद डर गई, और फ़ौरन आह्वान-सा देते हुए अपने आप से पूछा: “और, ये क्या है? इस सब के बाद तू आख़िर चाहती क्या है?!”

डैम पार कर लिया, डैम के ऊपर बने पुल से गुज़री. पहाड़ी पर चढ़ी, और ये रहे सामने शीशा जड़े बरामदे वाले दो-दो क्वार्टर्स की बिल्डिंग्स. बाएँ हाथ पर दूसरा – उनका क्वार्टर है...

कुछ देर खड़े होकर सांस की रफ़्तार को सामान्य किया, साफ़ रूमाल से माथे का पसीना पोंछा...धीरे-धीरे आगे बढ़ी, अपने आप को यह सफ़ाई देते हुए कि तबियत ठीक नहीं है, मगर असल में दरवाज़ा खटखटाने से डर रही थी. वह समझ रही थी कि आगे क्या होने वाला है, मगर फिर भी उसे उम्मीद थी.
आख़िरकार, हिम्मत करके अंतिम कुछ क़दम आगे बढ़ाए. जैसे ही हाथ ऊपर उठाया, अचानक बेहद नज़दीक, गेट के ठीक पीछे, भारी आवाज़ में कुत्ता भौंकने लगा. इस अचानक हमले से वलेन्तीना विक्तोरोव्ना लड़खड़ा गई.
 “फू, त्रेज़र!” आँगन के भीतर किसी औरत की आवाज़ सुनाई दी. “फू, कहा ना!”
मगर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने गेट खटखटाया, कुत्ता और तैश से भौंकने लगा.
दरवाज़े का कुंदा खुला, और बहू सामने आई. बदसूरत-सी, चेहरा एकदम सूखा, आँख़ें थकी हुई, चुभती हुईं. सास को देखा, एक पल को, शायद डर गई, मगर तभी चेहरे पर धृष्ठ-गंभीरता के भाव ले आई.
 “नमस्ते, वाल्या,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने कहा.
बहू ख़ामोश रही. उसके पीछे कुत्ता भौंकता रहा, ज़ंजीर से छूटने की कोशिश करता रहा.
 “वाल्या, तुम्हारी माँ गुज़र गई?” ये समझ न पाते हुए कि क्या कहे, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पूछा, उसे जवाब नहीं मिला, बहू ने सिर भी नहीं हिलाया. “मैं...मैं वो, क्या है...रोद्या को देखने चली आई. मिलने चली आई. चॉकलेट्स...”
बहू ने फिर भी कुछ नहीं कहा. पथराई नज़र से देखती रही.
 “क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ?” ये जानते हुए भी कि कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना बोलती रही. “पोते को...”
 “कोई पोता नहीं है आपका,” बहू ने शब्दों के मर्मांतक घाव देते हुए दो टूक जवाब दिया.
 “ऐसे कैसे नहीं है? उसे क्या हुआ है?”
 “कुछ नहीं. बस, आपका कोई पोता नहीं है. और, बस.”
 “वाल्या...” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने महसूस किया कि गालों पर आँसू बह रहे हैं - पिछले कई महीनों में पहली बार.  “वाल्या, चल, झगड़ा नहीं करेंगे. अब, किसी को बांटने के लिए हमारे पास रह ही क्या गया है? क्या बांटेंगे? मुझे माफ़ कर दे...” आँसू बोलने नहीं दे रहे थे; रूमाल के बारे में भूलकर, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना हथेलियों से ही उन्हें पोंछती रही. “माफ़ करना, कि उस समय सर्टिफिकेट के बारे में मैंने...माफ़ कर, और चल...हमें एक दूसरे को सहारा देना होगा.”
 “क्या हो रहा है?” किसी मर्द की अप्रसन्न और जवान आवाज़ सुनाई दी. “भौंक-भौंक कर परेशान कर दिया. वाल्या, वहाँ क्या है?”
उसने आँगन में देखा:
 “कुछ नहीं, साशा, अभी आई.” और वह गेट बन्द करने लगी.
 “वा-ल्या...” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने कराहते हुए कहा.
कुंदा खड़खड़ाया.
 “चल, हो गया, हो गया, त्रेज़र. बस कर. ख़ामोश हो जा...”

इस घटना ने काफ़ी दिनों तक परेशान किया. नींद बिल्कुल नहीं आती थी, चरमराते दीवान पर करवटें बदलती रहती, कोशिश करती कि इस बारे में न सोचे, मगर ख़याल पीछा ही नहीं छोड़ते थे, अप्रिय, तनावभरे विचार; वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को ऐसा महसूस होता कि ये विचार उसके दिल को चीरे जा रहे हैं.

फिर से पतझड़ का मौसम आया, तनहाई वाला तीसरा पतझड़. वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को अचरज हुआ कि अपने लोगों की मौत के बाद वह इतने साल कैसे ज़िन्दा रही, याद करने की कोशिश करती कि तनहाई के इस लम्बे वक़्त में क्या क्या हुआ. कुछ भी याद नहीं आ रहा था. सिर्फ गेट के पास ठूँठ पर बैठे रहना, बार-बार आधे खाली फ्रिज को खोलना और बन्द करना, इन्जेक्शंस...” जल्दी ही, बस जल्दी...” अचानक बगल में, जैसे उसे शांत करती हुई, आश्वासक आवाज़ स्पष्ट सुनाई दी.

आँखें खोलीं, दीवान पर बैठ गई. चारों ओर नज़र दौड़ाई. अंधेरा था, और निपट ख़ामोशी छाई थी, ऐसी कि सुई गिरने की आवाज़ भी सुनाई दे. पूछने का मन हुआ: “कौन है?” मगर इस ख़ामोशी को तोड़ने में भी डर लग रहा था.
धीरे-धीरे, दीवान की स्प्रिंग की चरमराहट न होने देते हुए, कपड़ों की सरसराहट न करते हुए, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना फिर से लेट गई. और उसे याद आया, कि अभी तक उसने, शायद, सबसे ज़रूरी काम तो किया ही नहीं है – कब्रों पर स्मारक नहीं लगाया. पति और बेटे पास-पास पड़े थे – सबके लिए एक ही बनवा सकती है. और तीनों कब्रों के चारों ओर बागड़ लगवा दी जाए.   
 “मर जाऊँगी, वाक़ई में, सलीबें गिर जाएँगी, ख़ुदा न करे”...उसने शहर जाने का फ़ैसला कर लिया. सेंट्रल मार्केट के पास एक वर्कशॉप थी...
सुबह फोटो वाला एल्बम निकाला, पलटने लगी. माँ, स्कूल, वही सेंट्रल-स्ट्रीट उन्हीं कॉटेजेस के साथ, शादी, आर्तेम किंडर-गार्डन में, डेनिस झूले में...आँसू अपने आप बहने लगे; वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने तीन उचित फोटो चुने, एल्बम को वापस दराज़ में रख दिया.

सारे पैसे साथ नहीं लिए. स्टोर-रूम की एक गुप्त जगह से, जो लोगों से और चूहों से लोहे की पतली चादर डालकर सुरक्षित की गई थी, पाँच हज़ार निकाले. दरवाज़े पर ताला लगाया, उसे खींच कर देखा और कड़वाहट से मुस्कुराई: “जिसे ज़रूरत है, वह ताला तोड़कर अन्दर घुस जाएगा. और, जो चाहिए, सब ले जाएगा.”
...संगमरमर का स्मृतिचिह्न बहुत महंगा था. संगमरमर का एक छोटा सा स्तम्भ ख़रीदा जा सकता था, मगर तीन कब्रों के ऊपर एक ही स्तम्भ बिल्कुल बेकार लगता. ग्रेनाईट का भी महंगा ही था. कारीगरों से सलाह करके, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने धातु का स्तम्भ ख़रीदने का फ़ैसला किया.
 “पचास साल तक आराम से खड़ा रहेगा,” उसे भरोसा दिलाया गया. “ख़ास बात ये है कि दो-तीन सालों में एक बार पेन्ट करवा लीजिए, जिससे ज़ंग न लगे.”
 “मगर इसपे फोटो कैसे चिपकेंगे? और ऊपर वाली इबारत?”
 “इबारत संगमरमर की छोटी सी पट्टी पर लिखी जा सकती है. ख़ूबसूरत लगेगी.”
 “उसे चिपकाएँगे कैसे?”
 “स्क्रू लगाकर फिट कर देंगे. भरोसेमन्द रहेगी. और फोटो भी.”
 “अच्छा...मैं आप पर यक़ीन कर लेती हूँ.” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना का गला फिर से आँसुओं के कारण रुंध गया.
फ़ेन्सिंग के बारे में भी बात पक्की कर ली. सही-सही माप तो उसे मालूम नहीं थी, कारीगरों से विचार-विनिमय करने के बाद वे समझ गए कि फेन्सिंग कितनी होनी चाहिए. पति और बेटों के नाम वाला कागज़ उन्हें दे दिया, अपना पता भी दिया.
 “ठीक है, अगले सोमवार को ले आएँगे. तीन हज़ार एडवान्स, प्लीज़.”
पैसे देकर रसीद ली, बगल वाले फोटो-स्टूडियो में गई.
 “म्-म्” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना की बात सुनकर काऊंटर पे खड़े आदमी ने अफ़सोस से सिर हिलाया.   “एक्सिडेंट में?”
 “क्या?”      
 “क्या एक्सिडेंट में मर गए?”
 “नहीं... दूसरी वजह...”
 “क्या पोर्ट्रेट्स पर फ्रेम बना दूँ?”
 “कैसे ज़्यादा अच्छा रहेगा?”
 उस आदमी ने गहरी साँस ली:
 “फ्रेम वाली तस्वीरें बेहतर ही होती हैं, मगर, आप समझ रही हैं, कि उन्हें लोग निकाल लेते हैं. फ्रेम्स एल्युमिनियम की होती है, कई ग्राम्स एल्युमिनियम होता है, और...लोगों के लिए कोई भी चीज़ पवित्र नहीं रह गई है.”
 “तो फिर, बिना फ्रेम की. और एक बात,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पीड़ा से खांसते हुए कहा, “मैं गाँव से आई हूँ, बार-बार आना-जाना मेरे बस की बात नहीं है...क्या आप काम पूरा होने पर तैयार फोटो इस वर्कशॉप में दे देंगे. यहाँ...”
 “हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ.”
 “बस, सोमवार से पहले दे दीजिए. ये लोग सोमवार को स्मारक वहाँ लाएंगे, फ़ेन्सिंग भी...”
 “अच्छा.”
“और, आपसे विनती है कि मुझे धोखा न दीजिए, प्लीज़...”
पैसे दिए, रसीद ले ली. स्मारकों वाले वर्कशॉप में वापस आई, उन्हें सूचित किया कि उनके पास तीन पोर्ट्रेट्स लाने वाले हैं.
 “इधर-उधर मत कर देना, ख़ुदा के लिए. और...मैंने वहाँ लिस्ट रखी है. एल्तिशेव – निकोलाय मिखाइलोविच, आर्तेमी निकोलायेविच, डेनिस निकोलायेविच...गड़बड़ न कर देना, प्लीज़!”
वे लोग उस पर थोड़े गुस्सा भी होने लगे, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना बस-स्टैण्ड की तरफ चल पड़ी. मगर, घड़ी पर नज़र डाली तो उसे समझ में आया कि बस छूटने में अभी तीन घण्टे हैं.

खड़े-खड़े कुछ देर सोचती रही, कि ये तीन घण्टे कैसे बिताए. मन हुआ कि शहर का चक्कर लगाए, उन जगहों को देखे जहाँ रहती थी, काम करती थी – “हो सकता है , ये मेरा आख़िरी चक्कर हो”, लाइब्रेरी में जाना चाहती थी. मगर फ़ैसला न कर पाई – इस ख़याल से कि वह अपनी प्रिय और हमेशा के लिए खो गई जगहों को देखेगी, दिल में चुभन होने लगी, गले में कोई कड़वी चीज़ फंस गई. और तब क्या होगा, जब वाक़ई में ये सब देखेगी, परिचितों से बातें करेगी, जिनकी ज़िन्दगी में सब कुछ अच्छा है...बाज़ार में थोड़ा सा सॉसेज खरीदा, मीट, चीज़ और – अपने आप को रोक नहीं पाई – एक छोटा सा सुनहरा खरबूज़ भी खरीद लिया. धीरे-धीरे बस स्टॉप तक आई, बेंच पर बैठ गई. आसपास के लोगों को न देखने की कोशिश करते हुए, ये भूल जाने की कोशिश करते हुए कि वह उस जगह पर है, जहाँ इतने साल बिताए, जहाँ उसके बेटे पैदा हुए, बस का इंतज़ार करती रही.

फ़ौरन ड्राईवर की कैबिन के पास बैठ गई – वहाँ कम दचके लगते थे – और फिर से अपने आप में खो गई, कौन आ रहा है, कौन उसकी बगल में बैठ रहा है – कुछ भी नहीं देखा. सिर्फ जब कण्डक्टर ने पैसे मांगे, तो उसने खिड़की पर पड़े धब्बे से नज़र हटाई, उसकी ओर चालीस रूबल्स बढ़ा दिए. वलेन्तीना ने मुफ़्त वाले टिकट के लिए फॉर्म नहीं भरा था, जो उस जैसे पेन्शनर को दिया जाता है: अलग अलग दफ़्तरों में जाने की, पेपर्स इकट्ठा करने की, उन्हें दिखाने की, लम्बी-लम्बी लाईनों में खड़े होने की ताक़त ही नहीं थी...

दिन बड़ा सुहावना था. साफ़, गर्म, कुछ प्यारा सा. चारों ओर की प्रकृति, जर्जर इमारतें भी, बढ़िया चमक रही थीं, जैसे वाटर-कलर्स की पेंटिंग में हों. आत्मा को कोई विशेष दुख कचोटने लगा – बेहद चुभने वाला दुख. इससे तो बेहतर होता कि बारिश आ जाती, हवा चलती, कीचड़...

बस-स्टॉप से घर की ओर जाने वाले रास्ते पर बच्चों की किलकारियाँ सुनीं. फ़ौरन समझ नहीं पाई कि ये आवाज़ें किंडर-गार्डन से आ रही हैं – शायद, बच्चों को घुमाने के लिए लाए हैं.

भारी पर्स लिए हुए वह उस पेडों वाले रास्ते की तरफ़ मुड़ गई. किंडर-गार्डन की तरफ़ चल दी. वह वहीं था, पास ही में, क़रीब दो सौ मीटर्स दूर...चल रही थी और महसूस कर रही थी कि आँखों से धीरे धीरे आँसू बह रहे हैं, झुर्रियों के जंगल से होते हुए ठोड़ी की तरफ़ जा रहे हैं, नीचे गिर रहे हैं...किलकारियाँ और चीख़ें, पास में ही खिलखिलाहट भी सुनाई दे रही थी. कम ऊँची – सीने तक की – लकड़ी की पट्टियों से बनी बागड़. उसके पीछे लोहे का रॉकेट, मशरूम्स, स्लाईड, छोटा सा पहाड़. भागते हुए बच्चे. दो जवान केयर-टेकर्स स्टूलों पर बैठी हैं, आपस में बातें कर रही हैं.

वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने बच्चों की तरफ़ देखा, ख़ास तौर से किसी एक पर ध्यान दिए बिना वह सबको देख रही थी, ख़ुश हो रही थी. ख़ुश हो रही थी, और दुखी भी हो रही थी. और तभी जैसे एक झटका लगा – उसकी आँखें एक पाँच साल के बच्चे पर टिक गईं, जो ख़तरनाक तौर से डेनिस से मिलता जुलता था. वो, बिल्कुल वैसे ही, जैसे डेनिस बचपन में करता था, दो बच्चों को हाथ पकड़कर ले जा रहा था, उसी तरह से हाथ झटक रहा था, वैसे ही अप्रसन्नता से भौंहे चढ़ा रहा था.
उसे फ़ौरन समझ में नहीं आया, कि ये उसका पोता है.
 “रोद्या,” उसने हौले से पुकारा, इस बात की उम्मीद किए बिना कि वह सुन लेगा, मगर बुलाए बिना रह न सकी. “रोदिच्का.”
बच्चा मुड़ा, उसने वलेन्तीना विक्तोरोव्ना को देखा. उसकी आँखों में कोई चीज़ तैर गई, और ये ‘कोई चीज़’ कह रही थी कि वह बच्चे को अपने पास बुलाए.
 “रोदिच्का, इधर आ, मेरे अपने.”
वह उसके पास आया; दूसरे बच्चे ख़ुश हो गए कि अब कोई उन्हें हाथ पकड़ कर नहीं ले जा रहा है. वे रॉकेट के भीतर घुस गए.
 “रोदिच्का, मैं...” गहरी साँस लेते हुए वलेन्तीना विक्तोरोव्ना कहने लगी, “मैं तेरी दादी हूँ. क्या तुझे मेरी याद है?”
 “याद नहीं है.”
 “और पापा की...तेरे पापा का नाम आर्तेम था... याद है?”
बच्चे ने फिर से नाक-भौंह चढ़ा लिए.
 “मेरे पापा का नाम - साशा है. मम्मा का नाम – वइन्तीना.”
 “तेरे पापा का नाम आर्तेम था. आर्तेम निकोलायेविच एल्तिशेव.” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना हौले से, मगर साफ़-साफ़, पूरे विश्वास के साथ कह रही थी. “याद रख. आर्तेम एल्तिशेव. और तेरा नाम है – रोदिओन आर्तेमेविच एल्तिशेव.”
 “मैं एय... नहीं हूँ. मैं – पेतूनिन हूँ.”
 “तेरा उपनाम है – एल्तिशेव!” ये महसूस करते हुए कि उसका सिर घूम रहा है, वलेन्तीना विक्तोरोव्ना चीख़ पड़ी. – “एल-ति-शेव.”
 “मैं - ओदिओन  पेतूनिन हूँ,” बच्चे ने दृढ़ता से जवाब दिया. “मेला घल है – ज़ाएत्स्नाया स्त्लीत, मकान नं. सात...”
 “तू एल्तिशेव है. ज़िन्दगी भर के लिए याद रख ले!” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने उसकी बात काटते हे कहा. “एल्तिशेव! तू मेरा आख़िरी चिराग़ है!” उसने बच्चे के कंधे पकड़ लिए, उसे झकझोरा. “याद रख!...मैं अदालत में ले जाऊँगी...ऐह, तू भी!...”
केयर टेकर्स दौड़ती हुई आईं. एक ने बच्चे को खींचा, दूसरी वलेन्तीना विक्तोरोव्ना पर पिल पड़ी. दूसरी उसे कम्पाऊण्ड से बाहर धकेलते हुए ज़ोर से चिल्लाई... वलेन्तीना विक्तोरोव्ना ने पर्स गिरा दिया, उसने केयर टॆकर के बाल पकड़ लिए.
 “वो एल्तिशेव है! समझ में आया?! एल्तिशेव...वो मेरा है!”
 “नीना!” उसकी पकड़ से छूट कर केयर-टेकर चिल्लाई. “नीन, भाग, पुलिस ऑफ़िसर को बुला! बच्चों, फ़ौरन इकट्ठे हो जाओ!”
वलेन्तीना विक्तोरोव्ना धीरे धीरे बागड़ से फिसलती हुई ज़मीन पर गिर पड़ी. ज़ोर से, हिचकियाँ ले लेकर बिसूरने लगी...थोड़ी देर बाद, कुछ होश में आकर उसने उठने की कोशिश की, मगर उठ न सकी. पैर सुन्न हो गए थे, हाथ बागड़ से छूट गए.
किंडर गार्डन का ग्राऊण्ड, गली खाली थी. उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था.


                                     ******

Eltyshevi - 25

अध्याय – 25



पूरा अगस्त मशीनों का शोर-शरावा चलता रहा, सिमेंट-कॉंक्रीट मिक्सर की घड़घड़ाहट, क्रेन की चरमराहट, क्लब के निर्माण स्थल पर मज़दूरों की चिल्लाहट. क्लब ही बनाया गया, चर्च नहीं बना.
ऐसा लग रहा था जैसे काम बहुत जल्दी में हो रहा हो, मगर बारिश आने तक सिर्फ दीवारें ही बन पाईं, और इसके बाद मशीनों समेत सब ग़ायब हो गए. आधे बने क्लब में छोकरे युद्ध का खेल खेलने लगे, और बड़े – चुपके से जंगल से बचे हुए लकड़ी के फट्टे घसीट-घसीट कर ले जाने लगे.

“भागो-भागो,” कभी-कभी निकोलाय मिखाइलोविच अपने गेट से फट्टे ले जाते हुए लोगों के पीछे चिल्लाता, “चोर!”

...अलसाते हुए, बामुश्किल एल्तिशेवों ने अपनी फसल इकट्ठा की. आलू खोदकर निकाला, मूली, शलजम, गाजर खींच-खींच कर तोड़े. मौसम ने साथ दिया – सूखा और साफ़ रहा. अच्छी तरह आँगन में सब कुछ सुखाया, नीचे तहख़ाने में रख दिया.

वलेन्तीना ने कई डिब्बे भर के खीरे का और टमाटर का अचार बनाया, लहसुन की चोटी बनाई. गोभी का अचार बनाया. निकोलाय मिखाइलोविच काफ़ी समय गार्डन में बिताता. मगर ज़्यादातर बालटी पर बैठकर सिगरेट पीता रहता.

हवा इन दिनों ख़ास तौर से पारदर्शी और स्थिर थी, जैसा कि प्रकृति के नियमानुसार आरंभिक पतझड़ में होती है. धरती इत्मीनान से, ख़ामोशी से अपने आप को ठण्ड के लिए, सर्दियों के लिए तैयार कर रही थी. बर्च के पेड़ों से पीले पत्ते टूट-टूटकर हौले-हौले उड़ रहे थे, हल्की सी सरसराहट के साथ सूखी घास पे पहले गिर चुके अपने भाई-बंधुओं के ऊपर गिर रहे थे. घास-पात अपने बीज गिरा रहे थे, जिनमें से कुछ अप्रैल में और कुछ पूरी गर्मियों में फूलेंगे, जिससे कि इन सभी अनावश्यक, नुक्सानदायक पौधों का, जिन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता, अस्तित्व जारी रख सकें.
हल्की हवा सूरजमुखी के सूखे, कागज़ जैसे पत्तों को सहलाती, और तब एक उनींदी, कुछ डरावनी-सी खरखराहट पैदा होती...शाम को कौए उड़ना शुरू करेंगे, आत्मा को चीरते हुए, दुखभरी आवाज़ में चिल्लाएँगे.

निकोलाय मिखाइलोविच उठा, फ़ावड़ा लिया और गाजर वाली क्यारी खोदने लगा. वलेन्तीना परसों ही उसे टटोल चुकी थी, जितना संभव था उतने तने उखाड़ चुकी थी, मगर ज़मीन के नीचे अभी भी बहुत कुछ बचे थे. निकोलाय मिखाइलोविच ने फ़ावड़े की नोक ज़मीन के अन्दर घुसाई तो उसे काटे जा रहे गाजरों की चरमराहट, सुनाई तो नहीं दी, मगर महसूस हुई. शैतान ले जाए, जैसे किसी की ऊँगलियाँ रेत रहे हो. और याद आया, कैसे चरमराईं थीं खारिन की रीढ़ की हड्डियाँ...निकोलाय मिखाइलोविच ने फ़ावड़ा फेंक दिया, फिर से उल्टी रखी हुई बाल्टी पर बैठ गया.

शाम को काफ़ी ताज़गी महसूस होती थी, हवा नमी से, मिट्टी की गीली, सोंधी ख़ुशबू से सराबोर हो रही थी. तालाब से नमी और गीलेपन की लहरें आ रही थीं, साथ ही सुअर वाले खाद की तीखी बू भी लहरों की ही तरह आ रही थी. जैसे सुअरों के किसी बाड़े में बार-बार पंखा बन्द और चालू कर रहे हों. कभी-कभी तो बदबू इतनी तेज़ होती थी कि नथुनों में सुरसुराहट होने लगती, छींकने को जी चाहता.

सितम्बर के आरंभिक दिनों में, जैसे, कैलेण्डर के मुताबिक, पतझड़ के मौसम के आगमन की पुष्टि करते हुए, कई दिनों के लिए रूह को बेचैन करने वाली बारिश की झड़ी लग गई.

टी.वी. का प्रसारण बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होता था – चैनल नं. 1 पर भी एकदम कचरा दिखाई दे रहा था, लोगों के चेहरे समझ में नहीं आते थे. साऊण्ड जैसे तैर रही थी, कभी बिल्कुल मन्दी तो कभी एकदम ऊँची हो जाती थी.
 “चलो, एन्टेना खरीदेंगे,” आखिरकार बीबी से बर्दाश्त नहीं हुआ, “दुकान में चार हज़ार में मिल रहा है.”
 “क्या फ़ायदा है...” निकोलाय मिखाइलोविच ने हाथ झटक दिया; उसे टी.वी. में दिलचस्पी कम थी, और अगर वह कभी स्क्रीन पर देख भी रहा होता तो वहाँ क्या चल रहा है इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देता था: दिमाग़ में विचार घूमते रहते, धुंधले, आकारहीन, मगर पीछा न छोड़ने वाले.
वलेन्तीना ने ज़िद पकड़ ली, वह मांग करने लगी, मगर मांग वह एन्टेना की इतनी शिद्दत से नहीं कर रही थी, जितना इस बात की कि आत्म विश्वास न खोया जाए:
 “मुँह लटका कर बैठने की कोई ज़रूरत नहीं है! इस तरह भावुक होना...तुम ही ऐसे हाथ-पैर छोड़ दोगे तो फिर मैं क्या करूँगी?! मैं तो अब ज़िन्दगी भर के लिए डिसएबल्ड हो गई हूँ. क्या तुम समझ सकते हो कि डाइबिटीज़ का मतलब क्या होता है?! हर पल उसके बारे में सोचना पड़ता है. मगर जीना तो पड़ेगा ही, जीना! चलो, ये एन्टेना लाने चलते हैं, वर्ना तो बिल्कुल...जैसे कब्र में पड़े हों...”

और एल्तिशेव दुकान की ओर चल पड़ा.

एन्टेना बहुत बड़ा था, रडार की याद दिला रहा था, मगर हल्का था. उसकी ख़ास बातें थीं – सेट-टॉप बॉक्स, रिमोट-कन्ट्रोल, और केबल. एन्टेना के साथ मैकेनिक का नम्बर भी दिया गया.
जब तक मैकेनिक को फोन किया (उसका सर्विस-चार्ज था चार सौ रूबल्स), जब तक उसका इंतज़ार किया, जब तक एन्टेना-रडार को फिक्स किया गया, कॉटेज की दीवार में केबल जाने के लिए छेद किया और प्रोग्राम्स एडजस्ट किए, पता ही नहीं चला कि कितने दिन बिना तनाव के बीत गए.

उसके बाद, फिर से बीबी की ज़िद पर निकोलाय मिखाइलोविच पहले बाथ-हाऊस की (“डेनिस आएगा – यहाँ पर वो नहाएगा कैसे? ये तो खण्डहर है, न कि बाथ-हाऊस”), और फिर कार की मरम्मत में जुट गया. नई बैटरी ख़रीदनी पड़ी, दो दिन कार के नीचे घुसकर काम करना पड़ा. मगर – कोई फ़ायदा नहीं हुआ. एल्तिशेव ने काम आधा ही छोड़ दिया:
 “मैं कोई मैकेनिक नहीं हूँ.”
 “फिर लकड़ियों का क्या?” रोनी आवाज़ में बीबी ने पूछा. “सर्दियों के आने में बस एक महीना ही बचा है!”
 “भूसे की मशीन खरीदेंगे. बड़ी सस्ती मिलती है.”
 “उससे कहाँ की गर्मी मिलेगी? कोयले तो बिल्कुल नहीं हैं...”
 “बस! बस, बहुत हो गया! कोई जम नहीं जाएँगे. डेनिस आएगा, तब तय करेंगे.”

सत्रह तारीख का इंतज़ार करते रहे. सत्रह की पूर्व संध्या पर वलेन्तीना विक्तोरोव्ना शहर गई, ख़ाने-पीने का काफ़ी सामान ख़रीदा, मार्केट में कम नमक वाली ग्रेलिंग मछली ख़रीदी, कोन्याक की बोतल भी ली. साथ ही डिसएबिलिटी के आधार पर पेन्शन के केस पर भी काम करती रही (यह पूरी प्रक्रिया महीने भर से भी ज़्यादा चली).            
उत्सव की मेज़ बिना सजाए, क्षीण-सी आशा लिए सत्रह और अठारह तारीख बिताई; फिर, बार-बार आहट सुनते हुए, खिड़की से बाहर, फेन्सिंग के पार देखते हुए और दो दिन गुज़ारे. इक्कीस तारीख को वलेन्तीना विक्तोरोव्ना फोन करने के लिए पोस्ट-ऑफ़िस जाने ही वाली थी, मगर पति ने उसे कुछ और इंतज़ार करने के लिए मनाया:
 “अभी इसमें-उसमें लगा होगा, शायद, शहर में दोस्तों के साथ...घूमने दो थोड़ा.”
मगर वह ख़ुद जैसे काँटों पर बैठा था: कई बार भाग कर गेट की तरफ़ भी गया – ऐसा लगा कि कोई खटखटा रहा है, मगर वहाँ कोई नहीं था. स्प्रिट के ग्राहकों ने उसे पहले कभी इतना गुस्सा नही दिलाया था – पहले तो वह हरेक को वापस आया हुआ बेटा समझ रहा था.

बाईस तारीख को, सुबह वाली बस के बाद, बीबी पोस्ट-ऑफ़िस चली ही गई. वापस लौटी तो परेशान थी.
 “क्या हुआ?” एल्तिशेव डर गया. “क्या छूटा नहीं?”
 “हाँ, छूट गया. बोले कि चला गया...”
 “मगर कहाँ?”
 “कहाँ क्या – घर, ऐसा उनसे कहा. मैंने कहा कि नहीं आया, मगर वो मज़ाक करने लगा: बोला, बड़ा है  आपका बेटा, अब हम तो उसकी देखभाल नहीं कर सकते.”
“शैतान ले जाए, उससे मिलने जाना चाहिए था. क्या नहीं होता...पाँच साल वहाँ रहा, उसकी मानसिक हालत इस समय...”
 “ख़ुदा के लिए, तुम डराओ मत! तो...”
  “बस, बस, बस,” निकोलाय मिखाइलोविच ने बीबी को अपनी बाँहों में ले लिया. “इंतज़ार करेंगे. सब कुछ ठीक हो जाएगा.”

... डेनिस पच्चीस तारीख़ की दोपहर को आया. सफ़ेद विदेशी ब्राण्ड की कार में आया. बाहर निकला, बदन को सीधा किया, चारों ओर देखा, अंगड़ाई ली.
 “तो,” ज़ोर से ड्राईवर से बोला, “पाँच का नोट रख ले,” और गेट से भाग कर आए माँ-बाप से मिलने के लिए आगे बढ़ा.
उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया, माँ की आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे, जो किसी भी सवाल का जवाब नहीं चाहते थे...
निकोलाय मिखाइलोविच ने चार साल से बेटे को नहीं देखा था – बस, एक बार उससे मिलने गया था, फिर नहीं जा सका: डेनिस को क़ैदियों के काले यूनिफॉर्म में देखना, उस बिल्डिंग के डरावने निर्माण को,  वहाँ के अनुशासन को देखना, अपने आप को - मिलिशिया के कैप्टेन को - भी क़ैदी समझना, बर्दाश्त के बाहर था. अगली मुलाक़ात पर बीबी को अकेले भेज दिया; आर्तेम तो कभी भी भाई से मिलने नहीं गया, उसने इच्छा ही नहीं दिखाई.
हाँ, इन सालों में बेटा बहुत बदल गया था, एक छोकरे से बदल कर मज़बूत, अपना महत्व समझने वाले मर्द में परिवर्तित हो गया था. शांत हो गया था, मगर उसमें गहरा आत्मविश्वास नज़र आ रहा था.

“कोई बात नहीं, माँ,” रोती हुई वलेन्तीना को सहलाते हुए बोला, “कोई बात नहीं, हम फिर से उठ खड़े  होंगे. ख़ास बात ये है कि हम ज़िन्दा हैं.” मगर, ज़ाहिर है, आर्तेम को याद करके खाँसने लगा: “ ख्म्... भाई को यहीं दफ़नाया है?”
 “हाँ,” निकोलाय मिखाइलोविच ने सिर हिलाया, “और कहाँ दफ़नाते.”
 “नहीं, शहर में, हो सकता है...कोई बात नहीं, हम यहाँ से बाहर निकलेंगे. यहाँ बस ख़ाली कॉटेज रहेगी. क्वार्टर खरीदेंगे. मैंने पता किया है, दो कमरों वाले क्वार्टर की कीमत आठ लाख है.”
 “रूबल्स?”
 “हाँ.”
निकोलाय मिखाइलोविच ने दिमाग़ पर ज़ोर दिया – वैसे इतना ज़्यादा भी नहीं है. सिर्फ आठ सौ चटख़ नीले हज़ार-हज़ार के नोट. मगर, वो आएँगे कहाँ से? और वह ज़ोर से बोला:
 “मगर इतने पैसे आएँगे कहाँ से? यहाँ तो पैसे पैसे को तरसना पड़ता है...”
 “मिल जाएँगे, कमाएँगे.”
मेज़ पे बैठे. वलेन्तीना, आँसू पोंछते हुए, बेटे के सामने कभी एक तो कभी दूसरी प्लेट सरकाती जा रही थी:
 “खा. मैंने सत्रह तारीख़ के लिए ही सब कुछ ख़रीदा था, तेरी राह देखते रहे, देखते रहे...आख़िर इंतज़ार पूरा हुआ.”
 “ग्रेलिंग ले,” निकोलाय मिखाइलोविच ने भी मछली की प्लेट बढ़ाई, “गंध आने लगी है, है ना, मगर स्वादिष्ट है. बहुत सारे लोगों को गंधाती मछली ही पसन्द है.”
 “ग्रेलिंग, ये हुई न बात.” डेनिस खा रहा था, मगर लालचीपन से नहीं, बल्कि स्वाद ले-लेकर खा रहा था. “यहाँ नदी है? कौन सी मछली मिलती है?”
 “यहाँ कहाँ से होने लगी मछली...तालाब में छोटी-छोटी मछलियाँ हैं. मैं मछली नहीं पकड़ता...”
 “और, वो, आर्तेम्का का बेटा है ना?”
 “है ना.”
 “कैसा है? बीबी...उसकी विधवा, कैसी है?”
वलेन्तीना ने दुख से निःश्वास छोड़ा:
 “बेटा, हमारी उनसे कोई बातचीत नहीं है. मैंने तुझे बताया नहीं, लिखा भी नहीं, मगर उसके कारण, उसीके कारण ये सब हुआ. आर्तेम को जाल में फंसाया, शादी की...”
 “और, कहते हैं, कि वह ख़ुद ही बदचलन है,” निकोलाय मिखाइलोविच ने पुश्ती जोड़ी, जिससे जल्दी से इस विषय को समाप्त करे, मगर बीबी रोनी आवाज़ में अपनी कथा बाँचे जा रही थी:
 “और उसके माँ-बाप...आर्तेम को अपने घर में रख लिया, जैसे उनका नौकर बन गया था वो. हमारे पास कभी-कभार आता था, घर बनाने का काम, जैसे शुरू हुआ था, वैसे ही...तूने ख़ुद ही देखा. उसे पैसों के लिए यहाँ भेजते थे और कहते थे कि फ़ौरन वापस आए. ख़ैर उन्हें भी इसका फल मिल गया. सुना है, कि मर्द बिल्कुल पागल हो गया है. बिल्कुल ‘पल्प’ की तरह हो गया है. इसमें अचरज की कोई बात भी नहीं है – बीबी हमेशा उसके सिर पे मारा करती थी. एक बार मारा ज़ोर से और बना दिया ‘पल्प’ - अब चम्मच से खिलाना पड़ता है.”
 “मगर पोते को...” डेनिस ने ज़ोर देकर कहा, “किसी तरह...जिससे अपने घर के लड़के के रूप में बड़ा हो.”
 “क्या उनकी ख़ुशामद करने जाएँ?” निकोलाय मिखाइलोविच गंभीर हो गया. “मुझे तो यहाँ किसी से भी किसी तरह का संबंध रखने की इच्छा नहीं है. सब नीच हैं, लालची हैं... सिर्फ, चोर.” बची हुई कोन्याक जामों में डाल दी. “यहाँ माँ बीमार हो गई, सीधे गिर ही पड़ी – बेहोश हो गई, उसे अस्पताल ले गया. वापस लौटा तो देखता हूँ कि घर का ताला टूटा पड़ा है, कुछेक चीज़ें चुरा कर ले गए...कुछ दिनों बाद – फिर से वही. इसके बाद तो अक्सर चोरियाँ करते रहे, जब हम सो रहे थे, ‘मस्क्विच’ का सामान पार कर दिया.
 “ठीक है, पापा,” डेनिस ने विश्वासपूर्वक साँस छोड़ी, “प्रॉब्लेम्स भगा देंगे. सब ठीक कर लेंगे. तो, मतलब की बात ये है, कि अब, इन सब ‘हैमोराईड्स’ के बाद, और इन सब, बेशक, दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद, हमारे जाने का वक़्त आ गया है.”
 “हाँ, बिल्कुल आ गया है...”
जाम खाली कर दिए. निकोलाय मिखाइलोविच ने फ्रिज से स्प्रिट की बोतल निकाली.
 “चलो, अब कुछ देर का ‘पॉज़’ लेते हैं.” बेटा उठ गया, किचन में घूमने लगा; लकड़ी का फ़र्श चरमराने लगा, मगर अब, जैसे, कुछ आदरपूर्वक, आराम से चरमरा रहा था, जैसे कि वह असली मालिक के पैरों के नीचे हो.
बगल वाले कमरे में देखने पर उसे दीवार से टंगी गिटार दिखाई दी.
 “ओ, हमारी पुरानी गिटार,” उसे उतारा, मेज़ के पास वापस आया, तार छुए. “सही-सलामत है और कमोबेश सुर में है.”
 “गिटार तो सही-सलामत है,” वलेन्तीना विक्तोरोव्ना हिचकियाँ लेने लगी.
डेनिस ने एक दुखभरी, धीमी धुन बजाई. फिर गाने लगा:

घर आते ही, चिपकते मुझसे, जैसे मधुमक्खियाँ:
”बोलो, मम्मा, कब आएगा सेर्गेई?...”
चमकते एक आँख़ में आँसू.
वापस आ, बेटा, तू जल्दी.
 “ठीक है, पापा, डालो!”
...आया सितम्बर, लिखता है बेटा माँ को:
 “राह न देखना, प्यारी माँ, मेरा इंतज़ार न करना
कैम्प की अदालत ने है सुनाई नई सज़ा मुझको,
ख़तम कर दिया क्योंकि हमने रक्षक दल को ”...


फिर उसने गिटार को पलंग पर रख दिया, बिना टकराए जाम पी गया, फिर से उठा. मेज़ से भट्टी की ओर आया, बदन को सीधा किया. निकोलाय मिखाइलोविच बीबी के साथ ख़ामोशी से उसकी ओर देख रहा था, मन ही मन ख़ुश हो रहा था.
 “चलो, थोड़ा घूम कर आता हूँ.”
वलेन्तीना फ़ौरन सतर्क हो गई:
 “अंधेरा हो गया है...”
 “ठीक है, माँ, तू भी क्या!” और फिर से गाने लगा: “जाऊँगा रा-स्ते पे, देखूँगा गाँ-व को!...” जैकेट पहना, हाथ से सैल्यूट किया, दरवाज़े की नीची चौखट पे सिर नीचा किया, ड्योढ़ी में गया.
उसकी हाथ से ये सैल्यूट करने की अदा काफ़ी दिनों तक एल्तिशेव की आँखों के सामने ही रही. बाकी सब निश्चल हो गया...

मगर उस समय वह बीबी के साथ ख़ामोश मेज़ पे बैठा था. छत से लटकता बल्ब मद्धिम रोशनी फेंक रहा था, कभी-कभी बेसिन में नल से एकाध बूंद के गिरने की आवाज़ आ जाती थी. कुछ भी कहने का मन नहीं था, हाँ, और ज़रूरत भी नहीं थी. ताक़तवर, यातनाओं से तपा हुआ, ज़िन्दगी द्वारा सिखाया हुआ, दु:खों की दिशा को बदलने को तैयार और क़ाबिल बेटा वापस आ गया था. वो यहाँ है. अब सब ठीक हो जाएगा. बेशक, धीरे-धीरे, मुश्किल तो है, मगर इस गड्ढ़े से बाहर निकलना शुरू कर देंगे. इन्सानों की ज़िन्दगी में वापस लौट जाएँगे.

निकोलाय मिखाइलोविच ने थोड़ी और पी, मछली का नाज़ुक टुकड़ा स्वाद से खाया, भट्टी के पास गया. सिगरेट पी, पहले कश का धुआँ मुँह से दूर तक छोड़ा.
 “क्या, मेज़ साफ़ कर दूँ?” बीबी ने पूछा.
 “थोड़ी देर रुक जा. हो सकता है, कुछ देर और बैठें. हमें कहाँ की जल्दी है...तेरे इन्जेक्शन का टाईम तो नहीं हो गया?”
वलेन्तीना ने घड़ी की ओर देखा.
 “ओह, हाँ!” कमरे में भागी. “थैंक्यू, डियर, जो याद दिलाया.”
 “डियर”...इस तरह वह बहुत पहले  निकोलाय मिखाइलोविच को बुलाया करती थी, सन् 80 के दशक में. तब छुट्टियों में वे चारों – मियाँ, बीबी और बच्चे – शहर में घूमने के लिए निकल जाते थे, आर्तेम और डेनिस को पार्क-कुल्तूरी में झूला झुलाते थे, फिर नदी के किनारे वाले ओपन-रेस्तराँ में खाना खाते थे. कबाब खाते...किसी तरह कबाब का इंतज़ाम करना चाहिए.

मुश्किल से आधी पी हुई सिगरेट भट्टी के किनारे पर मसल कर बुझा दी. टुकड़े को एश-ट्रे में डालना चाहता था, मगर फिर लोहे की जाली के भीतर फेंक दी. “सिगरेट कम करनी होगी. ‘बार्स’ पर कसरत करनी होगी, बाएँ हाथ का पुट्ठा दबाया. “हाँ, पिलपिला हो रहा है.”

“ऐ, घर वालों!” आँगन में आवाज़ सुनाई दी. “कोई है?”
 “कौन है?” इस समय स्प्रिट खरीदने वाले ना हों! और वैसे भी यह धंधा समेटने का वक़्त आ गया है. पैसे की तो कोई बात नहीं है, मगर प्रतिष्ठा...
एल्तिशेव बाहर निकला. अंधेरे में गेट के पास वाली आकृति को ठीक से देख नहीं पाया.
 “क्या चाहिए?” उसने अप्रसन्नता से पूछा.
 “क्या ये आपका छोकरा पड़ा है वहाँ पर?”
”कौन सा छोकरा? कहाँ?” और आगे कहना चाहता था: “क्या बकवास कर रहे हो?!” मगर ख़ुद सड़क पर निकल आया.

निर्माणाधीन क्लब से थोड़ी दूर जेबी टॉर्च की रोशनी घूम रही थी. बिना महसूस किए कि भाग रहा है, निकोलाय मिखाइलोविच उस ओर मुड़ा. जिस्म में जैसे आग लगी थी, और दिमाग़ में आश्चर्य कौंध गया: “इतना गर्म क्यों है?”  
कोई लड़खड़ाकर एल्तिशेव से दूर हटा, किसी ने कुछ कहा...निकोलाय मिखाइलोविच घास पर पड़े आदमी के पास रुका. खड़ा रहा और देखता रहा और कुछ भी नहीं देख पाया. टॉर्च की रोशनी चेहरे पर जम गई थी. डेनिस. निश्चल परेशानी...रोशनी और नीचे सरकी. सीने में पतली, पेन्सिल जैसी, स्टील की पिन घुसी थी. निकोलाय मिखाइलोविच ने उसे पहली नज़र में नहीं देखा.

...वह भागने लगा, बिसूरने लगा, उसे पकड़ा गया, हाथ मरोड़े गए, मारा गया. उसने भी मारा, बिना देखे कि किसे, कहाँ मार रहा है. फिर उसे घसीटा गया... आँख खुलने पर एक छोटे से कमरे के खूनी अंधेरे से बाहर आया. कमरा मिलिशिया वालों से भरा था, और सामने, सिविल ड्रेस में, पहचान वाला जाँचकर्ता था. जिसने कभी उससे पूछताछ की थी.
 “मुझे मालूम है कि ये किसने किया है.” भर्राई हुई आवाज़ में, पीड़ा से एक-एक शब्द तौलते हुए (कनपटियों पर जैसे हथौड़े पड़ रहे थे), एल्तिशेव ने कहा. “जानता हूँ...”
 “किसने?”
 “जाओ...” वह उठना चाह रहा था, मगर दो मिलिशिया वालों ने कंधे दबाकर उसे कुर्सी में सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया. “हाँ, मैं उन्हें जानता हूँ!”
 “क्या ‘प्रूफ’ है?” शांति से जाँचकर्ता ने नया सवाल पूछा.
 “कैसे ‘प्रूफ’?! हैं प...हैं ‘प्रूफ’.”
 “हम, बेशक, ऊँगलियों के निशान लेंगे, उसे ढूँढ़ लेंगे. मगर सिर्फ...सिगरेट पिएंगे?” एल्तिशेव ने इनकार करते हुए सिर हिला दिया, और खोजकर्ता सिगरेट के कश लगाने लगा. “मगर, आप समझ रहे हैं कि हम तहख़ाने से निकाली गई उस बुढ़िया को भी याद कर सकते हैं. शायद, आपकी आण्टी थी, हाँ? और खारिन को, और आपके बेटे को भी. सभी आश्चर्यजनक मौतें थीं, मगर सभी को दुर्घटना कह दिया गया...अगर खोदने जाओ, तो कितना कुछ बाहर आएगा. क्या आप ऐसा चाहते हैं?”
 “मैं!...” एल्तिशेव गरजते हुए उछला. “मैं तुझे, क-मी-ने!...”
और तभी कई हाथों ने उसे दीवार की ओर धकेल कर नीचे गिरा दिया. कुर्सी पे.
 “क्या तेरे पास कोई भरोसेमन्द तहख़ाना है?” खोजकर्ता की आवाज़ आई. “इसे वहाँ...थोड़ा ठण्डा होने दो...है या नहीं?”
 “दुकान के पीछे तहख़ाना है,” पुलिस ऑफ़िसर की मरियल आवाज़ आई.
“बस, वहीं पे!”
 “अभ्भी भागकर चाभियाँ लाता हूँ.”